आचार्य प्रशांत: गरीबों की जान बचाने के लिए हम अपने होटल्स थोड़ी बंद कर देंगे। गरीबों की जान बचाने के लिए हम जीडीपी ग्रोथ थोड़े ही दाँव पर लगा देंगे। * जीडीपी* बड़ी बात है। जीडीपी बहुत बड़ी बात है और किसी की जान जाती है, ख़ासकर अगर वो अशक्त है, दुर्बल है — तो क्या हो गया? जीडीपी बड़ी बात है।
डाटा के क्षेत्र में बड़ा नाम है — हन्ना रिची। उनकी किताब है और लेख वग़ैरह भी लिखती रहती हैं। उनके समर्थन में बिल गेट्स जैसे लोग हैं, वो बोलते रहते हैं काफ़ी। तो, उनकी किताब अगर आप पढ़िए और बिल गेट्स, एलन मस्क और इस तरह के और भी जो लोग हैं — उनकी बातों पर ध्यान दीजिए।
वैसे कहते हैं ना — रीडिंग बिटवीन द लाइन्स — थोड़ा-सा समझिए कि कहना क्या चाह रहे हैं। वो कह रहे हैं — ये ग्रह तो हमारे उपभोग के लिए था, हमारे उपभोग से अगर ये बर्बाद होता है तो हो, हम अपने लिए सुरक्षित आश्रय तैयार कर लेंगे, चाहे इसी प्लैनेट पर, चाहे किसी और प्लैनेट पर जाकर के। बाकी मर रहे हैं वो इसलिए मर रहे हैं बिकॉज़ दे आर नॉट फिट इनफ़ टू सर्वाइव — ये इनका रुख़ है।
ये कह रहे हैं, "साहब, हमारे पास पूँजी भी है, हमारे पास पावर भी है, हम तो बच जाएँगे। और जो मर रहे हैं, वो मरने वालों का दोष है। गरीबों, तुम में ताकत नहीं, तुम इसलिए मर रहे हो। गरीबों, तुम गरीब हो तुम इसलिए मर रहे हो। "यू आर नॉट फिट इनेफ टू सर्वाइव।” — ये कह रहे हैं।
तो उसी तरह की चीज़ें हमें यहाँ देखने को मिल रही हैं। वायनाड में, देशभर में, चारों तरफ़ हो रहा है, अभी दिल्ली में भी कल-परसों बहुत बारिश हुई। हम जब वहाँ से निकल रहे थे, तो मैंने कहा था, "देख लेना, इसमें कुछ जानें जाएँगी।" अगले दिन सुबह हम पढ़ते हैं कि गुड़गाँव में एक इलेक्ट्रोक्यूशन से तीन मौतें हो गईं।
प्रश्नकर्ता: यहाँ राजस्थान में छ: लोगों की मौत हो गई है भारी बारिश की वजह से।
आचार्य प्रशांत: ग़ज़ब है! बताओ।
प्रश्नकर्ता: मैं कुछ लोकल लोगों से बात कर रहा था। उन्होंने कहा था कि अभी ये तीन दिन में जितनी बारिश हुई है, उन्होंने सालों तक नहीं देखी — इस इंटेंसिटी की बारिश।
आचार्य प्रशांत: यहाँ वायनाड में भी 40, 50, 60 से.मी. बारिश हुई थी। इतनी बारिश तो किन्हीं साधारण जगहों पर सालभर में होती है। पंजाब में तो उदाहरण के लिए, सालभर में 60–70 से.मी. बारिश होती है। उतनी बारिश अगर कहीं दो दिन में हो जाएगी, तो वहाँ तो प्रलय आएगी ही।
प्रश्नकर्ता: मैं लैंडस्लाइड का डाटा देख रहा था। पिछले डिकेड में वायनाड में जितने लैंडस्लाइड्स हुए हैं, वो उसके पिछले डिकेड के सात गुना हैं। दस साल में नंबर ऑफ लैंडस्लाइड इवेंट्स — सात गुना बढ़ गए हैं।
आचार्य प्रशांत: अब खेल सारा इस पर आ गया न, अनुपम, कि वो लैंडस्लाइड किसके लिए है? हु एक्सैक्टली इज़ बीइंग अफेक्टेड? जिन्होंने वो लैंडस्लाइड कराई है, जो उसके लिए सचमुच ज़िम्मेदार हैं — हम अच्छी तरह जानते हैं कि दुनिया के कार्बन उत्सर्जन का बड़े से बड़ा हिस्सा, दो-तिहाई या शायद 80% हिस्सा — जो प्रिविलेज्ड एक-दो प्रतिशत आबादी है वो करती है। ठीक है? 5% आबादी लोगे तो 80% उत्सर्जन करते हैं वो, और अगर 1-2% लोगे तो दो-तिहाई उत्सर्जन ये करते हैं। ठीक है?
इन पर तो कोई असर पड़ना ही नहीं है न। ये तो साफ़ बच के निकल जाएँगे, सारी करतूत इनकी है, और कहर टूटने वाला है गरीबों पर। तो क्लाइमेट क्राइसिस जो है, वो वास्तव में जो अशक्त लोग हैं जिनकी आवाज़ नहीं, जिनमें दम नहीं, जिनके पास पैसा नहीं — ये सारी क्लाइमेट क्राइसिस उनके लिए है।
अमीर तो बोलते हैं, "साहब, हम जहाँ भी जाएँगे वहाँ पे हम क्लाइमेट कंट्रोल कर लेंगे, कौन-सी क्लाइमेट क्राइसिस?" उनको तो दिन भर सेंट्रली एयर-कंडीशन्ड जगहों पर रहना है। और वो कहते हैं, "नीचे बाढ़ आएगी तो हम फ्लाई जाएँगे, हमारे पास तो प्राइवेट जेट्स हैं। और अगर ये पूरी पृथ्वी ही हमने विनष्ट कर दी, हम तो उड़कर दूसरे ग्रहों पर चले जाएँगे।"
अमीरों का तो ये रुख़ है।
काम सारा अमीरों ने किया है, और अब भुगत रहे हैं गरीब, ये है क्लाइमेट में। और अमीरों के हाथ में मीडिया भी है तो अमीर, गरीबों को ये पता भी नहीं लगने दे रहे कि ये जो हो रहा है — ये किसने किया, और इसमें भुगतने वाला कौन है। और गरीब आदमी अक्सर अशिक्षित भी होता है। चूँकि वो अशिक्षित भी है तो इसीलिए उसको झाँसा देना आसान हो जाता है।
अब देखो न आप — यहाँ टीवी में जो चल रहा होता है, उससे कितनी आसानी से हम बहक जाते हैं। मैंने तो कई बार कहा है कि जैसे ये जो पूरा टीवी और सोशल मीडिया है — इसका उद्देश्य ही यही है कि आम आदमी को नशे में रखो, ताकि उसे पता ही न चले कि उसकी दुर्दशा के लिए ज़िम्मेदार कौन है।
प्रश्नकर्ता: जी, क्लाइमेट चेंज की तो बात ही नहीं है। बस पॉलिटिकल ब्लेम गेम — यही सारी चीज़ें हैं।
आचार्य प्रशांत: पॉलिटिकल ब्लेम गेम चलेगा और ऐसा दर्शाया जाएगा जैसे एक घटना हुई है। वो एक घटना नहीं है — वो एक प्रक्रिया है।
प्रश्नकर्ता: उस घटना की ज़िम्मेदारी कौन लेगा?
