गलतियाँ और बदलाव || आचार्य प्रशांत (2014)

Acharya Prashant

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गलतियाँ और बदलाव || आचार्य प्रशांत (2014)

श्रोता: सर, मेरी रीडिंग में ये था कि मैं इंटेलिजेंस और प्रभावों समझती हूँ लेकिन मैं फिर भी लोगों की तरफ प्रभावित हो जाती हूँ। इसमें मुझे यही समझ नहीं आ रहा कि मुझे कब पता चलेगा कि मैं प्रभावित हो रही हूँ या मुझे कब पता चलेगा कि ये मैंने इंटेलिजेंस से किया है? दोनों में अंतर कैसे कर पाएँगे?

वक्ता: तुम जब पूछ रही हो कि इन दोनों में अंतर कैसे कर पाएँगे, तो तुम क्या चाह रही हो समझो।तुम पूछ रही हो कि कैसे पता चले कि कब इंटेलिजेंस काम कर रही है और कब प्रभाव? दोनों में अंतर कैसे कर पाएं? सुनने में ये ऐसा लगता है कि बड़ा वाजिब सवाल है लेकिन बात को समझना।तुम ये चाह रही हो कि ‘हिबा’ (प्रश्नकर्ता) है, ठीक है।और हिबा पता लगा ले कब इंटेलिजेंस काम कर रही है और कब प्रभाव काम कर रहे हैं? किसको पता लगाना है?

श्रोतागण: हिबा।

वक्ता: हिबा को पता लगाना है।तुम्हारी कल्पना ये है, तुमने मान ये रखा है कि ‘हिबा’ ये पता लगा सकती है।अब हिबा चाहती है कि, ‘’मैं तो ‘हिबा’ ही रहूँ लेकिन मुझे ये पता लगने लग जाए कि मेरे ऊपर कौन-कौन से प्रभाव काम कर रहे हैं?’’ हिबा चाह ये रही है कि, ‘’मैं तो हिबा ही रहूँ लेकिन इस हिबा को अक्ल आ जाए।’’ ये हिबा होशियार हो जाए।इस हिबा को पता लगने लग जाए कि, ‘’मेरे ऊपर कब प्रभाव काम कर रहे हैं और कब इंटेलिजेंस से काम चल रहा है।’’ ये हो नहीं सकता न क्योंकि अगर आज तक हिबा को पता नहीं लगा तो कल कैसे पता लग जाएगा? हिबा तो हिबा ही है।

जिसे पता लगेगा, उसे तो कुछ और ही होना पड़ेगा न।देखो, इस तरह के जितने सवाल होते हैं, उसमें एक बहुत मूल भूल हम कर देते हैं।हम हमेशा ये पूछते हैं कि, “मैं करूँ क्या? या मुझे पता कैसे लगे? मैं जानूं कैसे?” इन सब में हम चाह ये रहे होते हैं कि ये जो मेरा ‘मैं’ हैं, ये यथावत रहे। इसमें कुछ नहीं बदलना चाहिए।“मुझे कष्ट से मुक्ति कैसे मैले?” इसमें तुम क्या चाह रहे हो? मैं ‘मैं’ रहूँ और फिर भी कष्ट न रहे।“मुझे ये स्पष्टता कैसे मिले?” तुम क्या चाह रहे हो? “मुझे ज़िन्दगी में प्रेम कैसे मिले?” तुम क्या चाह रहे हो? जल्दी बोलो क्या चाह रहे हो क्योंकि हम सब यही करते हैं?

श्रोतागण: कि, ‘मैं’ ‘मैं’ रहूँ और मुझे प्रेम मिल जाए।

वक्ता: कि, ‘’मैं तो वही रहूँ जो मैं हूँ पर मेरे ‘मैं’ रहते हुए भी प्रेम उपलब्ध हो जाए।’’ बात समझ में आ रही है? “मैं आदतें कैसे छोड़ दूँ? मैं सही-गलत, असली-नकली की पहचान कैसे कर लूँ, एकाग्र कैसे हो जाऊं? समय कैसे न बर्बाद करूँ?’’ इन सब में तुम बचा किसको रहे हो? कि ‘वो’ नहीं बदलना चाहिए।‘मैं’ नहीं बदलना चाहिए।‘’मैं वही रहूँ, जो मैं हूँ लेकिन मेरी ज़िन्दगी में बहार आ जाए।मैं वही रहूँ जो मैं हूँ, लेकिन बाकी सब कुछ बदल जाए।’’ ये असम्भव है न।तुम जो पूछ रही हो कि, “मुझे कैसे पता लगे,’’ तुम चाह ये रही हो कि पहली बात कि तुम होशियारी से काम भी करने लगो और दूसरी बात तुम्हें ये पता भी लगने लगे और तुम्हें मज़ा भी आने लगे कि देखो अब हिबा इंटेलीजेंट हो गई है।तुम देखो न तुम चाह ये रही हो कि होशियारी से काम होना शुरू हो जाए।वो हो नहीं सकता।

प्रभाव मन का कचरा हैं। ऐसा कचरा जो खुद तो दुर्गन्ध फैलाता ही है साथ ही साथ और कचरे को भी आकर्षित करता है।ऐसे समझ लो कि तुम सड़क पर चले जा रहे हो।तुम्हें कुछ फेंकना है। तुम्हारे हाथ में कूड़ा है।तुम उसे कहाँ फैंकते हो?

