प्रश्नकर्ता: आचार्य जी प्रणाम। मैं एक लॉ स्टूडेंट हूँ और हम लोग अपनी यूनिवर्सिटी में चर्चा कर रहे थे कि यू.एस. का ये जो जजमेंट आया है हाल ही में, डॉब्स वर्सेज़ जैक्सन के ऊपर था, उसमें महिला गर्भपात को लेकर जजमेंट दिया गया है जिसने रो वर्सेज़ वेड में जो जजमेंट है उसको रद्द किया। उस जजमेंट में ये था कि एक महिला चौबीस हफ़्ते के भीतर अगर चाहे तो गर्भपात करा सकती है, पर अभी उसको रद्द कर दिया गया है। तो संवैधानिक रूप से महिला से ये गर्भपात के अधिकार अब छीन लिए गए हैं। तो दो तरह की बहस देखने को मिल रही हैं।
एक जो रूढ़िवादी स्कूल है, वो बोलता है कि महिला के गर्भ में जो बच्चा है उसका अपना जीवन जीने का अधिकार है, आप गर्भपात करके उसके इस अधिकार का उल्लंघन कर रहे हो, तो ये सही नहीं है। दूसरा जो लिबरल स्कूल होता है, वो बोलता है कि उस गर्भवती महिला का अपना भी एक जीने का एक अधिकार है और गरिमा है, अगर उस गर्भवती महिला की परिस्थितियाँ ऐसी हैं कि वो नहीं रख सकती उस गर्भ को, तो आप उसे मजबूर नहीं कर सकते उस बच्चे को रखने के लिए।
तो दोनों तरह की बहस है और इसी के बीच में कुछ धार्मिक वक्तव्य भी हैं जो कहते हैं कि एक बार आपने गर्भधारण कर लिया तो उसमें प्राण आ जाते हैं, तो ऐसे में गर्भपात हिंसा है, कि आपने उसको मार दिया या पैदा ही नहीं होने दिया।
तो इसमें क्या सही है, या इसमें कैसे सामंजस्य बैठाया जाए? आपका मार्गदर्शन चाहिए।
आचार्य प्रशांत: देखो दोनों ही पक्ष जो बात अपनी कह रहे हैं - लिबरल (उदारवादी) और कंज़र्वेटिव (साम्यवादी) - दोनों की ही बातों में दम है, दोनों के ही पास कुछ अच्छे, मज़बूत तर्क हैं।
एक पक्ष कह रहा है कि बच्चे का अपना जीवन है, बच्चा अपनेआप में एक स्वतंत्र प्राणी है, तो तुम उसकी हत्या कैसे कर सकते हो। वो बच्चे के दृष्टिकोण से देख रहे हैं। दूसरा पक्ष कह रहा है कि बच्चा स्वतंत्र प्राणी नहीं है, बच्चा अभी माँ के भीतर है, तो बच्चे पर अभी माँ का अधिकार है, माँ तय करेगी कि वो जन्म देना भी चाहती है या नहीं जन्म देना चाहती है; मुद्दा बच्चे के अधिकारों का नहीं है, मुद्दा माँ के अधिकारों का है, माँ की स्वतंत्रता का है। तो एक ओर बच्चे का अधिकार देखा जा रहा है, एक ओर माँ का अधिकार देखा जा रहा है।
ठीक है, दोनों ही बातें वज़न रखती हैं। बच्चे का जीने का अधिकार है, बिलकुल सही बात है, पर बच्चा अभी चैतन्य नहीं है, बच्चे के पास सोचने की, समझने की, विवेक की शक्ति नहीं है। जीने का अधिकार तो निसंदेह रखता है, जैसे जगत में कोई भी प्राणी जीने का अधिकार रखता है; पर अधिकार क्या है, अधिकार कितनी दूर तक जाता है - ये अभी बच्चा नहीं समझता। तो फिर कौन समझेगा? माँ समझेगी, ये तय तो माँ को ही करना पड़ेगा कि बच्चे के जीने का अधिकार अभी कितनी दूर तक जाना है। क्योंकि जीने का अधिकार, जब हम मनुष्य की बात करते हैं, तो जीने का अधिकार सिर्फ़ साँस लेने और खाने-पीने का अधिकार नहीं होता।
जब हम पशुओं की बात करते हैं तो जीने के अधिकार का क्या अर्थ होता है? कि वो ज़िंदा है। अगर वो ज़िंदा है तो अपनी प्राकृतिक ज़िंदगी जी रहा होगा; जंगल में, पहाड़ पर, नदी में अपना जीवन जी रहा होगा। हमें उससे ज़्यादा उसकी कोई परवाह नहीं करनी है, वो ज़िंदा है इतना पर्याप्त है, प्रकृति उसकी देखभाल आगे स्वयं कर लेती है। लेकिन मनुष्यों के मामले में जो राइट टु लाइफ़ है, जीवन का अधिकार, उसके मायने सिर्फ़ इतने नहीं होते कि आप खा-पी रहे हैं, साँस ले रहे हैं; उसके मायने आगे के होते हैं, क्योंकि मनुष्य प्रकृति से ज़्यादा चेतना है।
अगर हम प्रकृति-भर होते, माने अगर हम पशु-पक्षी होते, तो इतना बहुत होता कि ज़िंदा हैं; ज़िंदा हैं और जो भी प्राकृतिक गतिविधियाँ हैं उनको स्वतंत्रतापूर्वक कर पा रहे हैं। उदाहरण के लिए, एक पक्षी ज़िंदा है और उसको उड़ने के लिए पर्याप्त जगह मिली हुई है तो सब ठीक है, फिर कोई दिक्कत नहीं। पक्षी जीवित हो और ऐसी जगह पर जीवित हो जहाँ खाना-पीना मिलता हो और उड़ने के लिए उसको पर्याप्त जगह मिली है, तो फिर कोई समस्या नहीं है। ऐसा प्रकृति में होता है, कि खाओ-पियो, आचरण करो, हिलो-डुलो, काफ़ी है।
मनुष्य के जीवन का क्या अर्थ है - सिर्फ़ खाना-पीना, चलना-फिरना, आराम से कहीं सोने की जगह पा जाना, कुछ दोस्त-यार पा जाना, प्रजनन के लिए कोई साथी पा जाना? नहीं! मनुष्य के लिए जीवन का दूसरा अर्थ है, क्योंकि हमने कहा कि मनुष्य प्रकृति से ज़्यादा चेतना है। तो जब हम जीवन का अधिकार कहते हैं, तो उसमें ‘जीवन’ को ज़रा ठीक से परिभाषित किया जाना चाहिए न? जीवन का फिर अर्थ हो जाता है कि उसको समुचित शिक्षा मिल पाए, उसको सही संगति मिल पाए, उसका पालन-पोषण ठीक हो पाए, वो हर तरीके से एक उत्तम कोटि का चैतन्य मनुष्य बनकर खड़ा हो पाए - ये हुआ जीवन का अधिकार, राइट टु लाइफ़ , मनुष्यों के संदर्भ में।
संविधान का इक्कीसवाँ अनुच्छेद है, उसमें आता है राइट टु लाइफ़ , और न्यायालय ने भी उसकी व्यापक परिभाषा करी है। उसमें कहा है कि राइट टु लाइफ़ का अर्थ है राइट टु अ डिग्निफ़ाइड लाइफ़ (गरिमामय जीवन का अधिकार)। लाइफ़ माने डिग्निफ़ाइड लाइफ़। अगर जीवन से डिग्निटी , माने गरिमा हटा दी गई है, तो वो भी आपके मूल अधिकारों का हनन है। अब ये माँ को देखना है न, कि जो बच्चा पैदा होगा, क्या वो उसको एक गरिमामय जीवन दे पाएगी? अगर नहीं दे पाएगी तो फिर तो बच्चे को जन्म देना ही बच्चे के मूल अधिकारों का हनन हो गया न?
