आचार्य प्रशांत: आज की बातचीत शुरू करने के लिए सबसे अच्छा तो यही होता कि हम आदिशंकराचार्य के निर्वाण षटकम् को गाने से शुरू करते, पर फिर मैंने कहा कि हम हर बार महाशिवरात्रि पर मिलते हैं और हर बार ही निर्वाण षटकम् का पाठ भी करते हैं। सरल संस्कृत है, वैसे तो समझ में आ जाती होगी। क्यों न वो करा जाए जो शंकराचार्य करते हैं निर्वाण षटकम् में। वो क्या करते हैं? जो कुछ सत नहीं है, जो कुछ भ्रम मात्र है, मान्यता मात्र है—उससे वो इनकार करते हैं, नकार करते हैं। वह शुरू ही इसी से करते हैं—
"मनो बुद्धि अहंकार चित्तान नाहम्, न च श्रोत्रं न च नेत्रं..."
सब कुछ काटते जाते हैं, सब कुछ काटते जाते हैं— मैं कौन हूं? मैं तो वही हूं जो शिव है। मैं वही हूं जो शिव है। शिव कौन है? यह जानना है, तो जान लो कि वास्तव में मैं कौन हूं— अपने भ्रमों और मान्यताओं से परे। इंद्रियां नहीं हूं मैं। अच्छा, तो बहुत! हमें असुविधा नहीं होती कह दिया जाए कि हां भाई, इंद्रियों का विषय नहीं, कान का विषय नहीं, नाक का विषय नहीं— "श्रोत्रं जिह्वा ग्राणं नेत्रं..." सब हटा दो। फिर वह आगे जाकर वेद, मंत्र, तीर्थ, यज्ञ— इनसे भी इनकार कर देते हैं। जिनको हम आमतौर पर बड़ी मान्यता दे देते हैं, हमारे चार पुरुषार्थ— धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष— इनको भी कह देते हैं निर्वाण षटकम् में ही कि "ये भी नहीं हूं।"
ज्ञान तो चाहिए ही! बड़ा साहस चाहिए यह घोषणा कर देने के लिए, वो भी जब यह घोषणा करते समय कुछ दांव पर लगा हुआ हो। निर्वाण षटकम् का इतिहास पता है न? मिथ नहीं है, इसके साथ एक ऐतिहासिक घटना जुड़ी हुई है। तो, छोटे ही थे, किशोर थे शंकर, और ज्ञान के लिए जो उस समय सबसे प्रख्यात गुरु थे, उनके पास गए।
गुरु ने उनको देखा, बोले— "हाँ भाई, बताओ, कौन हो तुम?" "Introduce yourself."
तो उन्होंने जो बात कही, जो उत्तर दिया, वो उत्तर है निर्वाण षटकम्।
अब आमतौर पर जब आप कहीं इंटरव्यू या एडमिशन के लिए जाते हैं, तो देखा है दिल कैसे धड़क रहा होता है? क्योंकि कुछ दांव पर लगा हुआ है। आप कैसे जवाब देना चाहते हैं? कितने लोगों ने कभी कोई इंटरव्यू दिया है? वहाँ आप बेधड़क, बिल्कुल जाबाज जवाब देना चाहते हैं? कैवेलियर— फर्क नहीं पड़ता, "मैं तो सच बोलूंगा!" ऐसा होता है?
और जिस समय की हम बात कर रहे हैं, आज से समझ लीजिए तेरह सौ साल पहले की, उस समय तो न इंटरनेट था, न संचार के अन्य माध्यम थे, इतना आसान भी नहीं था कि एक गुरु से माने एक विद्यालय से अगर ठुकरा दिए गए तो जल्दी से चले कहां जाएंगे और इस बालक की उम्र भी कम थी! उसके बाद भी एक बहुत अलग, बहुत साहसिक, बहुत खतरनाक, बहुत सच्चा, बहुत आउट ऑफ द बॉक्स उत्तर दिया उन्होंने।
हम कह रहे हैं कि यह तो फिर भी थोड़ा हमारी भाषा में फैशनेबल या स्मार्ट लग सकता है— "बस इंद्रियों को, विचारों को, भावनाओं को, पूर्वाग्रहों को नकार दिया जाए।" उन्होंने उस समय की सबसे गहरी और प्रचलित धार्मिक मान्यताओं को भी नकार दिया— और एक ऐसे गुरु के सामने, जिनको वे जानते नहीं थे, और गुरु भी उनको जानते नहीं थे, बहुत कुछ दांव पर लगा हुआ था। शंकराचार्य नकारे जा सकते थे। नकारे जा सकते थे!
सिर्फ जानना काफी नहीं होता, हम कहते हैं कि "जीना पड़ता है!" है न? जीना पड़ता है!
निर्वाण षटकम् पूरा का पूरा सिर्फ तत्कालीन मान्यताओं को और तत्कालीन कहना भी पूरी तरह सही नहीं होगा क्योंकि व समकालीन भी है। वह मान्यताएँ आज भी प्रचलित हैं क्यूंकि शायद उनका संबंध मनुष्य की देह से है। हर नया बच्चा जो पैदा होता है, वो अपने भीतर यही खतरा लेकर पैदा होता है कि अब वो भी भ्रमित होगा, अब वो भी संस्कारित होगा, उसके भीतर भी इधर-उधर की बातें डाली जाएंगी। तो उस समय जो भी मान्यताएँ चल रही थीं...गुरु भावी गुरु, गुरु अभी है नहीं—संभावित गुरु। उनके सामने खड़े होकर, एक-एक का खंडन कर दिया उन्होंने।
हम पकड़ के बैठे रहते हैं आज भी कि जीवन किस लिए है— धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष— इसको शंकराचार्य हजारों साल पहले काट चुके हैं। बोल रहे हैं, "सब कुछ नहीं है, बेकार की बात है यह!" हम जाति पकड़कर बैठे रहते हैं, हम वर्ण व्यवस्था पकड़कर बैठे रहते हैं। जो वर्णाश्रम हमारा धर्म चलता है, इसको शंकराचार्य कब का खारिज कर चुके हैं। हम आज भी पकड़े बैठे हैं। और बात यह नहीं है कि जब वह एक अथॉरिटी फिगर बन गए, जब वह एक सम्मानित गुरु बन गए, तब उन्होंने यह चीजें खारिज कीं। वो वहाँ पर खड़े हुए हैं— एक आवेदक की तरह। हम कह रहे हैं, "बहुत कुछ दांव पर लगा हुआ है!"
आमतौर पर होता यह है कि जब अधेड़ उम्र का कोई गुरु हो और उसके सामने कोई किशोर वय का आकर के थोड़ी ज्ञान की ऊंची बात कर दे, तो गुरु चिढ़ जाता है। कहता है, "सब कुछ तुम ही जानते हो? तो हमें गुरु बनाने क्यों आए हो? तुम तो पहले से ही होशियार हो!" पर शायद बालक शंकर ने ऐसी बात कर दी जो गुरु के ही स्तर की थी, या फिर गुरु से भी एक कदम आगे की थी। गुरु को एक मिनट नहीं लगा उनको स्वीकार करने में— इंस्टेंट एडमिशन!
तो ज्ञान, ज्ञान तभी है जब उसकी खातिर आप कोई भी खतरा बेधड़क उठाने को तैयार हो जाओ। जो खतरा उठाने को तैयार नहीं है, जो आगे बढ़कर बोलने को तैयार नहीं है— ज्ञान उनके लिए नहीं है।
शंकराचार्य, शिवमूर्ति, और शिव का अर्थ ही है विध्वंस। अब किसका विध्वंस? सत्य का तो कोई विध्वंस हो नहीं सकता, ना? जब हम कहते हैं "शिव माने प्रलय," तो प्रलय माने क्या? आप डर जाते हो? बहुत लोगों को अजीब सा लगता है— "बाप रे! शिव माने तांडव! अभी डमरू बजेगा, सब टूट-फूट हो जाएगी!" किसकी टूट-फूट हो जाएगी? जो असली है, वो तो टूट सकता नहीं, ना? तो जो नकली है, दुखदाई है— उसी को तो तोड़ते हैं शिव!
सब कुछ काटने-तोड़ने के बाद लिंग भेद नहीं चलेगा, जाति भेद नहीं चलेगा, उम्र को सम्मान देना नहीं चलेगा। लिंग के आधार पर तुम्हारे कर्तव्य का निर्धारण नहीं होगा— न वर्ण के आधार पर, न उम्र माने आश्रम के आधार पर। सब शिव की ही अदा में है। सब कुछ बिल्कुल हवा में उड़ा देने के बाद, धराशाई कर देने के बाद, अंत में आकर के इतना बोल देते हैं—
"अहं निर्विकल्प निराकार रूपो, चिदानंद रूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम्।"
यह अंत में बहुत संक्षेप में। ज्यादा बात तो यही है कि "मुझे तोड़ना है!" सकारात्मकता का जो हमने सिद्धांत पकड़ रखा है, उससे कोई लेना-देना ही नहीं। और मैं देखता हूं कि हम लोगों में भी यह बात बहुत गहराई से बैठी हुई है— "नहीं, नहीं, नहीं! टूट-फूट क्यों करनी है? कुछ अच्छा काम करो न! कुछ सकारात्मक काम करो न!" तो महाशिवरात्रि, सकारात्मकता के बारे में तो है नहीं! ना आपको निर्वाण षटकम् में कहीं कोई सकारात्मक वक्तव्य मिलेगा।
और जो एकमात्र सकारात्मक बात वह आखिरी में आकर के बोलते हैं, वो निर्गुण की है। और सकार की जब आप बात करते हैं, आप सोचते हैं कि वह तो सगुण से ही संबंधित होगा!
"एकमात्र पॉजिटिव, एफर्मेटिव वक्तव्य जो दिया जाता है, अंत में, वह भी क्या दिया जाता है?"
"मैं कौन हूं? अहं निर्विकल्प निराकार रूपः..."
निर्विकल्प, निराकार— ले लो सकारात्मकता!
"चिदानंद रूप हूं!"
और यह सारा भ्रम, सारी मिथ, सारे झूठ, जो तुम बचपन से पकड़कर बैठे हुए हो— उनको काटने के बाद जो अज्ञेय शेष रह जाता है, वह मैं हूं!
"चिदानंद रूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम्!"
जब मेरा ही पूर्ण विध्वंस हो जाता है, तब मैं कहने की पात्रता पाता हूं कि मैं शिव हूं! अन्यथा तो ठीक है! आज महाशिवरात्रि है, जगह-जगह पर उत्सव, जलसे हो रहे हैं, आयोजन हो रहे हैं। और जिसको देखो वही "शिवोऽहम्!"
"अरे, शिवोऽहम् बाद में आता है, पहले क्या आता है?" "पहले नकार आता है, पहले टूट-फूट आती है, पहले छोड़ना आता है!" पहले यह साहस आता है कि जो नकली है, भले ही जीवन भर उसको लेकर चला हूं, पर अभी त्याग सकता हूं!" अहंकार की कोई बात नहीं। जब ज़िंदगी भर किसी चीज को माना है, तो अब कैसे मान लें कि झूठी थी?"
जो अपने ही खिलाफ जाने को पूरी तरह तैयार हो जाए, उसे अंत में कहने का अधिकार मिलता है कि शिव हूं मैं! और फिर अधिकार की बात भी नहीं है। उसे बोलने की कोई जरूरत भी नहीं बचती, वो शिव ही है बोले चाहे ना बोले। तो शिव को पूजने वाले तो बहुत होते हैं, हम में से अधिकांश लोग जो यहां बैठे हुए हैं उनका संबंध हिंदू धर्म से है। कोई नहीं कहेगा कि शिव के प्रति सम्मान नहीं है, आस्था नहीं है और सम्मान और आस्था बहुत दूर तक नहीं जाते खोखली बातें हो जाते हैं बोध के बिना और शिव वह मूर्ति तो है नहीं जिसको हम अपनी कल्पना में लेकर के चलते हैं, शिव वो कहानियां, कथाएं तो हैं नहीं, जिनको सुन-सुन करके हम अक्सर अपना बस मनोरंजन कर लेते हैं।
कौन है शिव? अपनी ही राख पर से गुजरने को शिवत्व कहते हैं और यह बात भयानक नहीं है यह बात दहशत की नहीं है, यह बात परम आनंद की है। चिदानंद रूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम्! यह बहुत आनंद की बात है। यह आनंद पता लेकिन तभी, जब पहले साहस दिखाओ थोड़ा। हम भले ही पिंजरे में कैद हों, पिंजरे की सुरक्षा से हमको इतना मोह हो जाता है, ऐसी तमसा हो जाती है कि जो चल रहा है, चलने दो। एक सुरक्षित जीवन चल तो रहा है। साहस हम कभी दिखा नहीं पाते।
आज का सत्र, मैं प्रार्थना करता हूं कि शिवत्व से ओतप्रोत रहे। और शिवत्व का मतलब ही यही है—आत्मसंहार। आत्मज्ञान की परिणति ही यही है—आत्मसंहार। आप जो भी बने बैठे हो, एक बार को थोड़ी ईमानदारी से मान लो कि नकली हो, बहुत नकली हो। और छोटी-मोटी बातों को नकारना तो आसान हो जाता है। शंकराचार्य जो सबसे गहराई से स्थापित मान्यताएं हैं, उनको नकार रहे हैं।
अरे क्या मानते हो अपने आप को? लिंग मानते हो? नहीं! तुम पुरुष हो, स्त्री हो, इससे तुम्हारा धर्म, तुम्हारा कर्तव्य नहीं स्थापित हो जाता। अच्छा, छोड़ो! पुरुष, स्त्री भी! तुम अपने आप को देह मानते हो? कि देह है, तो इतना तो करना पड़ेगा? ऐसा होता है, वैसा होता है? वहां से भी तुम्हारा काम नहीं चलेगा। काटो, छोड़ो ये सब!
तो जिसको हम लोकधर्म कहते हैं, वह जो कुछ भी है, उसको आइना दिखाने के लिए 'निर्वाण षट्कम्' पर्याप्त है। कभी आप फंस रहे हो ना, किसी से बात करने में या स्वयं के प्रति ही कुछ तर्क करना हो? खुद को समझाने के लिए भी हमें तर्कों की जरूरत पड़ती है कई बार, है ना? कहीं फंस रहे हो तो 'निर्वाण षट्कम्' पर चले जाइएगा। जो कुछ भी शारीरिक है, मानसिक है, सामाजिक है, वो सब कुछ बस बहुत कम शब्दों में काट दिया गया है 'निर्वाण षट्कम्' में।
जैसे कि शंकराचार्य पहले ही बहुत मनन करके बैठे हुए थे कि जितनी तरीके की हमारी बॉन्डेजेस (बंधन) होती हैं, वे मूलतः कहां से आते हैं? तो उन्होंने बहुत इधर-उधर की बात करी भी नहीं, सीधे जाकर के उन्होंने मर्ज़ पर उंगली रखी है।
लिबरेशन इन सिक्स पैराग्राफस — 'निर्वाण षट्कम्'! जहां कहीं भी आप फंस रहे हो, एक बार वहां वापस जाकर देख लीजिएगा, इतना ज्यादा विद्रोही वक्तव्य है, एक युवा व्यक्ति का! कि बिल्कुल गदगद हो जाएंगे, अगर साहस होगा साहस नहीं होगा तो पढ़कर डर जाएंगे—"बाप रे! भयभीत हो गए! खौफज़दा हो गए! ये क्या लिख दिया! पर ये तो हम मानते हैं, यही तो हमारा धर्म है!" पूरे धर्म को काटे दे रहे हैं शंकराचार्य!
हां, जिसको हम लोकधर्म कहते हैं, शिवत्व तो उसको पूरी तरह काटता है। शंकराचार्य ने भी खुलकर उसको काटा है उसी का नाम 'निर्वाण षट्कम्' है। महाशिवरात्रि पर सबका स्वागत है! बताइए, क्या बात करें आपसे अब? थीम तो सेट हो गई।
प्रश्नकर्ता: नमस्कार सर, मेरा नाम प्रियांशु है, और आज का मेरा सवाल बाबाओं से संबंधित है।
आचार्य प्रशांत: अरे वाह!
प्रश्नकर्ता: तो सर, मैं क्या देख रहा हूं कि आजकल बाबाओं का जो मार्केट है, बहुत गर्म चल रहा है। आए दिन कोई नेता, खिलाड़ी, सेलिब्रिटी इनके आजू-बाजू चक्कर काटता हुआ नजर आ रहा है। आज मैं जिसको भी जानता हूं, वो किसी ना किसी बाबा से प्रभावित हुआ पड़ा है। और मैं जब इन बाबाओं को सुनता हूं, तो मुझे दिख जाता है कि ये फर्जी हैं।
पर ये जब बात मैं किसी सामने वाले को बताता हूं, तो उसे कुछ नहीं समझ में आता। तो सर, मुझे आपसे कुछ ठोस, लॉजिकल पॉइंट चाहिए, जिसके सहारे मैं सामने वाले को भी समझा पाऊं, खुद भी समझ पाऊं कि किस बाबा को असली मानूं, किसे नकली मानूं? किसकी बात सुनूं, किसकी बात न सुनूं?