श्रोत३: जहाँ पहले ही कचरा होता है।

वक्ता: जहाँ पहले ही कचरा होता है। मन पर भी यही चलता है। जिस मन में पहले कचरा होता है, वो मन और कचरा इकट्ठा चलता है। बात समझ में आ रही है? तुमने पुराने अस्पताल या सरकारी दफ्तर देखे होंगे, उनकी सीढ़ियों पर चढ़ते होंगे, दो देखते होंगे कि कोनों पर ज़बरदस्त थूक है।और यही तुम दूसरे तरीके के कई इमारतें होती हैं, वहाँ जाओ तो वहाँ ऐसा कुछ नहीं मिलेगा। थूक-थूक को खींचती है।बात समझ में आ रही है?

सवाल ये बिलकुल भी नहीं है कि, ‘’मैं केसे प्रभावों से मुक्त हो जाऊं, मैं कैसे जान जाऊं कि मैं होशियारी से काम कर रही हूँ?’’ सवाल थोड़ा आगे जाता है, उसमें थोड़ी मेहनत लगेगी और वो करना पड़ेगा। तुम इंटेलिजेंस पर चल रहे हो, समझ पर, बोध पर, या तुम प्रभावों पर चल रहे हो, वो बात आकस्मिक तो होतो नहीं है कि, “अरे! धोखे से प्रभाव में आ गये किसी के।” अगर तुम प्रभावित हो जाते हो, तो उसके ठोस कारण होते हैं।क्या ठोस कारण होते हैं? जल्दी बोलो।ये ऐसा नहीं है कि कोई भूल-चूक हो गई है, संयोगवश ऐसा हो गया है कि, ‘’मैं किसी के प्रभाव में आ गया।’’

श्रोत१: सर, लेकिन जिस ‘मैं’ की मैं बात कर रहा हूँ, वो ‘मैं’ भी तो मुझे बाहर से ही मिला हुआ है।

वक्ता: हाँ। प्रभावित हो जाने के ठोस कारण होते हैं। जब तक वो कारण मन में बैठे हुए हैं, तुम प्रभावित होते ही रहोगे।वो कारण इकट्ठा किये हैं हमने।बाहर से आये हैं।किसी तरीके से आ गये होंगे, कोई वजह होगी।उनको देखना, समझना, उनको पकड़ नहीं लेना, जैसे-जैसे वो हटते जाएंगे, वैसे-वैसे अपनेआप जो करोगे, वो समझदारी का ही काम होगा, चाहे जो कुछ करो। फिर तुम्हें पूछना नहीं पड़ेगा कि, ‘’ये काम मैंने समझदारी का किया या नहीं?’’ क्योंकि पूछना भी अपनेआप में एक झंझट ही है।ज़िन्दगी कैसी हो जाएगी अगर हर काम के बाद, हर निर्णय के बाद, हर कदम के बाद, तुम्हें अपनेआप से ये सवाल करना पड़ रहा है कि, “ये समझदारी थी या मैं किसी के प्रभाव में आ गया था?” ये तो तुम अपने ऊपर ही शक करे जा रहे हो।और कितना शक करोगे? इसमें कुछ रखा नहीं है।

ये सवाल बार-बार पूछना, अपनेआप में एक तनाव है।स्थिति तो ऐसी आनी चाहिए कि ये सवाल उठे ही नहीं।सहज रूप से जीते हैं।उसमें जो होता है, करते हैं।कोई पूछे कि “क्या ये समझदारी का काम था?” तो तुम जवाब दोगे, “हमने सोचा ही नहीं ऐसा कुछ कि समझदारी है या नासमझी है।” हम जैसे हैं, हमारा काम वैसा था।और इसके अलावा कोई विकल्प होता नहीं।

तुम्हारा हर काम कैसा होता है? जैसे तुम होते हो।

तो सवाल ये पूछा ही मत करो कि, ‘’मैं अपने कामों को कैसे बदल दूँ?’’ हांलाकि जैसा हमने शुरू से कहा है कि हम चाहते यहीं हैं कि हम ‘हम’ रहें, पर हमारे काम बदल जाएँ।हम, हम ही रहें लेकिन हमारे…

श्रोतागण: काम बदल जाएँ।

वक्ता: और काम क्यों बदल जाएँ? ताकि काम के परिणाम बदल जाएं।हमें सुख चाहिए परिणाम के रूप में।कोई भी काम हम-तुम क्यों करते हो? कि सुख मिले।तो हम चाहते यही हैं कि हम ‘हम’ रहें पर हमें सुख मिलने लगे।काम बदल जाए, परिणाम बदल जाए, ज़िन्दगी बदल जाए।‘’मैं ‘मैं’ रहूँ, ज़िन्दगी बदल जाए।’’ ये हो नहीं सकता, बिलकुल नहीं हो सकता। इसीलिए ‘मैं’ के कर्मों, मैं के विचारों की बात मत करो।सीधे-सीधे निशाने की बात करो।‘मैं’ की ही बात करो।

श्रोत२: सर, क्या इंटेलिजेंस और प्रभाव एक साथ चल सकते हैं?