एक माँ है जो गरीब है, बदहाल है, अशिक्षित है, और किसी बेहोशी में, किसी भ्रम में, किसी पागलपन में, या मान लीजिए बलात्कार से वो गर्भवती हो जाती है। उसको अपनी हालत दिख रही है कैसी है, वो बच्चे को जन्म तो दे दे, लेकिन जन्म देने के बाद क्या वो बच्चे को एक गरिमामय जीवन दे पाएगी? तो क्या ये बच्चे के अधिकारों का हनन नहीं होगा? बोलिए! हम राइट टु लाइफ़ की बात कर रहे हैं; बच्चे को जन्म तो दे दिया, पर जन्म देने के बाद वो करेगी क्या उसका?
क्या बच्चा कोई जानवर है कि उसको बस जन्म देकर छोड़ दो? जन्म देने के बाद उसकी बड़ी देखभाल करनी पड़ती है। पशु तो अपने बच्चों को, अगर हम स्तनधारियों की बात करें तो तीन-चार महीने दूध पिलाते हैं और छोड़ देते हैं, उसके बाद कुछ नहीं करना होता। मनुष्य के बच्चे को कितने साल तक देखभाल की ज़रूरत होती है, बताइएगा ज़रा!
श्रोतागण: पाँच-छह साल।
आचार्य: पाँच-छह साल में छोड़ दोगे बच्चे को?
श्रोतागण: ग्यारह-बारह साल।
आचार्य: ग्यारह-बारह साल में भी आसान नहीं होता उसको छोड़ पाना, कम-से-कम पन्द्रह साल लगते हैं कि बच्चे को अब कह सको कि तू अब आत्मनिर्भर है; पन्द्रह साल भी तब जबकि उसकी देखभाल बहुत अच्छे से करी हो। बहुत अच्छे से देखभाल करी है, तब आप पन्द्रह की उम्र में उसको बोल सकते हैं कि अब तुम अपना रास्ता देखो।
पन्द्रह साल तक उसका पालन-पोषण ठीक तरीके से करना है, न्यूनतम पन्द्रह साल; और माँ को दिख रहा हो कि उसके पास ऐसी स्थितियाँ, ऐसे संसाधन, ऐसी सामर्थ्य ही नहीं है, तो क्या करें माँ, बताइए न! बच्चे को जन्म देकर बच्चे की ज़िंदगी नर्क कर दे? मैं पूछ रहा हूँ, और भारत जैसे देश में ये प्रश्न और प्रासंगिक हो जाता है अमेरिका की अपेक्षा, जहाँ गरीबी ज़्यादा है। ऐसे में मृत्यु बड़ा अपराध हो गया या जन्म देना बड़ा अपराध हो गया, बताइए!
निसंदेह किसी को मार देना एक अपराध है, मैं बिलकुल नहीं चाहता वो अपराध हो। भले ही वो जो जीव है, अभी गर्भ में ही हो, तो भी उसे मारा नहीं जाना चाहिए। ये अपराध है - किसी जीव को गर्भ में मार देना। ज़िंदा है, माने पैदा हो चुका है, तब भी मारना उसे अपराध है, और अभी गर्भ में है तो भी उसे मारना अपराध है। पर अब यहाँ पर प्रश्न ये उठता है कि कहीं आप उसको जन्म देकर ज़्यादा बड़ा अपराध तो नहीं कर रहे! दूसरा, कई स्थितियाँ ऐसी होती हैं जहाँ जन्म देना ज़्यादा बड़ा अपराध हो जाएगा, तो आप माँ से गर्भपात का अधिकार क्यों छीन लेना चाहते हो?