आचार्य प्रशांत: अच्छा है, बहुत-बहुत बढ़िया प्रश्न है! और बिल्कुल महाशिवरात्रि लायक ही प्रश्न है।
महादेव प्रसन्न हुए!
भोले बाबा उनका नाम है, बाबा उन्हीं के साथ जुड़ना चाहिए, बाकी ये सब जो अंडू-पंडू घूम रहे हैं, ये थोड़ी इस लायक हैं कि इन्हें बाबा बोलो!
(तालियों की गूँज)
तो कैसे पता करें कि कौन असली है, कौन नकली है? पहली चीज तो ये कि सामने जो व्यक्ति है, जो भी बात वह कर रहा है, वह अपने आप को बाबा बोलता हो, गुरु बोलता हो, कुछ भी बोलता हो... वास्तव में यह प्रश्न मात्र धर्म के क्षेत्र से संबंधित भी नहीं है।
मैं जो आपसे बातें बोलूंगा, उनका इस्तेमाल बस नकली बाबा को ही पकड़ने के लिए नहीं, नकली व्यक्ति को पकड़ने के लिए किया जा सकता है। सिर्फ नकली बाबा नहीं, उसमें नकली नेता भी आ जाएगा, नकली सेलिब्रिटी भी आ जाएगा, नकली रिश्तेदार भी आ जाएगा, नकली इंसान आ जाएगा! हम नकली होंगे, तो हमारे भी झूठ को पकड़ने के लिए ये बातें काम आ जाएंगी।
तो पहली चीज तो यह कि वो व्यक्ति जो भी बात कह रहा है वो बाबा हो या कोई और हो वो बात तथ्यों पर आधारित है या विश्वास पर। जो भी बात सामने से आ रही है उसका तथ्य से कोई लेना देना है या वह बस विश्वास की बात है, यह पहली चीज है जो परखनी है।
मैं कोशिश करूंगा ऐसी आपको आठ-दस आपको बातें बोलू, पॉइंटर दूँ, ये पहला है।
पहला! और विश्वास से ही संबंधित जो शब्द होते हैं, वो क्या हैं? मान्यता, परंपरा, आस्था, कल्पना, भावना! धर्म का संबंध सच्चाई का संबंध, ईमानदारी से जिए जा रहे जीवन का संबंध, इनमें से किसी से भी नहीं है। सामने जो बैठा है, अगर वह आपके ऊपर अपने विश्वास थोप रहा है, कह रहा है—"मैं फलानी चीज़ में मानता हूँ, तुम भी मानो और इसको मानने से ऐसे-ऐसे लाभ हो जाते हैं," या "ऐसा कुछ होता है"—तो यह पहला रेड फ्लैग है, लाल झंडा, खतरे का निशान!
आप जो बोल रहे हो, वो तथ्य है या कल्पना? आप जो बात बोल रहे हो, उसमें मैं विश्वास करूं या उसका कोई प्रमाण है? और जो प्रमाण है, कहीं वह भी व्यक्तिगत तो नहीं है, सब्जेक्टिव तो नहीं है? व्यक्तिगत प्रमाण कैसा होता है? "जो मानते हैं, वह जान जाते हैं।" यह व्यक्तिगत प्रमाण है।
यह कह रहे हैं कि कोई चीज़ मानने लायक है कि नहीं, यह परखने के लिए पहले मानो! यह कैसा प्रयोग है? यह ऐसा ही है कि खाने में ज़हर है या नहीं, यह जानने के लिए पहले खाओ! यह कैसा प्रयोग है? यह क्या प्रयोग है?
तो आपकी सत्तर-अस्सी प्रतिशत समस्या तो यहीं पर सुलझ जाएगी, जब आप यह प्रश्न पूछ लेंगे कि सामने जो है, वह मुझ पर अपनी भावना, अपना विश्वास, अपनी आस्था, अपनी मान्यता, अपनी परंपरा, अपनी कहानी आरोपित कर रहा है, या मुझसे बैठकर यथार्थ की बात कर रहा है? यह जो हमारा हाड़-मांस का जीवन है, इस मिट्टी पर, इस ठोस धरातल पर—वो इस ठोस धरातल की बात कर रहा है या हवाई बादलों की बात कर रहा है?
और भूलिएगा नहीं कि आपके जो कष्ट हैं, सारे, वे इस धरातल के हैं! आप मिट्टी के जीव हो, आप पार्थिव प्राणी हो! आपके कष्ट काल्पनिक नहीं हैं जब कष्ट काल्पनिक नहीं हैं, तो समाधान काल्पनिक कैसे हो सकते हैं? कल्पना से वास्तविक कष्ट का समाधान कैसे मिल जाएगा? या मिल सकता है?
आपके पेट में पथरी है—पत्थर! जैसे ज़मीन में पत्थर होते हैं, वैसे पेट में पथरी है। और आप जाएं, और कोई चिकित्सक कहे, "आंख बंद करके कल्पना करो कि तुम आनंद सागर में गोते खा रहे हो!" इससे समाधान हो जाएगा क्या?
भारत की विडंबना रही है कि बोध का पालना होने के बावजूद, वेदांत की, षडदर्शन की, उपनिषदों की होने के बावजूद, माया ने कुछ ऐसा खेल खेला, कुछ ऐसा कुचक्र चला कि आज हमारे लिए धर्म का मतलब ही हो गया है—विश्वास! बिलीफ सिस्टम! बिलीफ सिस्टम!
"जी, आप किसको मानते हैं?" "जी, हम तो इनको मानते हैं!" "हां जी, हां जी, वो भी ठीक! जी, हम तो इनको, इनको, इनको और इनको मानते हैं!" अच्छा, आप न ज़रा वहाँ जाइएगा! अब एक नया-नया अपकमिंग तीर्थ आ रहा है, पॉलिटिकल पेट्रोनाज के साथ! आप उनको भी मानना शुरू कर देंगे? यह कोई धार्मिक वक्तव्य है? "जी, आप किसको मानते हैं?" "जी, हम किसको मानते हैं?" यह लगभग वैसी ही बात है कि— "तुम्हारे सपने में क्या आया? मेरे सपने में क्या आया?" उसका कोई महत्व है?
और हमने जो सम्मान दिया जाना चाहिए था बोध को, समझदारी को, अंडरस्टैंडिंग को, ध्यान को और ज्ञान को — वह सम्मान हमने देना शुरू कर दिया विश्वास को, आस्था को! व्यवहारिक रूप से आप बताइएगा। कोई आप कहीं कुछ खरीदने जाए, ठीक है? वो आपको लौटाए सौ रुपए का नोट, लौटाना चाहिए था पांच सौ का। वो बोले कि नहीं, यह पांच सौ है। तो आप उससे बहस कर लेते हो ना या सम्मान करने लग जाते हो? बहस कर लेते हो।
लेकिन आपने देखा है, आपके सामने कोई व्यक्ति खड़ा हो जाता है और कहता है, "भाई, हमारी तो ऐसी मान्यता है!" आप बहस नहीं करते, आप पीछे हट जाते हो, आप रिट्रीट कर जाते हो। यह है भारत का दुर्भाग्य। हम बहुत ज्यादा इज्जत दे रहे हैं विश्वास को, और दिए ही जा रहे हैं। और विश्वास बेचने वालों के आगे हमें पता भी नहीं चलता कि हमारे हाथ क्यों जुड़ जाते हैं, सिर क्यों झुक जाता है। हमें पता भी नहीं चलता।
आप अपने ऑफिस में हैं, वहां प्रेजेंटेशन चल रही है उसमें किसी ने कुछ गलत कैलकुलेशन दिखा दी है, आपको बिल्कुल झिझक नहीं होगी यह कहने में कि, "भाई, आपने जो कैलकुलेशन दिखाई है ना, यह गलत है।" झिझक होती है क्या? नहीं होती कोई झिझक। लेकिन आप घर पर हैं, और वहां किसी ने रोना शुरू कर दिया यह बोलकर कि, "मेरी भावनाएं आहत हो गई हैं।" तो आप पीछे हट जाते हो, क्योंकि अब बात किसकी आ गई है? भावनाओं की बात हो गई है। हमने धर्म का संबंध इन्हीं चीजों से जोड़ दिया है— विश्वास, आस्था, भावना। क्यों पीछे हट रहे हो, भाई? किसी की भावना अगर झूठ पर आधारित है, तो क्यों पीछे हट रहे हो? क्यों इज्जत दे रहे हो ऐसी भावना को?
और यह मैं नहीं कह रहा हूँ, यही शिवत्व है, यही निर्वाण षटकम् है, यही आचार्य शंकर का संदेश है। खुलकर बोल रहे हैं— "न न न न न, नाहम्!" पहला ही वक्तव्य है— "मनो बुद्धिः अहंकार चित्तानि नाहम्।" "न न न" शब्द से भरा हुआ है निर्वाण षटकम्। आपको 'ना' बोलना आता ही नहीं।
आप किसी से सीधी-साधारण बात कर रहे हो। अगर वह व्यक्ति अभी संतुलित है दिमाग से, तो आप उससे फिर भी तर्क कर लोगे, और तर्क बड़ी स्वस्थ बात होती है। व्यक्ति दिमाग से संतुलित है, तो आप कर लोगे। पर वह भावुक हो जाए, रोना-वगैरह शुरू कर दे, तो आप तुरंत अपने आप को दोष देने लगोगे— "अरे अरे अरे, मैंने बेचारे का दिल दुखा दिया!"
ये अधार्मिकता है, यही नास्तिकता है। आप जानना चाहते हो ना नास्तिकता क्या है? यही, यही, यही! सत्य से ऊपर विश्वास, मान्यता, भावना, आस्था— इनको सम्मान देना यही अधार्मिकता है, यही नास्तिकता है।
मैं ऐसे खड़ा होकर बोल रहा हूँ आपके सामने, अभी आकर बाबा जी यहाँ बैठ जाए। उन्होंने पारंपरिक धार्मिक वेशभूषा धारण कर रखी हो, और वो आपसे बिल्कुल वाहियात बातें करना शुरू कर दे— आप में से किसी के लिए भी मुश्किल होगा उठकर के खड़े होकर कहना कि, "बाबा जी, आप बेवकूफी की बातें कर रहे हो।" आप नहीं बोल पाओगे। और बिल्कुल हो सकता है कि आप में से कोई वकील हो, जिसका काम ही हो प्रतिपक्ष के वक्तव्य को काटना। बिल्कुल हो सकता है कि आप में से कोई सुशिक्षित प्रोफेशनल हो, व्यवसायिक रूप से वकील हो, जिसको पूरी तरह से प्रशिक्षण भी मिला हुआ है सामने के कुतर्क को काटने का। लेकिन बाबा जी यहाँ बैठकर बकवास कर रहे होंगे, आप काटोगे नहीं। क्यों नहीं काटोगे,?
भाई , किसी की धार्मिक भावनाएं हम आहत कैसे कर सकते हैं?" और इस चीज़ ने इंसान को, पूरी मानवता को बहुत-बहुत नुकसान पहुँचाया है। हम पता नहीं कहाँ हो सकते थे। पता नहीं कहाँ हो सकते थे, और कहाँ रह गए! आप सोचते हो, हमने बड़ी प्रगति कर ली है। "अरे भाई, सन 2025 चल रहा है! इंसान बहुत आगे आ गया!" इंसान इससे ना जाने कितना आगे आ सकता था!
जिनको हम 'मिडिवल एजेस' कहते हैं, मध्ययुग— वह पांच-सात सौ साल तक इंसान आगे बढ़ा ही नहीं! क्योंकि वह पांच सौ साल चेतना के अंधेरे के थे। उस समय सिर्फ विश्वास चलता था। विश्वास!
आप जब वेस्टर्न फिलॉसफी की बात करते हैं, तो या तो आप ग्रीक फिलॉसफी जानते हैं, और ग्रीक फिलॉसफी ईसा से सौ- दो सौ साल पहले ही समाप्त हो चुकी थी व्यवहारिक रूप से। और ईसाइयत के आने के बाद तो पूरी तरह से ही नष्ट हो गई। ग्रीस भी गया, और ग्रीक्स भी गए, और उनकी फिलॉसफी भी गई। और उसके बाद आप बताइए, आपको फिलॉसफी फिर मिलती कब है?
लगभग पंद्रह सौ सालों के अंतराल के बाद! पंद्रह सौ सालों तक दर्शन बचा ही नहीं, इंसान आगे बढ़ा ही नहीं। क्या आगे बढ़ते रहे? विश्वास! यही आगे बढ़ते रहे। पंद्रह सौ सालों तक विश्वास पर चलता रहा आदमी, उनको हम बोलते हैं 'द डार्क एजेस'।
उसके बाद पश्चिम ने तरक्की कब करी? जब लोग आए, जिन्होंने शुरुआत दर्शन से करी और दर्शन ने दरवाजे विज्ञान के खोले। वहाँ से रिफॉर्मेशन आया, वहाँ से रेनेसां आया, और वहाँ से फिर वह सब प्रगति आई, जिसको आप आज देखते हो पश्चिम में। पश्चिम में तो फिर भी आज हम कहते हैं, "हाँ भाई, ठीक है! 16वीं शताब्दी से वहाँ पर या 15वीं शताब्दी से वहाँ पर दर्शन वापस लौट आया, विज्ञान वापस लौट आया, और फिर वह वहाँ पर अभी भी चल रहा है।" 'स्कूल्स ऑफ फिलॉसफी!’
भारत में तो वापस लौटा ही नहीं। आदि शंकराचार्य आखिरी थे, जिनको हम कहेंगे सीधे-सीधे दार्शनिक। अकैडमिक दार्शनिक! उनके बाद, हम नाम ले सकते हैं, तो उनका जो प्रैक्टिशनर्स ऑफ द इनर डिसिप्लिन, जिसमें पूरी संत परंपरा आ जाती है और उसमें कुछ आधुनिक ज्ञानी भी आ जाते हैं।
भारत का हाल तो पश्चिम से भी बुरा रहा। शंकराचार्य के बाद तो धर्म ही पूरा यही बन गया कि बस मानो— "यह कहानी है, तुम्हें इसमें मानना है!" यह धर्म नहीं होता! ये बात हमारे भीतर घुस गई है। हम कहते हैं— "चलो, मैं जान भी गया कि यह धर्म नहीं होता, पर कोई और है तो उस बेचारे को मैं चोट क्यों पहुँचाऊँ? भाई, अपनी-अपनी आस्था होती है।" यह "अपनी-अपनी आस्था होती है"— यह धार्मिक वक्तव्य नहीं है!
आप जानते हैं, पश्चिम कैसी-कैसी चीजों में विश्वास करता था? और उसी विश्वास से उकता करके, उलटी करते हुए, एक प्रतिक्रिया स्वरूप, एक विरोध स्वरूप दर्शन दोबारा खड़ा हुआ। आप जो भी उल्टा-पुल्टा सोच सकते हैं, वो हर चीज़ वहाँ मानी जाती थी। "आपने अगर शीशा तोड़ दिया है, तो आपकी माँ की कमर टूट जाएगी।" "आपने अगर मिरर तोड़ दिया है, तो आपकी माँ की कमर टूट जाएगी!"
एक प्रसिद्ध रानी हुई हैं, नाम खोजिएगा। और उनको बड़ा सुंदर माना जाता था, लोग उनके पीछे पागल रहते थे। बोली कि, "मेरा राज यह है कि मैं ज़िंदगी में कुल दो बार नहाई— एक पैदा होते वक्त और एक अपने विवाह के वक्त!" और विवाह भी जो एक विवाह था, उसमें नहाई थी। आगे नहाई भी नहीं! नहाने को असल में स्त्रियाँ खासकर बुरा मानती थीं। माना जाता था कि अगर नहाएँगीं, और खासकर शरीर के निचले हिस्से में उन्होंने नहा लिया, तो वे इनफर्टाइल हो जाएँगी, बच्चे नहीं पैदा होंगे।तो खासकर जवान औरतें बीस-बीस साल नहीं नहाती थीं! बच्चे पैदा होने की प्रक्रिया में ही मर जाते होंगे दुर्गंध से!
दाँत साफ़ करने की तो बात ही छोड़ दीजिए! और सबसे गंदे दाँत, मालूम है, किनके होते थे? और इसको माना जाता था कि यह "गुड लक" का सबूत है अगर आपके सबसे गंदे दाँत हैं। सबसे गंदे दाँत सबसे अमीरों के होते थे! क्यों? क्योंकि दाँत सबसे ज़्यादा खराब होते हैं शक्कर खाने से। और शक्कर उस वक्त इतनी महँगी थी कि सिर्फ अमीर खा सकते थे। तो देखा यह गया कि अमीरों के दाँत खराब हैं, तो माना गया कि— "अगर तुम्हारे दाँत खराब हो रहे हैं, तो तुम पर अब सौभाग्य बरसने वाला है!"
हम अगर ये देखना शुरू कर दें कि हमने कैसी-कैसी चीज़ों में विश्वास करा है, तो होश उड़ जाएँगे आपके! विच-हंटिंग तो जानते ही हैं ना? कहीं कुछ गड़बड़ हो रही है, तो वहाँ पर जो गाँव में औरत हो उसको जाकर जला दो, पत्थर मार-मारकर खत्म कर दो! "वही है चुड़ैल, डायन! इसी ने कराया यह सब!" और उसके पीछे भी जो बात होती थी इसलिए पता है क्या होती थी? वो बात ये होती थी कि अर्थव्यवस्था तो जर्जर थी! तो जो अकेली महिलाएँ होती थीं, वो अर्थव्यवस्था पर बोझ होती थीं। इसीलिए पश्चिम में विच-हंटिंग और भारत में सती प्रथा चली!