वक्ता : साथ-साथ चलते ही हैं।‘साथ-साथ’ से अगर तुम्हारा अर्थ ये है कि एक ही व्यक्ति दोनों दिखाता है, तो, हाँ।होता है, बिलकुल।

श्रोता३: सर, लेकिन प्रभाव पोसिटिव भी तो होता ही है।और जागरूकता प्रभाव से ही होती है।और अवेयरनेस के बाद ही तो इंटेलिजेंस आती है।

वक्ता: पोज़िटिव प्रभाव क्या होते हैं? किस चीज़ को कहोगे कि पोज़िटिव प्रभाव है?

श्रोत३: सर, जैसे किसी ने समझ के लिए ही मुझे जागरुक किया, तो ये भी तो प्रभाव ही हुआ न उसका?

वक्ता: बेटा, समझ प्रभाव देने से आती है या प्रभावों के हटने से उठती है? अगर कोई वास्तव में तुम्हारा शुभिच्छु है, वो चाहता है कि तुम समझदार हो जाओ, तो वो तुम्हें एक नया प्रभाव देगा या तुम्हारे सारे पुराने प्रभावों को काटेगा?

श्रोता: हटा देगा सरे प्रभावों को।

वक्ता: तो पोज़िटिव प्रभाव क्या होता है?

श्रोता: कुछ नहीं। प्रभाव ही होता है।

वक्ता: पोज़िटिव प्रभाव जैसा कुछ होता है क्या?

हर प्रभाव नेगेटिव ही होता है। पोज़िटिव प्रभाव हद से हद तुम ये कह सकते हो कि पोज़िटिव प्रभाव वो प्रभाव है जो प्रभावों की सफाई कर दे।अधिक से अधिक ये कहा जा सकता है।पोज़िटिव प्रभाव कौन सा है? जो पुराने प्रभावों की, पुराने संस्कारों की सफ़ाई कर दे।इससे ज़्यादा कुछ नहीं कह सकते।कुछ नहीं है पोज़िटिव प्रभाव।

और क्या कह रही थी?

श्रोत : सर, यही बात कि मान लीजिये, ये भी पोज़िटिव प्रभाव है, तो फिर प्रभाव,..

वक्ता : पर ये प्रभाव हुआ नहीं न।अगर ये पोज़िटिव प्रभाव है, तो प्रभाव हुआ नहीं क्योंकि ये तुम्हें प्रभावित नहीं कर रहा है।ये तो तुम्हारे बाकी प्रभावों को भी ख़त्म करे दे रहा है।इससे तुम्हें कुछ नई परत नहीं मिल गयी है प्रभावों की।हुआ ये है कि जितनी पुरानी थी, वो भी साफ़ हो गई हैं।

श्रोत५: लेकिन जब तक ये बात अगर ज्ञान के रूप में स्थापित है, तो तब तक तो ये परत ही है?

वक्ता: ज्ञान का एक ही उचित काम होता है, पुराने ज्ञान की सफ़ाई।

ज्ञान दो तरह का होता है। एक वो, जो नई परत बन के चढ़ जाए। और एक ज्ञान वो भी होता है, जो तुम्हें बताए कि तुम्हारा सारा ज्ञान झूठा है या सीमित है, या काम का नहीं है। तो अब ये जो ज्ञान है, ये तुम्हें कुछ और नहीं दे रहा है। ये तुम्हें हल्का ही कर रहा है सिर्फ़। ये प्रभाव नहीं है। देखो, आम तौर पर हम जिसको ज्ञान कहते हैं न, वो होता है ‘मेरा ज्ञान’, समझना। और एक दूसरा ज्ञान भी होता है, जो ‘मेरा ज्ञान’ नहीं होता, जो ‘मैं’ का ज्ञान होता है। दोनों का अंतर समझो। ‘मेरा ज्ञान’ में वही होता है, जो हिबा कह रही थी कि, ‘’मैं तो ‘मैं’ हूँ, मैंने ज्ञान और इकट्ठा कर लिया है।’’ अब इस ज्ञान का क्या काम होगा? ये ज्ञान किस काम आएगा?

श्रोतागण: अहंकार को बढ़ावा देगा।

वक्ता: ‘’ मैं जो कुछ चाहता है उसको हासिल करने में।’’ ‘मैं’ क्या है? ‘मैं’ हिंसक है।तो ये जो ज्ञान इकट्ठा हुआ है, ‘मेरा ज्ञान’ अब ये किस काम आएगा? जल्दी बोलो?

ये हिंसा के काम ही आएगा न? क्योंकि ‘मैं’ अपनी जगह खड़ा है। उसे ज्ञान और मिल गया।दुनिया भर की जितनी पूरी शिक्षा व्यवस्था है, वो मेरा ज्ञान देती है। एक दूसरी शिक्षा होती है जो ‘मैं’ का ज्ञान देती है। जहाँ पर ‘मैं’ खड़ा हो करके ये नहीं कह सकता कि, ‘’मैं ज्ञान इकट्ठा कर रहा हूँ।’’ वहाँ पर नज़र भीतर को मुड़ गई है और उस ‘मैं’ को ही देख रही है कि, ‘तू कौन है भाई कि जिसे ज्ञान इकट्ठा करना है? ये मामला क्या है? तू कौन है जिसे डिग्री हासिल करनी है, जिसे किताब पढ़नी है? तू है कौन? जो इकट्ठा करे ही जा रहा है, श्रीमान ज्ञानी! तू है कौन?