अब इसमें एक-दो जुड़े हुए मुद्दे हैं, जो मुझे लगते हैं, जिन्हें कहूँगा। या तो आप समाज इतना चैतन्य और जागरुक बना दो कि बच्चे के पालन-पोषण की ज़िम्मेदारी माँ के ऊपर रहे ही नहीं, फिर ठीक है; फिर आप कह सकते हो कि गर्भपात अपराध है, निसंदेह अपराध है। आपने समाज ऐसा बना दिया जिसमें कानूनन जो भी बच्चा पैदा हो रहा है वो अब समाज की और राज्य की ज़िम्मेदारी है। उसको सही खाना मिलेगा, सही कपड़े मिलेंगे, सही संगत, सही शिक्षा मिलेगी। उसका जो भी कुछ होगा, उसकी ज़िम्मेदारी फिर राज्य उठाए।
तब तो आप माँ से कह सकते हैं, ‘अब तुम क्यों परेशान हो, तुम्हें क्या करना है! वो पैदा होगा, उसके बाद हम देख लेंगे। तुम उसे मत मारो, तुम्हें गर्भपात की कोई जरूरत नहीं! तुम्हें अधिक-से-अधिक ये करना है कि जब वो पैदा हो जाए तो आरंभ के कुछ महीनों तक उसकी देखभाल कर दो, उसके दूध-वगैरह की व्यवस्था कर दो। इतना कर दो बस तुम, बाकी ज़िम्मेदारी राज्य की है। और अगर तुम शारीरिक-रूप से अक्षम हो, तुम बच्चे को दूध-वगैरह भी नहीं दे सकती, तो वो भी राज्य व्यवस्था कर लेगा, उसके भी तरीके होते हैं।‘ तब तो राज्य को अधिकार है ऐसे नियम बनाने का कि गर्भपात कानूनन अपराध है, तब तो आप बना दीजिए।
अब आप स्त्री से कह रहे हो कि तुम बच्चा पैदा करो, हम तुम्हें गर्भपात नहीं करने देंगे चाहे कितनी भी विषम तुम्हारी परिस्थिति हो, लेकिन हम तुम्हें मजबूर कर रहे हैं कि बच्चा पैदा करो। और वो बच्चा पैदा तो कर देगी, उसके बाद राज्य जाएगा उस बच्चे को सँभालने? सँभालना किसको है उस बच्चे को, उसी स्त्री को ही सँभालना है। तो ये तो अजीब बात हो गई। आप उसको मजबूर कर रहे हो कि तेरी कितनी भी दुखद स्थिति हो और कितने भी अटपटे तरीके से तुझे गर्भ ठहर गया हो, लेकिन तुझे बच्चा तो पैदा करना-ही-करना है।
चलो ठीक है, उसने पैदा कर दिया, अब आगे की तो बताओ, वो बच्चा लिए क्या करे? मान लो वो एक मज़दूर है — और लाखों महिलाएँ हैं भारत में जो मज़दूरी करती हैं — वो बच्चा पैदा हो गया है, अब वो क्या करेगी? और ऐसा नहीं है कि मज़दूर स्त्रियाँ बच्चों को पालती नहीं हैं; पालती हैं, वो पीठ पर बाँधकर के मज़दूरी कर रही होती हैं, पर क्या हम ये चाहते हैं? बच्चा पीठ पर बँधा है, बिलकुल कृशकाय है, उसे खाने को नहीं मिल रहा; इतना बड़ा कुल उसका मुँह है, पेट उसका धँसा हुआ है। इस तरह का जीवन क्या मृत्यु से बदतर नहीं है? बताइए! तो हम बच्चे को ऐसा जीवन जीने के लिए क्यों श्रापित करना चाहते हैं? क्यों?
तो बिलकुल आप गर्भपात को अपराध बना दीजिए। कोई नहीं चाहेगा कि गर्भ में एक शिशु है, वो मारा जाए, भ्रूणहत्या हो जाए; कोई नहीं चाहेगा, बिलकुल नहीं चाहता, दर्दनाक बात होती है। लेकिन फिर अगर वो पैदा होता है तो उसको पालने की ज़िम्मेदारी आप अपने ऊपर लीजिए। मैं सरकार से, राज्य से और समाज से कह रहा हूँ, मैं उन लोगों से कह रहा हूँ जो बहुत विरोध करते हैं गर्भपात के अधिकार का, कि फिर जब पैदा होगा तो तुम उसके बाप भी बनो न! तब तो कह देते हो कि लेना एक न देना दो, जिसका बच्चा है वो देखे। ऐसे नहीं चलेगा!
समझ में आ रही है बात?
तो लक्ष्य यही होना चाहिए कि एक दिन आए जब आप गर्भपात को कानूनन अवैध घोषित कर सको, ये लक्ष्य होना चाहिए, लेकिन इसके लिए कुछ शर्तें पूरी करनी ज़रूरी हैं। वो शर्तें क्या हैं? कि समाज को इतना जागरुक बनाओ और इस तरीके के इंस्टीट्यूशंस बनाओ, ऐसे-ऐसे संस्थान होने चाहिए जो बच्चा पैदा हुआ नहीं कि उसको गोद ले लें; और फिर इसके दूरगामी परिणाम होंगे। इससे बच्चे की प्राण रक्षा तो होगी-ही-होगी, इससे स्त्रियों को बड़ी आज़ादी मिल जाएगी। और जो महिलाओं में एक बड़ा डर रहता है हमेशा, कि जीवन पुरुष के बिना अधूरा है — खासतौर पर जो सिंगल मदर्स होती हैं वो परेशान रहती हैं बहुत, कि बच्चा है और पुरुष नहीं है — वो सारी तकलीफ़ें दूर हो जाएँगी।
समझ में आ रही है बात?
उसके बाद आप ये नहीं कहेंगे कि अरे ये जो जितनी सामाजिक व्यवस्थाएँ चल रही हैं उनका चलना बहुत ज़रूरी है नहीं तो बच्चे का क्या होगा। इस तरह का तर्क सुनने को मिलता है न? महिला है, वो एक ऐसे संबंध में रह रही है, या हो सकता है पुरुष भी हो जो एक बहुत बिगड़ी हुई, ग़लत शादी में फँसा हुआ है — बैड मैरिजेस होती हैं न — अब शादी के सात-आठ साल हो गए हैं, और दोनों में जो संबंध हैं वो हिंसक हैं, दुरात्मक हैं। अब्यूज़िव मैरिजेस होती हैं कि नहीं? और अब्यूज़ दोनों तरफ़ से हो सकती है, किसी भी तरफ़ से हो सकती है। अब दोनों उसमें फँसे हुए हैं, और उनसे पूछो कि जान बचाकर के अलग क्यों नहीं हो जाते, नर्क में क्यों सड़ रहे हो, तो जवाब क्या देते हैं? ‘बच्चे का क्या होगा, बच्चे का क्या होगा!’