अब वो अकेली घर में बैठी हुई है। उसको ना शिक्षा दी है, ना ज्ञान दिया है कुछ कर तो सकती नहीं। तो कहा— "इसको सती ही कर दो, पैसे बचेंगे! नहीं तो यह बैठी-बैठी खाएगी!" और खासकर अगर बाल विधवा है, बाल विधवा इसलिए हो जाती थी, क्योंकि बाल विवाह होते थे! 45 साल का पुरुष है, उसने 5 साल की लड़की से शादी करी है वो तो मर जाएगा दस-बीस साल में? अब लड़की बाल विधवा हो जाएगी। बाल विधवा हो जाएगी, उसे पढ़ाया-लिखाया तो है नहीं, तो करेगी क्या वो? तो कहा— "इसको जला ही दो, नहीं तो इकोनॉमिक बर्डन बनेगी!" असली बात ये थी।
और यही असली बात पश्चिम में भी थी। तो गाँव में जितनी महिलाएँ होती थीं, जो बूढ़ी हो गई थीं या किसी लायक नहीं थीं, उनको चुड़ैल घोषित करके पत्थर से मार दो। नहीं तो खिलाना पड़ेगा! और खाने को है नहीं! तमाम तरह के हर समय अकाल, दुर्भिक्ष, फेमिंस पड़ते रहते थे। यह सब हमारे विश्वास रहे हैं! आप बताओ मुझे! मैं पूछना चाहता हूँ— "आप विश्वास को कितना सम्मान देना चाहते हैं?" तो बाबा जी जब आपके सामने बैठकर अपने विश्वासों की पूरी पोटली खोल देते हैं, तो आप इज्जत क्यों देने लग जाते हो? आपका मुँह क्यों नहीं खुलता है?
समझ में आ रही है बात?
एक चीज़ सीख लीजिए— विथ ड्राइंग रिस्पेक्ट। बहुत ज्यादा भद्र जन बनने की, "जेंटलमैन" बनने की, कि— "देखिए, हम अपने काम से काम रखते हैं। निंदा नहीं करनी चाहिए किसी की!" तो फिर नेति-नेति क्या है? फिर तो वेदांत बेकार की बात बोल रहा है, ना? आप किसी चीज़ को गलत ठहरा ही नहीं सकते, तो नेति-नेति क्या है? शिवत्व क्या है? प्रलय क्या है? निर्वाण षटकम् क्या है? बोलो।
आप तो बोल रहे हो, "मैं तो सामाजिक आदमी हूं, कोई कुछ भी बोले, मैं कैसे करता हूं?" जी, जी, नहीं, नहीं। आप ठीक बोल रहे हैं। वो बिल्कुल मूर्खता की बात बोल रहा है, तो भी मैं उससे नहीं बोल सकता कि "आपका भला चाहता हूं, इसीलिए आपको बताना चाहता हूं, आप मूर्ख हैं।" अरे, मत बोलो ऐसे कि "आप मूर्ख हैं!" शालीनता से बोल दो, पर बोलो तो सही ना कि "आप जो बात कर रहे हैं, बेतुकी है, बेबुनियाद है और दुख का कारण बनेगी।" क्यों नहीं बोला जाता?
डरे बैठे हो और अपने डर को नाम देते हो शालीनता का! "हम किसी की निंदा नहीं करते।" क्योंकि दम नहीं है तुम में! मत बोलो, "किसी की निंदा नहीं करते।" बोलो, "डरपोक हैं!" नहीं, पर एक आदमी की नहीं, अगर करोड़ों लोगों की आस्था हो तो? तो क्या फर्क पड़ता है? अंधविश्वास की आप सूची निकालिए, उनमें करोड़ों लोग ही मानते थे। तो? तो?
सारी गड़बड़ शुरू होती है, उसको सम्मान देने से, जो सम्मान का अधिकारी नहीं है। सवाल किसका था? कहां गए? हां, बैठ जाओ! खड़े मत रहो। तुमने मुद्दा ऐसा छेड़ दिया है कि मैं तो पानी पी-पीकर बोलूंगा।
दूसरी बात, उपनिषदों के बिल्कुल मर्म में मैं ले जा चुका हूं आपको, और उपनिषद साफ-साफ बोलते हैं। भगवद गीता में श्रीकृष्ण का उदाहरण भी आपके सामने है, एक नहीं, अनगिनत श्लोकों में कि आत्मज्ञान हो ही नहीं सकता, जगत को जाने बिना। और पहले से शुरू करता हूं कि वास्तविक धर्म आत्मज्ञान के अतिरिक्त और कुछ नहीं, कुछ नहीं, कुछ नहीं। क्योंकि सारा दुख उठता ही है अपने प्रति भ्रम से। हम जानते ही नहीं हैं कि भीतर हमारे बैठा कौन है? हमारी भावनाएं, हमारे विचार, हमारे कर्म, हमारी प्रेरणाएं, हमारी हां, हमारी ना, हमारी पसंद, हमारी नापसंद—आ कहां से रही है? हमें पता ही नहीं है! वही दुख है, वही दुख है! आत्म-अज्ञान ही दुख है। तो एकमात्र धर्म है आत्मज्ञान। क्या है? आत्मज्ञान!
और आत्मज्ञान अगर एकमात्र धर्म है, तो उपनिषद कहते हैं ना कि "खुद को जाना ही नहीं जा सकता, संसार को जाने बिना!" क्यों? क्योंकि श्रीकृष्ण बताते हैं कि "तुम और प्रकृति, हो तो बेटा एक ही!" अहंकार बस, अपने आप को प्रकृति का भोक्ता मानकर अलग करते रहते हो। वो कहता है, "मैं अलग हूं, मैं अलग हूं," ताकि वो प्रकृति को भोग सके, वरना सही बात तो यह है कि “गुणा गुणेशु वर्तन्तु।“ जो उधर है, वही इधर है।
तो अगर इसको जानना है, तो उसको जानना पड़ेगा। और इसको जानने की शुरुआत करने के लिए, कई बार उधर से बेहतर रहता है। क्यों? क्योंकि आंखें ज्यादा किसको देख सकती हैं? उसको! फिर आपको स्वयं को भी जानना है, तो आप जो कुछ बने बैठे हो, वह आधारित तो संसार पर ही है, ना?
"मैं मां हूं!" कैसे? क्योंकि बेटा है। बेटा ना हो, तो आप मां नहीं हो सकते। "मैं अमीर हूं!" क्यों? क्योंकि वहां पैसा रखा हुआ है। "मैं फलाने वर्ण का हूं!" क्यों? क्योंकि पिताजी उस वर्ण के थे। "मैं ज्ञानी हूं!" क्यों? क्योंकि कहीं कोई कॉलेज, विश्वविद्यालय था, वहां से पढ़े आप। आप जो भी बने बैठे हो, वह आधारित किस पर है? संसार पर! तो स्वयं को जानना है, तो संसार को भी जानना पड़ेगा ना? जानना पड़ेगा ना?
आपने कभी जांचने की कोशिश की कि बाबा जी का सांसारिक ज्ञान कितना है? और अगर संसार का कोई ज्ञान रखे बिना बाबा जी इतने होशियार हो गए, तो फिर उपनिषद ही मूर्ख हैं! बाबा जी बड़े गौरव के साथ बताते हैं कि "हम तो कुछ नहीं जानते।"
(अपना हाथ दिखाते हुए) "ये क्या है?" मोबाइल है, "ईंट है? क्या है ये?" तश्तरी है?" "ताश का पत्ता है, क्या है ये?" और उपनिषद बोलते हैं कि, "विद्या ना हो तुम्हारे पास, विद्या माने: स्वयं को जानना। भीतर अपने जो कुछ भी उड़-बुड़, बड़बड़ चलता रहता है, उसको निष्पक्ष होकर देखना, विद्या। विद्या ना हो तुम्हारे पास तो जाकर के गिरोगे गहरे गड्ढे में! लेकिन अविद्या ना हो तुम्हारे पास! अविद्या माने? (चारों ओर अपने दिखाते हुए) यह सब जानना। "यह सब क्या है?" दुनिया। लेकिन अविद्या ना हो तुम्हारे पास, तो जाकर के गिरोगे और ज्यादा गहरे गड्ढे में!
तो उपनिषदों ने कहा है कि "जो दुनिया को जानता-समझता नहीं है, बहुत गहरे गड्ढे में गिरा हुआ आदमी है।" और बाबा जी का तो यूएसपी (यूनीक सेलिंग प्रोपोज़िशन) ही यही है कि "हम दुनिया के बारे में कुछ नहीं जानते, बच्चा! हम तो दुनिया को छोड़ आए हैं। हमें कुछ नहीं पता, दुनिया माने क्या?” तो सुन लो बाबा जी की, उपनिषदों को एक तरफ रख दो कि "बेकार है उपनिषद!"
बाहर को जानने में भी दो बातें आती हैं:- एक सामान्य ज्ञान और एक विज्ञान। अगर आप विज्ञान नहीं समझते, तो आपको कैसे पता चलेगा कि आपकी भावनाएं सब केमिकल हैं, बोलो? विज्ञान कोई वैकल्पिक चीज है क्या? आध्यात्मिक आदमी के लिए विज्ञान अनिवार्य है, नहीं तो आप यही सोचोगे कि मेरे भीतर कोई जीव बैठा है, कोई जीवात्मा बैठी है, कोई देव बैठा है, और उसी से मुझे भीतरी प्रेरणा उठ रही है। और उठ रही है गैस!
(हंसी)
जब आपको साधारण विज्ञान भी नहीं पता, तो आप अपने शरीर के कार्यक्रम को कैसे समझोगे? वो सब कुछ, जो मानसिक होता है, वस्तुतः होता तो शारीरिक ही है ना? वो सब कुछ, जो मानसिक है, वह कहां से उठता है? शरीर से उठता है। शरीर से ही उठता है ना? नींद आ रही है, नींद आ रही है। नींद, ऐसे ही लगता है ना? अरे यार, अब नींद आ रही है, मन कर रहा है सो जाए। क्या कर रहा है सो जाए! मन कर रहा है सो जाए। और मन इसलिए कर रहा है सो जाए, क्योंकि अभी-अभी कार्ब और स्टार्च-रिच बहुत तगड़ा आपने लंच करा है। तो इस मन का सीधा संबंध किससे है? तन से! जो तन को नहीं समझता, वह मन के फेर में आ जाएगा। जो फिजिक्स को, केमिस्ट्री को, बायोलॉजी को... तीनों एक ही हैं। यह फिजिक्स थोड़ी एग्रीगेटेड हो जाती है, तो केमिस्ट्री बन जाती है, केमिस्ट्री और ऐसे ब्लोट कर जाती है, तो बायोलॉजी बन जाती है। जो फिजिक्स को नहीं समझता, वह तो शरीर को लेकर ना जाने कैसी-कैसी कल्पनाएं बना लेगा।
यहां ना, बेटा, तुम्हारे घुटने में एक नाड़ी होती है, उसको नाड़ी को ऐसे दबाओ, ऐसे-ऐसे... तो बुद्धि बिल्कुल तीव्र हो जाती है! बाबा जी, बिल्कुल ठीक कह रहे हो! जब घुटना ही ब्रेन हो, मस्तिष्क हो, तो बुद्धि को शार्प करने के लिए घुटना ही दबाना पड़ेगा! पर आप ऐसे-ऐसे आंखें बिल्कुल वाइड-आईड छोटे बच्चे की तरह ऐसे सुनते हो — "हां-हा! क्या ज्ञान की बात बताई!" अरे, मुंह पर नहीं बोल सकते हो कि "तुम मूर्ख हो," तो कम से कम उठ कर के तो चल दो! ये समझ पाना बहुत गहरे अध्यात्म की बात है। ये कोई आधुनिक विज्ञान भर ने नहीं बताया है हमें कि भीतर जो प्रक्रियाएं चल रही हैं, वह सब केमिकल हैं, बायोलॉजिकल हैं। इसलिए ही तो इंस्ट्रूमेंट्स उनको पकड़ पाते हैं ना? आप जाते हो और अपनी टेस्ट कराते हो जो पैथ लैब से आपकी रिपोर्ट आती है, उसमें आंकड़े लिखे होते हैं या उसे भावनाएं लिखी होती हैं? आप जाते हो अपनी शक्कर टेस्ट कराने के लिए, तो उसमें ऐसा लिखा होता है कुछ क्या? अरे, "जीवन में मिठास तो बहुत जरूरी है!" ऐसा होता है? हा? या डिहाइड्रेशन हो रहा है, तो डॉक्टर ऐसे बोलता है, "रहीमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून!" ये होता है क्या? या सीधे-सीधे आंकड़े दिए जाते हैं? और आंकड़े तो विज्ञान क्षेत्र होते हैं ना?
तो खुद को जानना है, तो भी आंकड़ों पर थोड़ा अधिकार होना चाहिए। मैं नहीं कह रहा हूं कि दुनिया भर का विज्ञान हर व्यक्ति जान सकता है, और ना मैं यह कह रहा हूं कि दुनिया भर में सामान्य ज्ञान की जो घटनाएं चल रही हैं, वह सब की सब आपको पता हों। पर एक बात होती है मोटे तौर पर। मोटे तौर पर! मोटे तौर पर भी अगर आपको ना पता है, ना पता करना चाहते हैं, और अपने अनुयायियों को भी यही बोल रहे हैं कि "यह सब पता करने की कोई जरूरत भी नहीं है," तो आप बहुत घपलेबाज बाबा जी हैं!
बाहर का आपको पता क्यों नहीं है, उसकी भी वजह बता देते हैं। बाहर का पता करने की आपकी अगर काबिलियत होती, तो आप छठी फेल क्यों होते? आप बाबा बने, इसीलिए हो, क्योंकि आपको दिख गया था कि जो साधारण शिक्षा व्यवस्था है, उसमें आपका कोई भविष्य तो है नहीं! तो स्कूल छोड़ के, घर छोड़ के, सब भग गए। इसलिए थोड़ी भग गए कि वैराग्य हो गया था? इसलिए भग गए, क्योंकि पढ़ाई नहीं हो रही थी। आईक्यू की समस्या थी, नियत की समस्या थी। तो जैसे होते हैं ना, "अंगूर खट्टे हैं!" जो चीज मुझे समझ में ही नहीं आई कभी—विज्ञान, गणित, समाजशास्त्र, दर्शन — जो चीज मुझे समझ में ही नहीं आई कभी, "अंगूर खट्टे!" माने, ये सब चीजें बेकार हैं! तो मेरे लिए भी बेकार है, और भक्त जनों, तुम्हारे लिए भी बेकार है! उनमें कुछ नहीं रखा है! मत कर, माया को अहंकार। यह सब माया है!
अरे भाई, माया-माया इसीलिए है, क्योंकि आप माया को समझते नहीं तो माया को काटने के लिए ही तो माया को समझना पड़ता है! जब तुम माया को समझते ही नहीं, तो तुम दूरी किससे बना रहे हो? जब मैं माया को समझता ही नहीं, तो दूरी किससे बना रहा हूं? हो सकता है, मैं जिससे दूर जा रहा हूं और जिसके करीब जा रहा हूं, सब उल्टा-पुल्टा कर रहा हूं! "आ! यह सब माया है! इससे दूर हो जाओ!" इधर चलते हैं! और इधर क्या खड़ी थी? महामाया! समझ में आ रही है बात कुछ?
आगे >> दैवीय चमत्कार या मानवीय संघर्ष
आचार्य प्रशांत: जो कुछ भी बताया जा रहा है, उसमें कोई दैवीय चमत्कार है या मानवीय संघर्ष है? अपनी नहीं बात कर रहा, वहां पर जाकर के पूछिए, सोचिए। यह जो कुछ भी मुझे यहां से ज्ञान बांट रहे हैं, उसका स्रोत क्या है? दावा क्या है बाबा जी का क्या बोल रहे हैं? "एक रात, सपने में भगवान आए थे और इनको दिव्य ज्ञान दे गए!" या वास्तव में, यह व्यक्ति किसी प्रक्रिया से गुजरा है? ठोकरें खाई हैं? समझने की कोशिश की है, एक इंसान की तरह? क्योंकि देखिए, अगर बात दैवीय चमत्कार की है, तो फिर आपके हाथ में रही नहीं गई ना? फिर तो बात रैंडम हो गई, प्रोबेबिलिस्टिक हो गई, भाग्य की हो गई! किसी के भाग्य में था कि भगवान आकर के उसको दे गए वरदान। आपके भाग्य में नहीं होगा, तो नहीं मिलेगा लेकिन अगर बात मानवीय संघर्ष की है, तो एक मुकाम, जो एक मानव ने हासिल किया है, वह दूसरे व्यक्ति को भी, दूसरे मानव को भी हासिल हो सकता है। तो आपके सामने क्या रखा जा रहा है—एक दैवीय परिणाम या एक मानवीय प्रक्रिया?