ये मैं का ज्ञान है।ये बिलकुल दूसरी चीज़ है। इसे तुम प्रभाव वगैरह बोल नहीं पाओगे।

श्रोत: आपने कहा कि ये हल्का करता है लेकिन इससे जो अभी मन है, उसको पीड़ा होती है।जब उसे ये दिखाई देता है कि जो उसे लगता था कि पता है, वो उसे वाकई में पता नहीं है।बस उसे ऐसा लगता था।

वक्ता: देखो! पीड़ा होगी। बिलकुल होगी।पर वो सिर्फ़ खत्म होने वाली चीज़ की आखिरी छटपटाहट है।उस पीड़ा में कोई जान नहीं है।वो पीड़ा बस ये कह रही है कि, ‘’मैं खत्म हो रहा हूँ।’’ अब इतना तो करेगा ही न खत्म होने वाला कि चीखे-चिल्लाए।कोई बात है जो तुम सालों से संजो के रखे हुए थे। वो झूठ दिखे तो इतना तो होगा ही कि थोड़ा दर्द उठे।पर जैसा कह रहा हूँ, वो मरते हुए इंसान की आखिरी चीखे हैं।उनमें कोई दम नहीं हैं।वो दो-चार बार निकलेंगी और फिर हमेशा के लिए बुझ जाएंगी। समझ रहे हो बात को? इसमें ज्यादा कुछ है नहीं।

पीड़ा भी वो होती ही इसीलिए है क्योंकि पूरे तरीके से झूठ नहीं दिखी होती है। दिख गई होती बात, 70 प्रतिशत दिख गई, 30 प्रतिशत अभी भी, मोह के धागे जुड़े हुए हैं।तो वो, जो 30 प्रतिशत है न, तो वो दुःख देता है।अगर बात बिलकुल ही स्पष्ट हो जाए, तो कोई पीड़ा-वीडा नहीं होगी।समझ रहे हो? बात बिलकुल ही स्पष्ट हो जाए, मामला बिलकुल ही खुल जाए, तो वो दर्द भी नहीं होगा, जो होता है।और जो दर्द हो भी रहा है, उसमें भी कुछ रखा नहीं है।वो थोड़े समय के लिए ही होता है, फिर चले जाता है।

तुम्हें कहीं जाना है।तुम एक गलत रास्ते में चले गए।जैसे ही पता लगता है कि गलत रास्ते पर जा रहे हो।क्या होता है? जल्दी बोलो, क्या लगता है?

श्रोतागण: गुस्सा आता है।

वक्ता: हैं न। मन में तनाव भी उठता है। गुस्सा, खीज, चिढ़; जो भी बोल लो।पर वो कितने समय के लिए कायम रहेगी?

श्रोतागण: जैसे ही सही रास्ता का पता चलता है।

वक्ता: मुड़ लेते हो वापिस, और जैसे ही सही रास्ते पर आ गए, सब गायब।कितने समय तक याद रखोगे कि, ‘’मैं गलत रास्ते पर चल दिया था? कितने समय तक याद रखोगे?’’

श्रोत४: दो मिनट, चार मिनट।

वक्ता: दो मिनट, चार मिनट, हो गया।इससे ज़्यादा क्या दम है उसमें? कुछ नकली था, उसका नकली होना खुल गया।जब नकली ही था, तो तुम अब शोक किस बात का मना रहे हो? असली कुछ ख़त्म हुआ हो, तो दर्द उठे, तो बात समझ में आती भी है। तुम्हें पता क्या चला है? तुम्हें यही पता चला है न कि नकली था। अरे! नकली है कुछ, और उसका नकली होना पता चल गया तो ख़ुशी की बात है न? तुम गम किस बात का उठा रहे हो अब? तो गम ज्यादा होता भी नहीं है। वो थोड़ा बहुत रहता है, हो गया।और जितना रहता है, वो उतना इसीलिए रहता है क्योंकि मोह थोड़ा अभी भी लगा हुआ है। मोह भी इसीलिए लगा रहेगा, जब तक पूरी बात खुलेगी नहीं। पूरी खुल जाए, तो फिर मोह उतना भी नहीं रहेगा।

श्रोता : आपने जो बोला कि ये मत पूछो कि समझदारी से हुआ या प्रभावों से हुआ, ये गलती ही है। ये गलती खुद ही पता चलेगी मुझे या पता करनी होगी?

वक्ता: तुम जैसे जैसे बदलते जाओगे, ज़िन्दगी ही स्पष्ट होती जाएगी।

श्रोत६: मैं बदलूँगा क्या फिर?

वक्ता: उसकी प्रक्रिया चल ही रही है।ये रही प्रक्रिया उसकी।

श्रोत : आपकी बात समझ में आ रही है मुझे पर जैसे हम अवलोकन लिखते हैं, उस समय थोड़ी देर के लिए देखते हैं हम अपनेआप को, वो एक तरह का आत्मनिरीक्षण ही है।पर वो आत्मनिरीक्षण भी थोड़े काम का होता है।लेकिन जैसे आपने कहा कि न पूछो।तो..?

