एक ठीक रखो, सब ठीक रहेगा || (2015)

Acharya Prashant

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एक ठीक रखो, सब ठीक रहेगा || (2015)

प्रश्नकर्ता: सर, अपने जीवन में सब कुछ बनाए कैसे रखें? ऐसे कैसे जीयें, कि सब कुछ ठीक रहे?

आचार्य प्रशांत: मान लो कि तुम अपने किसी दोस्त के साथ हो। तुम्हें एक किस्सा सुनाता हूँ, और ये मेरे साथ वाकई हुआ है। मैं अपने किसी दोस्त के साथ था, ठीक है? मिलने आया था मुझसे, बड़े दिनों बाद मिल रहे थे। तो हम हँस रहे हैं, मज़े ले रहे हैं। हँसी-हँसी में उसने कहा, “चलो किचन में चल कर कुछ बनाएँ।” ठीक है? अब दोनों घुसे किचन में, कुछ बना रहे हैं; बनाना दोनों को ही नहीं आता, तो प्रयोग कर रहे हैं। और प्रयोग करते-करते शक्कर गिरा दी, तेल गिरा दिया। कोई चीज़ थी, वो जो बर्नर था उसके ऊपर डाल दी, और बर्नर चोक (जाम) हो गया।

और हम हँस रहे हैं। सब ग़लत हो रहा है जो कर रहे हैं, और हम हँस रहे हैं। और उसके बाद जो मसाला निकल कर आया, जो प्रोडक्ट निकल कर आया, वो इतना ज़बरदस्त, कि पूछो मत। पुलाव में च्यवनप्राश डाल दिया, और हँस रहे हैं। और जितना गड़बड़ होता जा रहा है, उतना ज़्यादा हँस रहे हैं। सब कुछ ग़लत हो रहा है, और हम मस्त हैं। क्यों मस्त हैं? सब ग़लत हो रहा है, फिर भी हम मस्त हैं। क्यों मस्त हैं? जल्दी बोलो।

अरे दोस्त के साथ हैं, इसलिए मस्त हैं। अकेले-अकेले इतनी गड़बड़ हो जाती, तो मुँह उतर जाता। अभी यार साथ में है, बाहर ग़लतियाँ हो भी रही हैं, तो क्या फ़र्क़ पड़ता है? अब बल्कि जितनी ग़लतियाँ होंगी, उतना ज़्यादा मज़ा आएगा। क्यों?

प्र: क्योंकि साथ है।

आचार्य: दोस्त साथ में है न। सब कुछ नहीं मेनटेन (अनुरक्षित) करना होता है, ‘एक’ मेनटेन (अनुरक्षित) करना होता है। “एक साधे, सब सधे”। तुम्हारा सवाल ही ग़लत है कि, "सब कुछ कैसे मेनटेन करें?" जो सब कुछ मेनटेन करना चाहता है, वो कुछ मेनटेन नहीं कर पाता। और जो ‘एक’ पर ध्यान देता है, उसका सब ठीक हो जाता है। तुम्हारे साथ दिक़्क़त यही है कि तुम ‘एक’ को जानते नहीं, बाकी तुम्हें दस चीज़ें आयोजित करनी हैं।

‘एक’ को पकड़ो, ‘एक’ को। फिर बाहर जो भी चल रहा होगा, मज़ेदार होगा। ज़िंदगी में कुछ ऐसा रखो, जो बिलकुल पक्का हो, उसके बाद ऊँच-नीच, ये सब तो चलती रहती है। ये तो खेल है ज़िंदगी का, उसकी बहुत फ़िक्र नहीं की जाती। कभी अच्छा, कभी बुरा, कभी कैसा। नहीं आ रही बात समझ में? क्या समझ में आ रहा है?