आचार्य प्रशांत: कौन लेगा? ज़िम्मेदारी किस पर है, भाई? जब कहीं पर कार्बन उत्सर्जन होता है न, तो वो जाता है वातावरण में और वातावरण जो होता है, वो किसी एक देश का नहीं होता। कार्बन उत्सर्जन अगर यूरोप या अमेरिका में हो रहा है, तो उसका भी असर केरल पर पड़ रहा है। ये कोई कंट्री-स्पेसिफिक चीज़ नहीं होती है।
तो ज़िम्मेदारी किसकी है — ये हमें कभी पता ही नहीं चलेगा। क्योंकि जो उत्सर्जन कर रहे हैं, हमें उनके नाम भी नहीं मालूम। और वो फिर कितने लाख टन उत्सर्जन करते हैं — ये हमें नहीं पता चलता।
अब अख़बार में ही था आज — एक तरफ़ तो ये सारी बात कि इतनी बड़ी त्रासदी हो गई, और किस तरह से राहत कार्य और बचाव कार्य चल रहा है, ये सारी बातें। दूसरी ओर, बड़े-बड़े लेख — कि किस तरह से हमको जीडीपी और बढ़ाना है, जीडीपी और बढ़ाना है। और ये दोनों बातें अख़बार के एक ही पन्ने पर हैं। और जो वो पूरा जीडीपी वाला बड़ा-सा लेख है, एक एक्सपर्ट राइटर के द्वारा — उसमें कहीं भी न कार्बन का नाम है, न एमिशन्स का नाम है, न ग्लोबल वार्मिंग का नाम है।तो उस चीज़ को हम बिल्कुल बचाकर रख रहे हैं।
कोई नहीं बताना चाहता हमें, बिल्कुल छुपाई जा रही है बात कि ये — जो ग़लत मॉडल है ग्रोथ का। इसने ही हमें बर्बाद कर दिया है। ये जो हमारे दिमाग में जीडीपी को धर्म की तरह स्थापित कर दिया गया है, कि तरक़्क़ी का मतलब है — जीडीपी बढ़े, तरक़्क़ी माने जीडीपी। तरक़्क़ी का तो और कोई अर्थ होता ही नहीं, जीडीपी के अलावा।
तरक़्क़ी का अर्थ ये नहीं होता कि आप शिक्षित कितने हैं। तरक़्क़ी का ये अर्थ नहीं होता कि आप शांत कितने हैं। तरक़्क़ी का ये अर्थ नहीं होता कि आप में बोध कितना है, गहराई कितनी है। तरक़्क़ी का ये भी अर्थ नहीं होता कि आप में प्रकृति के साथ समरसता कितनी है, सौजन्य कितना है, तरक़्क़ी माने कुछ नहीं। तरक़्क़ी का एक ही अर्थ होता है — कि आपकी जेब में पैसा कितना है। ये मॉडल हमें दे दिया गया है। यही चटनी हमें रोज़ चटाई जाती है।
और उसके साथ में एक साइड में ख़बर चला दी जाती है कि — "अरे, वायनाड में बहुत बुरा हो गया।” वायनाड में जो हो गया, वो इसलिए हो गया क्योंकि भारत का और पूरी दुनिया का — जो थॉट है, जो दर्शन ही है जीवन के प्रति, जो रुख़ है — वही बहुत ग़लत है।
हम सोच रहे हैं — ज़िन्दगी कंज़म्प्शन के लिए है, और जीडीपी माने कंज़म्प्शन। ये जो कंज़म्प्शन-प्रोडक्शन, कंज़म्प्शन-प्रोडक्शन का खेल है — यही तो जीडीपी है न?तो हम सोच रहे हैं कि ज़िन्दगी कंज़म्प्शन के लिए है। वहीं से हमारा ये इकोनॉमिक थॉट निकलता है कि "जीडीपी इज़ गॉड।" क्योंकि जीवन अगर भोगने के लिए है, तो देश और क्या करेगा? — जीडीपी बढ़ाएगा।
जीडीपी बढ़ाओगे तो वो होगा जो आज हो रहा है, और मुझे दिखाई नहीं देता कि इसको अब रोका किस तरह जा सकता है। क्योंकि आम आदमी के मन पर ये बात ज़बरदस्त तरीक़े से छा चुकी है — कि ख़ुशी का तो एक ही स्रोत है: मटेरियल कंज़म्प्शन। और लाओ, और लाओ — और ये बात उसे हर तरफ़ से और ज़्यादा बताई जा रही है।
ऊँची से ऊँची जगहों से हमें संदेश यही आ रहा है — कि जीवन माने ख़ुशी, माने सफलता, माने एक ही चीज़ — कंज़म्प्शन। और वही जो कंज़म्प्शन है, वो फिर वायनाड है। वही जो कंज़म्प्शन है, वो गरीब है।
प्रश्नकर्ता: मैं कुछ तथ्य आपके सामने रखना चाहूँगा। जैसे अभी हम बात कर रहे थे कि गरीब के ऊपर इसका कितना इम्पैक्ट पड़ता है। तो जब भी इस तरह की कोई आपदा आती है, जो अनफ़ॉरसीन होती है — जैसे कोविड आया था, और कोविड में लॉकडाउन लगा था। दो-तीन साल के लिए पूरी दुनिया रुक गई थी।
तो उस समय में, जो भारत के बिलियनेयर्स थे — उनकी जो संपत्ति थी, वो 40% से बढ़ी थी। और जो इंडिया का 84% सबसे गरीब तबका है — उसकी संपत्ति घटी थी। तो उसी तरह से, जिस तरह क्लाइमेट चेंज हम लोगों के जीवन पर इम्पैक्ट डाल रहा है, प्रॉबेब्ली कुछ वैसा ही ट्रेंड यहाँ पर भी होने वाला है।
आचार्य प्रशांत: हाँ, बिल्कुल बिल्कुल। क्लाइमेट चेंज का मतलब ही ये है कि गरीब और बेसहारा होता जाएगा, जो सर्वहारा है, वो और बेसहारा होता जाएगा। ये कितना दुखद और कितना रोचक तथ्य है कि कोविड के समय में जो अमीर थे — उनकी संपत्ति, 40% बढ़ गई। और जो भारत का बहुसंख्यक तबका है — 84% गरीब — उसकी संपत्ति गिर गई।
गरीब और गरीब हुआ, अमीर और और अमीर हुआ। और ये सारा जो एमिशन है — ये इन अमीरों द्वारा ही किया जाता है। गरीब क्या एमिशन कर लेगा, बताओ? कार्बन एमिशन गरीब कहाँ से कर लेगा? गरीब की साइकिल या बहुत हुआ तो उसके पास अब एक स्कूटर आ गई है। उससे वो कितना एमिशन कर लेगा?
और एमिशन क्या होता है — ये जानना है तो जो अमीरों के मैन्युफैक्चरिंग प्लांट्स होते हैं, या रिफाइनरीज़ होती हैं, और उनके जो पर्सनल मेंशन्स होते हैं, और उनकी जो लाइफ़स्टाइल होती है, उनके जो यॉट्स होते हैं, उनके जो प्राइवेट जेट्स होते हैं — वहाँ जाकर देखो कि "एमिशन किसको बोलते हैं।"
तो पर कैपिटा एमिशन कितना है — ये आँकड़ा भी कोई बहुत महत्व नहीं रखता। पर कैपिटा में तो ऐसा लगता है जैसे सब मिल के कर रहे हैं, पर कैपिटा कोई बात नहीं है। ये जो दुनिया की आबादी का टॉप 5% है — यही है ज़िम्मेदार। और इसी ने हम सबको बिल्कुल नशे में डाल रखा है, इसी ने वो वैल्यूज़ स्थापित कर दी हैं जिन पर आम आदमी चल रहा है।
आम आदमी को पता भी नहीं है कि वो जिन मूल्यों पर चल रहा है, वो जिसको अपनी संस्कृति समझ रहा है — वो जिस बात को अपना आदर्श समझ रहा है, वो आदर्श कहाँ से आ गए? उसके मन में कैसे कोई बात संस्कृति बन के, आदर्श बन के बैठ गई? उसे नहीं दिख रहा है कि ये सब उसके मन में स्थापित किया गया है निहित स्वार्थों के द्वारा — ताकि कुछ लोगों की ऐश चलती रहे, हम और बाकियों की मौत होती रहे।
प्रश्नकर्ता: आम आदमी इस बात को भी नहीं समझ पाता है कि, अक्सर हमने टीवी में न्यूज़ हेडलाइंस देखी हैं कि दाल के भाव जो हैं, इतने बढ़ गए। चावल इतना महँगा हो गया, टमाटर इतना महँगा हो गया। वो ये नहीं समझ पा रहा है कि क्लाइमेट चेंज की वजह से ये सब चीज़ें भी हो रही हैं।
अभी कल ही का सरकारी डाटा है — भारत सरकार के पास डाटा पहुँचा है कि क्लाइमेट चेंज की वजह से चावल, गेहूँ और मक्का — इनकी जो पैदावार है, घट रही है। कितने प्रतिशत से? 2050 तक 20% से, और 2080 तक 50% तक।
आचार्य प्रशांत: और ये जो पैदावार घट रही है, इससे ये मुझे बताओ — अमीरों को क्या फ़र्क़ पड़ने वाला है? अमीर को पता भी होता है कि उसके किचन में जो चावल, मक्का, गेहूँ, चना आ रहा है, दाल आ रही है — उसका रेट भी कितना है? अमीर को ही फ़र्क़ पड़ता है क्या? ये अमीर के पूरे मंथली बजट का — ये सारी चीज़ें, खाना-पीना — तो 1% भी नहीं होते। 0.1% भी नहीं होते।
जो बहुत अमीर हैं, उनके लिए खाने-पीने का क्या बजट है? कुछ नहीं। लेकिन जो गरीब होता है, उसके मंथली बजट में खाना-पीना कभी 10% होता है, कभी 20%, और अगर बहुत गरीब है तो 40-50% भी होता है। उसकी रीढ़ टूट जाती है जब खाने-पीने की चीज़ों में, खाद्य पदार्थों में, महँगाई बढ़ती है।
और बढ़ किसकी वजह से रही है? — बढ़ अमीरों की वजह से रही है। उनके सब कर्म हैं। उनके जो कर्म हैं, जिससे क्लाइमेट चेंज होता है — उन्हीं चीज़ों को, उन्हीं कामों को, निचले तबके को एस्पिरेशनल बना के दिखा दिया जाता है कि तुम भी ये करो।
उदाहरण के लिए: कोई बड़ी भारी शादी हो — ये अमीरों का काम है। एकदम बिल्कुल मेले जैसी, जलसे जैसी शादियाँ करना। कोई बड़ी भारी शादी हो, जो निचला तबका है वो उसको देखता है और सोचता है — "मैं भी ऐसा ही कुछ करूँगा।" तुम वैसा तो कभी कुछ नहीं कर पाओगे। जितना पैसा उसमें लगता है, उसका 1/1000 पैसा भी तुम्हारे पास कभी होने नहीं वाला। लेकिन वो शादी तुम्हें एस्पिरेशनल बना के, चकाचौंध के साथ दिखा दी गई है। तो फिर उस शादी में जो एक बहुत बड़ा गुनाह था — तुम्हारे ही ख़िलाफ़, वो गुनाह छुप गया है।
