तुम्हारी बर्बादी के दो कारण: झूठा आत्मविश्वास और बहाने

Acharya Prashant

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तुम्हारी बर्बादी के दो कारण: झूठा आत्मविश्वास और बहाने
वो जो भीतर बैठ के ये भी कह रहा है कि "मैं बर्बाद हो गया," वो बस यही कह रहा है कि जो ऑब्जेक्ट मुझे अच्छा लगता था, मुझे वो नहीं मिला। लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि उसके पास अब कोई ऑब्जेक्ट नहीं है। इसका मतलब ये है कि वो अभी भी कोई और ऑब्जेक्ट पकड़ कर बैठा ही हुआ है। तो सारे दुख की वजह ये नहीं होती कि ऑब्जेक्ट नहीं है। उसकी वजह होती है कि ईगो अभी भी है, डिज़ायर अभी भी है। और "मुझसे कुछ नहीं होगा" ये आईडिया अभी भी है। यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

प्रश्नकर्ता: जो काम हमारे लिए ज़रूरी होता है, हम उसमें डल हो जाते हैं, लेज़ी हो जाते हैं। मेरे साथ हर बार ऐसा होता है कि मैं उस काम को लेकर बहुत सारे एक्सक्यूज़ देने लगती हूँ। मतलब अहम् को पता होता है कि तुम गलत, मतलब कहीं न कहीं मैं झोल कर रही हूँ। पर फिर मैं कुछ एक्सक्यूज़ दे के अपने आपको समझा भी लेती हूँ, “नहीं, मैं न, अपने लिए नहीं कर रही हूँ। मैं किसी और के लिए कर रही हूँ।” मतलब, वो हर बार ऐसा होता है। ऐसा होता है कि नहीं, मैं देख रही हूँ ख़ुद को, बट फिर से वही गलती करती हूँ और फिर धोखा खाती हूँ ख़ुद से भी।

आचार्य प्रशांत: हर बार होता है न? कई बार होता है।

प्रश्नकर्ता: येस सर।

आचार्य प्रशांत: तो हर बार कुछ नया तो नहीं होता। जैसे पिछली बार कुछ सही था, उसको न करने के लिए कुछ बहाने बनाए। अगली बार फिर कुछ सही था, उसको न करने के लिए कुछ बहाने बनाए। और पिछली बार जो हुआ था, वो याद तो होगा। तभी आप कह रहे हैं कि हर बार होता है, याद तो होगा न।

तो बस वही, उस वक़्त याद कर लेना है कि ये तो मैं पहले भी कर चुकी हूँ। बल्कि, बहाना मन में आए उससे पहले आप ख़ुद ही भविष्यवाणी कर दीजिए, प्रेडिक्ट कर दीजिए कि अब कोई काम है, वो ज़रूरी है, वो करने का मेरा मन तो कर नहीं रहा है। आलस कर रही हूँ मैं, तो अब पक्का अगले पाँच मिनट के अंदर मैं कोई बहाना तैयार करने वाली हूँ। क्योंकि यही मेरी हिस्ट्री रही है।

वो जो हमारी वृत्ति होती है न, वही हमारी पूरी हिस्ट्री में दिखाई देती है। और अगर आपने उसको वहाँ पर रोका नहीं समझ कर के, तो वो फिर हिस्ट्री नहीं रहती, वो फ्यूचर भी बन जाती है। ठीक है? तो आप इंतजार भी मत करिए कि भीतर से कोई बहाना उठेगा। इंतजार मत करिए और सीधे कह दीजिए कि “अब मुझे पता है, कोई बहाना मैं बनाऊँगी।” वो बड़ा मज़ा आता है कि मतलब आपको पहले ही पता है कि अब चोर आने वाला है। इंतजार भी नहीं कर रहे, हमने पहले ही कह दिया, अब चोर आने ही वाला है।