किसके साथ रहो? किस दोस्त की बात कर रहा हूँ? दोस्त कोई भी हो सकता है बेटा, ‘दोस्त’ ही तो बोला है। बस पक्का दोस्त हो, जिसपर पूरा भरोसा हो कि कभी धोखा नहीं देगा। ज़रा-सा भी ये शक़ नहीं होना चाहिए कि ये धोखा दे देगा। जिसका पता हो कि उसकी ताक़त इतनी है कि वो कभी तुम्हें छोड़ कर नहीं जाएगा, वही हो सकता है दोस्त। अब तुम देख लो कि तुम्हारे पास ऐसा कोई दोस्त है क्या? चैन तुम्हें तभी मिलेगा जब ऐसा दोस्त मिल जाएगा।

मैं तुम्हारे अग्गु-पिच्छू दोस्तों की बात नहीं कर रहा हूँ, जो ख़ुद ही चक्कर खा-खा कर गिरते रहते हैं। मैं किसी ऐसे की बात कर रहा हूँ, जो इतना स्थिर हो, इतना मजबूत, इतना धैर्यवान, इतना शांत, कि तुम जब भी गिर रहे हो, वो मौजूद हो तुम्हें सहारा देने के लिए। और इतना प्रेमी, इतना वफ़ादार कि तुम जहाँ भी हो, वो तुम्हारे साथ रहे, तुम्हें कभी अकेला ना छोड़े। ऐसा कोई है अगर ज़िंदगी में, तो ज़िंदगी मस्त रहेगी, नहीं तो त्रस्त रहेगी। है कोई?

प्र: सर, भगवान।

आचार्य: अब वो तुम जानो। पर कोई तो होना चाहिए। अगर वो नहीं है, तो तुम्हारी हालत बहुत भिखारियों जैसी रहेगी। और भिखारी भी ‘पागल भिखारी’। तुम लोग इतनी ख़ुफ़िया निगाहों से मेरी ओर क्यों देखते हो? मैं बहुत सीधी-साधी बात कर रहा हूँ। क्या अड़चन है? क्या समझ में नहीं आता?

प्र: बहुत कुछ समझ में आने के बाद भी समझ में नहीं आता, हमें पता भी नहीं चलता।

आचार्य: वो तो बेटा अब ऐसे ही है कि तुम्हारे सामने बादाम रखा हो, और तुम कहो कि, “सब बता दिया इसके बारे में, हार्डनेस (कठोरता) कितनी है, रस कितना है, स्वाद कैसा है, सब बता दिया, और सब जानने के बाद भी लेकिन कुछ-भी स्वाद आया नहीं।” स्वाद कब आएगा?

प्र: जब खाएँगे।

आचार्य: खाओगे बादाम, तो आएगा रस। तुम लोग अपना वाट्सएप्प बना लो – बादाम ताड़ो नहीं, पाड़ो। (व्यंग्य करते हुए) तुम लोग सिर्फ़ ताड़ना जानते हो, पाड़ना नहीं। दूर-दूर से देखते हो, जैसे कोई स्विमिंग (तैराकी) सीखने गया हो, और पानी को दूर-दूर से देखे। (एक श्रोता की ओर इंगित करते हुए) अब जैसे आयुष आया आज, बोलता है, “सर, आपने स्विमिंग पूल (तरण ताल) तो दिखा दिया है, पर उसमें कूदेंगे हम तभी, जब पहले हमें आप तैरना सिखा दें।”

“पहले बाहर-ही-बाहर तैरना सिखाइये, जब एक्सपर्ट (निपुण) हो जाएँगे, जब पक्का हो जाएगा कि स्विमिंग पूल में डूबेंगे नहीं, हम तभी कूदेंगे। नहीं, पहले गारन्टी दीजिए न! हम जैसे हैं, वैसे ही रहे-रहें, पहले हमें आप बिलकुल एक्सपर्ट बना दीजिए, फिर कूदेंगे।” तब तक क्या करेंगे? “तब तक हम निहारेंगे।”