अगर राज्य ऐसी व्यवस्था कर सके जहाँ हर बच्चा राज्य की ज़िम्मेदारी हो जाए, या राज्य नहीं कर सकता तो और ऐसे संस्थान उभरकर आएँ जो कहें कि बच्चा हमारी ज़िम्मेदारी है; और वो ज़िम्मेदारी भी फिर उत्कृष्ट तरीके से उठाएँ, वैसे नहीं कि जैसे गौशालाएँ होती हैं। वो कह तो देती हैं कि गाय हमारी ज़िम्मेदारी है, पर गाय को वहाँ छोड़ आओ तो तुम पाते हो कि आमतौर पर वो ज़िम्मेदारी पूरी कर नहीं रहीं हैं; बहुत सारी गौशालाएँ तो डेयरी बन जाती हैं। वो जो संस्थाएँ होनी चाहिए, जो बच्चे की ज़िम्मेदारी उठाएँ, वो इतनी बेहतरीन होनी चाहिए कि जैसा पालन-पोषण घर में हो सकता है बच्चे का, उससे बेहतर उस संस्था में हो, तब जाकर बात बनेगी। तब महिला को भी आज़ादी मिल जाएगी, पुरुष को भी आज़ादी मिल जाएगी, और बच्चे की भी प्राण-रक्षा हो पाएगी।
नहीं तो ये जो बच्चे का मसला है, जिसकी वजह से बहुत कुछ ऐसा बचा रह जाता है, ख़त्म नहीं होने पाता, नष्ट नहीं होने पाता, जिसको कबका नष्ट हो जाना चाहिए था। बात-बात में बच्चे की दुहाई दे दी जाती है – ‘बच्चे का क्या होगा, बच्चे का क्या होगा!’ और जिनके बच्चे अकस्मात भी पैदा हो जाते हैं — और ज़्यादातर अकस्मात ही पैदा होते हैं — आप पच्चीस-तीस साल के होते हो जब आप बच्चा पैदा कर देते हो, आपको अक्ल कितनी होती है? जिन्होंने योजना बनाकर बच्चे किए, उनकी भी योजना होती आधी बुद्धि की ही है।
योजना बनाने में क्या है, योजना तो आप इस चीज़ की भी बना सकते हो कि कल इतने बजे सुबह जाकर कुँए में कूदूँगा। अब ये योजनाबद्ध तरीके से आपने कुछ करा है, पर सिर्फ़ इसलिए कि कुछ चीज़ प्लान्ड (योजनाबद्ध) है, वो अच्छी थोड़े ही हो जाती है! तो ज़्यादातर बच्चे तो होते अनप्लान्ड हैं, और जो प्लान्ड हैं, आयोजित हैं, वो भी ऐसे ही आधी बुद्धि से आ गए हैं दुनिया में, उन बेचारों को भी कुछ राहत मिलेगी। अब वो दो ऐसे लोगों के बीच में फँस गए हैं — तुम बच्चे की दुर्दशा सोचो तो, दो मूर्खों के बीच में एक बच्चा फँसा हुआ है।
और मैं ये इसलिए नहीं कह रहा कि मुझे किसी का अपमान करने का शौक है, मैं तथ्य की बात कर रहा हूँ। आप नहीं जानते ये पच्चीस-तीस साल वाले कैसे होते हैं? इनमें अपनी ज़िंदगी चलाने की अक्ल होती है क्या? होती है? ये एक नए जीव को, नन्हे शिशु को स्वस्थ जीवन दे पाएँगे? है इनमें इतनी काबिलियत? कुछ नहीं, पर झट से पैदा कर दिया, मज़ाक है!
तो आप एक ऐसी व्यवस्था बना दो जिसमें शिशु का पोषण-संरक्षण कोई उत्कृष्ट संस्था करेगी या समाज करेगा या राज्य करेगा, तो तीनों को रिहाई मिल जाएगी - माँ को भी, बाप को भी, और बच्चे को भी; क्योंकि दुखी तीनों एक-दूसरे से हैं। और तब ये ठीक होगा कि आप कह दो कि कानूनन जो गर्भपात वाली चीज़ है वो उचित नहीं है। मैं भी चाहता हूँ कि कोई शिशु गर्भ में ही प्राण न खोए।
अब एक और मुद्दा जो इससे जुड़ा हुआ है उस पर आते हैं। जब तक ऐसी व्यवस्था नहीं बन रही है तब तक क्या करना है? तब तक समाधान है आध्यात्मिक शिक्षा। क्योंकि देखो, माँ के शरीर पर तो माँ का ही अधिकार होगा। किसी और को छूट दी ही नहीं जा सकती कि वो किसी व्यक्ति के शरीर पर कब्ज़ा बताए, हक बताए, हुकुम चलाए; ये तो हो ही नहीं सकता। महिला का शरीर हो कि पुरुष का शरीर हो, किसी दूसरे को क्या अधिकार है भाई, उसको जो करना है वो करेगा। लेकिन वो कैसे करेगा, वो व्यक्ति अपने शरीर से संबंधित निर्णय कैसे लेगा? वो या तो निर्णय बेहोशी में ले सकता है या होश में ले सकता है; होश के लिए शिक्षा चाहिए।
तो जब तक वो सुनहरा दिन नहीं आ जाता, कि समाज इतना जागरुक हो गया है और समाज में इतनी करुणा आ गई है कि समाज ने कह दिया है कि सिर्फ़ मेरा बच्चा मेरा नहीं है, हर बच्चा मेरा है, और समाज हर बच्चे को अपनी गोद में खिला रहा है; जब तक वो दिन नहीं आ जाता, तब तक समाधान है आध्यात्मिक शिक्षा। महिला को शिक्षित करो ताकि उसको ये विवेक रहे, ये तमीज़ रहे कि जीवन के निर्णय कैसे लेने हैं; उसको शिक्षित करो, और फिर निर्णय उसके ऊपर छोड़ दो।
तुम्हारा काम है उसको शिक्षित करना। जब शिक्षित कर दोगे तो उसको सिर्फ़ यही नहीं पता होगा कि गर्भ रखना है या नहीं, उसे ये भी पता होगा कि किसके साथ उठ-बैठ मिल-जुल रही हूँ, गर्भ ठहरना भी चाहिए या नहीं। गर्भपात की नौबत तो तब आती है न, जब पहले गर्भाधान हो जाए! तो लड़कियों को इस तरीके से शिक्षित करो कि उनको पता हो कि शरीर क्या चीज़ है, संगति क्या चीज़ है, कौनसा व्यक्ति निकट लाने लायक है और कैसों को दूर-दूर ही रखना चाहिए।