जो कार्बन एमिशन हुआ है — ऐसी कोई, मान लो, ज़बरदस्त शादी हो — उसमें जो कार्बन एमिशन हुआ है, उसकी गाज़ किस पर गिरने वाली है? गरीब पर। तो गरीब के लिए गुनाह है ये, गरीब के ऊपर नाइंसाफ़ी हुई है। लेकिन ये तो छोड़ दो कि गरीब को लगेगा कि मेरे साथ कुछ ग़लत हुआ, मेरे साथ अन्याय हुआ — वो और ऐसे देखेगा कि — "वाह, क्या शादी है! एक दिन मेरी भी ऐसी ही शादी हो। मेरे घर में बड़ा मज़ा आएगा।"
ये जो हमें नशा दिया जा रहा है न, ये नशा मुझे बहुत आशा नहीं दे रहा कि हमारा कुछ हो सकता है।
प्रश्नकर्ता: लेकिन अभी भी मैं एक डिस्कनेक्शन देख रहा हूँ — कि मीडिया में जिन लोगों ने अब क्लाइमेट चेंज की बात करनी शुरू करी भी है, या तो शायद वो पूरी जो चैन ऑफ कॉज़ ऐंड इफेक्ट है, उसको समझ नहीं पा रहे हैं या उसकी बात करना नहीं चाहते हैं। कि वही जो कंज़म्प्शन वाली बात है, या पॉपुलेशन वाली बात है, उससे कभी क्लाइमेट चेंज को जोड़ के देखना ही नहीं चाहते। वो हमेशा बात करते हैं — "क्लाइमेट चेंज? जो हम टेक्नॉलॉजी से सही कर लेंगे।"
आचार्य प्रशांत: क्लाइमेट चेंज का कोई टेक्नॉलॉजिकल सॉल्यूशन नहीं हो सकता, भाई। क्लाइमेट चेंज आपकी जो कंज़म्प्शन की हवस है — ये उसका नतीजा है, और वो हवस किसी बिंदु पे जाकर रुकनी तो है नहीं।
देखो ऐसे समझो, ये मैं हूँ — ठीक है? और मुझे लगता है कि ये मेरी मंज़िल है और यहाँ से यहाँ तक जाने में मैं धुआँ छोड़ा करता था। हम कहते हैं — और जो धुआँ है, उससे हर तरह का प्रदूषण होता था। उसी में कार्बन एमिशन भी है, तो मान लो, उससे क्लाइमेट चेंज भी था। यहाँ से यहाँ जाने में — ये मैं हूँ, मैं यहाँ से यहाँ जाया करता था और इसी से हुआ करता था। अब ये कह रहे हैं कि यहाँ से यहाँ जाने की टेक्नॉलॉजी मैं बेहतर कर दूँगा। तो जो एमिशन है, वो कम हुआ करेंगे।
यही तो है न पूरा टेक्नॉलॉजिकल सॉल्यूशन का — कि ग्रीन एनर्जी और हर चीज़ को तुम डी-कार्बोनाइज़ कर दो, और इलेक्ट्रिफ़ाई कर दो — तो उससे एमिशन कम हो जाएगा। तो अब ये कह रहे हैं — देखो, यहाँ से यहाँ जाना है तुम्हें। पहले तुम यहाँ से यहाँ जाते थे, तो तुम 100 यूनिट धुआँ छोड़ते थे। अब हम बेहतर टेक्नॉलॉजी ले आएँगे — तो तुम यहाँ से यहाँ जाओगे, तो 80 यूनिट ही धुआँ छोड़ोगे, बहुत अच्छी बात है।
इन्हें ये नहीं समझ में आ रहा कि इस व्यक्ति को यहाँ तक ही नहीं जाना है — ये तो कामना के चलते ही चल रहा है न! और कामना कोई यहाँ जाकर पूरी थोड़ी हो जाती है? तुम बेहतर टेक्नॉलॉजी ले आ दोगे — ये कहेगा, "अब मुझे यहाँ नहीं जाना है, मुझे यहाँ जाना है।" कामना का स्वभाव ही यही होता है। ये कामना की प्रकृति है — कि वो यहाँ तक जाती थी, उसे मौका मिलेगा तो वहाँ तक जाएगी।
किसकी कामनाएँ आज तक पूरी हुई हैं?
तुम उसको बेहतर टेक्नॉलॉजी दे दोगे — तो वो कहेगा, "मुझे यहाँ तक नहीं, वहाँ तक जाना है।" अब यहाँ तक जाने में — पहले वो 100 यूनिट का एमिशन करता था, तुमने बेहतर टेक्नॉलॉजी दे दी — तो अब 80 का करता है। इसी बेहतर टेक्नॉलॉजी के साथ अगर उसको वहाँ तक जाना है, तो कितने का एमिशन कर देगा? 160 का कर देगा। तो पहले 100 होता था, अब 160 हो रहा है।
तो ये प्रॉब्लम सॉल्व हो गई क्या? क्लाइमेट क्राइसिस की, एमिशन की प्रॉब्लम सॉल्व हो गई? हम नहीं समझ पा रहे हैं कि सारी समस्या ये है — कि इसको पता ही नहीं है कि जाना कहाँ है! ये जानता ही नहीं — ये है कौन? इसे अपनी ज़िन्दगी के साथ करना क्या है? इसीलिए ये कंज़म्प्शन करे ही जा रहा है, करे ही जा रहा है।
"ही इज़ यूज़िंग कंज़म्प्शन एज अ सब्स्टीट्यूट फ़ॉर सेल्फ-नॉलेज।" ये कंज़्यूम कर-कर के, अपने आपको कंटेंटमेंट, पूर्णता, शांति देना चाहता है — जो मिल नहीं सकती। इतना कंज़म्प्शन करेगा — नहीं मिलेगी — तो अभी और बढ़ाएगा कंज़म्प्शन। आज अमीरों के पास जितना पैसा है, इतिहास में अमीरों के पास इतना पैसा कभी नहीं रहा। तो क्या उनको शांति मिल गई है?
वो और बढ़ाए जा रहे हैं न अपना कंज़म्प्शन, अमीर और अमीर हुए जा रहे हैं — अभी आपने ही डाटा दिया था — वो तो और ही बढ़ाए जा रहे हैं। तो हाउ कैन देयर बी अ टेक्नॉलॉजिकल सॉल्यूशन टू क्लाइमेट चेंज? क्लाइमेट चेंज इज़ अ क्राइसिस ऑफ़ ह्यूमन डिज़ायर टू कंज़्यूम (जलवायु परिवर्तन मानव की उपभोग प्रवृत्ति के कारण उत्पन्न संकट है)।
और वो डिज़ायर रुकने वाली नहीं है। हमको इतना अभी करने को मिल रहा है — और मिलेगा तो और करेंगे, और मिलेगा तो और करेंगे। तो उससे कोई बात बनने वाली नहीं है, हम समझ ही नहीं रहे कि असली समस्या क्या है। जो असली समस्या है, वो ये है कि हमको ना तो बाहर की एजुकेशन है, ना भीतर का ज्ञान है।
आम आदमी के पास आप जाओ — इस पिछले एक हज़ार साल में मानवता के सामने क्लाइमेट चेंज से बड़ी कोई समस्या नहीं आई है। ये इतनी बड़ी समस्या है कि हमारी ही पूरी स्पीशीज़ को वाइप आउट कर देगी। हमारी भी और हमारे साथ लाखों-करोड़ों अन्य प्रजातियाँ भी। सिक्स्थ मास एक्स्टिंक्शन फेज़ इसको कहा जा रहा है।
मास एक्स्टिंक्शन — कि लाखों प्रजातियाँ साफ़ होने वाली हैं क्लाइमेट चेंज की वजह से। और हम तड़प-तड़प के मरने वाले हैं, ऐसा नहीं कि एक झटके में मर जाओगे, कोई ऐस्टेरॉइड आया, टकराया और मर गए — तड़प-तड़प के मारोगे, 10-20 सालों में पहले तड़पोगे, पागल होओगे, मारोगे। ये इतनी भयावह बात है। लेकिन हम इसकी कोई बात कर थोड़ी ही रहे हैं।
हमें ये पता ही नहीं है कि क्या चल रहा है। तो बाहर के क्षेत्र में हमारे पास एजुकेशन नहीं है। हमें कोई फैक्ट्स नहीं पता, साइंटिफिक फैक्ट्स नहीं पता हैं। और भीतर हमको ये नहीं पता कि हम ये जो इतना एमिशन करते हैं कार्बन का — वो इसलिए करते हैं क्योंकि हम ख़ुद को नहीं जानते। जो आदमी ख़ुद को जानने लग जाता है न, उसमें भोग की हवस कम हो जाती है। उसको बहुत दूसरी जगहों से मौज मिलनी शुरू हो जाती है। वो हो सकता है कहीं बैठ के कुछ गाने लगे, गिटार बजाने लगे। कुछ नहीं कर रहा है — वो बस बैठा है, देख रहा है, सोच रहा है, कोई किताब पढ़ रहा है, कुछ लिख रहा है, किसी से बात कर रहा है, कहीं टहलने निकल गया है — उसको शांति मिल जाएगी। उसके लिए ज़रूरी नहीं है कि वो कंजम्पशन करेगा, मॉल में जाएगा, कुछ खरीदेगा, कुछ खाएगा — तभी उसको शांति मिलेगी।
और ये जो बेचैनी होती है, जो चुपचाप एक जगह नहीं बैठ सकती, जो बैठ के चुपचाप कोई अच्छी कविता, अच्छा साहित्य नहीं पढ़ सकती, कोई अच्छा गाना नहीं सुन सकती, किसी से शांति से प्यारी दो बातें नहीं कर सकती — यही वो बेचैनी है जो हमें मजबूर करती है कि जाओ भोगो। और उस भोगने की प्रक्रिया में सारी ग्रीनहाउस गैसेज़ का एमिशन होता है।
ये बात हम समझ ही नहीं पा रहे — हमारी संस्कृति में नहीं है, हमारी शिक्षा में नहीं है, भारत में नहीं है, पूरे विश्व में नहीं है। ये हमें समझ में नहीं आ रहा। हमें लग रहा है कि हमारा तो जन्म ही हुआ है हैप्पीनेस के लिए और हैप्पीनेस तो आती ही कंजम्पशन से है।
यहाँ तक कि हमने जो अपना पूरा रिलिजियस पैराडाइम भी बनाया है — दुनिया भर में — वो यही है कि रिलिजन एक्ज़िस्ट्स टू फुलफ़िल योर डिज़ायर्स।
प्रश्नकर्ता: पुण्य कमाओ, स्वर्ग जाओ
आचार्य प्रशांत: “पुण्य कमाओ, स्वर्ग जाओ,” मंदिर जाओ और मनोकामना पूरी करो — कि धर्म का काम है तुम्हारी कामनाएँ पूरी करना। हमने "कामना" को ही सत्य मान रखा है। हमने कामना को ही सर्वोच्च मान रखा है और उसी का परिणाम ये क्लाइमेट क्राइसिस है।
प्रश्नकर्ता: एक समय पे बात चलती थी कि मनी कांट बाय हैप्पीनेस। अब पिछले कुछ समय से हो गया कि मनी कैन बाय हैप्पीनेस, एँड व्हाई नॉट गो फॉर इट? तो बेसिकली एक तरह का अंधविश्वास ही फैला हुआ है — ज़बरदस्त अंधविश्वास है। दुबई का ऐड चलता है: "इफ यू थिंक मनी कांट बाय हैप्पीनेस, कम टू दुबई!"