प्रश्नकर्ता: समझ गई सर।

आचार्य प्रशांत: हम क्या होते हैं? हम पैटर्न्स ही तो होते हैं न। जो चल रहा है, देख लीजिए कि ये पुराना पैटर्न है। ऐसा (किताब के कवर को इंगित करते हुए), ये है पुराना पैटर्न। मैं यहाँ (किताब के एक छोर को इंगित करते हुए) से चलती हूँ, यहाँ जाती हूँ (दूसरे छोर को इंगित करते हुए), ये बोल के कि मैं कहीं और जा रही हूँ। फिर वहाँ से मैं एक 90° इधर ऐसे लेती हूँ, फिर एक और लेती हूँ 90°, फिर एक और लेती हूँ, और ले दे के फिर पुरानी जगह पर आ जाती हूँ। और ये मैं पहले सौ बार कर चुकी हूँ, और जो मैं पहले थी, वही मैं आ जाऊँ, क्योंकि बदलना तो मैंने ब्लॉक कर रखा है। तो अभी मैं फिर यहाँ तक चली हूँ, ख़ुद ही प्रेडिक्ट कर दीजिए कि थोड़ी देर में मैं 90° लेने वाली हूँ, राइट हैंड को। क्योंकि ये तो मेरी हिस्ट्री रही है, यही मेरा तरीका है।

तो यहाँ (दूसरे छोर को इंगित करते हुए) पर आकर बहाना बनाएँ, उससे पहले आप यहाँ से चली हैं आप यहीं तक आकर अपने आप को बता दीजिए, “अब पता है क्या होगा? अगले दस मिनट में बहाना बनाऊँगी।” और कर दीजिए। “उसके बाद पता है क्या है? उसके बीस मिनट में फिर मैं एक और बहाना बनाऊँगी।” और फिर इन सब बहानों का कुल मिलाकर के अंजाम एक ही होना है। वही अंजाम होना है जो उन बहानों का उद्देश्य है। क्या? यहाँ से चलो, कुछ-कुछ करो, करो, करो, करो, वापस यहीं आ जाओ। तो डिस्टेंस कवर्ड अ लॉट, डिस्प्लेसमेंट जीरो। तो ईगो यही चाहती है न।

ये दिखाई तो दे कि बहुत कुछ कर रही है, बदलने की कोशिश भी कर रही है, लेकिन ले-दे के ढाक के तीन पात, बदला कुछ नहीं वही रह जाओ। और एक मोरल एक्सक्यूज़ भी मिल गई।

प्रश्नकर्ता: यस सर, कि शायद मैं सेल्फ़िश नहीं हूँ।

आचार्य प्रशांत: “मैं सेल्फ़िश नहीं हूँ, मैंने कोशिश तो करी थी न! देखो, मैं यहाँ तक गई, फिर मैं यहाँ तक गई, फिर मैंने ये भी किया। मैं इतना कुछ तो करती हूँ दिनभर!" लेकिन ये सब कुछ करके आपने इन्श्योर क्या किया है? कि आप ले-दे के वापस वहीं आ गई हैं ताकि कुछ बदले नहीं। ये अपने ही ख़िलाफ़ हमारी साज़िश होती है।

प्रश्नकर्ता: नमस्ते आचार्य जी, मेरा प्रश्न इस पर है, "देयर इज़ नो वेव इन द माइंड दैट अराइज़ ऑन इट्स ओन। द माइंड इज़ डिपेंडेंट ऑन द वर्ल्ड एंड द वर्ल्ड इज़ डिपेंडेंट ऑन द माइंड।"

तो अगर ये एक विशियस सर्कल है, अगर मैं गीता को अपने जीवन में पूरा उतार लेना चाहती हूँ, तो क्या आप ये कहते हैं कि वो भी जो मुझे थॉट आया है, वो भी मुझे दुनिया से ही आ रहा है? मतलब मैं समझ नहीं पा रही हूँ।

आचार्य प्रशांत: गीता थॉट नहीं है। गीता अगर थॉट है, तो गीता भी वैसे ही फिर दुनिया की कोई चीज़ है, माने बाहर की कोई चीज़, जैसे कि कोई भी और थॉट होता है। है न? “देयर इज़ नो वेव इन द माइंड दैट इज़ इट्स ओन।” तो वैसे ही गीता को अगर आपने थॉट बना लिया, एक आइडिया बना लिया, एक प्रिन्सिपल बना लिया, तो आपने उसको भी एक फ़ॉरेन, एलियन, वर्ल्डली चीज़ बना लिया। और ज़्यादातर लोग यही गलती करते हैं, उनके लिए गीता क्या है? कमांडमेंट है, प्रिन्सिपल है, गाइड है, कुछ भी वो बोलेंगे। पर ले-दे के वो जो भी बोल रहे हैं, दैट रिड्यूसेज़ अस टू थॉट।