क्या प्रक्रिया बताई जा रही है? हां, अब यह करो, अब ऐसे देखो, ऐसे देखो! आपकी भी जो पूरी उपलब्धि है, उसके पीछे कोई प्रक्रिया है क्या? और प्रक्रिया भी विश्वास वाली नहीं होनी चाहिए। "हमारा विश्वास था, तो हम ऐसे-ऐसे घूमते-फिरते रहे, तो उसी से हमारे ज्ञान चक्षु खुल गए!" तो ये हो गया... ये कितने पॉइंट्स हो गए? तीन-चार?
श्रोतागण तीन
आचार्य प्रशांत: आगे!
आमने-सामने बातचीत और प्रतिवाद का अधिकार
आचार्य प्रशांत: बाबा जी क्या टू-एंड-फ्रो, आमने-सामने की बातचीत कर सकते हैं? वो किसी को अपने समकक्ष, अपने सामने, अपने ही तल पर बैठाकर इंसान की तरह बात कर सकते हैं? डिस्कशन है या डिक्टेशन है? बातचीत होती है या बस ज्ञान डाला जाता है? क्या प्रतिवाद करने का अधिकार देते हैं? और यदि प्रतिवाद करे कोई, तो उत्तर में एंगर आता है, अथॉरिटी आती है, या आर्गुमेंट आता है?
अगर उधर से कोई कहे कि, "मैं नहीं आपकी यह बात समझ पा रहा हूं, समझाइए," और, "ना मान पा रहा हूं, आप जो बात बोल रहे हैं, वह इस-इस तरीके से गलत है," तो ऐसा कह देने पर बाबा जी तर्क देंगे या क्रोध दिखाएंगे? और अथॉरिटी बताएंगे कि, "हमने कह दिया तो कह दिया! और अगर तू मेरी बात नहीं मान रहा है, बच्चा, तो तू नर्क में सड़ेगा! तू पापी है! तूने अगर मेरी किसी मान्यता के खिलाफ कुछ बोला, तो श्राप दे दूंगा, भस्म कर दूंगा!" समझाने की कोशिश होती है या डराने की? "तुम मेरी बात मानो, इसलिए कि मैं तुम्हारे सामने ऐसे प्रमाण रख रहा हूं, जो तुम स्वयं स्वीकार करोगे," या "तुम मेरी बात मानो, क्योंकि मैं बाबा जी हूं!" दोनों में से क्या बात कही जा रही है—आर्गुमेंट या अथॉरिटी? यह पूछना बहुत जरूरी है—तर्क है या विशेषाधिकार? विशेषाधिकार क्यों है? क्योंकि "हम बाबा जी हैं!" बाबा जी!
५) स्त्रियों, तथाकथित पिछड़े समाज के प्रति व पशुओं के प्रति दृष्टिकोण
आचार्य आगे पूछिए, अपने आप से—लोकधर्म के जो सबसे बड़े दुर्गुण रहे हैं, जो सबसे बड़ी बीमारियां रही हैं, बाबा जी कहीं उन्हीं को तो आगे नहीं बढ़ा रहे छद्म रूप से, छुपे रूप से? क्या?
साफ-साफ देखिए कि बाबा जी का स्त्रियों के प्रति, तथाकथित निचले वर्णों और दलितों के प्रति, और पशुओं के प्रति क्या रुख है? क्योंकि लोकधर्म इन तीनों के प्रति बड़ा क्रूर रहा है। और खुल के अपने मुंह से वे नहीं बोलेंगे कि, "मैं तो स्त्री-विरोधी हूं!" उनकी बातों में से खोज के निकालना पड़ेगा कि ये बोल क्या रहे हैं? बोल क्या रहे हैं? उल्टा होता है—स्त्रियां सबसे ज्यादा जाकर बाबाओं के चरणों में लोटती हैं। कहते हैं, "ग्लीनिंग!"
थोड़ा सा सूक्ष्मता से सुनिए कि बाबा जी जितनी बातें बोल रहे हैं, इसमें लिंग चेतना कहां है? जेंडर कॉन्शसनेस कितनी है? और ये जो बातें बोल रहे हैं, इस बात का असर महिलाओं पर क्या पड़ना है?
बाबा जी बोल रहे हैं, "विवाह जल्दी कर देना चाहिए! लड़की की खुशी इसी में है कि उसको 18 में बिहा दो!" यह जो आप बोल रहे हैं, इसका स्त्री की शिक्षा, सशक्तिकरण, और रोजगार पर क्या प्रभाव पड़ेगा? बाबा जी खुद तो नहीं बोलेंगे कि, "मैं चाहता हूं कि स्त्री अशक्त रहे!" वो इतना बोल देंगे कि, "लड़की की शादी जल्दी कर दो!" शादी जल्दी कर दो—हो गया ना? अब यह बोलने की जरूरत थोड़ी है कि, "लड़की को कमजोर रखो!" शादी जल्दी कर दो—कमजोर अपने आप हो जाएगी! शादी जल्दी कर दो—अपने आप ज्यादा बच्चे पैदा करेगी! शादी जल्दी कर दो—अपने आप वो परनिर्भर रहेगी! तो बोलने की जरूरत थोड़ी है बाबा जी को खुले मुंह से कि, "लड़की को हमेशा दूसरे पर आश्रित रहना चाहिए!" वो बस इतना बोल देंगे कि, "शादी जल्दी कर दो!" तो थोड़ा सूक्ष्म होकर के सुनना पड़ेगा कि बाबा जी जो बोल रहे हैं, उसका महिलाओं पर क्या प्रभाव पड़ना है? क्योंकि लोकधर्म का मतलब ही रहा है—महिलाओं का दमन!
महिलाएं ऐसे ही थोड़ी आज इतनी खराब हालत में हैं! विशेषकर धार्मिक देशों में—इस्लामिक देश हो, दक्षिण एशियाई देश हो—धर्म का बहुत बड़ा योगदान है महिला की बर्बादी में। और देखो कि बाबा जी महाराज जी जातिवादी हैं कि नहीं! खुल के वो नहीं बोलेंगे कि, "वो फलानी जाति का है, तो उसको दूर रखो!" वो खुल के नहीं बोलेंगे, वो बात-बात में बस निकाल देंगे। इन्हें कहते हैं सब्लिमिनल मैसेजिंग—कि कुछ बोला, उसमें धीरे से यह संदेश भी पहुंच गया कि जात का ख्याल रख लेना।
कहीं पर, एक मर्क, कुछ बोलते हुए, किसी की जाति का नाम लेते हुए, थोड़ा सा व्यंगात्मक मुस्कान, हो गया — जो संदेश देना चाहते थे, संदेश पहुंच गया। या कि स्मृति साहित्य में भी कुछ ऐसे ग्रंथ हैं, जो घोर रूप से जातिवादी हैं। या कि कोई मान लीजिए काव्य है, वो अपने आप में बड़ा लंबा-चौड़ा है, दोहा-चौपाई है, पर उसके भीतर कुछ 10, 20, 30 ऐसे हैं, वक्तव्य हैं, जो बिल्कुल जातिगत भेदभाव उनमें दिखाई देता है। बाबा जी उन्हीं की बात बार-बार कर रहे हैं।
अब अपनी ओर से कुछ बोलना भी नहीं पड़ा! हमने तो क्या किया? हमने तो कोट किया है! हमने तो उद्धरण दिया है! लेकिन जो करना चाहते थे, वह हो भी गया!
और तीसरा—पशुओं के प्रति क्या रुख है? और पशु माने मात्र गाय नहीं होता! आमतौर पर बाबा जी गाय को लेकर तो बड़े करुण रहेंगे, बाकी पशुओं को लेकर के क्या रुख है? और अगर गाय को भी बाबा जी इतना प्रेम देते हैं, तो बार-बार बाबा जी क्यों गाय का शोषण करके निकाले गए पदार्थों की वकालत करते हैं? इन सब बातों के प्रति कान खुले रखिए और पूछा करिए! बाबा जी आपको बोल रहे हैं, "देखिए, दुग्ध, दधि, मक्खन—ये सब चीजें तो बहुत जरूरी होती हैं!" तो वहीं पर प्रश्न करिए कि ये सब चीजें किस प्रक्रिया से तैयार होती हैं, बाबा जी, आपको पता है? और बाबा जी इस प्रश्न को सुनकर बिल्कुल लाल-पीले हो जाएं, तो मुस्कुरा कर हाथ जोड़कर चल दीजिए!
और बाबा जी, भारत में तो गाय से ज्यादा भैंस का दूध इस्तेमाल होता है! जिसका दूध पिया जाए, वह मां होती है। तो मां तो भैंस हुई! तो बाबा जी भैंस को लेकर आपके भीतर कोई करुणा क्यों नहीं छलछला आती? भैंस के मांस का तो भारत सबसे बड़ा निर्यातक है! और जो भारत के सबसे धार्मिक प्रांत हैं—मथुरा, काशी, अयोध्या, प्रयाग—सब उसी में। वहीं से सबसे ज्यादा भैंस के मांस का निर्यात होता है! क्योंकि धर्म का संबंध दूध से है और दूध का संबंध मांस से है!
ये बातें पूछने जैसी हैं! और ये बातें अगर आप नहीं पूछ पा रहे हो, तो आप कायर हो! ये बातें आप नहीं पूछ पा रहे हो, तो अपने आपको चैतन्य कहने का आपका कोई हक नहीं है! कोई कहता है, 8 साल के थे। कोई कहता है, 14 साल के थे पर निसंदेह, बहुत छोटे थे आचार्य शंकर क्योंकि उनकी तो मृत्यु ही बहुत कम उम्र में हो गई थी। तो बहुत ज्यादा अवस्था के तो नहीं रहे होंगे जब वो ज्ञान के लिए गए थे, गुरु से आवेदन करने, प्रार्थना करने। इतनी छोटी उम्र में, वह बच्चा, वो किशोर, धरल्ले से सच बोल सकता है, जबकि उसका बहुत कुछ दांव पर लगा हुआ था! घर छोड़कर निकले हुए थे वो और गुरु के पास गए। जिन गुरु के पास गए, पहले तो उनका नाम खोजिएगा —गुरु कौन थे वो? और जिनके पास गए, उनके घर से, कहां उनका घर था, यह भी खोजिए! और गुरु कहां थे, यह भी!
सैकड़ों मील दूर थे गुरु! और जंगल में बीच में रहते थे इतना आसान भी नहीं था वहां तक पहुंचना! वहां तक पहुंच भी रहे हैं, काफी कुछ स्टेक पर है, दांव पर लगा हुआ है, फिर भी सच बोल रहे हैं! आपको क्या खौफ है कि आपके मुंह से सच नहीं निकलता? बस "शत नमन! शत नमन!" चलता रहता है आपका!
आप यहां आए हैं, तो आपकी गलती है! मुझे भी बीच-बीच में आपकी भावनाओं का एहसास हो जाता है। पर एक तो खुद आए! ऊपर से महाशिवरात्रि को आए! तीसरा— मैं बर्थडे बॉय, तो मुझे तो हक है! बच्चा पैदा होता है, तो कुछ भी करता है मैं कुछ भी बोलूंगा। आपको झेलना है!
कितने बिंदु लिख लिए आपने?
श्रोतागण पांच
आचार्य प्रशांत: असल में मेरे लिए यह सब इंटूइटिव हो गया है, तो मुझे सोचना नहीं पड़ता। मैं एक झलक में ही देखता हूं और मुझे आभास हो जाता है कि मामला नकली है यहां पर! तो मुझे जब आपको एक तार्किक प्रक्रिया देनी पड़ रही है, एक लॉजिकल टेस्ट, एक लॉजिकल आर्गुमेंट देना पड़ रहा है, तो मुझे उसमें थोड़ा सा विचार करना पड़ रहा है कि कैसे दूं आपको, कि आप उसे लॉजिक से टेस्ट कर सको!
६) "द एस टेस्ट" (S-Test)
आचार्य प्रशांत: एक लिखिए, आप लगा सकते हो—"द एस टेस्ट"। "ऐस" नहीं बोला है, "एस" बोला है!
(हंसी)
"एस टेस्ट" माने "सैलून टेस्ट"! सैलून टेस्ट यह है कि—आप कल्पना करिए कि आप बाबा जी को एक सैलून में ले गए! और उनका जितना गेटअप है, वो आपने सब साफ कर दिया! इंसान बना दिया उनको! बोले, "सब जो पोत के बैठे हो, मुंह पर, शरीर पर, हटाओ! इंसान बनो!" दुनिया की कोई प्रजाति इतना पोत के घूमती है? कपड़ा समझ में आता है—ठंड लग जाएगी भाई, गर्मी लग जाएगी, उपयोगिता होती है। जो तुम पूरा पोत के घूम रहे हो, हटाओ सभी!
वो सब हटा दो, वो जो पूरा उन्होंने बाल-मालूम है प्रकृति में किस काम आते हैं? आप जितने होते नहीं, उससे ज्यादा आपको बड़ा दिखाने के काम आते हैं! जो हमारा सिंह होता है—बब्बर शेर—यह असल में, बाघ की तुलना में एक छोटा प्राणी होता है। और बाघ ज्यादा ताकतवर भी होता है और बाघ और शेर की कभी लड़ाई हो जाए, तो बाघ बहुत आसानी से जीतता है!
लेकिन लोक संस्कृति में जब किसी को साहसी बताना होता है, तो हम यह नहीं कहते कि यह बाघ है, हम कहते हैं यह शेर है। उसका बहुत बड़ा कारण है कि शेर ने इतने बाल लगा रखे हैं। तो शेर जितना है, नहीं ना, उतना दिखाई देता है। बालों और दाढ़ी की उपयोगिता यह होती है कि आप जितने हो, नहीं, उससे ज्यादा बड़े दिखाई दो। किसी भी अर्थ में समझ लो, यह एक तरह की साइकोलॉजिकल सिग्नल है।
सांप जब आपको डराना चाहता है, तो क्या करता है? फन फैला लेता है। उससे वह जितना बड़ा है, नहीं, उससे ज्यादा बड़ा दिखता है। आप डर जाते हो, आकार बड़ा हो गया। बाबा जी के बाल हटाओ, दाढ़ी हटाओ, इंसान बनाओ। कपड़े भी उन्हें इंसानों जैसे पहना दो। अब अपने आप से सवाल करो कि बाबा जी अगर ऐसे दिख रहे होते, तो क्या मैं इनसे प्रभावित होता? यह सैलून टेस्ट है। बाबा जी ने यह जितनी बाहरी सिग्नलिंग कर रखी है, अगर मैं सब हटा दूं, इनको सड़क का एक आम आदमी बना दूं, तो क्या मैं इनसे प्रभावित होऊंगा?
यह हटाओ। यह सब जो तुम माला-दंडी लेकर घूम रहे हो, सब हटाओ, क्योंकि वह सब चीजें ऐसी हैं, जो पहले ही आपके मन में धार्मिकता के, देवीयता के प्रतीक बनकर बैठी हुई हैं। और यह बात बाबा जी को पहले से पता है। बाबा जी को पहले से पता है कि जो कमंडल है, चाहे वह दंडी है, चाहे वह माला है, चाहे वह तिलक है, यह सब आपके मन में पहले से ही स्थापित हैं, अथॉरिटी के प्रतीकों के रूप में। यह सब प्रतीक यदि हटा दिए जाएं, तो तुम बाबा जी की बात सुनोगे? यह एस टेस्ट है।
तो बाबा जी की छवि सामने दिखाई दे रही है, भीतर ही भीतर उसकी फोटोशॉपिंग कर दो। ऐसे देखते-देखते कहो, "अच्छा, यह भी हटा दिया, यह भी हटा दिया।" या कि उनकी कोई फोटो हो, तो ले लो, उसमें सब कुछ हटा दो। उनको साधारण शर्ट-पैंट पहना दो। पूछो, अब मैं क्या सुनूंगा इस आदमी की बात? तुम्हारा मन नहीं करेगा उस आदमी की बात सुनने का, क्योंकि उसकी बात में ऐसा कुछ था ही नहीं कभी। जो था, वह उसके पहनावे में, गेटअप में, वेशभूषा में, प्रोजेक्शन में था।
और एस टेस्ट में सिर्फ शारीरिक पहनावा हटाना शामिल नहीं है। मंच भी हटाओ। वह जिस ऊंचे सिंहासन पर बैठ गए हैं, वह भी सब हटा दो। सब हटा दो, जो कुछ भी उन्होंने अपने सहारे के लिए रखा हुआ है। यदि वह सब हटा दो, तो क्या उसके बाद तुम उनकी बात सुनोगे? उनकी बात में दम है इतना? उनकी बातें ही, जो बोलते हैं, लिखित में तुम्हारे सामने आ जाएं, तो क्या पढ़ोगे? नहीं! क्योंकि जब बात लिखित में सामने आती है, तो ना तो उसमें गेटअप होता है, न माहौल का असर होता है, न जगमगाती रोशनियां होती हैं, न भक्तों की भीड होती है ये किताब तो बड़ी सीधी सादी, ईमानदार चीज होती है। वही बात जो बाबाजी बोला करते हैं, किताब में लिखे तुम्हारे सामने आ जाए, तुम उसे पढने से इनकार कर दो, ये क्या है ये ये? ये कौन बोल रहा है? मेंटल है क्या? समझ में आ रही है बात।
देखिये, ये सब चीजें जो अभी आप भारत में होते देख रहे हैं न। पिछले 10-15 साल में बाबाओं की अचानक से बाढ़ आ गई है, इसके इकोनॉमिक और डेमोग्राफिक रीजन्स हैं। धार्मिक कारण नहीं है, नॉट रिलीजियस। इकॉनॉमिक एंड डेमोग्राफिक। क्या कारण है? कारण एक तो हैं बेबी बूम। बहुत सारे बच्चे पैदा हो रहे हैं, मृत्यु दर बहुत घट गई है, लोग लंबा जी रहे हैं, औसत आयु बढ़ गई है। ये डेमोग्राफिक कारण है और इकॉनमिक कारण है बेरोजगारी। बेरोजगारी।
एक 25-28 साल का लड़का है, शिक्षा व्यवस्था हमारी कैसी है आप जानते ही है। पढने लिखने को तो कुछ मिला नहीं, किसी स्माल टाउन से है, गाँव से है, कस्बे से है, वो पूरी अपनी जान भी लगा ले तो उसको 2000, 5000, 10-20 हजार की तनखा मिल जाएगी, अधिक से अधिक अपनी जिंदगी में इससे आगे नहीं बढ़ पाएगा वो। इससे आगे बढ़ने की न उसको शिक्षा मिली है, न माहौल न काबिलियत। लेकिन अगर वो बाबा बन जाए तो 25 की उम्र में ही करोड़ो कमाएगा और बड़े बड़े नेताओं के साथ घूमेगा। ये एम्प्लॉयमेंट है। ये रोजगार का एक तरीका है। और जब आप बेरोजगार होते हो तो आपका समय भी बहुत सारा होता है। तो आप क्या करोगे?