आचार्य प्रशांत: हम सोचते हैं कि अंधविश्वासी बस वो है जो टोना-टोटका कर रहा है, भूत-प्रेत-चुड़ैल में विश्वास कर रहा है। उन पर हँस देते हैं — कि अंधविश्वासी, पागल, अशिक्षित है, ये कुछ जानता नहीं। लेकिन उतना ही बड़ा अंधविश्वास बस यही सब भी है — कि भीतर अगर खोखलापन लग रहा है, अपूर्णता लग रही है तो जाओ दुबई में शॉपिंग कर लो। ये भी बराबर का अंधविश्वास है।
प्रश्नकर्ता: बट ये किसी तरह तो कॉल आउट करना पड़ेगा न? क्योंकि हो ये रहा है कि किसी भी व्यक्ति की लाइफ़ में कोई भी प्रॉब्लम खटकती है, तो उसको ऐसा लगता है कि शायद ये प्रॉब्लम इकॉनमी की ही है। "मैं एक बेहतर गाड़ी में ट्रैवल करूँगा", मैं बेहतर ऑफिस में चला जाऊँगा, बेहतर नौकरी पकड़ लूँगा — तो सब सॉल्व हो जाएगा।"
और उसी दौड़ में लोग फिर —
आचार्य प्रशांत: देखो, ये सब हमेशा से रहा है। क्योंकि जो हमारी प्राकृतिक टेंडेंसी है — वो तो यही है कि भीतर मुझे कुछ गड़बड़ लग रही है तो मुझे बढ़िया सी कोई पीने की चीज़ दिखाई दी — मैं खट से लपक के इसको उठा लूँगा। आँखों ने इसको दिखाया, हाथ ने इसको लपका, मन ने सोचा और मुँह ने घटका। तो ये तो प्राकृतिक टेंडेंसी होती ही है — कि भीतर कुछ गड़बड़ लग रही है तो बाहर से कोई चीज़ लेकर घटक लो, तो शांति मिल जाएगी। ये हमेशा से रही है।
लेकिन इस टेंडेंसी के खिलाफ़ चेतावनी देने वाले लोग भी हमेशा से रहे हैं। बहुत अच्छा साहित्य है जो हमें लगातार ये बताता रहा है — और वो लगभग ये कंटिन्यूम में उपलब्ध है। और भारत में ही नहीं, विश्व की अन्य सभ्यताओं में भी उपलब्ध है — जिन्होंने बताया है कि इस तरीक़े से तुमको वो नहीं मिलेगा जो तुम चाहते हो।
आप एँशिएँट ग्रीक लिटरेचर को ले लो। उसमें आप हेराक्लाइटस की बातें पढ़ लो, आप प्लेटो की बातें पढ़ लो। सुकरात को आप कैसे भूल सकते हो? डायोजनीस को आप कैसे भूल सकते हो? इन लोगों की बातें पढ़ लो। ये बात कब की हो रही है? ये ईसा से 500–700 साल पहले की बातें हैं। हमारे उपनिषदों को देख लो, बुद्ध की वाणी को देख लो, उसके बाद संत वाणी को देख लो। सब तो बार-बार लगातार बताते ही रहे हैं ना कि ये जो तुमने मॉडल बनाया हुआ है ज़िन्दगी का, ये मॉडल फॉल्टी है। तुम्हारे मॉडल में ये है कि मैं जाऊँगा, फलानी चीज़ पा लूँगा, उसको भोग लूँगा और सैटिस्फैक्शन मिल जाएगा। ऐसे नहीं होता बाबा।
तो नैचुरल टेंडेंसी रही है इसको लपकने की। लेकिन साथ ही साथ ये बताने वाले लोग भी लगातार रहे हैं कि इसको लपक के तुझे वो नहीं मिलेगा जो तुझे चाहिए। अब आज के समय में लपकाने वाली जो ताकतें हैं, वो ज़्यादा हावी हो गई हैं। वो आवाज़ें जो खुल के बता सकें कि लपकने से नहीं होगा — वो आवाज़ें कमज़ोर पड़ गई हैं, और वो आवाज़ें अगर हैं भी, तो उनको एम्प्लिफ़िकेशन नहीं मिल रहा है।
क्योंकि आज का जो युग है, ये सूचना प्रौद्योगिकी का युग है। पहले क्या होता था? कि कोई संत निकलेगा और चौराहों पे गा देगा और इससे लोगों को समझ में आ जाएगी बात। आज तो जिसके पास ब्रॉडकास्टिंग की पावर और रीच है, उसकी आवाज़ लोगों तक पहुँचेगी। तो अगर ऐसी आवाज़ें हैं भी जो लोगों को वही सच्चाई बताना चाहती हैं जो ज्ञानीयों ने, संतों ने, उन्हें हज़ारों सालों से बताई — तो आज वो आवाज़ें कमज़ोर पड़ गई हैं।
पहले क्या था? कि एक थोड़ा सा इक्विलिब्रियम बना रहता था। कि आम आदमी भागता था कंज़म्पशन की तरफ़, लेकिन पीछे से एक समझदारी भरी आवाज़ आ के उसको रोक लेती थी— कि "बेटा, ठीक है, कर ले कंज़म्पशन, लेकिन इससे तुझे वो नहीं मिलेगा जो तू चाहता है।" तो एक तरह का, मैंने कहा, एक इक्विलिब्रियम बना रहता था, आज वो इक्विलिब्रियम टूट गया है।
आज आपको कंज़म्पशन की ओर भेजने वाली ताकतें बहुत बड़ी-बड़ी हैं। लेकिन आपको कंज़म्पशन से रोकने वाली जो आवाज़ें हैं, वो कमज़ोर पड़ गई हैं। कमज़ोर इसलिए नहीं कि उनमें दम नहीं है, कमज़ोर इसलिए कि उनको एम्प्लिफ़िकेशन नहीं है।
प्रश्नकर्ता: मैं इसी में एक चीज़ ऐड करना चाह रहा था— कि ये एल्गोरिद्म का युग है, और इसको एक टर्म की तरह बोलते हैं "एल्गोरिद्म वेब" कि मेरे फ़ोन में मुझे यूट्यूब वही दिखाता है जिससे उसे पता है कि मैं यूट्यूब को चलाता रहूँगा।
आचार्य प्रशांत: तो हम ये जो बात कर रहे हैं— उदाहरण के लिए — सोशल मीडिया इसको एम्प्लिफ़ाई नहीं करने वाला,
प्रश्नकर्ता: उल्टा रोक देता है।
आचार्य प्रशांत: बिल्कुल रोक दिया जाएगा। हमारे पिछले कई ऐसे वीडियोज़ रहे हैं जो हमने — बिल्कुल जो कंटेम्पररी क्रिटिकल इश्यूज़ हैं — उन पर बनाए हैं, उनकी रीच रुक जाती है, सभी सोशल मीडिया पर रुक जाती है। संभावना यही है कि ये बात भी जो हम कर रहे हैं — अगर ये बात अपलोड होगी, तो इसकी रीच रोकी जाएगी। तो कैसे लोगों तक बात पहुँचे? तो इक्विलिब्रियम टूट गया है।
दूसरी ओर वो आवाज़ें जो लोगों को बेवक़ूफ़ बना रही हैं, और कह रही हैं: "हैप्पीनेस! हैप्पीनेस! कन्ज़्यूम कर दो, तोड़ दो, फोड़ दो, इसमें मौज कर लो!" वो आवाज़ें एम्प्लिफ़ाई हो जाती हैं। हमारी आवाज़ नहीं होती है। तो वो, इसलिए ये सारी बात है।
प्रश्नकर्ता: और शायद लोगों को पता भी नहीं है ये बात। यूट्यूब बोलता है कि इस तरह का कंटेंट — जो लाइफ़ के सीरियस मुद्दों पे बात करता है — वो एडवर्टाइज़र फ्रेंडली नहीं है।
आचार्य प्रशांत: एडवर्टाइज़र फ्रेंडली नहीं है क्योंकि हमारे कंटेंट को इसको ये कह दिया जाता है — ये नेगेटिव कंटेंट है। क्योंकि इससे लोगों की जो हैप्पीनेस है, वो कम हो जाती है। ये बात सुन के लोगों की हैप्पीनेस कम हो रही है या हम लोगों को सच्चाई बता रहे हैं? और ये बड़ी एक रोचक चीज़ है— कि ये कौन सी हैप्पीनेस है जो सच्चाई सुनने पर कम हो जाती है? और अगर हैप्पीनेस ऐसी है जो सच्चाई से कम होती है, माने तुम्हारी हैप्पीनेस झूठ है। तो ऐसी हैप्पीनेस से तो बचो, बेहतर हैप्पीनेस के रास्ते खोजो, ऊँची हैप्पीनेस के रास्ते खोजो, उसको आनंद बोलते हैं।
हम जिसको हैप्पीनेस बोल रहे हैं, ये पागलपन है। ये इसी ने हमें बर्बाद कर दिया।
प्रश्नकर्ता: ये एक शराबी की ओर शराब पीने की तरफ जाने की कोशिश है और कुछ नहीं। एक्चुअली, मैं इसमें अभी एक चीज़ और देख रहा था कि शायद इतने दिनों से लोग टीवी देखते हैं, न्यूज़ देखते हैं। 25 जुलाई पृथ्वी का आज तक का सबसे गरम दिन था। पर ये बात कहीं मीडिया में नहीं।
आचार्य प्रशांत: ये बात मीडिया में नहीं आएगी। ना इस पर कोई बात करना चाहेगा क्योंकि इस तरह की बातें नेगेटिव हैं ना। नेगेटिव बातें क्यों कर रहे हो? मूड बेहतर रखो। मूड अच्छा होना चाहिए।
