स्वामी विवेकानंद अनूठे हैं, बहुत कम तुमने साधु-संत-सन्यासी देखे होंगे जो इतने सुघटित सुडौल शरीर के हों, जितने विवेकानंद थे।
खेल की, कसरत की उनकी दिनचर्या में बंधी हुई जगह थी। और यही नहीं कि बस व्यक्तिगत रुप से खेलते थे, अपने साथियों से कहें – व्यायाम आवश्यक है।
जिस चीज़ का इस्तेमाल करना है उसे स्वस्थ और मज़बूत तो रखोगे न?
उन्होंने कहा – मज़बूत रखना है लेकिन जब मौका आएगा इसको हँसते-हँसते त्याग भी देंगे।
और बेटा जितनी तेरी हम सेवा कर रहे हैं, जितना तुझको हम तेल पिला रहे हैं, जितना तुझे व्यायाम दे रहे हैं उससे दूना तुझसे काम लेंगे।
सन्यासी फुटबॉल खेल रहे हैं, ये बिलकुल नयी बात थी। नहीं तो बूढ़े भारत की बूढ़ी मान्यता ये रही थी कि सन्यासी अगर लोगों को खेलते हुए देखें तो कहें, “हे हे हे… आज ये खेल रहे हैं, कल काल इनके साथ खेलेगा, बच्चा!”