वक्ता: नहीं।तुम पूछ भी लोगे तो उससे कुछ विशेष होगा नहीं।दूसरी बात तुम पूछ भी क्यों रहे हो? तुम पूछ भी इस कारण रहे हो क्योंकि तुम एक मुकाम पर आ चुके हो।पूछने वाला पहले ही काफ़ी हद तक शुद्धि हासिल कर चुका है इसलिए पूछ भी रहा है, वरना पूछता भी नहीं।अब जब तुम उस मुकाम पर पहुँच चुके हो, तो तुम्हारा ये पूछना लाज़मी है।बल्कि यूँ कहो कि तुम अगर नहीं भी पूछो, तो कुछ ख़ास अंतर नहीं पड़ता क्योंकि वो मुकाम तो तुमने हासिल कर ही लिया है न।लेकिन मज़े की बात ये है कि अब जब तुम उस जगह पर पहुँच जाते हो, जब उतनी शुद्धि पा लेते हो, तो फिर पूछ भी लेते हो।फिर और शुद्ध होना चाहते हो।

श्रोत६: सर, पर अगर ये सवाल उठ ही रहा है तो उसको पूछना ही सही है न? सवाल नहीं उठता तो ठीक है।

वक्ता: हाँ। अगर ये सवाल उठ ही रहा है तो अच्छी बात है।बिलकुल।

सवाल उठ रहा है तो अच्छी बात है लेकिन इस सवाल का उठाना मात्र उतना हो सकता है, जितने तुम उठे हुए हो।जितने तुम उठे हुए हो, ये सवाल उतना ही उठेगा।वरना उठेगा ही नहीं।

श्रोता: और इसके जवाब से कोई मुकाम कुछ बढ़ेगा भी नहीं।

वक्ता: इसके जवाब से कोई फ़ायदा नहीं है।इसका जवाब असंगत है।असल में इस सवाल का उठाना ही ये बताता है कि विचारों की अब दिशा कैसी हो रही है।विचार अंतर्मुखी हो रहे हैं।मन जानना चाहता है कि, ‘’ठीक-ठाक चल रहा हूँ या कुछ गड़बड़ हो रही है।’’ कौन सा मन है जो जानना चाहता है? एक घिरा हुआ मन, एक सोया हुआ मन ये जानना भी नहीं चाहेगा।तो ये सवाल का उठाना ही अपनेआप में तुम्हारे मुकाम का इंडिकेटर है।आगे कहाँ को जाओगे? उसका कुछ नहीं पता चलता।पर ये ता चलता है कि हाँ, तुम पहुँच कहाँ गए, समझे? अगर मैं ये कह रहा हूँ कि ये सवाल किसी काम का नहीं है, तो इस कारण कह रहा हूँ क्योंकि सवाल पूछा ये जा रहा है कि, “मैं कैसे पता करूँ?”

सारी प्रक्रिया अपने बदलते रहने की है।तुम बदलते रहते हो, तुम्हारे कर्म अपनेआप बदल जाएँगे।और वो ऐसे बदलेंगे कि तुम्हें पता भी नहीं लगेगा, अनापेक्षित रूप से बदलते हैं।ठीक है?

श्रोत७ : सर, बिना किसी चीज़ को जाने, हम उसे बदल कैसे सकते हैं?

वक्ता: बेटा, तुम जिसको जानना कहते हो न आमतौर पर, वो इतना ही है कि उसके बारे में कुछ जानकारी इकट्ठा कर ली। यहाँ पर जिस बदलाव की बात हो रही है, वो उसका बदलाव नहीं है जो जानकारियाँ इकट्ठा हो रही हैं। वो उसका बदलाव है जो जानकारी इकट्ठा कर रहा है। समझ रहे हो? बदलाव वगैरह अपनेआप हो जाता है। आप जब ध्यान से देखना शुरू करते हो, तो तुम्हारे कर्म, विचार सब बदल जाते हैं। तुमने जैसे चाहा नहीं होता है, वैसे भी बदलने लगते हैं। जैसा तुम सोच भी नहीं सकते थे, वैसे भी बदलने लगते हैं।बहुत सारे सवाल जो आज तुमको बड़े कीमती लगते हैं कि, ‘’मैं प्रभावित हूँ या नहीं हूँ,’’ ये सब तुम्हें खुद ही पता लगने लगता है कि इसमें कुछ ख़ास नहीं था। ये बातें तो ऐसी ही हैं।

श्रोता: कर्म और विचार बदलते हैं, तो हम कहाँ बदलें?

वक्ता: कर्म और विचार तुम्हारे बदलने का फल है न।तुम जो हो, वही अपनेआप को कर्मों और विचारों के रूप में व्यक्त करता है।

श्रोता: ये गलत है।

वक्ता: ये गलत नहीं है, ऐसा होता ही है।इसके अलावा कुछ हो ही नहीं सकता।

श्रोता: सर, अगर हम इस पर सहमत ही हैं कि ऐसा होता ही है और इसके अलावा कुछ हो ही नहीं सकता तो हम कैसे कह सकते हैं कि हम बदल गए हैं?

वक्ता: तुम ही बदल सकते हो।तुम्हारे बदलने से कर्म, विचार अपनेआप बदलेंगे।

श्रोता: सर, हम कैसे बदलेंगे? सर, हमारे विचार बदलेंगे तभी तो हम बदलेंगे।

वक्ता: नहीं।

तुम्हारे विचार बदलेंगे, तो तुम नहीं बदलोगे। तुम जब बदलते हो, तो तुम्हारे विचार बदल जाते हैं।