एक नैतिक किस्म का मनोरंजन मिल गया है, क्या? बाबा जी की रील्स देखनी है। और ये बात सिर्फ उस 25-30 साल के बेरोजगार को नहीं पता है, उन मा बाप को भी पता है जिनके बच्चे अभी 5-10 या पंद्रह साल के हैं तो वो बहुत छोटी उम्र से ही अपने बच्चों को बाबा की ट्रेनिंग देना शुरू कर देते हैं। एंड दैट एक्सप्लैंस की बहुत छोटे छोटे कम उम्र के बाबा क्यों सामने आ रहे हैं। कारण आर्थिक हैं, इकॉनमिक है। ये इकॉनमिक हैं। भारत में करें तो करें क्या, इतनी ज्यादा बेरोजगारि है कि जवान आदमी करे क्या? तो जो थोड़ा कुटिल किस्म के होते हैं, वो कहते हैं कि अच्छा स्वरोजगार ही है, बाबा बन जाओ।
और जो बहुत सारे थे, जो पहले घूम रहे थे, जिनका कोई नाम लेवा नहीं था, उन्होंने भी अभी देखा कि अब माहौल कंड्यूसिव है तो इसमें बाबागिरी अचानक से तेजी से आगे बढ़ेगी। सोशल मीडिया भी आ गया है। सोशल मीडिया, बेरोजगारी, इनका सम्बन्ध आप समझते हो न? भारत फेसबुक के लिए सबसे बड़ी मार्केट क्यों है? मार्केट रिवेन्यू के टर्म्स में नहीं, डाउनलोड्स के टर्म्स में। भारत में जितने लोगों ने फेसबुक डाउनलोड कर रखी है, उतने लोगों ने, ऐसा क्यों है? क्या कारण है क्योंकि बेरोजगारी बहुत है, खाली समय बहुत है। फेसबुक आमतौर पर मेट्रोज के लोग नहीं चलाते। अब 10 साल पहले चलाते थे। मेट्रोज में इस्टाग्राम चलेगा यूट्यूब चलेगा, फेसबुक नहीं चलता।
लेकिन फेसबुक के लिए भारत बहुत महत्वपूर्ण है। क्यों क्योंकि सारी बेरोजगारी उसी स्मॉल टाउन में है जिस स्मॉल टाउन के लोग आज भी फेसबुक चला रहे हैं। इसलिए फेसबुक बहुत प्रचलित रहेगा भारत में। सोशल मीडिया बेरोजगारी, बिल्कुल साथ साथ चलते हैं। और वही सोशल मीडिया बाबा जी का वाहन है। तो सोशल मीडिया बेरोजगारी और बाबाजी की पोपुलैरिटी, ये तीनों चीजें एक साथ चलती है।
आप 25 के हो गए, 30 के हो गए। बेरोजगार हो। आपको कोई इज्जत देता नहीं, पैसे देता नहीं, नाम मिलता नहीं। और जिस दिन आप बाबा बन गए, अचानक से इतनी इज्जत मिलती है की पूछो मत। शत शत नमन। वो छोटे कसबे का आठवीं फेल इधर उधर भटकता था। जिस दिन उसने धार्मिक वस्त्र धारण कर लिया और 2-4 दोहे बोलने शुरू कर दिए। तो ये अगला टेस्ट है, पूछो कि ये आदमी अगर बाबा नहीं होता तो क्या कुछ और हो सकता था। और अगर जवाब मिले बाबा न होता तो चपरासी भी न होता तो समझ जाना कि फंस गए। यह बहुत बड़ा टेस्ट है। सेलून टेस्ट के बाद यह अगला टेस्ट है।
७) द एम्प्लॉयबिलिटी टेस्ट
आचार्य प्रशांत: द एम्प्लॉयबिलिटी टेस्ट की ये आदमी सब कुछ छोड़ के बाबा बना है। या असली बात ये है की बाबा गिरी के अलावा इस आदमी का करियर कहीं चल ही नहीं सकता था। एकबार पूछो अपने आप से अभी ये बाबा बन गए हैं तो बिल्कुल ये राष्ट्रीय स्तर पर छाए हुए हैं। अगर ये बाबा न होता तो क्या होता और तुम्हें पता चलेगा ये बाबा न होता तो कहीं चपरासी होने लायक भी नहीं है। अपने घर में उसको न रखो, न माली, न रसोइयाँ। ये आँख बंद कर के प्रयोग कर लीजिये आपके जो भी फेवरेट बाबा हो। अगर वो बाबा न हो, आप उसको पीउन भी रखोगे। आपका जवाब आएगा नहीं रखूंगा।
बाबा बनना उसकी मजबूरी है, बाबा बनना पेट की बात है। वो आदमी भूखा मर जाएगा अगर बाबा नहीं बनेगा तो करे और क्या करे? कुछ सांप सा सूंघ गया है, कुछ और सुंघा है, क्या है?
और ये बात जब हमने आपके सवाल का जवाब देना शुरू किया तो कहा था कि यह सवाल सिर्फ बाबाओं से सम्बंधित नहीं है। इसमें नेता भी आते हैं, इसमें आपके आस पास के इंसान और रिश्तेदार भी आते है। आप जिस को सम्मान दे रहे हो यह भी पूछना। कि अभी तो ये जो कुछ भी है, मेरा जीजा, फूफा, मौसी, ताऊ, बुआ जो भी है तो मैं इसको इज्जत दे रहा हूँ। अपने आप से पूछना अगर ये मेरा रिश्तेदार नहीं होता तो क्या मैं इसको इज्जत देता? और पाओ की इज्जत सिर्फ इसलिए दे रहे हो क्यूँ की रिश्ता है तो तुम्हारी इज्जत नकली है। जैसे वहाँ हम क्या रहे की अगर बाबा नहीं होता तो क्या ये चपरासी भी होता, वैसे ही रिश्तों में भी पूछा करो अगर ये मेरे रिश्ते में नहीं होता तो मैं उसको कितनी इज्जत देता।
जैसे अपने बच्चों को लेकर लोग बायस्ड रहते है न अगर मेरा बच्चा नहीं होता, मैं तब भी कहता क्या की my nunnu smartest, तब, what an ugly kid! Shuu!! Hybrid है क्या? Did some pervert mate with the chimpanzee? ये कहा से, पैदा कैसे हुआ तब तो उसको ये बोलते पर अपना है तो उसको लेकर के बिल्कुल चूमें जा रहे हो। आपके भीतर जो माया और पूर्वाग्रह बैठे हैं न, वही बाबाजी की ताकत है। वही दुनिया के सारे अधर्म की ताकत है।
कितने पॉइंट्स बता दिए?
श्रोता: सात
आचार्य प्रशांत: और लिखो। सवाल मैंने पूछा है? मेरी कोई गलती?
८) सत्ता से, ताकत से, सेलिब्रिटी से बाबाजी का रिश्ता क्या है
आचार्य प्रशांत: सत्ता से, ताकत से, सेलिब्रिटी से बाबाजी का रिश्ता क्या है अब संसार में हो और काम करने निकले हो तो बिल्कुल सम्भव है कि मीडिया से, राजनेताओं से, सत्ता से तमाम तरह के सेलिब्रिटीज से आपका वास्ता पड़े। वास्ता पड़े ठीक है, समझ में आता है वास्ता तो पड़ेगा आपका नाम फैलेगा तो कई तरह के लोग आपसे मिलने आएँ, ठीक पर उनसे आपका रिश्ता क्या है क्या बाबा जी की हिम्मत होती है किसी नेता के मुंह पर बोलने की की तो अधार्मिक है, तू कुटिल है, क्या बाबा जी ने कभी ऐसा बोला है नेता जी के बिल्कुल पीछे पीछे चलते है बाबाजी? पूछो ये सवाल! बाबा जी के पास नेताजी लोग आते तो बहुत हैं, पर बाबाजी और नेता जी का रिश्ता क्या है?
क्योंकि मुनि अष्टावक्र के पास भी आये थे राजा जनक और अष्टावक्र हमको ये कहते नजर नहीं आ रहे हैं, ‘आइए, आइए बैठिए, बैठिए।‘ चाय लेंगे की शर्बत? अरे, अरे जल्दी तय करो ये राजा आये हैं, राजा जी आये हैं हमारा आज आश्रम धन्य हो गया। आइये राजा यहाँ बैठिये और यहाँ तो अष्टावक्र कम उम्र के थे, राजा प्रौढ़ थे। तो भी अष्टावक्र बिल्कुल ऐसे, जो सही और सच्ची बात है, वो जनक को बोलते हैं और पहले ही श्लोक में बोलते हैं के विषयों को विष सम त्याग तू। जनक आकर के कह रहे हैं। उनकी जिज्ञासा है मुक्ति कैसे प्राप्त हो, अष्टावक्र गीता का उद्घाटन ही ऐसे होता है? मुक्ति कैसे प्राप्त हो? और पहली बात बिना लाग लपेट के थोड़ी और भाभी जी कैसी है; ये थोड़ी पूछ रहे हैं वहाँ पर और राज-काज सब ठीक चल रहा है। हमने देखा ये अपोजिशन वाले बड़ी साजिशें करते हैं आपके खिलाफ। वो मेरा न भांजा है, उसको टिकट मिल जाएगा उसको क्या? ये सब कुछ नहीं अष्टावक्र का।
पहली बात सीधे, ‘जो मोक्ष को है चाहता, विषयों को विष-सम त्याग तू।‘ क्या आपके बाबाजी सत्ता को सच बोल पाते हैं? या वो सत्ता के पिछलग्गू है, ये सवाल पूछिए। सत्ता आती तो है उनके और और और और और और और और इससे आगे की भी बात है। कहीं बाबा जी को सत्ता ने ही तो नहीं खड़ा कर रखा। ये तो छोड़ो की बाबा जी सत्ता को सच नहीं बोल पा रहे। कहीं ऐसा तो नहीं की बाबा जी निर्मिती ही सत्ता की है। कहीं ऐसा तो नहीं की बाबा जी कुछ होते ही नहीं और नेता जी का वरदहस्त नहीं प्राप्त होता। यह भी सवाल पूछना जरूरी है अगर नेता जी नहीं होते तो बाबा जी कहाँ होते? बाबा जी तो गुमनामी में पड़े हुए थे ऐसे ही अपना। नेता जी ने आ कर के उनको ऐसे खड़ा करा है।
तो बाबाजी और नेताजी का रिश्ता क्या है यह पूछना बहुत जरुरी है। प्रभावित नहीं हो जाना है, इम्प्रेस जल्दी ऐसा नहीं हो जाना है। अरे बाबा जी के पास बड़े बड़े नेता जी आये हैं, बाबाजी के पास बड़े बड़े सेलिब्रिटी आए हैं, वो जो सेलिब्रिटी आ के बैठा है। बाबा जी की हिम्मत है कि उससे बोल दे कि नालायक आदमी है तू और अगली बार तभी आना जब सुधर जाए, नहीं तो मुँह मत दिखाना।
ये जितनी बातें मैं बोल रहा हूँ उसमें से कोई बहुत कठिन या छुपी हुई बात है जो आप खुद नहीं देख सकते थे? तो आपको दिखाई क्यों नहीं देती है? ये खुद क्यों नहीं देख पाते हो और मैं बताता हूँ खुद क्यों नहीं देख पाते? क्योंकि जिन कारणों से आप बाबाजी का सच नहीं देख पाते। जिस चीज के प्रतीक बाबा जी हैं उसी चीज के प्रतिक आपके घर में भी मौजूद है। जिन वजहों से बाबाजी बड़े सम्मानित हैं और पॉपुलर हैं, प्रचलित हैं, उसी वजह से आपके घर में भी बहुत लोगो से सम्मानित हैं। अगर आपको बाबा जी से सच बोलना है, अगर आपको बाबा जी से सम्मान वापस लेना है तो आपके लिए जरूरी हो जायेगा की आप अपने घर के लोगों से भी पहले सच बोलो। कि आप अपने घर के लोगों से भी कहो कि देखो इंसान नाप के इज्जत देंगे।
तुम अगर इंसान इस लायक हो कि तुम्हें इज्जत दी जा सके तो इज्जत देंगे, नहीं तो रिश्ते के आधार पर इज्जत नहीं देंगे। ये बात घर में नहीं बोल पाओगे, क्योंकि घर में स्वार्थ जुड़े हुए हैं। ये बात घर में नहीं बोल पाओगे इसीलिए यह बात बाबा जी से भी नहीं बोल पाते। इसलिए मैंने कहा कि आपके भीतर की जो माया है, डर है, स्वार्थ है, वही बाबाजी की ताकत है। आपके घर में आपका पति है, आपकी पत्नी है वो भावनाएं दिखा दिखा के आपके राज करते हैं। जहाँ कहीं भी कुछ मामला फंसा, वहाँ भावना दिखा दी, आंसू बहा दिया। होता है की नहीं होता है? पति पत्नी भी करते हैं, माँ बाप भी करते हैं, बच्चे भी करते हैं छोटे और आप उन भावनाओं के आगे झुक जाते हो, झुक जाते हो न। तो जब भावना दिखा कर के घर में आपको झुका दिया जाता है, तो बाबा जी भी भावनाओं का संचार करके आपको क्यों न झुका ले। ये है बात।
साइकोलॉजिकल मैनुपुलेशन को जब आप घर में नहीं तोड़ पाते तो धर्म क्षेत्र में कैसे तोड़ लोगे बाबाजी के यहाँ कैसे तोड़ लोगे? साइकोलॉजिकली आप हमेशा से मेनुपुलेट होते रहे, उसी साइकोलॉजिकल मैनुपुलेशन में सब कुछ हो गया आपका। हाँ भाई, इंजीनियरिंग क्यों करी। वो पर-पर दादाजी की इच्छा थी कि मैं पुल बनाऊं, क्यूँ? क्यूंकि वो नदी में डूबने से मौत हुई थी उनकी। तो इसलिए मैंने इंजीनियरिंग करी। इंजीनियरिंग नहीं कर रहे थे तो पर, पर दादी जी रो रही थी। देखो तुम्हारे पर-पर दादाजी की आत्मा अभी भी हो, पानी में गोते खा रही है, अब तुम इस पर पुल बना दो, सिविल इंजीनियर बन के।
फलानी नौकरी क्यूँ ली? वो न नौकरी से पहले ही शादी हो गई थी, अरे शादी क्यों कर ली। वो माँ ने आ कर के कहा की मैं मर जाऊंगी, उससे पहले पोता मुतवाना है, तुम्हारा साइकोलॉजिकल मैन्यूप्युलेशन ही तो हुआ है जीवन भर और क्या हुआ है? उसके बाद शादी कर ली, अच्छा फलानी नौकरी क्यों ली। वो बीवी ने कहा की हमारे साले साहब फलानी इंडस्ट्री में है, तो वो बहुत अच्छी इंडस्ट्री है। तो वहाँ घुस गए। आम आदमी की जिंदगी क्या इससे अलग चलती है कुछ? और हमारे जीवन के लिय कैसे होते है? आप कैसे नौकरी चुनते हो या तो संयोग से या स्वार्थ से या अँधेरे अन्धेपन में, अज्ञान में। ऐसी शादी हो जाती है, कौन बहुत सोच समझ कर के साथी चुन रहा है। ऐसे बच्चे हो जाते हैं किस शहर में आप बस रहे हो कितने अंधे निर्णय होते हैं। कई बार तो इसलिए बसे होते हो कि पिताजी भी यहीं रहते थे, तो हम भी यहीं रहते हैं, कई बार कहीं कुछ बस रहा है, कोई बस रहा है। तो जब हम अपने निजी जीवन में नहीं जान पाते कि हम बेवकूफ बन रहे हैं तो बाबाजी के सामने हम कैसे पकड़ पाएंगे की हम बेवकूफ बन रहे हैं?