विवेक ही सशक्तिकरण है न असली! फेमिनिज़्म (नारीवाद) का मतलब ये थोड़े ही है कि अधिकार दे दिए और जिसको अधिकार दे दिए वो बेहोश पड़ी हुई है। कोई भी बेहोश व्यक्ति हो, स्त्री या पुरुष, तुम उसको अधिकार दे दो, इस बात को सशक्तिकरण कहेंगे क्या? और अधिकार तो बंदूक की तरह होते हैं; एक बेहोश आदमी को अधिकार दे दोगे, वो क्या क्या करेगा? और ज़्यादातर लोग, महिलाएँ भी, पुरुष भी, अपना जीवन गहरी बेहोशी में बिताते हैं और तुम उनको अधिकार दिए जा रहे हो; ये अधिकार, वो अधिकार, और सोच रहे हो कि ये फेमिनिज़्म है।
फेमिनिज़्म का मतलब अधिकार देना नहीं होता, फेमिनिज़्म का मतलब अक्ल देना होता है, विवेक देना होता है। मैं ये नहीं कह रहा कि विवेक दे दो और अधिकार से वंचित कर दो। मैं कह रहा हूँ: बिना विवेक के अधिकार वो दोधारी तलवार है जो अपने ही ऊपर चलेगी। तो अधिकार देना, निसंदेह अधिकार देना, पर अधिकारों से पहले शिक्षा दो, विवेक दो, समझ दो; नहीं तो वो अधिकारों का दुरुपयोग ही करेगा, चाहे आदमी हो, चाहे औरत।
समझ में आ रही है बात?
तो अभी के लिए तो यही होना चाहिए कि गर्भपात का अधिकार तो आपको महिला के पास रखना पड़ेगा; आपको वो अधिकार उसको देना पड़ेगा क्योंकि गर्भ में बच्चा उसकी ज़िम्मेदारी है। जब बच्चा पैदा भी हो जाएगा तो पन्द्रह साल तक महिला की ज़िम्मेदारी है, तो फिर इस मसले में दखलअंदाज़ी कोई दूसरा क्यों करें? दूसरे को दखलअंदाज़ी का हक़ तब मिलेगा जब ज़िम्मेदारी दूसरा उठाए, और बहुत बेहतरीन तरीके से, बड़े प्रेमपूर्ण तरीके से उठाए; तब दूसरा कह सकता है कि साहब गर्भपात नहीं।
और जब तक मैं कह रहा हूँ कि वो दिन नहीं आता, तब तक ये करिए कि अपने लड़कों को और अपनी लड़कियों को बचपन से ही शिक्षित रखिए ताकि उल्टे-पुल्टे तरीके से गर्भ ठहरने की, माँ बनने की नौबत ही न आए। और उसका मतलब ये नहीं है कि आप उनको बताएँ कि कॉन्ट्रासेप्टिव (गर्भ-निरोधक) कैसे इस्तेमाल करते हैं। हम सोचते हैं कि गर्भ रोकने के लिए यही तो सिखाना चाहिए अपनी बेटियों को, तो बारह साल की हुई नहीं लड़की, कि उसको केले में कंडोम पहनाकर दिखा रहे हैं, कि देखो बेटा!
ये मूर्खता है! स्कूलों में इसी तरीके की क्लासेज़ होती हैं, शिक्षाएँ दी जाती हैं, जहाँ पर छठीं-आठवीं की लड़कियों को और लड़कों को इकट्ठा कर लेते हैं और उनको बताते हैं कि कॉन्ट्रासेप्टिव कैसे इस्तेमाल करने हैं। वो (छात्र) और खुश हो जाते हैं, कहते हैं, ‘ठीक, मिल गई अनुमति।‘
‘मैं कौन हूँ, मैं क्यों पैदा हुआ हूँ, ये शरीर किसलिए है, सेक्स माने क्या होता है, प्रजनन क्या चीज़ है, दुनिया में आने का अर्थ क्या होता है, जन्म देने की ज़िम्मेदारी क्या होती है, जीव होना ही क्या बात है?’ - ये बच्चों को तभी समझा दो जब वो प्रजनन योग्य होने शुरू ही हो रहे हों; तभी बता दो, नहीं तो दुर्घटना हो जाएगी, क्योंकि प्रकृति अब उन्हें कुछ अधिकार दे रही है।
लड़के-लड़कियाँ बारह साल-चौदह साल के हो रहे हैं, प्रकृति ने उनको कुछ अधिकार देने शुरू कर दिए हैं। तो प्रकृति ने तो अपना काम समय पर कर दिया, उसने समय बाँध रखा है, बारह-चौदह साल में प्रजनन का अधिकार प्रकृति लड़के-लड़कियों को दे देती है। तो प्रकृति ने अपना काम समय पर कर दिया, क्या आपने अपना काम समय पर करा? आपका क्या काम था? आपका काम था बारह-चौदह के होने से पहले उनको सद्बुद्धि दे देना, विवेक दे देना। नहीं तो अधिकार तो मिल जाएगा, बुद्धि नहीं मिलेगी; नतीजा? दुर्घटना-पर-दुर्घटना।
माँ-बाप महा अनाड़ी हों, वो अपने बच्चे-बच्चियों को शिक्षित ही न करें ठीक से, तो भी प्रकृति का चक्र तो नहीं रुकेगा न! लड़की बारह साल की होगी, लड़का चौदह साल का होगा, प्यूबर्टी (परिपक्वता) तो आ ही जानी है, वो तो प्रजनन के लिए तैयार हो ही जाएँगे। शरीर तैयार हो गया है और मन है अभी बिलकुल अनाड़ी, अविवेकी, अज्ञानी, कुछ जानता नहीं है, तो क्या होगा? वही होगा जो प्रकृति चाहती है - पशुओं की तरह दनादन-दनादन संतानें पैदा करो, जीवन में कोई लक्ष्य ही मत रखो।
और जब हम कह रहे हैं कि जीवन में कोई लक्ष्य ही मत रखो, तो आपको अंदाज़ा लगा होगा कि यहाँ बात बस संतान पैदा करने इत्यादि की नहीं है। आप उस व्यक्ति की ज़िंदगी सोचिए जो बेमतलब बच्चे पैदा करे जा रहा है, क्या उसकी ज़िंदगी के बाकी पहलू स्वस्थ, सुंदर, प्रकाशित होंगे? आप एक लड़की की सोचिए जो अपनी किशोरावस्था में ही गर्भ लेकर बैठ गई, सोलह की उम्र में; संभावना यही है कि ये लड़की जीवन के बाकी क्षेत्रों में भी दोयम दर्जे की होगी, अनाड़ी-सी, कुछ जानती ही नहीं। तो मुद्दा फिर उसके पूरे जीवन का है न?