ये पागलपन की बात है कि, ‘’मैं ‘मैं’ रहूँ पर अपने विचारों को बदल लूँ।’’ तुम जो चाह रहे हो, मैं समझ रहा हूँ और ये बातें बहुत लोग कह भी गये हैं कि “ पोज़िटिव विचार किया करो, ज़िन्दगी बढ़िया हो जाएगी, विचारों को बदल दो।अभी तुम घटिया विचार सोचते हो, अब तुम अच्छे-अच्छे विचार सोचना शुरू कर दो।तो जीवन खिल उठेगा।” ऐसा हो नहीं सकता।विचार बदलेंगे ही नहीं।वो नए कपड़े पहन लेंगे बस।

तुम ‘तुम’ हो, तो विचार बदल कैसे जाएगा? हाँ।तुम उसको शकल दूसरी दे सकते हो। पहले दाएं चलता था, अब बाएँ चलने लगेगा।पर जाएगा वो एक ही दिशा में।जैसे किसी सड़क के बाएँ-बाएँ चलते हो, अब सड़क के दाएं-दाएं चलने लगे।पर जा उधर को ही रहे हो।

इस चक्कर में बिलकुल मत रहना कि, ‘’मैं अपने विचार बदल लूँ।’’ उससे कुछ नहीं मिलने का।वो असंभव है।

श्रोता: सर, हम कभी कभी सोचते हैं कि बी.टेक कर लूँ, कभी एम.बी.ए।

वक्ता: अरे! भाई, अभी तुम सोच रहे हो एम.बी.ए, फिर सोच लो ऍम.एस, कोई फर्क थोड़ी पड़ गया है।तुम पहले भी नासमझी में कुछ करने जा रहे थे, अभी भी नासमझी में कुछ करने जा रहे हो।विचार तो हमारे वैसे भी दिन रात बदलते ही रहते हैं।अभी जो सोच रहे हो, थोड़ी देर बाद कुछ और सोचोगे।उससे क्या हो गया? जो चाहता है, आकर के तुम्हारे विचार बदल देता है।उससे क्या हो जाता है? ये कभी मत सोचना और न ये पूछना कि मेरे कर्म कैसे बदलें, मेरे विचार कैसे बदलें? ये सब पूछने में कुछ नहीं रखा है।पूछना क्या है?

श्रोता: “ मैं कैसे बदलूं?”

वक्ता: “ मैं कैसे बदलूं?” और जब तुम पूछोगे कि मैं कैसे बदलूं, तो जवाब क्या आएगा? चीज़ है।ये जानना ऐसा नहीं है कि तुम कहीं से पढ़ लो और बाद में सोच विचार कर रहे हो।ये तो उसी क्षण पकड़ने वाली चीज़ है।कि एक तरफ को कदम बढ़ रहे हैं और बिलकुल उसी समय बल्ब जल गया कि अच्छा! ये हो रहा है।जैसे ही ये जानना होता है, वैसे ही बदलाव आ जाता है।

श्रोता: सर, आपके द्वारा एक वाक्य आया था कि, “मैं पूर्ण हूँ।” तो फिर बदलने की ज़रूरत क्या है?

वक्ता: बेटा, ‘मैं’ पूर्ण हूँ, ये बात आत्यंतिक तौर पर बिलकुल सच है।पर तुम ये बताओ कि तुम्हारी ज़िन्दगी में कहीं पर भी, उस पूर्णता का कोई एहसास है? तुम पूर्ण की ज़िन्दगी जी रहे हो या अधूरेपन की?

श्रोतागण: अधूरेपन की।

वक्ता: तो वो जो पूर्ण है, वो तो पता नहीं कहाँ छुपा ही बैठा है न तुम्हारे लिए।है असली है, पूरा है, पक्का है।उपलब्ध भी है।पर कहाँ है? तुम्हारे लिए कहाँ है? तुम तो उसके अभाव में ही जी रहे हो।तुम तो उसके अभाव में ही जी रहे हो न।तो बदलाव का अर्थ भी यही है, अच्छा हुआ कि पूछ लिया, बदलाव का अर्थ भी यही है कि उस पूर्ण के करीब आ जाऊं।मेरा जो पक्का होना है, उसके करीब आ जाऊं।यही बदलाव है और कोई बदलाव होता नहीं।बाकी सारे बदलाव झूठे बदलाव हैं।वो सतह-सतह के हैं।

श्रोता: सर, एक संस्कारित मन क्यों भरोसा करे कि पूर्ण जैसा कुछ है?

वक्ता: अपनी ही हरकतों को देखेगा तो कुछ बातें समझ में आ जाएंगी।

श्रोता: जिस चीज़ के पीछे भागते हैं, चाहिए भी तो वही ही है न?

