आचार्य प्रशांत: अपने आपको कैसे देखना है? अपने आपको भी अपने लिए एक माध्यम की तरह देखना है। मेरे लिए जो स्थान, मूल्य और औचित्य पूरे जगत का है वही स्थान, मूल्य, औचित्य मेरे लिए मेरे अपने तन और मन का भी है।
जैसे यह जगत ही रास्ता है मुक्ति का और मुक्ति के लिए ही दूसरा नाम है राम को पाना। उसी तरह मेरे लिए- मैं भी माने मेरा भौतिक अस्तित्व, मेरा तन-मन भी एक माध्यम है राम को पाने का। यह मेरा मुझसे संबंध है। मैं क्यों हूँ? मैं इसलिए हूँ ताकि अपने माध्यम से मैं मुक्ति को, माने राम को पा सकूँ। मैं अपने लिए अपना साधन हूँ। मैं स्वयं के लिए मुक्ति का माध्यम हूँ। यह मेरा मुझसे रिश्ता है।
तो मैं अपने साथ बर्ताव भी वैसा ही करूँगा जैसा किसी माध्यम के साथ किया जाता है। माध्यम के साथ बड़ा विशिष्ट व्यवहार किया जाता है। बड़ा एक खास रिश्ता रखा जाता है। माध्यम को ठुकराया नहीं जाता, नकारा नहीं जाता और माध्यम को मंज़िल भी नहीं मान लिया जाता। वही रिश्ता शरीर के साथ रखना है। शरीर के अंतर्गत मेरा पूरा अस्तित्व, मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार सब आ जाते हैं। मेरी सारी शक्ति, सारे संसाधन सब शरीर के ही अंतर्गत हैं। तो इन सब से जो रिश्ता रखना है, वह इस एक शब्द में समाहित है कि शरीर के साथ क्या रिश्ता होगा।
ना तो शरीर को नकारना है। नहीं शरीर को मंज़िल बना लेना है। और हम इस शरीर की नहीं बात कर रहे। हमने कहा शरीर से संबंधित जो कुछ भी है। आपकी बुद्धि, आपके संसाधन, आपका रुपया-पैसा, आपकी स्मृति उन सबके लिए शरीर एक साझा नाम है। उन सबके साथ जो संबंध है वह यही है कि वह माध्यम बने मुक्ति का।
अगर हम इसको देख पाए, बड़ी रोचक बातें उभरती हैं।
साहब कह रहे हैं-
मैं बोरी मेरे राम भरतार।। ता कारण रचि करो श्रृंगार।।
शरीर का श्रृंगार करना है। हाँ करना है। किस लिए? प्रतीकों को समझिएगा। किस लिए? राम के लिए। शरीर का श्रृंगार करना है अगर श्रृंगार राम को पाने में उपयोगी होता है। तो जगत को लुभाने के लिए अपना श्रृंगार नहीं है। राम कसौटी है। कुछ भी ठीक है अगर राम के लिए।
जगत के लिए करा श्रृंगार तो व्यर्थ हो गया। बाज़ारू हो गया। राम के लिए अगर शरीर को संभाला सहेजा फिर ठीक है। माध्यम का ख़याल तो रखना पड़ता है ना। बड़ी उपयोगिता है माध्यम की। माध्यम ना हो तो मंज़िल तक कौन ले जाए? मंज़िल ही कसौटी है माध्यम के मूल्य की। मंज़िल तक ले जाता हो माध्यम तो मूल्य है उसका। मंज़िल तक नहीं ले जाता तो क्या मूल्य है?
इसी तरह राम कसौटी है श्रृंगार की। जो भी तुम श्रृंगार कर रहे हो और श्रृंगार यही नहीं होता कि चेहरे पर शरीर पर कोई प्रसाधन लगा लिया। स्वयं को दौलत से सुसज्जित करना भी एक तरह का श्रृंगार ही है। इधर-उधर से मन में ज्ञान का संचय करना भी एक तरह का श्रृंगार ही है। वो सब बहुत अच्छा है अगर राम तक, मुक्ति तक ले जाता है तो ‘ता कारण रचि करो श्रृंगार।’ कारण राम होने चाहिए।
जो भी कर रहे हो अगर उसके कारण में राम है तो ठीक है। कारण माने उत्पत्ति, मूल। या तो मूल में राम हो या मंज़िल में राम हो। मूल ही मंज़िल होता है एक ही बात है। अगर राम के लिए है तो ठीक है।
जो भी गति है जीवन की अगर वह राम के लिए है तो गति कैसी भी है, ठीक है। और अगर राम के लिए नहीं है गति तो व्यर्थ है। फिर दुनिया के बाज़ार में बिकने के लिए तैयार हो रहे हो।
बहुत तैयारी करी जा रही है। बहुत शिक्षा ली जा रही है, बहुत ज्ञान संचित किया जा रहा है। चेहरे को बहुत चमकाया जा रहा है। शरीर को बड़ी ताकत दी जा रही है, बहुत प्रतिष्ठा अर्जित करी जा रही है। यह सब किस लिए करी जा रही है? यह माल तैयार किया जा रहा है। दुनिया में अच्छा बिकेगा। जो दुनिया में अच्छा बिकेगा माल वो राम की मंज़िल तक थोड़ी ही पहुँचेगा। राम कसौटी है। राम तक पहुँचने के लिए जो भी तैयारी लगती हो आवश्यक हो वह करी जाए।