प्रश्नकर्ता: और रादर, मैं इसी से जुड़े जैसे आपने बात कही थी कि किस तरह से आने वाले समय में जो क्लाइमेट चेंज का पूरा प्रभाव है, वो पड़ने वाला है गरीबों पर। तो उसको लेकर बहुत सारे ऐसे तथ्य हैं जो रिपोर्ट्स में आते रहते हैं, पर लोगों की नजर में नहीं आते। मैं यदि कुछ आपके सामने रख सकता हूँ—
अभी ये बताया जा रहा है कि क्लाइमेट चेंज की वजह से जो गरीब आदमी है, उसका लाइवलीहुड डिपेंड करता है “नेचुरल रिसोर्सेज़* पर ही। यूजुअली तो कम से कम दुनिया के जो 70% पुअर पापुलेशन है, उसके लाइवलीहुड पर बात आ जाएगी। जैसे ही क्लाइमेट चेंज और आगे बढ़ेगा, ये इसमें ये तक बता रहे हैं कि क्योंकि जैसे हमने कहा अभी कि क्लाइमेट चेंज की वजह से जो अनाज है, वो महंगा होने वाला है या उसकी पैदावार कम होने वाली है। उसकी वजह से सिर्फ़ अफ़्रीका में 60 करोड़ लोगों को मैलन्यूट्रिशन की प्रॉब्लम होने वाली है।
आचार्य प्रशांत: जब उन्हें मैलन्यूट्रिशन होगा ना, तो यही लोग जो क्लाइमेट चेंज के जिम्मेदार हैं, ये फिलैंथ्रॉपी दिखाएँगे।
प्रश्नकर्ता: कि “हम प्रोग्राम चलाते हैं वहाँ।”
आचार्य प्रशांत: ये सब अमीरों ने अपनी-अपनी फिलैंथ्रॉपीज़ खड़ी कर रखी हैं। जैसे ही अफ्रीका में भूखमरी फैलेगी, ये वहाँ जाकर के एक मिलियन डॉलर डोनेट कर देंगे और कहेंगे — “मुझको देखो, मैं देवता हूँ, मैंने आकर के तुमको बचाया।” ये नहीं बताएँगे कि तुम जो मर रहे हो, वो मर मेरी वजह से रहे हो, ये नहीं बताएँगे।
प्रश्नकर्ता: अभी तक ऐसा रहा है कि भारत — मतलब पूरे पृथ्वी के इतिहास में — हम लोग कहते हैं कि जैसे-जैसे प्रोग्रेस बढ़ रही है, हम लोगों को गरीबी से बाहर निकाल रहे हैं। ये ऐसी आशंका है कि जिस तरह से क्लाइमेट चेंज बढ़ रहा है, आने वाले दस साल के अंदर तेरह करोड़ लोग गरीबी में धस जाएँगे।
आचार्य प्रशांत: और इनका जो पूरा लॉजिक है, वही ये है कि — “देखो, सब कुछ अच्छा-अच्छा ही हो रहा है ना। पिछले दो सौ सालों में हमने प्रति व्यक्ति आय इतनी बढ़ा दी, प्रति व्यक्ति आयु इतनी बढ़ा दी, सब कुछ अच्छा-अच्छा ही हो रहा है। द कर्व हैज़ एन अपवर्ड स्लोप। जब सब कुछ अच्छा-अच्छा हो रहा है, तो अचानक क्लाइमेट चेंज बुरा कैसे हो जाएगा?”
भाई साहब, क्यों नहीं हो सकता? एक गाड़ी की स्पीड बढ़ रही है, बढ़ रही है, बढ़ रही है आप कह सकते हो — “सब अच्छा-अच्छा हो रहा है।” लुक एट द एक्सेलरेशन! द कर्व इज़ राइज़िंग! और वो अचानक जाकर के एक्सीडेंट क्यों नहीं हो सकता उसका? तो ये बहुत ये बेकार का लॉजिक है कि पिछले 200 सालों में, हमने पर कैपिटा इनकम भी बढ़ा दी है और मेडिकल फैसिलिटीज़ बढ़ा दी है, लिटरेसी बढ़ा दी है, एवरेज लाइफ स्पैन बढ़ा दिया है। तो सब कुछ अच्छा ही तो हो रहा है ना।
सब अच्छा नहीं हो रहा है। वी आर हेडिंग टुवर्ड्स वन ऑफ़ द ग्रेटेस्ट कैलेमिटीज दैट मैनकाइंड हैज़ एवर सीन। और वी आर नॉट हेडिंग टुवर्ड्स इट। वी आर राइट इन द थ्रोस ऑफ़ इट। वी आर इन द इन द मिडिल ऑफ़ इट।
प्रश्नकर्ता: एक बात है जो लोगों को अक्सर समझ नहीं आती कि हम बात करते हैं अंटार्कटिका की, तो जैसे अंटार्किका की बात करते हैं तो मन में एक ऐसी जगह की इमेज बनती है जो ठंडी है और वो ठंडी ही रहती है। पर इस वक्त जब हम बात कर रहे हैं तो अंटार्कटिका में जो एवरेज टेंपरेचर है, वो 10° से बढ़ चुका है जो कि एक हीट वेव मानी जा रही है वहाँ के हिसाब से।
आचार्य प्रशांत: लद्दाख में हीट वेव चल रही है। ठीक इस समय पर, ये कुछ नहीं है।
आदमी ऐसा जानवर है जिसके पास ताकत बहुत है, पर उसको शिक्षा से वंचित कर दिया गया है।
अगर भारत को लो तो बहुत सारे अशिक्षित लोग हैं। 26% तो वे हैं जो लिटरेट भी नहीं हैं, जो ‘क’ भी नहीं लिख सकते। जी। और जो अपने आप को लिटरेट बोलते भी हैं, उनके पास ज़्यादातर बस प्रोफेशनल वोकेशनल एजुकेशन है। वो भी बहुत थर्ड क्लास। हमारे पास है नहीं लिटरेसी।
थोड़ा बहुत हम अगर पढ़ते भी हैं तो बस इसलिए पढ़ते हैं कि नौकरी लग जाए। वरना सचमुच हमें कुछ नहीं पता कि दुनिया में क्या चल रहा है। हम कुछ नहीं जानते हैं कि एक चीज़ का दूसरी चीज़ से रिश्ता क्या है, हमें नहीं पता। और भीतरी एजुकेशन, लाइफ एजुकेशन, एजुकेशन ऑफ द सेल्फ, आत्मज्ञान उसकी तो हम दूर-दूर तक कोई बात भी नहीं करते। कुल मिलाकर यही मूल कारण है इस तबाही का।
प्रश्नकर्ता: और साथ ही मैंने ये भी देखा है कि जो लोग अपने आप को पढ़ा-लिखा मानते हैं और कहते हैं, वही लोग हैं जो सबसे ज्यादा बिलेनियर्स और ऐसे लोगों के प्रोपेगैंडा में फँस जाते हैं, और वो फैक्ट चेक करना भी नहीं समझते।
आचार्य प्रशांत: ये कितनी अजीब बात है कि जो आपका अपराधी है, उसको ही आपने अपना आदर्श बना लिया है। कितना हंसते होंगे ये लोग कि, ये जो साधारण लोग हैं — द मिडिल क्लासेस एँड द लोअर क्लासेस — ये कितने बेवक़ूफ़ हैं।
इनको पता ही नहीं है कि हम इन्हें एक्सप्लॉइट करते हैं, ये सब जो पूँजीपति और जो पावरफुल लोग हैं, और जो सत्ताधारी लोग हैं, ये रोज़ रात को सोने से पहले खूब हँसते होंगे। कहते होंगे कि इतनी स्टूपिड ये हो सकती हैं क्लासेस — द मिडिल क्लासेस एँड द लोअर क्लासेस। हमने सोचा भी नहीं था। हम इनका एक्सप्लॉइटेशन करते हैं और ये हमें भगवान मानते हैं। और जितना ज़्यादा हम इनको एक्सप्लॉइट करते हैं, ये उतना ज़्यादा हमें भगवान मानते हैं।
प्रश्नकर्ता: ये सब भी ज़्यादा जो एशियन और अफ्रीकन कंट्रीज में ही ज़्यादा होता है, जो इस तरह की वरशिप होती है। अभी मैं एक रिसर्च पेपर देख रहा था, क्लाइमेट चेंज और इनकम इनइक्वालिटी का रिलेशनशिप देख रहे थे। तो डेवलप्ड कंट्रीज में डिस्ट्रीब्यूशन उतना चेंज नहीं हुआ है, पर जो डेवलपिंग कंट्रीज हैं, उनमें क्लाइमेट चेंज का असर इनइक्वालिटी पर बहुत ज़्यादा है।
आचार्य प्रशांत: आम आदमी को समझ में ही नहीं आ रहा है कि क्लाइमेट चेंज का पूरा कहर उसी पर टूटने वाला है। आम आदमी को समझ में भी नहीं आ रहा कि ये पॉलिटिशियंस, ये इन्फ्लुएँसर्स, ये एक्टर्स, ये इंडस्ट्रियलिस्ट्स, ये कैपिटलिस्ट्स ये सब बच निकलेंगे, इनकी तादाद ही 1% है कुल। ये सब बच निकलेंगे। ये आम आदमी जो है सड़क पर, ये बर्बाद होगा, और ये आम आदमी है जो इन्हीं सब लोगों को अपना रोल मॉडल मानता है। तुम्हारे रोल मॉडल्स ने ही तुम्हें बर्बाद कर दिया है।
तुम्हारे रोल मॉडल्स ही हैं जो तुम्हारा खून बहाने वाले हैं। तुम इनकी पूजा कर रहे हो, ये तुम्हें बर्बाद कर रहे हैं।
प्रश्नकर्ता: मैं इसमें एक बहुत जरूरी प्रश्न है, जिसको रखना चाहूँगा। अक्सर ऐसा होता है कि जब आप बिलेनियर्स के कंज़म्पशन की बात करते हैं, तो हो सकता है कुछ लोग आपको टाइपकास्ट करना चाहें कि ये तो जो हैं बिलेनियर या कैपिटलिस्ट के विरोधी हैं। प्रॉबैब्ली कम्युनिस्ट या लिफ्ट आइडियोलॉजी की तरफ़ जाते हैं। तो आप जब उनके विरोध की बात करते हैं, तो उसके पीछे कारण क्या है?