और धर्म है सारी मूर्खताओं से आपको बचाने के लिए। और विडम्बना देखिये, माया का अट्टाहास सुनिए, वो कहती है कि जो चीज इसलिए थी की तुमको सब बंधनों से, सब मूर्खताओं से बचा दूँ वही तुम्हारा सबसे बड़ा बंधन बन जाएगी।
और भाई, कोई मैं कोई मुद्दा जो भूल रहा हूँ, इसमें इससे सम्बंधित कोई कुछ बताना चाहेगा। उदित या कोई और।
श्रोतागण: चमत्कार।
आचार्य प्रशांत: चमत्कार।
कोई भी कार अच्छी हो सकती है कुछ कर लो, ये चमत्कार से बचना। ये साइंस वाले बिंदु में आ जाता है। चमत्कार होते नहीं है, चमत्कार नहीं होते भाई। प्रकृति अपने नियमों पर चलती है जिन नियमों को कोई नहीं तोड़ सकता, कोई नहीं तोड़ सकता। और कोई फ्रॉड है इसका पहला प्रमाण यही है की उसके साथ कोई दैवीय चमत्कार जुड़ा होगा। प्रकृति जिन नियमों पर चलती है, विज्ञान उन्हीं को तो लिख के आपको बता देता है। विज्ञान कोई नियम बनाता थोड़े ही है। प्रकृति के नियम तो अनादि है, विज्ञान बस यह करता है कि उन नियमों को आपकी भाषा में और गणित में आपके सामने रख देता है कि भाई ये रहा नियम। उन नियमों को कोई नहीं तोड़ सकता कोई नहीं पानी पे चल सकता कोई मुर्दे को जीवित नहीं कर सकता, कोई ऐसे बैठे बैठे नहीं बता सकता कि तुम क्या सोच रहे हो तुम्हारे मन में क्या चल रहा है, नहीं हो सकता। यह विज्ञान के नियम हैं। अकाट्य।
इसी तरीके से मेडिकल साइंस। भारत में ये एक आपको पता है न, ये कानूनन गुनाह है कि शारीरिक कोई बीमारी हो और कोई बोले कि मैं उसको जादू टोना, मंत्र-तंत्र, ताबीज, चमत्कार से ठीक कर दूंगा। आपको जेल हो सकती है। कानून बनाने वालों ने कहा कि चलो, तुम अपने और क्षेत्रों में जो मानना है मानो, पर कुछ ऐसा तो मत मानो की मर ही जाओ। क्योंकि लोग बहुत बहुत मरा करते थे, आज भी मर रहे हैं बाबाओं के चक्कर में। और कोई बात?
श्रोता फिर लोग जाते क्यों उनके पास?
आचार्य प्रशांत: फिर लोग जाते क्यों उनके पास? आपके घर में जो आपका शोषण करता है, आप लौट के क्यों जाओगी उसके पास? क्या बोला मैंने? आपका ये जो डर है, माया है, स्वार्थ है, वही बाबाजी की ताकत है। चूँकि हम अपने घर में ही नहीं विद्रोह कर सकते। तो बाबाजी क्या करे क्यूंकी प्रिंसिपल वही है, सिद्धांत तो वही है। घर में भी साइकोलॉजिकली मैनुपुलेट हो रहे हो, तो धर्म में भी साइकोलॉजिकली मेनुपुलेट होगे।
पारलौकिक अनुभव, यही जो लोक है, इसको जानने में विज्ञान के भी पसीने छूट रहे हैं। आपको मालूम है, जो ब्रह्माण्ड की परिधि है, हम उसको कभी नही जान सकते। क्यो? क्योंकि आप किसी चीज को तभी जान सकते हो, जब वहाँ से चली रौशनी, आप तक पहुँचे। कोई भी इलेक्ट्रो-मैगनिटक रेडिएशन आप तक पहुँचेगा वही कैरियर ऑफ़ इन्फॉर्मेशन होता है, तो वो आप तक पहुँचेगा तभी उसको जान पाओगे। ठीक है। लेकिन अगर यूनिवर्स की बाउंडरी स्पीड ऑफ़ लाइट से कई गुना ज्यादा गति से आपसे दूर जा रही हो। जो यूनिवर्स की बाउंड्री है हमने माना ऐसी कोई बाउंड्री है अगर वो स्पीड ऑफ़ लाइट से ज्यादा स्पीड से आपसे दूर जा रही है, तो वहाँ से जो लाइट निकलेगी क्या वो कभी भी आप तक पहुँचेगी? हम जान भी नहीं सकते कि यूनिवर्स की बॉउंडरी पर क्या है, कम-से-कम प्रैक्टिकल ही नहीं जान सकते। इस लोक को ही जानना सम्भव नहीं है। ये परलोक कहाँ से आ गया?
और जो वास्तव में ज्ञानी हुए है, उनसे जब पूछा गया वाट लाइज बियॉन्ड द यूनिवर्स, तो क्या बोले मोर यूनिवर्स। उनसे पूछा गया व्हॉट लाइज बियॉन्ड द माइंड, तो क्या बोले मोर माइंड। उनसे पूछा गया व्हॉट इस बियॉन्ड द इमैजिनेशन? क्या बोले? मोर इमैजिनेशन। तो जिसको आप बोलते हो इस लोक से पार की बात, अगर आप उसको सोच पा रहे हो वो बात इसी लोक की हो गयी। एक ही लोक है, यही लोक है वो आपका लोक है। सारा लोक वेदांत पूछता है न किसके लिए? फॉर हूम? आपके लिए है। तो जो आपके लिए है तो 1 ही लोक है। न कोई परलोक है, न कोई पीछे का लोक है, न आगे का लोक है, यही है। और आगे पीछे होगा भी तो वहाँ से आपको लेना देना क्या? पिछले जन्म में पत्थर लगा था, उसका दर्द हो रहा है या सारा दुख अभी इस जन्म का पा रहे हो, ठीक अभी है?
आगे-पीछे की बातें करना इस बात का सूचक है कि तुम्हारे पास आज की समस्याओं का कोई समाधान है नहीं तो सबको बेवकूफ बना रहे हो। कोई कहे की मेरी इतनी दुर्गति क्यों है, तो उसे बोल रहे हो। तेरे पिछले जन्म के पाप हैं। कोई कहे की मेरे साथ जातिगत अत्याचार क्यों होता है तो बोले पिछले जन्म में तुमने गड़बड़ करी थी, इसलिए इस जन्म में फलानी जात में पैदा हुआ है। तुम जो ऑपरेसिव सोशल सिस्टम है उसको बरकरार रखना चाहते हो इसलिए अगले पिछले जन्म की बातें कर रहे हो। मेरा बच्चा पैदा हुआ, 3 महीने में ही मर क्यों गया? अरे वो पिछले जन्म के उसके बस थोड़े से कुछ कर्म बाकी रह गए थे, तो 3 महीने में निपटा के चला गया। तुम मेडिकल साइंस को भी आगे नहीं बढ़ने दोगे। यही सब कर कर के होता था पहले की औरतों के पंद्रह बच्चे होते थे, 12 मर जाते थे। फिर विज्ञान इस स्थिति में ले कर के आया कि जो बाल मृत्युदर है, इन्फेंट मोरटेलिटी रेट, वो कम हुआ। वो इन्फेंट के मोर्टैलिटी इसलिए नहीं होती थी की वो बच्चा पैदा हुआ है अपने पिछले जन्म के कुछ कर्म निपटाने के लिए और जैसे ही 2 महीने में कर्म ने पड़ गए, तो बच्चा मर गया। वो बच्चा इसलिए मरता था क्योंकि तुम्हें न हाईजीन पता थी, न वैक्सिनेशन पता था, न तुम एंटीबायटिक जानते थे, न न्यूट्रीशन जानते थे, इसलिए मरता था बच्चा। पिछले जन्म की वजह से नहीं मर जाता था।
अब अगर अपने आप को सनातनी बोलते हो, तो आपका केंद्रीय ग्रंथ क्या है? श्रुति और श्रुति माने वेद, और जिनका दर्शन है और शिखर है वेदांत।
पूछो अपने आप से, बाबा जी श्रुति की बात करते हैं या स्मृति की? बाबा जी बात श्रुति की करते हैं या स्मृति की करते हैं? नहीं मिलेंगे बाबा जी श्रुति की बात करते हुए! उपनिषदों से घबराते हैं बाबा जी, क्योंकि उपनिषद तो वही हैं, जो निर्वाण तकम्! बाबा जी की एक-एक बात को तार-तार कर देंगे उपनिषद! बाबा जी निस्संदेह अनिवार्य रूप से अन-अपवाद रूप से बस स्मृति की और लोक परंपरा की बात करेंगे श्रुति से इतनी दूर चलेंगे! और यह कोई छोटा गुनाह है? आप अपने आप को धर्म का बंदा बोलते हो और जो केंद्रीय ग्रंथ है, उससे इतनी दूर चलते हो तो आप धार्मिक आदमी हो?
धर्म का आधार होता है दर्शन! बाबा जी से दर्शन की बात कर लो, तो एक ही दर्शन की बात करेंगे - "आंख बंद कर लो, भगवान का दर्शन हो जाता है!" उन्हें यह समझ में ही नहीं आएगा कि वेदांत एक धार्मिक धारा होने से पहले एक दर्शन है और इतना जबरदस्त दर्शन है कि "द लास्ट फिलॉसफी " बोलते हैं उसको - अद्वैत वेदांत! "द लास्ट फिलॉसफी," जिसके बाद फिलोसोफर ही मर जाता है! "द लास्ट फिलॉसफी,"
अद्वैत मैंने कहा तो पहली बात तो बाबाजी को श्रुति से कोई मतलब नहीं होगा और दूसरी बात अद्वैत से बहुत घबराएंगे। क्योंकि बाबाजी की 1-1 बात ही यही है की वो देखो वहाँ ऐसा है, वहाँ भूत है, प्रेत है, वहाँ ऐसा है, वहाँ ऐसा है माने द्वैत।
तो इस बात से भी जाँच लेना की बाबाजी का अद्वैत से क्या रिश्ता है। या आपका जो धर्म है सनातन धर्म वो अद्वैत का धर्म है उसमे बहुत सारी नीचे की शाखाएँ हो सकती है लेकिन जो सबसे उसमे ऊँची बात है वो अद्वैत है, जो अद्वैत से घबराता है वो सनातन धर्म के शिखर से घबराता है।
और कोई बात?
आचार्य प्रशांत: अरे, मैं वैसे तो इंडिविजुआलिटी की इतनी बात करता हूँ और यह भूला जा रहा था। बाबाजी ने कभी विद्रोह सिखाया? और धर्म का तो अर्थ होता है विद्रोह ही। शरीर, समय, समाज, संस्कार, सबके प्रति विद्रोह का नाम है धर्म। बाबाजी तुम में क्राउड-मोरैलिटी डाल रहे हैं या इंडिविजुअल कॉन्शियसनेस डाल रहे हैं? और तुम पाओगे की बाबाजी निःसंदेह है तुममें क्राउड-मोरालिटी डालते है। भीड़ की नैतिकता वो सीखो। भीड़ बन जाओ, भेड़ बन जाओ। बाबाजी विद्रोह बगावत नहीं सिखाएंगे और धर्म माने बगावत होता है निर्वाण षट्कम यह बगावत का नहीं तो किसका वक्तव्य है?
इंडिविजुआलिटी को तो बाबा जी बर्दाश्त ही नहीं कर सकते। बाबाजी को चाहिए हर्ड मोरैलिटी, हर्ड—एच.इ.आर.डी। भीड़ की नैतिकता, इंडिविजुआलिटी नहीं। खुद बैठ कर के देखना, जानना। अपने लिए स्वयं सत्य को तलाशना, झूठ को काटना ये बाबाजी से बर्दाश्त नहीं होगा। वो कहेंगे ऐसा-ऐसा है सब करते हैं बच्चा! तुम भी करो। तो बाबाजी तुम्हे भीड़ का हिस्सा बना रहे हैं या तुमको निजता दे रहे हैं। इंडिविजुएलिटी ये पूछा करो।
अब मैंने बोला न मेरे लिए ये बातें इंट्यूटिव होती हैं तो उनको ऐसे-ऐसे करके बिंदुओं में अलग-अलग करके आपके सामने रखना। थोड़ा एक टास्क है, हो गया उदित, मैं लोगो से सवाल लूँ, आप लेंगे? कहाँ गये?
उदित जी: जी आचार्य जी
आचार्य प्रशांत: तो लो सवाल लो, माइक पहुँचाओ। इतने लोग हैं, हजारों लोग हैं, माइक कई होने चाहिए। एक माइक तो...।
देखो धर्म अगर अलग-अलग तरीके के हैं तो वो पंथ हैं; समुदाय हैं; सम्प्रदाय हैं। और भेड़ बनाने के लिए जरूरी होता है कि भेडिए का डर दिखा दिया जाए। वो वाले भेड़िए हैं, वो वाले जो हैं न उधर के लोग, वो भेडिए हैं। भेड़िया आया भेड़िया। यहाँ सबको भेड़ बना दिया और पीछे से भेड़े कट रही है, खुद ही काट रहे है उनको ये भेड़ों का पता ही नहीं चलता, भेड़िया तो वास्तविक भी हो सकता है, काल्पनिक भी, पर ये पक्का है कि जो आपको भेड़ बना रहा है कटेगा वही आपको।
जहाँ कहीं भी ये हो कि वो दूसरे लोग गंदे हैं, दूसरे प्रकार के लोग चाय व दूसरी जाति के हो, चाहे दूसरे क्षेत्र के हो, पंथ के हो, मजहब के हो, दूसरी विचारधाराओं के लोग हो, अगर वो गन्दे हैं, गंदे हैं। यही राग आलापा जा रहा है लगातार - गड़बड़ है।
प्रश्नकर्ता: नमस्ते सर, । सर इसमें एक साइन सबसे बड़ा ये भी हो सकता है कि जिस जगह पर, जिस देश में जो बाबा।
आचार्य प्रशांत: एक बार और।
प्रश्नकर्ता: सर इसमें एक जो साइन हो सकता है। देखने का- वो ये भी हो सकता है की जिस देश में, जिस जगह पर बाबा और दूसरा पॉलिटिशियन और तीसरा उद्योगपति तीनों जहाँ पर भी साथ दिख जाए तो वो संभावना ज्यादा है कि गलत ही होगा।
आचार्य प्रशांत: संभावना ज्यादा है। शत-प्रति-शत निश्चित होकर नहीं कह सकते कि अगर नेताजी बाबाजी साथ बैठे है तो गलत ही है। अभी हमने राजा जनक और ऋषि अष्टावक्र का उदाहरण लिया था। लेकिन ये तो देखना होगा न कि ये जो बातें कर रहे हैं, जो मीडिया में छप रही हैं या जिसकी रिकॉर्डिंग सामने आ रही है, इसमें क्या कहीं भी एक गुरु के नाते एक ज्यादा प्रौढ़ चेतना होने के नाते नेताजी को डांट-फटकार पड़ी है, नेताजी को समझाया गया है या नेताजी की चापलूसी करी गई है। यह देखना पड़ेगा।
प्रश्नकर्ता: नमस्ते आचार्य जी, अभी हाल फिलहाल में मैंने नोट किया है कि एक बाबा जी ने यात्रा निकाली है, जो कि जहाँ भी वो जा रहे हैं, जहां से उनकी यात्रा जा रही है वहाँ पर वो काफी शोर शराबा मचा रहे। उनके भक्त लोग पहले से वहाँ पर खड़े रहते हैं रोड पर और जो साधारण लोग है, जो कामकाजी लोग हैं, कामकाज करके आते हैं, उसके बाद उन्हें बहुत डिस्टर्बेंस होता है। जब उन्होंने आवाज उठाई और कुछ सब यात्रा को बंद कराई तो मैंने ये ऑब्जर्व किया की जब मैं बैठा हुआ था अपने कुछ दोस्तों के साथ बैठ कर देख रहा था, और न्यूज चैनल बड़े जोर शोर से उसे दिखा रहे थे, महिमामंडित कर रहे थे। और मेरे बाजू में बैठे हुए लोगों ने कहा देखिये ये गलत कर रहे है। बाबा जी देखो इतना अच्छा काम कर रहा है बट ये लोग गलत कर रहे हैं, उसे रूका रहे हैं। ये बड़े अधर्मी लोग है। तो ये जो सोच है लोगों की, वो भी पढ़े लिखे, लोगों की यह बड़ी अजीब लगी मुझे सर।
आचार्य प्रशांत: देखिये, ये जो युग चल रहा है न? यह युग चल रहा है ज्ञान के प्रति अपमान का, अवज्ञा का। हम हर हाल में यह दिखाना चाहते हैं कि विज्ञान कितना आगे बढ़ गया हो तकनीक कितनी आगे बढ़ गई हो हमारा विश्वास तो उससे ऊपर का है। आप अगर आज भी गाँव वगैरह में चले जाओ तो बहुत लोग मिलेंगे जो कहेंगे ज्यादा पढ़ा लिखा हैं दिमाग खराब हो गया है। ये ज्ञान के अपमान का दौर चल रहा है। किसी भी क्षेत्र में, उदाहरण के लिए अगर कोई विशेषज्ञ हो तो उसका माखौल न बनाया जाए हो नहीं सकता। एक्सपर्ट विल बी रिडिक्यूल्ड। बात समझ में आ रही है?