वक्ता: अपनी ही हरकतों को देखेगा तो कुछ समझ में आएंगी बातें न।अपनी हरकतों को देखेगा, तो अपनी अपूर्णता का एहसास हो जाएगा।इस अपनी अपूर्णता के एहसास में ही पहली बार उसको शान्ति मिलेगी।ये बात सुनने में बड़ी उल्टी लगेगी क्योंकि अभी-अभी कुणाल ने कहा था कि दर्द होता है, जब पता चलता है कि, ‘’मैं कितना नकली हूँ।’’ उस दर्द के बाद, तुरंत बाद, अचानक बड़ी शान्ति आती है।समझ रहे हो? जैसे कि तुम्हारे कोई मोच आ गई हो और कोई आ करके उस मोच को झटके से ठीक करदे।बड़ी तेज़ी से दर्द उठता है जब वो मोच वाला पाँव कोई मरोड़ देता है, तेज़ी से दर्द उठता है।लेकिन बीस मिनट बाद वो पाँव बिलकुल हल्का सा हो जाता है।देखा है ये? तो अपनी ही अपूर्णता के अहसास में पहली बार कुछ नया मिलेगा।अब पता तो यही चला है कि मैं कितना छोटा, कितना खाली, कितना झूठा।लेकिन इसी के स्वीकार में, जो कि अभी नहीं लगेगा।अभी तो वो बात खौफनाक ही लगेगी कि, ‘’मैं इस बात को देख पा रहा हूँ, स्वीकार कर रहा हूँ, कि खाली हूँ, झूठा हूँ, अकेला हूँ और अपूर्ण हूँ।’’ लेकिन जब इस बात का स्पष्ट एहसास होता है, इसको सीधे-सीधे देखते हो, तो पक्का समझो कि ये बात दर्द पता नहीं कितना देती है, पर शान्ति बहुत देती है।यही शान्ति उस मन को इशारा करेगी कि कुछ और है तुझसे आगे।वरना ऐसा कैसे हो गया कि अपनी ही बेवकूफियों का एहसास तुझे शांत कर जाता?

अगर सिर्फ तू ही तू होता, अगर सिर्फ मन ही मन होता, अगर सिर्फ अहंकार ही अहंकार होता, तो अहंकार का टूटना बड़ा दर्दनाक होना चाहिए था? अगर मैं सिर्फ अहंकार होता, अगर मैं सिर्फ मन होता, तो अहंकार पर पड़ती हर चोट मेरी मौत होनी चाहिए थी।लेकिन प्रमाण इसके विपरीत है।प्रमाण ये है, और जीवन ही अपना प्रमाण है, किसी और प्रमाण की बात नहीं कर रहा हूँ।प्रमाण ये है कि अहंकार पर चोट पड़ती है, तिलमिलाते तो ज़रूर हो लेकिन जितना अहंकार टूटता है उतने ही मस्त होते जाते हो, खुलते जाते हो।मन जितना कम होता जाता है, तुम्हारी ज़िन्दगी में चैन उतना बढ़ता जाता है।तो इसका मतलब क्या है? कि मन के अतिरिक्त भी कुछ और है और चैन वहीँ से आ रहा है।समझो बात को न।बात बिलकुल तार्किक है।

मन कम हो रहा है, चैन बढ़ता जा रहा है।इसका अर्थ क्या है? मन के अतिरिक्त, मन के आगे कुछ और भी है।मन उसको ढक के रहता है।मन परदे की तरह रहता है।मन जैसे-जैसे कम होता रहता है, पर्दा जैसे जैसे कम होता जाता है, वो चैन मुझे सीधे-सीधे मिलने लग जाता है। समझ रहे हो? तो कुछ उस तरीके की बात है कि ये जो पूछ रहे हो कि प्रमाण कैसे मिलेगा? प्रमाण यही होता है।तुम एक दुनिया में जी रहे हो। अकस्मात बिना तुम्हारे चाहे, संयोगवश, कई बार ज़बरदस्ती से ही तुम्हें किसी दूसरी दुनिया के दर्शन करा दिए जाते हैं।कई बार वो मात्र एक संयोग की घटना हो सकती है।कई बार वो किसी की प्लानिंग का नतीजा हो सकती है, कई बार इश्वरी अनुकम्पा हो सकती है, कुछ भी हो सकता है। लेकिन तुम्हारे साथ ये घटना घटी कि तुम जिस दुनिया में रहते थे, अचानक तुम्हें कोई और दुनिया दिख गई।

तुम्हारी जो दुनिया थी, वो तुम्हारे अहंकार के लिए बड़ी पोषक थी।वहाँ तुम्हारे अहंकार के लिए सारी सुविधाएँ थीं।उसी को तो हम कहते हैं न, ‘मेरी दुनिया।’ इस नयी दुनिया में अहंकार पर चोट पड़ती है।वो चोट प्यार की भी हो सकती है, चोट का मतलब ये मत समझना कि कोई तुम्हें झंझोड़ रहा है, और मार पीट रहा है, तो वही भर चोट होती है।प्यार भी बहुत बड़ी चोट होता है।अहंकार पर गहरी चोट करता है वो।समझ रहे हो?

अब चोट पड़ी है अहंकार पर, तुम्हारा अनुमान ये है कि जब भी चोट लगेगी, ‘मेरा’ क्या होगा?

श्रोता: नुक्सान होगा।

वक्ता: नुक्सान होगा।और तुमने सोच क्या रखा है पहले से कि जब भी अहंकार पर चोट लगेगी, मैं क्या करूँगा? तिलमिला जाऊँगा।पर कोई आता है, तुमसे कहता है- “करके देखो।” वो तुमको लुभा रहा है।किन तरीके हो सकते हैं, तुमको लुभा सकता है, रिझा सकता है, या हो सकता है कि ज़बरदस्ती ही कर दे।पर किसी न किसी तरीके से वो तुम्हें किसी दूसरी चीज़ का स्वाद दे देता है।तुम दिल पे पत्थर रख के वो स्वाद चखते हो।क्यों दिल पे पत्थर रख के चखते हो? क्योंकि तुम्हें पहले से ही पता है।क्या पता है तुम्हें? कि ये जो कुछ मुझे चखा रहा है, अगर मैंने चख लिया, तो मेरी लग लेनी है।तुमने सोच रखा है पहले से कि ये तो बड़ी ही कडवी चीज़ होनी है।पर तुम चखते हो, मजबूर हो।या फंस गये हो, या जो भी बात है।

तुम चखते हो और फिर कहते हो “यार, उतना बुरा भी नहीं है।” फिर कहते हो कि ये क्या हुआ? जिसको मैं ‘मैं’ कहे बैठा था, जिसके साथ मैंने अपने सारे प्राण ही जोड़ रखे थे, उस मैं पर चोट पड़ी, उस ‘मैं’ के टुकड़े हुए, वो मैं घुल गया और मैं रो नहीं रहा हूँ।मैं इतना कमीना हूँ, मुझे अच्छा लग रहा है।

श्रोता: और अगर रो रहा हूँ, तो? पूरा घुला नहीं?