प्रश्नकर्ता: राइट।

आचार्य प्रशांत: कि गीता इज़ अ थॉट। वो ये भी बता सकते हैं कि गीता में ऐसा-ऐसा लिखा है, है न? कोई बोले कि "मैं गीता का ज्ञानी हूँ," तो उसको तो और अच्छा लगेगा ये बताना कि "गीता में ये लिखा है, गीता में ये लिखा है, सातवें अध्याय का तीसरा श्लोक ये है, ऐसा है, वैसा है" खूब बताना चाहेगा। गीता नॉट अ थॉट।

प्रश्नकर्ता: नहीं। बट अगर मैं गीता की टीचिंग्स पर या जो आप पढ़ा रहे हैं, उस पर चलना चाहती हूँ, इफ़ यू आर सेइंग दैट एवरीथिंग कम्स फ़्रॉम द वर्ल्ड, तो गीता सरपासेज़ द वर्ल्ड?

आचार्य प्रशांत: सरपासेज़ द वर्ल्ड इन द सेंस, दैट व्हाटएवर कम्स फ्रॉम द वर्ल्ड बिकम्स अ थॉट। गीता इज़ द अवेकनिंग टू लुक ऐट ऑल योर एग्ज़िस्टिंग थॉट्स।

गीता थॉट नहीं है। गीता कहती है, "थॉट तो तुम्हारे पास पहले ही बहुत सारे हैं, उन थॉट्स को समझो भी तो। मैं ऐसे आँख बंद करके बैठा हूँ, ठीक है? ये बुकस्टोर है, बहुत अच्छा बुकस्टोर है। और मेरे पास पहले ही ये इतनी किताबें हैं, ये सब मेरी हैं, मेरे पास पहले ही मेरी हैं, ठीक है? मैं इनका क्या इस्तेमाल करता हूँ? मैं इसको लेता हूँ, इसके सिर पर मार देता हूँ। इसको लेता हूँ, उसका ट्रे टेबल बना देता हूँ, मैं यही सब कर रहा हूँ।

अब मान लीजिए कि ये गीता है, पकड़िए।

प्रश्नकर्ता: जी।

आचार्य प्रशांत: आप गुरु हैं मेरी, बैठा मैं ऐसे ही हूँ लेकिन। और क्योंकि मैं बहुत सारा ज्ञान लेकर उसके साथ गड़बड़ तो कर ही रहा हूँ, आँख बंद है तो जो भी ज्ञान होगा, उससे गड़बड़ ही की जाएगी उस ज्ञान से।

तो ये सारा ज्ञान है मेरा, और मैं ऐसे आँख बंद करके बैठा हूँ। है मेरे पास पहले ही बहुत सारा। अब मैं आपके पास, "गुरुजी, मुझे गीता-ज्ञान दीजिए, दीजिए, दीजिए!"

(प्रश्नकर्ता किताब को आचार्य जी के हाथ में दे देती हैं)

आँख अभी भी बंद है मेरी, लेकिन हाथ में क्या आ गई? और पहले भी आँख बंद थी, हाथ में ये सब कुछ था (किताबों की ओर इंगित करते हुए), अभी भी आँख बंद है, हाथ में गीता भी आ गई। तो मैं गीता का क्या इस्तेमाल करूँगा? ऐसे कर लूँगा (किताब से आँखों को ढाँकते हुए) ताकि आँख और बंद हो जाए। तो

गीता एक किताब नहीं है, गीता एक खुली हुई आँख है। गीता किताब नहीं है, गीता सिद्धांत नहीं है, गीता विचार नहीं है।

प्रश्नकर्ता: ये जो अवेकनिंग हुई, ये भी वर्ल्ड से हुई मुझे?

आचार्य प्रशांत: हाँ हुई, पर उसके बाद आप इसको इसलिए (किताब से आँखों को ढाँकते हुए) इस्तेमाल नहीं कर सकते न।

प्रश्नकर्ता: हाँ, नहीं।

आचार्य प्रशांत: तो जो भी आपके पास बातें या विचार आते हैं इस उद्देश्य से कि आप अपनी आँख खोलें, वो ये कहते हैं कि "हम तुम्हारे पास आए हैं कि तुम अपनी आँख खोल लो।" और अपनी आँख खोलने के बाद अब ये ग़ज़ब मत कर देना कि खुली हुई आँख के सामने हमें रख दिया। नहीं तो खुली हुई आँख के सामने भी अगर हमें रख दोगे तो आँख क्या हो गई?