आप सेक्सुअल एक्टिविटी कैसी कर रहे हैं, उससे अंदाज़ा लग जाता है न कि आपकी पूरी ज़िंदगी ही कैसी होगी? या नहीं लग जाता? आप दिन का आधा समय लड़के-लड़कियों के पीछे दौड़ने में अगर बिता रहे हैं, तो इससे अंदाज़ा नहीं लग जाता कि आपकी ज़िंदगी कैसी बीत रही होगी? जब आप सेक्सुअल एक्टिविटी नहीं भी कर रहे होंगे, उस वक़्त भी आप कोई घटिया काम ही कर रहे होंगे। क्योंकि जीवन ऐसा नहीं हो सकता कि आधे दिन आप कोई बहुत ऊँचा काम करते हैं और बाकी आधे दिन कोई घटिया काम करते हैं; ऐसा हो सकता है क्या? मन तो एक है। जो आदमी दफ्तर में भ्रष्ट है, वो घर में भी भ्रष्ट होगा न, या अलग हो जाएगा? जो आदमी पशुओं के प्रति क्रूर है, वो बच्चों के प्रति भी क्रूर होगा न, या अलग हो जाएगा? मन तो एक होता है।
तो अगर हम ये पाते हैं कि हमारे जवान लड़के-लड़कियाँ हद दर्जे की यौन-अपरिपक्वता दिखा रहे हैं, सेक्सुअल इम्मैच्योरिटी , तो इससे उनके पूरे जीवन के बारे में ही क्या पता चलता है? कि वो जीवन के हर पहलू में ही अपरिपक्व हैं; है न? तो समाधान शिक्षा है।
वो विशेष दिन तो न जाने कब आएगा कि समाज ऐसा हो जाए कि कहे कि हर बच्चा मेरा है; काश कि आए, जल्दी आए। पर जब तक वो दिन नहीं आता, तब तक युवा लोगों को, दंपतियों को, जो लोग शादी करने जा रहे हैं, उनको आध्यात्मिक शिक्षा दो न! नहीं तो जीवन का बड़े-से-बड़ा नर्क बस यही है - स्त्री-पुरुष संबंध। समझो न इस बात को!
मैं एक चीज़ आपके सामने खोलता हूँ, आपको पता नहीं क्या लगेगा, इस मुद्दे से संबंधित है या नहीं है, पर बोलनी ज़रूरी है। हम सोचते हैं कि जीवन के बड़े मुद्दे ये होते हैं कि कौनसा देश किस पर परमाणु बम गिराने जा रहा है, रूस-यूक्रेन में क्या चल रहा है, यूक्रेन को विदेशी मदद कितनी मिल गई, भारत-चीन सीमा पर क्या चल रहा है, अर्थव्यवस्था में क्या चल रहा है, डॉलर अस्सी रुपए का हो गया - हमें यही लगता है न कि ये बड़े मुद्दे हैं?
और जो लोग इन बड़े मुद्दों पर बात कर रहे होते हैं, हमें लगता है कि वो गंभीर लोग हैं, वयस्क हैं, परिपक्व हैं। विदेश-नीति कैसी होनी चाहिए, गृह-नीति, आर्थिक-नीतियाँ कैसी होनी चाहिए - ये सब हमें लगता है बड़ी बात है। कोई मिसाइल लॉन्च हो रही है या किसी दूसरे ग्रह पर कोई सेटेलाइट भेजा जा रहा है - ये सब हमको लगता है बड़े मुद्दे हैं। कोई प्लेन गिर गया, तीन सौ लोग मर गए - ये भी बड़ी बात लगती है।
मैं लोगों से पूछा करता हूँ, ‘तुम मुझे बताओ कि तुम अगर परेशान हो, तुम्हारी जिंदगी एकदम नर्क चल रही है, तो उसकी वजह क्या है? उसकी वजह पाकिस्तान के परमाणु बम हैं, तुम उनको लेकर दिनभर परेशान रहते हो? तुम दिनभर बताओ मुझे किस चीज़ को लेकर परेशान रहते हो, मैं उसकी बात करना चाहता हूँ। तुम इस चीज़ को लेकर परेशान हो कि अगला प्रधानमंत्री कौन बनेगा? ये चीज़ है जो तुम्हें सोने नहीं दे रही है, रातों में करवटें बदल रहे हो, सर दर्द हो रहा है? इतनी महिलाएँ आत्महत्या करती हैं, इतने पुरुष आत्महत्या करते हैं, ये वजह है परेशानी की? क्या वजह है, बताओ ना मुझे! कि ब्रिटेन को यूरोप में रहना चाहिए या नहीं, इस बात पर परेशान हो?’