वक्ता: थोड़ी देर तक रोओगे, फिर कहोगे ये ही बात जो कह रहा हूँ।तो रो लो पहले, फिर कह लेना।रोना भी कई बार आदत होती है। तो औपचारिकता पूरी कर लो।वो तुम्हारे सोफ्टवेयर का हिस्सा है।

श्रोता: रोने माने सुकून भी मिलता है।

वक्ता: नहीं, रोना वैसे ही है जैसे कि कई बार कोई मिला, तो उसको ‘गुड मोर्निंग’…

(श्रोतागण हँसते हुए)

तो वैसा ही है।तुमने देखा होगा कई लोग होते हैं माँ-बेटी।वो कई दिनों के बाद मिलेंगे तो उनका ये अपना अल्गोरिथम होता है, वो पहले रोएंगे।और अगर तुम उन्हें जानते नहीं हो, तो तुम्हें लगेगा कि कोई मर गया है।वो ऐसे ज़ोर-ज़ोर से, तड़प-तड़प रोएंगे।ये कुछ नहीं है, ये आदान-प्रदान हो रहा है।ये नमस्कार की तरह है।

(श्रोतागण हँसते हुए)

श्रोता: मतलब पहले से पता है कि ये सब कुछ करना ही है?

वक्ता: हाँ, करना ही है, बिलकुल।उनकें से कोई एक ये न करे, तो दूसरे को बुरा लग जाएगा।

श्रोता: “लगता है तुझको मेरी याद नहीं आती?”

श्रोता: विदाई में लड़की रो ही नहीं रही है।

(सभी हँसते हुए)

वक्ता: तो रो लो।ठीक है।मन की खुजली मिटा लो। उसके बाद फिर कहोगे कि नहीं, नहीं।ये जो कुछ भी था, मेरी धारणाओं के विपरीत था। मन अभी भी सहमत नहीं हो रहा है जो कुछ हुआ उससे।अगर अभी भी मन से पूछा जाए कि ये जो हुआ, ठीक है? चलेगा? तो मन यही कहेगा कि, “नहीं, नहीं! ठीक नहीं है।” ऊपर-ऊपर इनकार ही करेगा, पर अन्दर-अन्दर तो उसको कुछ नशा आने लग गया है।

‘लबों पे इनकार है, दिल में इकरार है।’

ठीक है, ऐसा ही होता है।

वो जो परम है न, वो अप्रम प्रेमी भी है।वो इतना आकर्षक है, और इतनी चालें चलता है कि तुम बच सकते नहीं।ऐसे नहीं ,तो वैसे तुम्हें फँसा ही लेगा।जब उसने माया तक को फसा रखा है, तो तुम्हें कैसे नहीं फसा लेगा? तुम क्या सोचते हो, कि माया क्या कर रही है? माया उसके इशारों पर ही तो चल रही है।

श्रोता: माया के इशारे पर हम चल रहे हैं।

वक्ता: माया के इशारे पर तुम चल रहे हो।

श्रोता: अंततः अप्रत्यक्ष रूप से, ‘उस’ के इशारों पर ही चल रहे हैं।

वक्ता: तो तुम चल तो ‘उसी’ के इशारों पर रहे हो, तो फंस तो जाओगे ही।

‘वो’ चुनता है।मन उसी का, मन ‘उसी’ का है, मन, माया सब ‘उसी’ के हैं।पर वो चुनता है कि कौन अब उसे चुनेगा?

श्रोता: ये भी वो ही चुनता है?

वक्ता: हाँ, ये वही चुनता है।तुम जो भी इच्छा करते हो, करते तो उसी के आदेश से हो।ये भी उसी के आदेश से होगा कि तुम उसी की इच्छा करने लगो।

श्रोता: और ये आदेश कब होगा?

वक्ता: जब तुम चाहो।

हजार चीजें तो चाहते ही हो न? जिस दिन तुम उसको ही चाहने लग जाओगे, काम हो जाएगा। जितने सवाल पूछ रहे हो, उन सारे सवालों का मूल सवाल ये है कि, “मैं चाहता भी हूँ क्या?” बातें तो बड़ी समझदारी की कर रहे हो, कोई जानना चाहता है बोध के बारे में, कोई प्यार के बारे में, कोई प्रभाव। कोई कुछ-कुछ। लेकिन सवालों का सवाल एक है। चाहते हो? चाहते हो जो, वो मिल जाएगा?

अगर पक्का-पक्का चाहने लगोगे कि वही मिल जाए, तो वो मिल जाएगा।लेकिन तुम चाह सकते नहीं जब तक वो न चाहे कि तुम चाहो।

YouTube Link: https://youtu.be/tMdYxrJzM2Q

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