प्रश्नकर्ता: बंद हो गई।

आचार्य प्रशांत: तो ये सब जितनी भी गीताएँ हैं, दुनिया की जितनी भी अच्छी किताबें हैं, या कि सत्संगति है, या गाइड है, टीचर हैं कोई आपके, वो आपकी ज़िंदगी में इसलिए नहीं आते कि वो एक थॉट बन जाएँ। क्योंकि थॉट तो इंपोर्टेड ही होता है। जैसे लिखा है न, थॉट तो बाहर से ही आता है। वे आपकी ज़िंदगी में एक और इंपोर्टेड थॉट या एक और एलियन आइडिया बनने नहीं आते, जिसको आप "अपना" बोल सकें। वो आपकी ज़िंदगी में आते हैं ताकि आपको किसी इंपोर्टेड थॉट की अब ज़रूरत ही न पड़े।

तो गीता आती है आपकी आँख खोल देने के लिए, उसके बाद आपको किसी सहारे की ज़रूरत नहीं पड़ेगी, आप ख़ुद ही काफ़ी हैं। ठीक है?

प्रश्नकर्ता: समझ गई। थैंक यू सर।

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, मेरा प्रश्न है कि मैंने जहाँ से शुरू किया था अपनी जर्नी को, मैं आज अपने आपको वहीं देख रही हूँ, और मुझे बहुत सारा डर, बहुत सारा आत्म-संशय, आत्म-विश्वास जो है मेरा, खो चुका है ख़ुद का। मुझे लगता है कि मुझसे अब कुछ भी नहीं होगा। तो मैं यही जानना चाह रही थी कि मैं अब क्या करूँ?

आचार्य प्रशांत: आपने जब खो दिया होता तो ये संशय किसको होता, और ये डर किसको लगता? और इतने विश्वास के साथ ये कौन कह सकता कि मुझमें आत्म-विश्वास नहीं है? आपने सब खो दिया होता तो आपने ये सब बातें भी तो खो दी होती न? ये सब बातें तो पकड़ के रखी हैं, इनको कहाँ खोया आपने? कहाँ खोया?

हाँ, ये ज़रूर हो रहा होगा शायद कि जो डिज़ायर्स रही होंगी पहले, वो अब पूरी होती शायद न दिखाई दे रही हों, या उन डिज़ायर्स में कुछ हॉलोनेस दिखने लगी हों कि वो इस लायक ही नहीं हैं कि मैं उनका पीछा करूँ, पर्स्यू करूँ। वो हो सकता है। लेकिन देखो, ईगो ऐसी चीज़ नहीं होती जो सब कुछ खो दे कभी, उसकी हैसियत ही नहीं है सब कुछ खोने की। क्योंकि अगर ईगो है, तो वो कुछ-न-कुछ, बहुत कुछ तो वो पकड़कर रखेगी ही रखेगी। हाँ, इतना ज़रूर है कि पहले जो पकड़ रखा था, अब हो सकता है उससे कोई अलग विषय पकड़ ले, कोई दूसरा ऑब्जेक्ट पकड़ ले।

वो ये तो कर सकती है। पर अगर कोई आकर बोले, उदाहरण के लिए "मुझे इतना दुख मिला, मुझे इतना दुख मिला कि मैं चिथड़े-चिथड़े हो गया, मैं टूट गया बिल्कुल।” तो झूठ बोल रहा है न। क्या ईगो ऐसी चीज़ है जो टूटना बर्दाश्त कर सके?

प्रश्नकर्ता: अगर टूट जाएगी तो?

आचार्य प्रशांत: अगर टूट गई होती, तो इतना दुख भी नहीं होता। तो ये हो सकता है कि आपके जो डिज़ायर्ड ऑब्जेक्ट्स थे, अब आपके पास वो नहीं है। लेकिन जब तक भीतर वो मैं बैठा हुआ है — अहंकार — तब तक ये नहीं हो सकता कि अब आपके पास कोई ऑब्जेक्ट नहीं है।

वो जो भीतर बैठ के ये भी कह रहा है कि "मैं बर्बाद हो गया," वो बस यही कह रहा है कि जो ऑब्जेक्ट मुझे अच्छा लगता था, मुझे वो नहीं मिला। लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि उसके पास अब कोई ऑब्जेक्ट नहीं है। इसका मतलब ये है कि वो अभी भी कोई और ऑब्जेक्ट पकड़ कर बैठा ही हुआ है।

तो सारे दुख की वजह ये नहीं होती कि ऑब्जेक्ट नहीं है। उसकी वजह होती है कि ईगो अभी भी है, डिज़ायर अभी भी है। और "मुझसे कुछ नहीं होगा" ये आईडिया अभी भी है।

“मुझे पक्का भरोसा है, मैं कुछ नहीं कर सकती।” तुम अगर कुछ नहीं कर सकती, तो ये भरोसा भी क्यों कर रही हो? और जितनी हिम्मत के साथ, जितनी दृढ़ता के साथ ये भरोसा कर रही हो, हो सकता है उतनी हिम्मत, उतनी दृढ़ता से कुछ और भी हो जाए। तो जो भीतर बैठ के ये सब पका रहा होता है न, उससे दो-चार सवाल पूछा करो, "इतना कॉन्फिडेंस कहाँ से आता है तुझमें?”