आचार्य प्रशांत: मैं कंज़म्पशन की बात कर रहा हूँ ना। दे आर रोल मॉडल्स फॉर यूज़लेस, मीनिंगलेस, इफेक्टलेस, कॉन्सपिक्युअस कंसंप्शन। देखो कैपिटल बहुत अच्छी चीज़ हो सकती है, अगर आप उसका सही उपयोग करना जानो। कैपिटल से अगर आप देश में एजुकेशनल इंफ्रास्ट्रक्चर खड़ी कर दो तो बहुत अच्छी चीज़ है कैपिटल। कैपिटल होनी चाहिए। क्यों नहीं होनी चाहिए?
पर कैपिटल इसलिए है अगर कि आप उससे एक फ्लीट खड़ी कर दो, हज़ार सबसे महँगी कारों की, 100 आपने प्राइवेट जेट खड़े कर दिए हैं, आपने तमाम तरह के द्वीप खरीद लिए हैं उन पर मेंशंस कर दिए हैं, आप हज़ारों करोड़ों की शादियाँ कर रहे हैं, आप हर तरह की मूर्खताएँ कर रहे हैं — तो वो फिर कैपिटल नहीं है। वो तो छाती का रोग है, बिल्कुल।
कैपिटल चाहिए, भारत जैसे देश में कैपिटल की ज़रूरत है। क्योंकि जहाँ पर सड़कें इतनी खराब हों कि बच्चे स्कूल ना जा सकें, और स्कूल पहुँच भी जाएँ तो स्कूल में छत नहीं हो, वहाँ हमें कैपिटल चाहिए, कैपिटल में कोई दिक्कत नहीं है। देखो, कैपिटल और कैपिटलिज़्म दो अलग-अलग बातें होती हैं। कैपिटलिज़्म का मतलब होता है अन एँडिंग पर्स्यूट ऑफ प्रॉफिट्स। उसमें जो प्रॉब्लम है वो अन एँडिंग शब्द के साथ है।
कैपिटल माने तो पूँजी, पूँजी जिसका अच्छा निवेश भी करा जा सकता है। कैपिटल के साथ हमें कोई समस्या नहीं है। *कैपिटलिज़्म कहता है अन एँडिंग चेज़ ऑफ प्रॉफिट्स। कितना भी हो गया हो प्रॉफिट, अभी और बढ़ाना है। कितना भी हो गया और बढ़ाना है। इसमें क्या समस्या है? इसमें दो तरफ़ समस्याएँ हैं।
मैं कैपिटलिस्ट हूँ। ये मैं बीच में खड़ा हूँ, ये कौन है? — ये कैपिटलिस्ट है, ये कैपिटलिज़्म को फॉलो करता है। कैपिटलिज़्म क्या बोलता है? जितना मुनाफ़ा पिछले साल था, उससे ज़्यादा इस साल होना चाहिए। इसी को क्या बोलते हैं? ग्रोथ। जितना पिछले साल था, उतना इसी साल है, तो जो बोर्ड है वो सीईओ को फायर कर देगा और जो शेयर प्राइस है, वो राइज़ नहीं करेगा, ठीक है ना?
तो ये यहाँ बैठा हुआ है, अब इसको मुनाफ़ा हर साल बढ़ाना है, हर साल माने हर साल बढ़ाना है। हर साल बढ़ाना है तो इसको फिर प्रोड्यूस भी करना पड़ेगा उतना। तो इसको रिसोर्सेज़ चाहिए। रिसोर्सेज़ कहाँ से आनी हैं? — पृथ्वी है। ये कैपिटलिस्ट है, इसके पीछे पृथ्वी है। अगर इसको अपना लगातार मुनाफ़ा बढ़ाना है, तो इसे पृथ्वी से लगातार रिसोर्सेज़ निकालने पड़ेंगे। निकालने पड़ेंगे ना? कैसे देगी पृथ्वी? इतने रिसोर्सेज़ हैं ही नहीं।
अर्थ ओवरशूट डे क्या होता है?
प्रश्नकर्ता: जो अभी 1 अगस्त को होता है।
आचार्य प्रशांत: हाँ, वो क्या होता है?
प्रश्नकर्ता: कि पृथ्वी एक साल के अंदर जितनी रिसोर्सेज़ पैदा कर सकती है, रिन्यू कर सकती है, हमने उसी को एक्सीड कर लिया।
आचार्य प्रशांत: तुमने एक्सीड कर दिया। उसमें ये बताया जाता है कि तुम जिस हिसाब से कंजम्प्शन कर रहे हो, जिस रेट से — इस रेट से — जो साल भर की सस्टेनेबल लिमिट थी, वो किस दिन तुम खा गए। और ग्लोबली वो आ जाता है अब जुलाई-अगस्त में, कभी आ जाता है। और जब वो कंट्री-वाइज़ देखा जाता है, तो उसमें ये भी देखा जाता है कि अगर सब लोग अमेरिका जितना कंजम्प्शन करने लगें, तो ओवरशूट डे कब आ जाएगा? वो ओवरशूट डे फिर फ़रवरी-मार्च में आ जाता है।
क्योंकि पृथ्वी के पास इतने रिसोर्सेज़ ही नहीं हैं कि आप लगातार प्रोडक्शन कर सको। आप जो प्रोडक्शन कर रहे हो, आप कुछ भी प्रोड्यूस करो, उसके लिए रिसोर्सेज़ चाहिए ना। कहाँ से आएँगे रिसोर्सेज़? पृथ्वी तो एक ग्रह है। उसका आकार तो नहीं बढ़ रहा, वो रिसोर्सेज़ कैसे देगा आपको? वो पानी कैसे देगा? वो मिनरल्स कहाँ से देगा? वो ज़मीन कहाँ से देगा? वो कुछ भी कैसे दे देगा? आपको हवा कहाँ से देगा?
तो ये जो कैपिटलिस्ट है, इसको बाय डिज़ाइन अर्थ को एक्सप्लॉइट करना पड़ेगा। पहली समस्या ये है कैपिटलिज़्म के साथ। अन एँडिंग चेज़ ऑफ़ प्रॉफ़िट्स।
दूसरी समस्या ये है कि अगर ये प्रोड्यूस कर भी रहा है, तो इसे बेचना पड़ेगा। पीछे से तो अर्थ को एक्सप्लॉइट करेगा, अब बेचना है, तो इसे कंज़्यूमर चाहिए। कंज़्यूमर क्यों खरीदे? कंज़्यूमर तभी खरीदेगा जब तुम कंज़्यूमर को ब्रेनवॉश करो, ख़रीदने के लिए। नहीं, कंज़्यूमर के पास कोई इनेट नीड नहीं है तुम्हारे प्रोडक्ट की।
कंज़्यूमर के पास कोई सच्ची आंतरिक ज़रूरत है ही नहीं कि वो तुम्हारा प्रोडक्ट या सर्विस ख़रीदे। तो तुम एडवर्टाइज़मेंट के थ्रू और सोशल कल्चर को मैनिपुलेट करके — कंज़्यूमर को विवश करते हो कि वो तुम्हारी प्रोडक्ट्स और सर्विसेज़ को ख़रीदे। अपने माल को बेचने के लिए ये जो कैपिटलिस्ट है, ये पूरी मार्केट को मैनिपुलेट करता है, कंज़्यूमर को मैनिपुलेट करता है — माने हमको, आपको मैनिपुलेट करता है। जिस चीज़ की हमको ज़रूरत है भी नहीं, हमें विज्ञापन के द्वारा ये जताया जाता है कि ये चीज़ तुम्हारी ज़िन्दगी में होनी चाहिए।
तो ये जो कैपिटलिज़्म है, ये पीछे से पृथ्वी का दोहन करता है और आगे से उपभोक्ता का शोषण करता है। ये समस्या है सारी। कैपिटल में कोई दिक्कत नहीं साहब, कैपिटल तो हमें चाहिए होती है। यूनिवर्सिटी कैसे बनेगी कैपिटल के बिना? अस्पताल कैसे बनेंगे कैपिटल के बिना? और बहुत अच्छे-अच्छे काम हो सकते हैं, साइंटिफ़िक रिसर्च कैसे होगी कैपिटल के बिना?