और उसके कारण भी है। ज्ञान एक ऊंचाई होता है जिस तक हर आदमी पहुँचने की कीमत अदा नहीं करता। तो ज्ञान से हमें चिढ़ होती है। कहूँ तो खुंदक होती है, खुंदक। तो ज्ञान को जब हम अपमानित होता देखते हैं न, तो हमें बड़ा अच्छा लगता है। उदाहरण के लिए सिर्फ उदाहरण के लिए बोल रहा हूँ, मान लीजिये आयआयटी जेइइ हैं, सौ लोगों ने लिखा 99 उसमे असफल हो गए। अब अगर खबर आए के आईआईटी से प्लेसमेंट नहीं हो रहा है, लोगों की नौकरियां नहीं लग रही है। तो ये जो 99 असफल हुए हैं न? इनमें से बहुतों के भीतर ही भीतर खुशी होगी। ये कहेंगे की आईआईटी ने हमें बोला की तुम हमसे नीचे हो देखो आईआईटी कितनी नीचे निकली। आ रही है बात?
इसी तरीके से अगर कोई बहुत पढ़ा लिखा है, बहुत पढ़ा लिखा है। मान लीजिये वैज्ञानिक है। मान लीजिये नासा में काम करता था। केलॉग से एम.बी.ए करा है या एम.आई.टी से उसने साइंस पढ़ी है। और उसके बाद अगर वो आध्यात्मिक हो जाए तो तुरंत हम कहेंगे अरे इनमें क्या रखा है, यह हावर्ड-वोरटन केलॉग, एम.आई.टी इनमें क्या रखा है? नासा में भी क्या रखा है देखो ये सब पढ़ के अंत में तो अध्यात्म ही शरण आना है न। और ऐसे व्यक्ति को तत्काल लोकप्रियता मिल जाएगी, तत्काल लोकप्रियता। आप उसका कुछ नाम भी रख, दोगे के लिए नासा महाराज। आप सोचो की नासा महाराज आपने क्या क्या रखा उसका? ताकि आप नासा पर थूक सको। क्योंकि आपको पता है नासा में खुद आपको कभी प्रवेश नहीं मिलता। तो आपको बहुत अच्छा लग रहा है कि नासा से निकाल के कोई आपके ही तल पर बिल्कुल गिरी हुई बातें कर रहा है। ये आपने बदला निकाल लिया नासा के साथ बड़ा अच्छा लगा, नहीं तो उस आदमी का नाम नासा महाराज रखने की क्या जरुरत पड़ी है आपको? ये ज्ञान के अपमान का युग चल रहा है।
और ज्ञान का अपमान जरूरी हो जाता है। जब विश्वास को, मान्यता को और भावना को बचाना हो। क्योंकि ज्ञान न आपके विश्वास की कदर करता है, न भावना की, न मान्यता की, तो इसी लिए ज्ञान पर थूकना बहुत जरूरी है। गाली बना दिया है न हमने, बहुत ज्ञानी न बनना। फिर आ गए ये ज्ञान खोदने वाले। ज्ञान को गाली बना दिया।
समझ में आ रही बात ये? तो इसीलिए जब हम पाते हैं कि पढ़े लिखे लोगों पर गवरई हावी हो रही है तो कहीं न कहीं हमें बड़ा अच्छा लगता है की बहुत पढ़े लिखे थे, बहुत स्मार्ट बनते थे, बहुत डूड बनते थे, बहुत इंटेलीजेंट, बहुत साइंटिफिक बन रहे थे: देखो गवारों की भीड़ आई और गवारों की भीड़ तुम पर हावी हो गयी। हमारे भीतर कोई है जो चाहता है की गँवार लोग जीत जाए इसलिए हम ताली बजाते हैं जब हम पढ़े लिखे लोगो को गँवारों के आगे झुकता हुआ देखते हैं। पर ये ताली बजाना हमें ही भारी पड़ेगा, पड़ रहा है। समझ रहे हैं न?
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी प्रणाम। आचार्य जी, अगर हम किसी से पूछते भी है तथ्य या तर्क बाबाओं से, तो वो जो अर्थ समझाते हैं न, वो विकृत होता है, गलत अर्थ होता है। तो अभी हम सुन रहे हैं आपको। तो हमें तो समझ में आता है, गलत है। बट जो बाकी लोगों को समझाना चाहते हैं। मुक्ति का सही अर्थ या उस गीता के ही का सही अर्थ। तो वो गलत अर्थ को बोलते हैं। यह कैसे है कि हमारा गलत है तुम्हारा सही? तो कैसे?
आचार्य जी: मैंने आपको कैसे साबित किया कि जो मैं आपको बता रहा हूँ वो सही है या मैंने आपको ये कहा था कि मैं फलाना बाबा हूँ, तुम्हें मेरी बात माननी पड़ेगी नहीं भस्म हो जाओगे। मैंने ऐसे कहा था क्या? मैंने आपको कैसे समझा लिया? कैसे समझा लिया? तर्क देके प्रमाण देके और आपसे कहा खुद देखो। और मैंने आपसे कहा कि मैं विसंगत बात नहीं करूँगा। कॉन्ट्राडिक्टरी जो बात 1 श्लोक कह रहा है, वही बात दूसरा श्लोक भी कहेगा। और जो बात 1 ग्रंथ कह रहा है वही बात दूसरा ग्रंथ भी कहेगा कहीं तुम विरोधाभास नहीं पा सकते अगर मैं आपको समझा सकता हूँ तार्किक तरीके से, तो आप तार्किक तरीके से क्यों नहीं समझा पाते?
प्रश्नकर्ता: वो किसी और पुराण या कहीं और का दोहा।
आचार्य प्रशांत: तो मैंने आपको नहीं बताया श्रुति और स्मृति का अंतर?
प्रश्नकर्ता: जी,
आचार्य प्रशांत: तो यह भी तो तर्क है न। तो फिर? आप क्यों नहीं बता पाते उपनिषदों की व्याख्या में पुराण बीच में नहीं आ सकते। ठीक वैसे जैसे सुप्रीम कोर्ट की प्रोसीडिंग्स में डिस्ट्रिक कोर्ट का क्या काम? तो ये आप क्यों नहीं समझा पाते हो?
प्रश्नकर्ता: अगर ऐक्चवली एक की डेथ हुई थी, तो गरुड़ पुराण होता ही है। अब वो जीवात्मा की शांति के लिए करते है या जीवात्मा ही ...
आचार्य प्रशांत: बोल तो दिया मैने अगर गरुड़ पुराण की बातें उपनिषदों के विरुद्ध जा रही है तो गरुड़ पुराण को नहीं माना जा सकता।
प्रश्नकर्ता: धन्यवाद।
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी आपने पहला बिंदु बताया कि जो हमें तथ्य बताए उसपे हमें विश्वास करना है, जो विश्वास मान्यता बताए उस पर नहीं जाना है। यही बात हम जब किसी व्यक्ति से बोलते हैं तो कई बार ऐसा भी हुआ है वो व्यक्ति कहता है देखो, हमारे बाबाजी तो तथ्य बताते हैं।
आचार्य प्रशांत: जैसे?
प्रश्नकर्ता: और मैंने यही पूछा की जैसे कैसे तथ्य। तो उसने बताया कि हमारे बाबा जी ने हमारा हाथ देख के या हमें ही देख के बता दिया कि दो साल पहले तुम्हारी अम्मा मर गयी थी, या तीन साल पहले तुम्हारे पैर की हड्डी टूटी थी। चार साल पहले व्यापार में तुम्हें बहुत बड़ा नुकसान हुआ था। तो ये हमें तथ्य बताए जाते है इसलिए हमारे बाबाजी तो ठीक बात बता रहे हैं। इस बात को हम कैसे...?
आचार्य प्रशांत: यह बात आप मुझे पूछने से पहले एक बार गूगल से भी पूछ लेते तो आपको इतने तर्क मिल जायेंगे, इतने तर्क मिल जायेंगे, क्या आपको चुनने में दिक्कत हो जाएगी ऐसों को काटने के लिए किस वाले तर्क का उपयोग करूँ। ये पूरा जो काम है न्यूमरलॉजी, पाम हिस्ट्री, एस्ट्रोलॉजी. इस पर इतने ज्यादा प्रयोग हो चुके हैं और हर प्रयोग ने बिना किसी संदेह के साबित करा है कि इसमें एक प्रतिशत भी सच्चाई नहीं है। विदेशों में भी हुए हैं, भारत में भी हुए हैं। जयंत नारलीकर का नाम सुना होगा आपने, उन्होंने भी करा था।
तो बच्चे ले लिए, ऐसे बच्चे ले लिए जो पैदा ही हुए हैं मानसिक समस्याओं के साथ। ब्रेन की डिफॉर्मिटी के साथ और ऐसे बच्चे ले लिए तो बिल्कुल स्वस्थ है, कुंडलियां ले ली, मिला दी, बाबाओं को दे दी, बाबा दोनो तरह की कुंडलियों में कोई अंतर नहीं कर पाए जीरो डिफ्रेंसिएशन। जबकि ये बहुत सीधी साबित बात है कि जिस बच्चे का ब्रेन डेवलप ही नहीं होना है उसकी जिंदगी और जो एक साधारण नॉर्मल स्वस्थ बच्चा है उसकी जिंदगी बहुत अलग-अलग तरीके से चलेगी। बाबा नहीं बता पाए।
इतना ही नहीं हुआ ये 50 बाबाओं को दी गयी थी कुंडलिया इसके बाद एक सेट और बुलाया गया अगले 50 बाबाओं का। उन्होंने बिल्कुल अलग तरह की भविष्यवाणियाँ कर दी। ये कौनसी साइंस है जिसमें एक ही ऑब्जेक्ट पर एक साइंटिस्ट एक बात बोल रहा और दूसरा साइंटिस्ट दूसरी बात बोल रहा है। ऐसा कैसे हो सकता है मैं एक साइंटिफिक क्वेश्चन दू आपको। अगर आप सॉल्व करे और आप सॉल्व करे तो क्या उसका आंसर अलग लग आएगा?
प्रश्नकर्ता: नहीं।
आचार्य प्रशांत: फिर तो ये इसमें आप इतना अटक जाते जाते हैँ, आपकी नीयत नहीं है झूठ का पर्दा फाश करने की। अगर मैं सच के हक में लड़ाई लड़ रहा हूँ और मुझे हारना पड़ा है तो मुझे बहुत ज्यादा क्षोभ होता है, भीतर से शोक सा उठता है।
मैं बचपन में ऐसा करा करता था। ये बैठी हैं माताजी। मैं खेल रहा हूँ और अगर किसी ने बेइमानी से मुझसे प्वाइंट ले लिया और साबित भी कर दिया की प्वाइंट उसी का है तो मेरे आंसू निकल आते थे। इस बात पर नहीं की मैं हार गया इस बात पर की वो झूठ बोल रहा है, तब भी जीत रहा है। वो झूठ बोल के भी हावी हो गया, प्वाइंट तुम ले लो, तुमने बेईमानी का क्यों लिया प्वाइंट देने में हमें कोई बात नहीं है, हम गडबड खेल रहे है तुम्हारा पॉइंट हो गया, कोई दिक्कत नहीं, तुमने बेईमानी का क्यों लिया? आपके आंसू नहीं निकलते न।
आपके सामने कोई गलत बात पर कुतर्क करके जीत गया तो आपको वापस आना चाहिए, पूरी रात जग कर के रिसर्च करनी चाहिए, इंटरनेट पर आपने करी क्या? आप साधारण सवाल पूछ रहे हो। इन सब बातों को, सूडोसाइंस को एक्सपोज कैसे करे, सूडोसाइंस को एक्सपोज कैसे करना है, जाकर चैट जीपीटी से पूछ लो, वो अभी बता देगा। आपने कभी चैट से नहीं पूछा, गूगल से नहीं पूछा, आपने किसी से भी नहीं पूछा आप इन बातों को मानते जा रहे हो। हाथ दिखा दो, कुंडली दिखा दो, माथा दिखा दो, कुछ सब दिखा दो, क्या दिखा दो। कहीं पर तो हुआ था ये सब हटा दिया पता नहीं लगने दिया। बाबा जी, ये न बता पाए आदमी का हाथ है औरत का है ये और क्या बताएंगे? ये तक नहीं बता सकते। इसमें क्या है भाई कैसे कर लोगे, क्या बात कर रहे हो? थोड़ी भी तुमने फिजिक्स पढ़ी है? एस्ट्रोनोमी पढ़ी है? कॉस्मोलॉजी पढ़ी है? तुम कह रहे हो ग्रह नक्षत्रसे मनुष्य का भविष्य और जीवन निर्धारित होता है। कैसे होता है? वो वहाँ बैठा है तुम यहाँ बैठे हो। कैसे होता है? ग्रेविटी से होता है?
ये मैने ऐसे कर लिया। ये ज्यादा बड़ी ग्रैविटी है मेरे शरीर के ऊपर, बृहस्पति ग्रह की अपेक्षा। होगा बहुत बड़ा वो। पर ये मेरे इतने पास है न क्यूँकी उसमें इनवर्स स्क़्वेअर रूल लगता है। अगर इसको मैं बहुत पास ले आ लूँ तो ग्रेविटेशनल फोर्स बहुत बढ़ जाएगा भाई। वो बहुत दूर है, जुपिटर कैसे है यह कुंडली होरोस्कोप? ये ग्रह-नक्षत्र इनका कोई भी कैसे अर्थ हो सकता है? आपके खोपड़े में नहीं आ रही है बात।
प्रश्नकर्ता: सर ये जो सब बात हो रही है, मैं किसी को पहचान नहीं पाता हूँ, तो वो मेरी आत्म-अज्ञानता का परिचय है यानि लेवल ऑफ डिग्री ऑफ़ आत्मअज्ञानता। इसलिए मैं पहचान नहीं पाता हूँ सबको। व्हेदर इट इस फेक। जिस तरीके से मैं आत्मज्ञान की तरफ बढ़ता हूँ, मेरी दृष्टि
आचार्य प्रशांत: ठीक, बिल्कुल ठीक है और दोनों चीजें टैंडम में चलती हैं। एक साथ जितना खुद को पहचानने लगेंगे उतना ही सामने वाले को पहचानना आसान हो जाएगा और जैसे जैसे सामने वाले को पहचानने लगेंगे, खुद को भी बेहतर देख पाएंगे क्योंकि है तो हम भी?
प्रश्नकर्ता: रेसिप्रोकल हैं।
आचार्य प्रशांत: वैसे ही तो ये रेसीप्रोकल है। लेकिन शुरुआत?
प्रश्नकर्ता: अपने से।
आचार्य प्रशांत: शुरुआत अपने से, फिर ऐसे ऐसे ऐसे म्यूचुअली। एक री-एनफोर्सिंग कॉर्डिनेशन चलता है वही विद्या-अविद्या दोनों। तभी मैं कहा करता हूँ न कि अध्यात्म का बंदा भोला तो जरूर होगा बेवकूफ किसी हालत में नहीं हो सकता। वो जानते-बूझते अपना सर्वस्व न्योछावर कर दे बिल्कुल ऐसा हो सकता है पर आप बेवकूफ बना के उसको नहीं लूट सकते और दुनिया अगर अभी आपको बेवकूफ बना के लूट रही है तो इसका मतलब आप आध्यात्मिक हो नहीं।
प्रश्नकर्ता: प्रणाम सर, सर इसी से रिलेटेड एक और बात थी कि जब भी हम उनसे अपने जीवन के दुख के बारे में प्रश्न करते हैं या फिर ऐसे प्रश्न करते है कि हमारे जीवन में जितनी भी मुश्किलें आ रही हैं तो उसमें दो बातें ही ज्यादातर सामने आती है। एक तो वो बहुत ऐसी मीठी मीठी बातें करेंगे जिससे जिससे हम कुछ टाइम के लिए वो बस चीज को भूल जायेंगे कि जो हमारे साथ होता है और दूसरा वो कहते हैं कि भगवान पर विश्वास रखिये, सब सही हो जाएगा या फिर ये 3-4 चीजें कर लीजिये। सही हो जाएगा इंस्टीड ऑफ की हम खुद को देखें या आत्मज्ञान की ओर बढ़े, आत्मसंशय की ओर बढ़े। तो सर यह भी एक पैमाना हो सकता।
आचार्य प्रशांत: इसमें इतनी कठिन या जटिल क्या बात है की तुम फँस जाते हो? ये चीज तो हमारे घर परिवार में यार दोस्तों के साथ हम भी करते है और खूब होती है। कोई फेल हो कर के आ गया है या कोई पढाई नहीं कर रहा है फेल हो जाएगा। हम उसको यथार्थ थोड़ी बताते हैं, हम कहते हैं चल कोई बात नहीं यार थोड़ी देर के लिए गाना सुन लेते हैं। कोई फेल हो कर आ गया कोई बात नहीं यार चल बीअर पी के आ जाते हैं। यही नशे का काम धार्मिक क्षेत्र में भी होता है कि तुम्हारी जिंदगी की बहुत तकलीफें हैं और उनका जो असली कारण है उससे जूझने कि तुम हिम्मत नहीं दिखा रहे तो थोड़ी देर के लिए यही वजह है न।
ये आकड़ा पहले भी बताया है कि दुनिया में जो देश सबसे ज्यादा धार्मिक है, वहाँ के आंकड़े यह है कि वहाँ की प्रति व्यक्ति आय सबसे कम है, वहाँ शिक्षा सबसे कम है और वहाँ आबादी सबसे ज्यादा है। आबादी इस अर्थ में कि फर्टिलिटी रेट। सबसे ज्यादा बच्चे महिलाएँ वहाँ पैदा करती है जहां सबसे ज्यादा लोग धार्मिक हैं, सबसे कम पढ़े लिखे लोग वही है जहाँ सबसे ज्यादा लोग धार्मिक हैं और सबसे गरीब लोग वही है जहाँ लोग सबसे ज्यादा धार्मिक है। क्योंकि ये जिस धर्म की बात हो रही है लोक धर्म हैं। वास्तविक धर्म होता है तो वास्तविक धर्म सशक्तिकरण और सम्पन्नता और बोध के साथ आता हैं। इन चीजों के साथ नहीं आता कि गरीबी और बच्चे।
प्रश्नकर्ता: सर मैं महाराष्ट्र से हूँ। तो नरेंद्र दाभोलकर जी, जो वहाँ पर थे तो अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति थी उनकी। तो जैसे जयंत नारळीकर जी के प्रयोग थे तो बहुत सारे प्रयोग कर कर के, तर्क दे दे के उन्होंने मतलब बहुत चीजें साबित भी करी हैं की गलत कैसे है। तो जो एक्ट होते हैं न। अंधश्रद्धा निर्मूलन, महाराष्ट्र पहला राज्य है जहाँ पर इसके खिलाफ एक्ट हैं अंधश्रद्धा के खिलाफ। तो अभी हमारा जो हिंदी हार्टलैंड हम बोलते है- बीमारू राज्य जो बिहार, एमपी राजस्थान वगैरह
आचार्य प्रशांत: यूपी-यूपी।
प्रश्नकर्ता: यूपी, तो वहीं से निकल रहे है सारे बाबा लोग वगैरह न इन्ही राज्यों से, तो मतलब ऐसे एक्ट्स अगर लाये थोड़ा बहुत भी।
आचार्य प्रशांत: चलिए लेके आते है। आइये, आइये। हम दोनों ऐसे हमटी-डमटी करते चलेंगे लेके आ जायेंगे। कैसी बातें करते हो आप?