टी.वी. पर जिन मुद्दों पर गरमागरम बहस चल रही होती है, उन मुद्दों को लेकर के आत्महत्या कर लेते हो? कभी होता है? होता है? सोचना! असली मुद्दे कौन से हैं? क्या असली मुद्दे वो हैं जो अखबारों में छाए हुए हैं? उन मुद्दों से कुछ नहीं मतलब है आपको, वो मुद्दे बस मनोरंजन हैं। और मनोरंजन क्यों चाहिए? क्योंकि असली मुद्दा कुछ और है, उस असली मुद्दे ने ज़िंदगी इतनी ख़राब कर रखी है कि मनोरंजन चाहिए।
तो ये जो राजनीति है, व्यापार है, अर्थव्यवस्था है, और दुनियाभर की चीज़ें हैं, धार्मिक उन्माद हो गया - ये तो सब मनोरंजन है, ये छोटी बातें हैं; इनसे सही बात तो ये है कि आपको कुछ नहीं फ़र्क पड़ता, और पड़ता भी है तो पाँच प्रतिशत। वो पाँच प्रतिशत ही है जो मीडिया, सोशल मीडिया और अखबारों में छाया रहता है। जो पिचानबे प्रतिशत बात है वो छुपी रहती है, वो कोई टी.वी. पर बताने नहीं आता।
टी.वी. पर जो वक्ता है, जो गला फाड़कर रेंक रहा है, वो आपको बताएगा कि उसका मूड आज इसलिए ख़राब है क्योंकि जब घर से निकला था तो थप्पड़ खाकर निकला था बीवी से? वो आपको कभी नहीं बताएगा। वो वहाँ ज़ोर-ज़ोर से चिल्ला रहा है, और आपको ऐसा लगेगा कि ये वाक़ई इसलिए चिल्ला रहा है क्योंकि प्रधानमंत्री ने कुछ कर दिया, मुसलमानों ने कुछ कर दिया, विपक्ष ने कुछ कर दिया, इसने कुछ कर दिया; आपको लगेगा कि ये सब बड़े मुद्दे हैं। असली बात ये है कि वो बहुत दुखी है; उसको नाश्ता नहीं मिला है, उसको थप्पड़ मिला है, उसकी पूरी ज़िंदगी बर्बाद है। वो आपके जैसा ही है न, बिलकुल आप ही के तो जैसा है!
आप जिन बातों को बड़ी बात भी कहते हो, आप उनमें इसीलिए घुसे हुए हो क्योंकि एक छोटीसी बात है जो घर में बैठी हुई है, उस छोटीसी बात ने आपको बहुत बड़ी-बड़ी बातें करने पर मजबूर कर रखा होता है। बहुत बड़ी नौकरी क्यों चाहिए होती है, दिल से बताना! बहुत सारा पैसा क्यों चाहिए होता है? अर्थव्यवस्था! पाँच ट्रिलियन डॉलर! चाहिए क्यों होती है, क्या करते हो? क्या करते हो? खाते तो रोटी ही हो न? खाने में तो नहीं खर्च होती, कपड़े में भी नहीं खर्च हो जाती; किसलिए चाहिए होती है? दिखाने के लिए। वो दिखाकर क्या करते हो? पूछो अपनेआप से, क्योंकि आमतौर पर पूछते नहीं होओगे। हमें लगता है कि पैसा तो अपनेआप में जैसे एक अंत होता है, एक लक्ष्य होता है; कुछ नहीं होता।
चूँकि हम प्राकृतिक पशु हैं, इसीलिए बस एक चीज़ है जिसकी खातिर सबकुछ चल रहा है, वो है स्त्री-पुरुष संबंध। चाहे वो कोई हो — राष्ट्रपति हो, प्रधानमंत्री हो, विश्व का अध्यक्ष हो, कोई हो — ले-देकर के खेल बस वही है। उस खेल को ठीक कर दो, दुनिया के ये जो बाकी मुद्दे हैं न, ये अपनेआप ठीक हो जाएँगे। मानो इस बात को। और वो जो खेल है, उसको ये मत समझ लेना कि वो सेक्सुअल मात्र है। वो खेल प्रकृति का है, और मनुष्य जब तक प्रकृति से एक हुआ पड़ा रहेगा, आइडेंटिफ़ाइड रहेगा, तादात्म्य रखे रहेगा, तब तक उसकी समस्याएँ बनी ही रहेंगी और वो कभी समझेगा नहीं कि उसकी मूल समस्या है देहभाव।
मूल समस्या है बॉडी आइडेंटिफ़िकेशन , उसकी वजह से बड़ी-बड़ी राष्ट्रीय, अंतराष्ट्रीय, सामाजिक, वैश्विक समस्याएँ खड़ी होती हैं, ये हमें नहीं बात समझ में आती। लोगों के बड़े प्रश्न आते हैं, कहते हैं, ‘आचार्य जी, आप राजनीति पर क्यों नहीं बोलते? अभी-अभी ये हुआ, उस पर नहीं बोल रहे, फलाना कांड हो गया, उस पर नहीं बोल रहे। बोलिए! बोलिए!’ मुझे उस पर भी जितना बोलना होता है मैं बोल देता हूँ। मैं उस मुद्दे पर बोलता हूँ न, जो असली है।
अगर मैं कुछ जानता हूँ तो अपने ज्ञान का उपयोग करूँगा असली बात करने के लिए, मैं कहाँ इस बात में घुसूँ कि उत्तर प्रदेश और बिहार के बीच क्या वार्ताएँ चल रही हैं, वो बात ही बहुत मायने नहीं रखती! जो असली बात है वो मुझे पता है क्या है। असली बात है मद, मोह, काम, क्रोध, मद, मात्सर्य - ये हैं असली बातें, और इन्हीं से बाकी सारी बातें निकलती हैं, तो मैं इनकी बात करूँगा न! मैं माया की बात करूँगा, उसको मैंने अगर सुलझा दिया तो बाकी सारे मुद्दे अपनेआप सुलझ जाने हैं।
जानने वालों ने कहा है कि नेपोलियन, जो चला था पूरी दुनिया को फतह करने, उसमें एक बात ये भी थी कि उसे अपने छोटे कद को लेकर के बड़ी हीनभावना थी। अब कुल बात इतनी-सी है कि देहभाव बहुत सघन है, बॉडी आइडेंटिफ़िकेशन तगड़ा है, तो बार-बार अपने आपको आईने में देखते हो, कद को छोटा पाते हो तो कहते हो कि कुछ ऐसा करना है कि भीतर की हीनता मिट जाए। तो फिर क्या किया? पूरी दुनिया में हिंसा कर डाली। इस व्यक्ति में अगर देहभाव किसी काबिल शिक्षक ने हटा दिया होता, तो होती इतनी हिंसा?