आरएनडी के लिए भी कैपिटल चाहिए, कैपिटल बहुत अच्छी चीज़ है। बात ये है कि वो कौन है जो कैपिटल का दुरुपयोग कर रहा है? कैपिटल तो एक रिसोर्स है। वो कौन है जो उस रिसोर्स को मिसयूज़ कर रहा है? वहाँ पर फिर कैपिटलिस्ट आ जाता है। और कैपिटलिज़्म हमें दिखाई देता है — कि गुनहगार है।
कैपिटलिज़्म कैसे चलेगा बिना कंज़्यूमरिज़्म को प्रमोट करे, ये बता दो।
प्रश्नकर्ता: जी, मतलब मैं तो बहुत ज़मीनी उदाहरण ले रहा हूँ कि मेरे फ़ोन में वो खाना डिलीवर करने वाली ऐप है। वो जानबूझकर दिन में 12 बार नोटिफ़िकेशन भेजते हैं — कि अभी चाय पी लो, अभी बिस्किट खा लो, अभी ऐसा कर लो, अभी वैसा कर लो।
आचार्य प्रशांत: कैपिटलिज़्म चलता रहे, इसका माल बिकता रहे। इसके लिए ज़रूरी है कि आप कंज़्यूमर बने रहो ना। तो कैपिटलिज़्म के प्राण कंज़्यूमरिज़्म में बसे हुए हैं और कंज़्यूमर का मतलब है कि जो इंसान है, इंसान को इंसान मत रहने दो, उसे कंज़्यूमर बना दो। उसको ऐसा हवशी जानवर बना दो कि हर समय कंज़्यूम करने के लिए पागल रहे। कभी ये ऑर्डर कर रहा है, कभी ये खरीद रहा है, कभी वहाँ जा रहा है, कभी ये सर्विस चाहिए।
इंसान को इंसान रहने ही मत दो, पागल कर दो। उसको बाज़ार का ग़ुलाम बना दो।
प्रश्नकर्ता: हर 15 दिन में एक सेल लगा दो।
आचार्य प्रशांत: ये सेल लगाओ, इस तरीक़े से उसको मैनिपुलेट करो, उस तरीक़े से उसको मैनिपुलेट करो। कैपिटलिज़्म ये सब कर देता है, ये समस्या है।
कैपिटलिज़्म के ख़िलाफ़ होने का ये मतलब नहीं है कि मैं कह रहा हूँ कि सबको ग़रीब हो जाना चाहिए। कैपिटलिज़्म का मैं इस अर्थ में विरोध करता हूँ कि वी शुड नो हाउ टू इन्वेस्ट द कैपिटल। वरना कैपिटल में कोई दिक़्क़त नहीं है, कैपिटल चाहिए। कैपिटल अच्छी चीज़ है।
प्रश्नकर्ता: इन अ वे, कॉन्शियस कैपिटलिज़्म।
आचार्य प्रशांत: कॉन्शियस कैपिटलिज़्म। वो फिर कैपिटलिज़्म भी नहीं है ना। क्योंकि कैपिटलिज़्म में तो मूल बात यही है कि — मुझे तो एक्सपेंड करना है, कैंसर की तरह बढ़ते जाना है मुझे।
क्या अंत है? कहाँ रुकोगे? नहीं रुकना, कहीं नहीं है। मुझे बस बढ़ते जाना है। क्यों बढ़ते जाना है? कारण बता दो। नहीं, वो मैं जानता ही नहीं। मुझे क्यों बढ़ते जाना है? मेरी हवस है मुझे बढ़ते जाना है, ये कैपिटलिज़्म है।
प्रश्नकर्ता: यूएस में भी सबसे ज़्यादा क्लाइमेट डिनायर्स जो हैं —
आचार्य प्रशांत: जो कैपिटलिस्ट हैं — वो उसे क्लाइमेट डिनायर होना पड़ेगा, उसे होना ही पड़ेगा। ईलॉन मस्क लगे हुए हैं बोलने में कि — "नहीं नहीं, क्लाइमेट चेंज उतनी बड़ी बात नहीं है, बच्चे पैदा करो।"
प्रश्नकर्ता: वो तो उल्टा ये बोलते हैं कि — "क्लाइमेट चेंज तो कोई प्रॉब्लम नहीं है। जो सबसे बड़ी प्रॉब्लम हमारे सामने आने वाली है, वो पॉपुलेशन कोलैप्स की है।"
लेकिन मैं अभी एक बात उसमें और ऐड करना चाहूँगा। आप इस विषय पर पिछले शायद 10–11 साल से तो बात कर रहे हैं, क्योंकि मैंने ही वो वीडियोज़ भी सुने हैं।
आचार्य प्रशांत: और पहले से। मगर कॉलेज स्टूडेंट्स को देखूँ, तो उनके साथ पहली बातचीत मेरी 2007-08 में हुई थी — बड़ी बातचीत।
प्रश्नकर्ता: जब आपने एक एक्टिविटी बनाई थी इस पर।
आचार्य प्रशांत: क्लाइमेट चेंज पर पहली एक्टिविटी 2006 में बनाई थी कि — "इसके माध्यम से हज़ारों स्टूडेंट्स तक एकदम डाटा के साथ में बात पहुँचाऊँगा।" उसके बाद मंचों से इसकी बात करनी मैंने 2007-08 से शुरू करी थी।
तो 15 साल से ज़्यादा हो गए हैं। मैं क्लाइमेट चेंज के बारे में लगातार बोलता जा रहा हूँ, बोलता जा रहा हूँ, बोलता जा रहा हूँ। लगातार बोलता जा रहा हूँ, कोई सुनने वाला नहीं है। और जब कहीं ऐसी आपदा हो जाती है और इतनी सैकड़ों जाने चली जाती हैं, तब लोग एक-आध दिन के लिए ऐसे आँख खोल के थोड़ा देखते हैं और फिर अपने नशे में मदहोश हो जाते हैं।
प्रश्नकर्ता: और बड़ा हास्यास्पद लगता है कि मीडिया चैनल वाले ऐसे पूछते हैं कि — "आचार्य जी, इस आपदा पर कुछ देर बोल देंगे क्या?"
आचार्य प्रशांत: इससे यही पता चलता है कि मैं आज तक जो बोल रहा था, तुमने उसको कभी सुनना ही नहीं चाहा। और ये एक डेलिबरेट डिनायल है, ये भी एक तरह का क्लाइमेट डिनायल ही है। क्योंकि जितना मैंने बोला है, उसके बाद भी किसी ने कभी सुना न हो — ये हो नहीं सकता। इसका मतलब ये है कि जो मेरी बात है, तुम्हारे सामने तो आई होगी, तुमने उस बात को ऐसे परे हटा दिया।
कि नेगेटिव बातें हमें नहीं सुननी, ज़रा कुछ अच्छी बातें हों। गाना-वाना लगाओ, मौज हो जाए। थोड़ा मीट-वीट का कोई गाना है?