डेमोक्रेसी तो सर गिनती है। जब बात आती है मैं कहता हूँ की काम आगे बढ़ाओ लोगों को जोड़ो तब तो आप कहते हो नहीं ये तो हमारे अपने उत्थान के लिए है न। हम कोने में बैठ जायेंगे, भजन करेंगे। छी! तेरा मेरा मनवा कैसे एक होइ रे? मैं करोड़ो को जोड़ लाया, आपसे एक नहीं जुड़ता आप मेरेसे क्या जुड़ोगे? एक मैं हूँ जिसने करोड़ को जोड़ लिया आपसे एक नहीं जुड़ता क्यों धोखा दे रहे हो खुद को?
संख्या बल बढ़ाओ, संख्या बल बढ़ाओ अगर चाहते हो की लेजिस्लेशन लाना है सही तो। अगर डेमोक्रेटिक तरीके से करना है तो संख्याबल बढ़ाओ।
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी मेरा क्वेश्चन बाबाजी को लेकर है कि एक बार एक परिचित से मेरी बात हो रही थी तो वो रील देखे जा रहा था किसी बाबा जी का। तो मैंने बोला ये जो आप सुनते हो बाबाजी को इसकी कोई ऑथेंटिसिटी है भी, ये क क्या बोलते हैं ये कहा से ये ज्ञान लेकर आते हैं तो आप क्यों मानते हो उनको? तो उन्होंने बोला आप भी तो आचार्य प्रशांत को मिलते हो, मानते हो, उनकी क्या अथेंटिसिटी है?
तो मैंने बोला कि क्योंकि वो मैंने फिर उनको श्रुति और स्मृति में डिफरेंस समझाया और बताया उनका जो ज्ञान है वो वेद और उपनिषद से आ रहा है, श्रुति से आ रहा है इसलिए मैं उनको सुनती हूँ। तो फिर उन्होंने कहा कि ये फिर मैंने बोला कि जो हमारा सनातन धर्म का केन्द्रीय ग्रंथ है वो श्रुति है। तो जो भी ज्ञान वहां से आएगा वो सही है।
फिर उन्होंने कहा कि तुमने यह तो माना ही न कि सनातन धर्म का केन्द्रीय ग्रंथ श्रुति है। ये कैसे पता कि सनातन धर्म का केंद्रीय ग्रंथ श्रुति है तुमने भी तो यहां से मान्यता शुरू की न। तो इसके जवाब में मेरे पास कोई बहुत सॉलिड तर्क नहीं था।
आचार्य प्रशांत: आप बताइए न क्यों नहीं है आपके पास तर्क? सौ बार तो समझा चुका हूँ। चलो न स्मृति को मानो न श्रुति को मानो। तो सारा आध्यात्म है किसके लिए?
प्रश्नकर्ता: नहीं वो मैंने बोला की एकबार तुम ट्राई करो, तुम्हारा
आचार्य प्रशांत: नहीं आपने जो बोला वो सही नहीं बोला उसको हटा दीजिए, सारा अध्यात्म है किसके लिए होता है?
प्रश्नकर्ता: खुद के लिए। अपने मुक्ति के लिए।
आचार्य प्रशांत: खुद के लिए ना? तो श्रुति बोलते ही उसको है जो अहम की बात करे और नई श्रुति में कोई पर लगे हुए है। श्रुति इसलिए थोड़ी महत्वपूर्ण है कि आसमान से उतरी है। वेदांत की खास बात ये है कि वो अहंकार को संबोधित करता है बस इतनी सी बात है। और अहंकार को संबोधित करना महत्वपूर्ण क्यों है? क्योंकि दुःख सारे अहंकार को ही होते हैं मुझे ही सारे दुख है न? यह इतना छोटा सा तर्क आप क्यों नहीं दे पाते?
आप दुनिया भर की इधर-उधर की बातें करते हो धार्मिक साहित्य के नाम पर उसमें सब क्या बिखरा पड़ा है? इसने इसका ऐसा करा। फिर आसमान से एक फरिश्ता उतरा। भाई, समस्या किसको है? मुझको है। तो मेरी बात करो न, फरिश्तों की, हूरों की, परियों की और अप्सराओं की, और इनकी बातें क्यों कर रहे हो तुम वो धर्म कैसे हो गया? बस इतनी सी बात है, इतनी सी बात है।
प्रश्नकर्ता: लेकिन वो तर्क करते कि तुम अगर उपनिषद को तो कैसे पता की ये जो तुम वेद का नाम बोल रहे हो और वो।
आचार्य प्रशांत: हम वहाँ से शुरुआत करेंगे जहाँ पर कोई तर्क हो ही नहीं सकता। हम वहाँ से शुरुआत करेंगे जहाँ कोई मान्यता हो नहीं सकती और कौन सी हैं वो जगह ‘मैं’। बिल्कुल हो सकता है कि ये दीवारे न हो, ये मेरी मान्यता हो, आँखों का धोखा हो, सब कुछ झूठ हो सकता है। लेकिन एक चीज तो है न, जो है और उसी की खातिर मैं बात कर रहा हूँ, मैं हूँ और मैं हूँ। मुझे मेरे होने का दुख नहीं पता चलता है। मैं दुखी हूँ। यहाँ से सारा अध्यात्म शुरू होता है। बाकी सब नकली हो सकता है। आपको सामने वाले से एक बात पूछनी है दुखी हो? और ‘हो’। दुखी हो। उसमें अस्तित्व भी आ गया तुम्हारा। अहम। हो, हो माने अस्तित्व है तुम्हारा। अहम और दुख है। हाँ यही है अध्यात्म सारा।
अब में बताता हूँ। जिस कारण से आप इतनी छोटी सी बात समझ नहीं पाई थी, ठीक उसी कारण से आप गलत आदमी को समझा भी रहे हो। ये जो कुछ भी मैंने आपको समझाया, ये बात आप उस आदमी को समझाने जाओगे आपको अभी भी सफलता नहीं मिलेगी। क्योंकि बात यह नहीं है बस की सही बात समझानी है बात ये है की सही बात सही आदमी को समझानी है। मैं आपसे कितनी भी सही बात बोल दी, जा के गलत आदमी को समझा रहे हो। क्यों? क्योंकि आपको लगता है। फिर मैंने जो आपको बता दिया वो बहुत आसान सी चीज है। हो गया।
अरे उसे, मुझे वही समझेगा जिसकी जिंदगी में आग लगी हुई हो। मेरे पास बहुत बिरले ही आ सकते हैं। आम आदमी जो अपने साधारण सरोकारों में खुश है वो नहीं आएगा यहाँ। ये चेतना का एक स्तर होता है; बेहोश स्तर। जिसमे आप बैठ कर के ऐसे ही आपने एक रील देख ली शायरी की, अगली रील बाबाजी की, अगली स्टंट की, अगली रील एआई से कोई एनिमेशन है, उसकी अगली रील, कुछ पॉलिटिक्स की, अगली को स्पोर्टस की। ऐसे-ऐसे स्क्रॉलिंग चल रही है। यह चेतना का एक बेहोश स्तर है। उस बेहोश स्तर पर बाबा जी के लिए पूरी पूरी जगह है। वो सुनेगा बाबा जी को। बात बाबा जी की नहीं उसकी बेहोशी की है। इस बेहोश आदमी को आप समझाने गए किसलिए हो क्योंकि आप भी बेहोश हो। नहीं तो ये जो मैंने आपको साधारण सा तर्क दिया। यह आपको पता होता, ये तर्क में हजारों बार सुना चुका हूँ।
प्रश्नकर्ता: सर बात करते समय क्या होता है न कि वो जो तर्क देते हैं कि उपनिषद को कैसे पता की श्रुति....
आचार्य प्रशांत: अरे, नहीं पता उपनिषद को मेरे सामने लोग बैठेंगे मैं विदेश जाता हूँ आप से मैं कहता हूँ की श्रुति है इसलिए सुनो क्यूँकी आप हिंदु हो विदेश जाऊंगा वह हिंदू नहीं होंगे तो उनसे मैं थोड़ी कहूँगा की मेरी बात सुनो क्यूंकि श्रुति से आ रही है, तुमसे मैं क्या कहूँगा। डू यू एग्जिस्ट, डू यू सफर? देन लेट्स टॉक।
प्रश्नकर्ता: थैंक यू आचार्य जी।
प्रश्नकर्ता: नमस्कार आचार्य जी। थोड़ा बाबाजी पार्टी में वापस ले के आना चाह रहा था। तो दो एक कॉमन जो सिमटम रहते हैं एक तो वो पर्टिकुलर विधियां बताते हैं बेसिकली और पर्टिक्युलर्ली अनअचिवेबल विधियाँ जो दो घंटे या तीन घंटे ध्यान लगाइए जो काइंड-ऑफ़ अनअचीवेबल रहता है और तुम ध्यान नहीं लगाते मतलब पापी हो तुम। सेकेंड प्रसाद वो देते है। एक कॉमन फैक्टर रहता है, हर एक बाबा के साथ प्रसाद बांटते हैं वो, मैटेरियलिस्टिक चीज़ों में लोगों को उलझाते है गुड-गुड टॉक्स मतलब क्वेश्चन कर रहा हो उसको यह नहीं बोले तुम्हारा क्वेशन जो वेस्ट फुल है मतलब वो आलवेज ऐसी है, ठीक है, बच्चा ठीक है। तो लाइक ये 3 चीजें और मैं एड करना चाह रहा है बिल्कुल।
आचार्य प्रशांत: और यह भूलना नहीं चाहिए की मटेरियल का क्षेत्र साइंटिस्ट का है। ये अपने आप में एक रेड फ्लैग है- अगर कोई अपने आप को धार्मिक कहने वाला व्यक्ति मटेरियल और उसकी प्रॉपर्टीज की बात करने लग जाए तो। इस प्रसाद में ये दिव्य गुण है, इससे यह बीमारी ठीक हो जाएगी। भाई यह पूछनी है बात तो जा के रिसर्चर से या डॉक्टर से पूछो, बाबा से नहीं पूछनी है, बाबा को क्या पता? ये तो हमारी अकल की बात है न, आप अस्पताल में भी जाओ भी किडनी खराब है और आप इएनटी वाले के पास चले गए तो पागल आप हो। और यहाँ तो ये है की किडनी खराब है और इएनटी वाले के पास भी नहीं, बाबा जी के पास जा रहे हो तो पागल आप हो।
ये तो अपनी जानकारी की बात होती है। अस्पताल में डॉक्टर आपका इलाज कर सकता है, पर ये तो हमें पता होना चाहिए न की पेट दर्द हो रहा है तो मोची के पास थोड़े ही जाना है। डॉक्टर भी इलाज तब करेगा जब पहले आपको इतनी अक्ल तो हो की डॉक्टर के पास जाना है, डॉक्टर के पास जाना है, मोची के पास थोड़े ही जाना है। जो पेट खराब होने पर मोची के पास जाता है डॉक्टर भी उसकी क्या मदद करेगा।
श्रोता नमस्ते आचार्य जी, मैं इस राह में क्यों आई? I just... दो मिनट बोलूंगी।
बचपन से मुझे मौत का बहुत डर लगता था। और मेरे पिताजी, जब मैं छोटी थी, तभी गुजर गए थे। मैंने देखा था—सब उनको पता नहीं कहां लेकर गए, और वापस आके सब खाना खा रहे हैं! तभी पता चल गया, "यहां प्यार नहीं है, you can forget everyone anytime."
तब से मेरी सर्च थी कि मौत के बाद actually क्या होता है?
वो गाना भी सुना था—"ज़िंदगी का सफर है ये कैसा सफर..." तो मुझे ज़िंदगी तो ठीक है, चल रही है, उसके बाद क्या? इसका मुझे बहुत questions थे। इसके बारे में जानने के लिए मैं बहुत जगह गई हूं, सुना है, Emotional Freedom Technique वगैरह सब यूज किए हैं।
पर जब मैंने आपको सुना, उसके बाद आज मैं कॉन्फिडेंटली बोल सकती हूं—मुझे कॉन्फिडेंस आया है! I have a clarity कि यहां कुछ नहीं मरता। And I am very much grateful to you कि आपने यह प्लेटफार्म हमें दिया है। सर, मैं हमेशा लिखती रहती हूं, पर आज मैंने सोचा, आज मुझे बोलना है। आप जो दे रहे हो ना सर, I don’t know how people can understand, but really, we don’t understand anything!
आप जो दे रहे हो, और जिस वजह से आपकी जो अभी फिजिकल हेल्थ है, that’s only the reason because you want to give it. मैं इनको बोलती हूं—यह हमारे exams होते हैं, यह सब हम सीखते हैं... और इसके बाद आपको पता चलेगा। आप इनको सुनिए, अगर वो बहुत ही घाई में हैं। आई जस्ट पुट इ, प्लीज लिसन टू हिम। एनी प्रॉब्लम, एनी प्रॉब्लम सर्च ऑन यूट्यूब। व्हाट आई टेल देम एंड... एंड आई एम रियली ग्रेटफुल, सर। आप बहुत, बहुत, बहुत बड़ा काम कर रहे हो। मतलब बड़ा भी छोटा वर्ड है इसके लिए। आई मीन, अवेकनिंग अ मैनकाइंड इज नॉट अ स्मॉल थिंग दैट यू आर डूइंग, सर। एंड रियली, एवरीवन सिटिंग हियर, आई डोंट नो एनीबडी, इज़ एटलीस्ट अंडरस्टैंडिंग टू यू और नॉट, बट यू आर गिविंग योर 100%। स्टैंडिंग फॉर अस, टॉकिंग फॉर अस, गोइंग टू सो मेनी पॉडकास्ट।
आई एम वेरी ग्रेटफुल टू यू। आई एम एसोसिएटेड विद यू। और जैसे मैंने लास्ट ईयर जॉइन किया, मेरे कलीग हैं, जो दिल्ली में रहते हैं। हमारा दिल्ली में भी ऑफिस है। मैंने उनको बोला, "अगर मैं मुंबई से यहाँ आ सकती हूँ, व्हाई आर यू नॉट कमिंग हियर?"
एंड ही इमीडिएटली जॉइन। तो ऐसे करके, मेरे फाइव कलीग्स हैव ऑलरेडी जॉइन टू यू।
अभी मैंने मेरी भाभी को जॉइन किया। जब न, वी हैव स्टार्टेड चेकिंग दैट हू वॉज कनेक्टेड टू..., बट दिस इज़ व्हाट आई कैन गिव। आई हैव लॉट ऑफ बुक्स इन माय हाउस। आई गिव दैट ओनली एज अ गिफ्ट टू एवरीवन, बिकॉज़ अभी एक ही बात पता चली— तुम्हें सिर्फ यही चाहिए और कुछ नहीं चाहिए। आपके पास सब कुछ है, आपको वो निकाल देना है। और फिर आपको सिर्फ यही चाहिए—बोध चाहिए, जो आप दे रहे हो।
थैंक यू।