ताड़ो नहीं पाड़ो, सब जान जाओगे।

प्र: सर, ये आसान नहीं है, बहुत कठिन है।

आचार्य: अरे बहुत कठिन है भाई। हम कहाँ कह रहे हैं आसान है! तुम्हारे लिए कुछ आसान हो सकता है? तुम्हारे लिए कुछ भी आसान है? साँस भी लेते हो, तो कोशिश कर-कर के, दम लगा कर, ज़ोर लगा कर, ज़ोर लगा कर आयी साँस। (एक दूसरे श्रोता की ओर इंगित करते हुए) अवनीश को पूरा शक़ है कि अगर ये ज़ोर ना लगाए, तो तुरंत मर जाएगा। साँस आएगी-जाएगी नहीं। साँस क्यों चल रही है? क्योंकि अवनीश ज़ोर मारता है। खाना क्यों पच रहा है? क्योंकि अवनीश उसमें अपनी केमिस्ट्री (रसायन शास्त्र) लगाता है। अब ऐसे लोगों को बदहज़मी नहीं होगी, तो क्या होगा?

केमिस्ट्री का कोई प्रैक्टिकल आज तक ठीक किया है? सब उल्टा-पुल्टा, नकली। अब ऐसे में अगर तुम्हें कह दिया जाए, “अपना खाना ख़ुद पचाओ। तुम बताओ कौन-सा एंज़ाइम डालना है? कितना डालना है? कितना तापमान? कितनी देर तक? पेट में पचेगा या आँतों में पचेगा? कहाँ उसका एबजोर्पशन (अवशोषण) होगा?” तो क्या होगा तुम्हारा? क्या होगा? पच चुका! पता ही नहीं चलेगा कि क्या अंदर जाना था, क्या बाहर आना था। और जो बाहर आना था, वो कहाँ से बाहर आना था। यहाँ से आना था, कि क्या होना था, सब उल्टा-पुल्टा।

सोते समय बड़ी घबराहट-सी होती होगी न कि, "साँस आएगी-जाएगी कैसे? हम सो गए, तो साँस फिर?" मुश्किल काम है! तुम करोगे, तो सब मुश्किल है। नहीं तो बादाम रखा हो, तो बंदर भी खा जाता है। तुम क्यों सोचने में लगे हो कि – हम ये करें, कि वो करें, कि ना करें। छोटे बच्चे को देखा है? उनके सामने कोई खाने की चीज़ रखी हो, तो वो ये नहीं देखते फिर कि आंटी के घर की है, या अंकल के घर की है। फिर वो ये नहीं देखते कि चचा बुरा तो नहीं मानेंगे, फिर वो ये नहीं देखते कि किसके लिए ला कर रखी गयी थी। अच्छी लगी तो…?

श्रोतागण: खा ली।

आचार्य: और अच्छी नहीं लगी तो? “कर लो जो करना है, नहीं खाएँगे।” अब बादाम रखा है, अच्छा लग रहा है तो खा लो, शरमा क्यों रहे हो? असल में बेचारा तुलना कर-कर के खाता है कि कोई अगल-बगल है या नहीं।

प्र: नहीं सर, अब बादाम उठा कर खा लिया, तो डाँट पड़ सकती है। पहले तो बच्चे थे, तो उस समय कोई कुछ कहता नहीं था। अब कहेंगे कि, “पूछना चाहिए था।”

आचार्य: अब तुमने बादाम खा लिया, और तुम्हें मज़ा आ रहा है, और बाहर वालों ने खाया नहीं है। अब वो गरिया रहे हैं, मज़ा आएगा कि नहीं आएगा? चिढ़ाने का मन हो, तो एक-दो और फाँको, और जब लगे कि प्रेम उठ रहा है, करुणा उठ रही है कि ये बेचारे तो जानते ही नहीं हैं, सिर्फ़ परेशान हो रहे हैं, तो और निकालो, उनसे कहो, “आप भी लीजिए।” और ना लें, तो ख़ुद खा जाओ।

“अच्छा है, बच गया, हम ही खा लेते हैं।” खाओ और बाँटो, क्या दिक़्क़त है?

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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