प्रश्नकर्ता: "आचार्य जी बड़े नेगेटिव हैं।" पर फिर मुझे शिकायत उन लोगों से भी है, जिन्हें बात समझ में आती है। ना वो वीडियोज़ को आगे बढ़ाते हैं, और ना ही वो इन बातों को दूसरे मंचों से खुद पहुँचाते हैं आगे।
आचार्य प्रशांत: एक समझ चाहिए ज़िन्दगी की, जिसकी शिक्षा हमको दी नहीं जा रही है। हमारी पूरी शिक्षा में "आई" नाम का विषय नहीं है। "आई" माने "मैं" हर चीज़ के बारे में पढ़ाया जा रहा है, अपने बारे में नहीं पढ़ाया जा रहा। तो हमें नहीं पता कि हमारी डिज़ायर्स कहाँ से आती हैं, क्यों आती हैं। हम अपने आपको नहीं जानते और यही वजह है कि इंसान अब इस हालत में पहुँच गया है कि बचना बड़ा मुश्किल है।
प्रश्नकर्ता: इसका जो एक समाधान है — अध्यात्म।
आचार्य प्रशांत: अध्यात्म के साथ क्या हुआ ना अनुपम, अध्यात्म को तो सब बाबा लोग खा गए। जैसे किसी से "अध्यात्म" बोलो तो उसको लगता है जंतर-मंतर, जादू-टोना की बात होने जा रही है। तो लोग वहाँ से ऐसे भाग जाते हैं कि — "ये कुछ अब पिछड़ी हुई, अंधविश्वासी बातें होंगी, ये हमें सुननी नहीं हैं।" और वो बातें भी अगर उनको सुननी हैं, तो पिछड़ेपन के भी तो स्पेशलिस्ट होते हैं ना! वो कहते हैं —"हम उनके पास जाकर सुनेंगे, फ़लाने नए बाबा आए हैं, उनके पास सुनेंगे। फ़लाने बाबा, उनसे सुनेंगे।" तो ले दे के हमारी बात कोई नहीं सुनता।
जिसे कंज़्यूम करना है, वो भी नहीं सुनता। जिस बेचारे को हम बचाना चाह रहे हैं, वो नशा चाट चुका है मनोरंजन का, और राजनीति का, और खेलों का। वो इन सब चीज़ों का नशा चाट चुका है, उसे भी नहीं सुननी। "अध्यात्म" बोलकर बताओ, तो लोग कुछ और ही उसका अर्थ निकालते हैं।
जो हम कर सकते हैं, करना चाहिए, वो तो करते रहेंगे।
प्रश्नकर्ता: शायद जितने चाव से लोग कॉमेडी रील्स शेयर करते हैं, दुनिया भर के गाने एक-दूसरे से शेयर करते हैं, उतने ही चाव से जब तक वो ये बातें शेयर करना नहीं शुरू करेंगे, तब तक बात लोगों तक पहुँचेगी नहीं।
आचार्य प्रशांत: मेरी बातें उन लोगों के लिए ना डार्क सीक्रेट्स जैसी होती हैं। जो मेरी बातें सुन भी रहे होते हैं — उनमें इतनी रीढ़ ही नहीं है, उनमें इतना दम ही नहीं है, कि वो इन बातों को आगे शेयर कर सकें, वो चुपचाप सुनते हैं। कई तो ऐसे हैं जो सुन के हिस्ट्री डिलीट कर देते हैं कि किसी और को पता न चल जाए कि सुनी हैं ये बातें। एक से एक घटिया बातें हैं, लोग अपने ग्रुप्स में शेयर करेंगे, आगे बढ़ाएँगे। इन बातों को दबा जाते हैं, ये बातें कभी नहीं आगे बढ़ाते।
बच्चे माँ-बाप से छुप के सुन लेते हैं, पत्नी पति से छुप के सुन लेती है, सब एक-दूसरे से छुप-छुप के सुन रहे हैं। आगे कोई नहीं बढ़ाना चाहता, क्योंकि सब डरे हुए हैं कि कहीं उन्हें "नेगेटिव" न बोल दिया जाए।
प्रश्नकर्ता: कितनी बार होता है, हम अपने सामने देखते हैं कि आप कहीं बाहर गए हैं। कोई व्यक्ति आपके पास आता है — "आचार्य जी, मैं आपके सारे वीडियो सुनता हूँ।" और हम उससे पूछते हैं — "अच्छा, वो आचार्य जी की जो गीता सीरीज़ चलती है, आप उसमें हैं?" — "नहीं नहीं, वो क्या होता है?"
आचार्य प्रशांत: मेनस्ट्रीम पर — बहुत ग़लत लोगों ने क़ब्ज़ा कर लिया है, और उन्होंने क़ब्ज़ा करके आम जनता को नशा दे दिया है। तो जो थोड़ी-सी भी होश की आवाज़ है, उसको आम आदमी तक पहुँचने नहीं दिया जाता। और अगर पहुँच भी जाए, तो आम आदमी इतना डरा-सहमा है कि वो उस आवाज़ को आगे नहीं बढ़ाता।
प्रश्नकर्ता: साथ में मैंने एक चीज़ ये भी देखी है — हमें एक प्रकट डंडे की इतनी आदत लग गई है ना कि कहीं पे कुछ अपना नुकसान होता हुआ दिख रहा है, तो वहाँ हमें लगता है कि उसके लिए कुछ करना चाहिए। पर क्लाइमेट चेंज, अध्यात्म — वहाँ पर जो नुकसान हो रहे हैं, वो हमें प्रकट रूप से दिख ही नहीं पाते।
आचार्य प्रशांत: हमें लगता है कि — "क्या अच्छा, क्या बोला गया? 1–2 डिग्री टेम्परेचर बढ़ जाएगा। 1–2 डिग्री में क्या हो गया? 36 का 38 हो गया तो क्या होगा?” ठीक कर लेंगे। वो तो कुछ है ही नहीं। तुम ये नहीं समझ रहे हो कि वो एवरेज टेम्परेचर राइज़ की बात है — और 1-2 डिग्री पे नहीं रुक रही है पहली बात, वो 4-5 डिग्री तक जा रही है। दूसरी बात, 4-5 डिग्री का मतलब होगा कि जो पीक राइज़ है, वो 10 डिग्री है।
5 डिग्री एवरेज राइज़ है, तो पीक राइज़ जाएगी 10-12 डिग्री। माने उत्तर भारत में, दिल्ली जैसी जगहों में, यूपी, राजस्थान जैसी जगहों में — जो आप गर्मी में 45-48 डिग्री का तापमान देखते थे — वो जाएगा 60 डिग्री। 60 डिग्री कितना होता है, बस कल्पना कर लो और ये 60 डिग्री यूँ ही नहीं हो रहा।
ये जो हमने इग्नोरेंस पाली हुई है, ये जो हमने गलत तरीक़े के लोगों को अपना आदर्श बनाया हुआ है, जो हम ग़लत वोट डालते हैं, जो ग़लत ज़िन्दगी जीते हैं — ये उसका नतीजा है।
कुल मिलाकर, मालूम है मुझे क्या दिखाई दे रहा है? कि वो जो एक एलीट कंसेंसस दुनिया में डेवलप हो रहा है न — कि क्लाइमेट चेंज तो होगा ही, और ये मिडल क्लासेज़ और उनसे भी ज़्यादा — ये ग़रीब लोग हैं, इनको मरने दो, और मरने से पहले इनको नशा दे के रखो, ताकि इनकी पेनलेस डेथ मिल जाए। बस ये है।
प्रश्नकर्ता: स्लॉटर हाउस में होता है जिस तरह से।
आचार्य प्रशांत: जैसे स्लॉटर हाउस में होता है कि जानवरों को पहले कुछ नशा-वशा दे के रखो, ताकि वो कटे तो उनको पता भी ना चले — ये वैसी ही चीज़ है।
प्रश्नकर्ता: इसलिए वो कहते हैं — "देयर विल बी सम लॉस ऑफ़ लाइफ़ ऐंड इकॉनमी, बट इट इज़ नॉट द एँड ऑफ़ द वर्ल्ड।”
आचार्य प्रशांत: नॉट द एँड ऑफ़ द वर्ल्ड फॉर द प्रिविलेज्ड वन्स! ये "सम लॉस ऑफ़ लाइफ़" क्या है? इतना छुपा के क्यों बोल रहे हो? खुल के बोलो न! "सम लॉस ऑफ़ लाइफ़" से तुम्हारा मतलब ये है कि जो आम आदमी है, जो ग़रीब आदमी है वो मरेगा। बट इट इज़ नॉट द एँड ऑफ़ द वर्ल्ड — फॉर हूम? फॉर प्रिविलेज्ड पीपल लाइक अस!
जो प्रिविलेज्ड हैं, वो बच जाएँगे। जो ग़रीब हैं, वो समाप्त हो जाएँगे।
प्रश्नकर्ता: इस वीडियो के बाद भी शायद लोग ये कहें — "सारी नेगेटिव बातें तो आपने कर दी!"
आचार्य प्रशांत: पहले तो ये देख लो कि ये वीडियो लोगों तक पहुँचेगा भी, या इसको एल्गोरिद्म्स रोक ही देंगे।
प्रश्नकर्ता: रेस्ट्रिक्टेड, रेस्ट्रिक्टेड! और जो लोग कहते हैं — "पॉज़िटिव में क्या है?" तो मुझे लगता है कि अब धीरे-धीरे क्योंकि आपकी बातें भी आज मेनस्ट्रीम मीडिया बहुत कवर कर रहा है — तो उस दिशा में क्या आपको लगता है?
आचार्य प्रशांत: कहाँ मेनस्ट्रीम मीडिया बहुत कवर कर रहा है? कहाँ? कौन कर रहा है भाई कवर? इक्की-दुक्की इधर-उधर जो छप जाती है, वो बहुत कवरेज़ होती है?
प्रश्नकर्ता: लेकिन इसका समाधान — तो एक इम्पॉर्टेंट समाधान — तो ये होगा कि मेनस्ट्रीम मीडिया में हमारी बात।
आचार्य प्रशांत: मेनस्ट्रीम मीडिया वो चीज़ें छापेगा न, जिसपे उसको टीआरपी मिले, हिट्स मिलें। लोग नशे में हैं, मेनस्ट्रीम मीडिया ने ये कोई ज़िम्मेदारी उठाई नहीं है कि लोगों का नशा उतारना है। वो कहता है — “तुम नशे में हो, तो नशे में तुम जो माँग रहे हो, मैं तुम्हें दे दूँगा।” किसी बार में, मंत्रालय में, ठेके में कोई शराबी बैठा है — उसने पी रखी है। तो वहाँ पर जो वेटर्स हैं, उनका क्या काम है? उसने पी रखी है, तो उसका नशा उतारें? नहीं! उसने पी रखी है, वो और ऑर्डर कर रहा है — जो भी वो ऑर्डर कर रहा है, वो उसको सर्व करेंगे न? वो उसका नशा थोड़ी उतारेंगे।
तो वैसे ही मीडिया है। मीडिया मदिरालय का वेटर है — कि वहाँ नशा पी के एक आदमी बैठा है — वो जो कुछ माँग रहा है, मीडिया उसे सर्व कर रहा है और पूछने आता है! बल्कि जो वेटर है, उसका स्वार्थ तो इसमें है कि उसका नशा और बढ़े। जितना नशा बढ़ेगा, उतनी उसकी जेब ढीली करी जा सकती है।
तो नशा उतारने में तो कोई इंटरेस्टेड नहीं है न। आम आदमी नशे में है — सब उसका नशा बढ़ाना ही चाहते हैं।