प्रश्नकर्ता: डिपेंडेंसी ज़्यादा अभी लग रही है, जब से कुछ घटनाएँ हुई हैं, उसके बाद से।

आचार्य प्रशांत: डिपेंडेंसी, कोई सामने वाला आकर एनफोर्स तो करता नहीं न। डिपेंडेंसी इज़ अ बारगेन। इट्स अ कॉन्ट्रैक्ट। इट्स अ डील।

डिपेंडेंसी का तो यही मतलब होता है कि आप अभी ये खड़े हैं, आप इनके ऊपर ऐसे लद जाइए, बोलिए, "आई एम डिपेंडेंट ऑन यू।" ठीक है? आप इन पर ऐसे लीन करिए, लद जाइए, "आई एम डिपेंडेंट ऑन यू।" कोई बर्दाश्त करेगा? कोई डील होगी तो ही बर्दाश्त करेगा।

तो डिपेंडेंसी कोई डिज़ीज़ नहीं होती, कोई दुर्घटना नहीं होती, कोई अनायास या संयोगवश घटी दुर्घटना, रैंडम इवेंट नहीं होती है डिपेंडेंसी। डिपेंडेंसी ये होती है कि मैं तुम्हारे ऊपर आकर ऐसे मान लीजिए, लद जाऊँगी, डिपेंडेंट हो जाऊँगी। तुम मुझे झेलना, और बदले में मैं तुमको फलानी चीज़ दे दूँगी। तो डिपेंडेंसी तो व्यापार है। वरना कोई किसी को अपने ऊपर यूँ ही फ़्री में, मुफ्त में डिपेंडेंट थोड़ी बनाएगा।

तो आप जब बोलती हैं कि आपकी डिपेंडेंसीज़ बहुत हैं, मतलब आप किसी पर डिपेंडेंट हैं, तो इसका मतलब ये है कि आपके पास उसको देने के लिए भी बहुत है। और जब आपके पास उसको देने के लिए इतना है कि आपकी डिपेंडेंसी वो बर्दाश्त कर लेगा, तो उतना उसको देने की जगह ख़ुद को ही दे लीजिए न। उतना आप अगर ख़ुद को दे लें, तो वो बेहतर आरओआई मिलेगा उससे।

दुनिया में देखिए, फ़्री लंचेज़ नहीं होते। आप किसी पर डिपेंडेंट हैं, तो आपसे कुछ ले ही रहा होगा। जितना आप उसको देते हो, उतना ख़ुद को दे लो। उससे बेहतर नतीजे मिलेंगे।

उतना इन्वेस्टमेंट ख़ुद में कर लो, जितना आप उसको हर महीने देते रहते हो।

प्रश्नकर्ता: और जैसे कि एक दायरा सा बन गया है कि अगर इसके बाहर गए, तो कुछ नहीं हो पाएगा। ये दायरा ही सेफ है। यहीं रहना है।

आचार्य प्रशांत: हाँ, वो दायरा ईगो का दायरा है न। आप उसके बाहर गए, कुछ नहीं होगा। आपने बाहर जाकर देखा है क्या? आपको कैसे पता, आप इतना प्रेडिक्शन कैसे कर पा रही हैं?

प्रश्नकर्ता: मन में यही आ रहा है।

आचार्य प्रशांत: मन तो पता है न किसका गुलाम होता है? किसका?

प्रश्नकर्ता: ईगो।

आचार्य प्रशांत: तो विचार तो सारे वही आएँगे जो अहंकार चाह रहा होगा। आप इसमें क्या कर सकते हैं? थोड़ा देखा करिए कि भीतर जो प्रोसेस है, वो चलता कैसे है। फिर समझ में आएगा कि हाँ, जैसा लग रहा है मामला उससे अलग है थोड़ा।

प्रश्नकर्ता: थैंक यू सर।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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