तो अब बताओ, अब हम क्या पढ़ें? फ्रांस ने रूस से कैसे युद्ध किया और वोटरों में अंततः क्या हो गया, हम ये सब पढ़ें, या ये देखें कि अगर देहभाव होता है तो उसके कितने घातक परिणाम होते हैं? बोलो!
यही बात क्लाइमेट चेंज पर लागू होती है, यही बात बायोडायवर्सिटी लॉस पर लागू होती है। जब तक तुम ये समझोगे नहीं कि प्रकृति एक चीज़ है और चेतना दूसरी चीज़ है, इन दोनों को जब तक अलग-अलग नहीं देखोगे, तब तक क्लाइमेट चेंज का कोई समाधान निकल ही नहीं सकता।
‘मैं' माने क्या होता है? ‘मैं' माने शरीर नहीं होता, ‘मैं’ माने कुछ और होता है। जब तक ये समझोगे नहीं, तब तक तुम जानवरों के प्रति क्रूरता करते ही रहोगे और अजीब-अजीब तरह के तर्क देते रहोगे। वो तर्क आता है न, कि शेर अगर हिरण को खा सकता है तो हम हिरण को क्यों नहीं खा सकते? इस तर्क के पीछे कुछ नहीं है, बस आध्यात्मिक अज्ञान है, वेदांत पढ़ा नहीं न! वेदांत नहीं पढ़ा, तो ये नहीं जानते कि शेर प्रकृतिमात्र है और तुम चेतना हो।
प्रकृति को अपनी व्यवस्था के अनुसार काम करने का हक है, वो करेगी। शेर और हिरण दोनों प्रकृति हैं, वो अपने हिसाब से काम करते रहेंगे। तुम प्राकृतिक नहीं हो, तुम चैतन्य हो। तुम्हें ये नहीं देखना है कि तुम्हारा शरीर क्या कह रहा है, तुम्हें ये देखना है कि क्या उचित है। और अगर तुम शेर जैसे ही हो तो तुम भी जंगल में ही रहो! शेर तो नंगा रहता है, शेर ब्रश भी नहीं करता। शेर का कोई ट्विटर अकाउंट भी नहीं होता, तो तुम ट्वीट करके क्यों बोल रहे हो कि मैं शेर हूँ, शेर माँस खाता है, मैं भी माँस खाऊँगा, मैं शेर हूँ? शेर ने कभी ट्वीट करी? तुम अगर शेर हो तो फिर शेर को भी ट्वीट करना चाहिए। तुम्हें दिख नहीं रहा है कि तुम चैतन्य हो?
तो ये जो आध्यात्मिक अज्ञान है, ये सब समस्याओं के मूल में बैठा हुआ है, कोई समस्या और होती ही नहीं है जीवन में - चाहे वो गर्भपात का मुद्दा हो, वैश्विक तापन हो, दुनियाभर ने जो परमाणु जखीरा इकट्ठा कर लिया है वो बात हो, और आप दुनियाभर के सारे मुद्दे गिना दीजिए।
इसीलिए जो एक्टिविस्ट (कार्यकर्ता) होते हैं, मुझे ये छोटे बच्चों जैसे लगते हैं। धरना कर रहे हैं, प्रदर्शन कर रहे हैं, सोच रहे हैं कि नियम-कानून बना देंगे, उससे कुछ लाभ हो जाएगा। अरे बाबा, धरना-प्रदर्शन, नियम-कानून, कैंडल-लाइट , विजिल - इन चीज़ों से नहीं होने का है; बड़े-बड़े तुम कॉन्फ्रेंसेस (सम्मेलन) करते रहो, उससे भी नहीं होने का है, एक भी समस्या नहीं हल होगी। और सारी समस्याएँ हल हो जाएँगी अगर इंसान को आध्यात्मिक शिक्षा दे दो। वेदांत को स्कूलों के पाठ्यक्रम में ला दो, और देखो कि दुनिया स्वर्ग बनती है कि नहीं, फिर देखो; और उसके बिना विध्वंस और महाविनाश के अतिरिक्त कुछ नहीं है, बस वही है।
कोई नहीं पूछता कि हमारे समाज में ऐसी लड़कियाँ या महिलाएँ हैं हीं क्यों जिन्हें गर्भपात की नौबत आ रही है। ये बात हम नहीं पूछते, हम जुटे हुए हैं ये चर्चा करने में कि गर्भपात का अधिकार होना चाहिए या नहीं होना चाहिए। अरे, गर्भपात की नौबत तो तभी आती है न जब पहले बेहोशी का गर्भ ठहर जाए? निन्यानबे प्रतिशत — एक प्रतिशत मैं मान सकता हूँ कोई और भी वजह हो सकती है — पर निन्यानबे प्रतिशत गर्भपात की नौबत तो तभी आती है न जब बेहोशी में तुमने गर्भ कर लिया? करा क्यों पागल!
उस मुद्दे पर हम बात नहीं करेंगे, कि वो जो मूल बात है वो है कि लड़की बेहोश थी और वो लड़का भी बेहोश था, दोनों पगले थे। वो पागलपन हम नहीं हटाना चाहते क्योंकि हमारा अहंकार ही उस पागलपन से जुड़ा हुआ है, वो पागलपन हटता है तो हमारे स्वार्थों पर चोट लगती है। तो हम उस पागलपन की चर्चा ही नहीं करते, हम इधर-उधर की सारी चर्चाएँ करते रहते हैं, ज़बरदस्त! फलानी बैठक हो रही है और चालीस देशों के राष्ट्राध्यक्ष वहाँ आकर के बैठ गए हैं और बड़ी-बड़ी बातें कर रहे हैं। एक बात कोई नहीं करेगा कि इंसान को पहले इंसान तो बना दो, कपड़े पहन लेने से नहीं हो गया, वो अभी भी जानवर ही है।
कुछ आ रही है बात समझ में?