पर उन तक जो चीज़ नहीं लेकर जाती उस चीज़ पर अगर एक क्षण भी बिताया जा रहा है तो वह व्यर्थ है। इसीलिए सतत ध्यान की आवश्यकता होती है। सतत ध्यान की, प्रतिपल अपने आप को देखना पड़ता है कि जो कर रहे हो वह किसके लिए कर रहे हो। जब हम कहते हैं देखो किस केंद्र से तुम्हारा कर्म है। तो जो केंद्र होता है वही मंज़िल भी होता है।
हमने बहुत बार बोला है आदि ही अंत है। आरंभ ही समाप्ति है। आगाज़ ही अंजाम है। प्रतिपल अपने आप को इसीलिए देखना होता है कि जो कर रहा हूँ वो किसके लिए कर रहा हूँ। राम के लिए कुछ हो रहा है तो जो भी हो रहा है अच्छा ही है। और उनके अलावा किसी के लिए हो रहा है चेतना का नाश है। बाज़ार में बिकने वाला जड़ पदार्थ बन गए।
सतत ध्यान का यही अर्थ होता है लगातार जानते रहो कि तुम्हारा श्रृंगार किसके लिए है। मैंने कहा था कि बहुत रोचक बातें उभर कर आएँगी। तो राम कसौटी हैं। महानता की क्या कसौटी है? राम। सुंदरता की क्या कसौटी है? राम। सामर्थ्य शक्ति की क्या कसौटी है? राम। मैं महान कहलाया जा रहा हूँ। हाँ, ठीक है अगर राम के काम में महान कहलाए जा रहे हो। मात्र वही काम महान हो सकता है।
महानता की ओर अगर तुम बढ़ रहे हो और उस रास्ते की मंज़िल राम है तो यह महानता सार्थक हो गई। पर तुम्हारी महानता अगर मात्र तुम्हारे लिए है तो वो महानता नहीं बड़ी क्षुद्रता है। अपने लिए शक्ति भी संचित कर सकते हो। अगर वह शक्ति राम तक ले जाती हो फिर ठीक है। जैसे कह रहे हैं ना कि राम के लिए श्रृंगार है। उसी तरह राम के लिए तलवार भी हो सकती है। राम के लिए व्यापार भी हो सकता है। राम के लिए जो कुछ है वह ठीक है।
जगत में जो कुछ भी अच्छे से अच्छा, ऊँचे से ऊँचा हो सकता है वह आप करें जिनको आप आमतौर पर संसारियों के काम कहते हैं। आप भी वह काम कर सकते हो बेशक करो। अंतर बस यह है कि संसारी वो सारे काम अपने लिए करता है। आप वो सारे काम राम के लिए करो। संसारी पैसा कमाता है, आप भी कमा सकते हो, आप राम के लिए कमाओ तब।
पैसे में कोई दिक्कत नहीं है। जीवन के लक्ष्य को भूल जाने में दिक्कत है। जीवन का लक्ष्य मुक्ति है। मुक्ति के लिए अगर आप पैसा कमा रहे हो तो आप कमाओ। आम संसारी से ज़्यादा कमाओ। श्रृंगार करने में कोई दिक्कत नहीं है, आप श्रृंगार करो, आम स्त्री पुरुष से ज़्यादा करो, बशर्ते आपका श्रृंगार राम के लिए हो।
कोई काम नहीं बुरा है। जिसके लिए वो काम करा जा रहा है उसकी खबर होनी चाहिए। राम के लिए कर रहे हो या यूँ ही?
समझ में आ रही है बात?
कोई भी कर्म बता दो। मैं कहूँगा बिल्कुल अच्छा हो सकता है अगर राम के लिए किया जा रहा है तो। अध्यात्म किसी कर्म को ना वर्जित करता है और ना अनिवार्यतः अनुमोदित करता है। राम के लिए है तो काम ठीक है राम के लिए नहीं है तो नहीं है ठीक। राम के लिए नहीं है तो अच्छे से अच्छा दिखने वाला, ऊँचा, श्रेष्ठ, नैतिक कहा जाने वाला काम भी बहुत पतित है। राम के लिए है तो जो है सब बढ़िया है। समझ में आ रही है बात?
शृंगार माने स्वयं को और आभरित करना। स्वयं को और बढ़ाना स्वयं को और आकर्षक बनाना। आमतौर पर हम कहेंगे यह काम आध्यात्मिक लोगों का तो नहीं लगता। आध्यात्मिक आदमी स्वयं को और क्यों बढ़ाएगा? क्यों स्वयं को और रोचक और आकर्षक बनाएगा। बिल्कुल बना सकता है राम के लिए। अगर मामला राम का हो, अगर बात मुक्ति की हो तो आध्यात्मिक व्यक्ति संसारी से ज़्यादा संसारी हो सकता है। संसारी तो अगर भोगता भी है तो डर-डर के, उसके भोग में भी सीमाएँ होती हैं। राम के बंदे को अगर लग गया कि किसी विशेष प्रकार के भोग से राम मिलेंगे, स्पष्ट दिखने लगा ऐसा तो फिर उसको रोका नहीं जा सकता।
वो कहेगा कोई भी विषय जो मुझे राम तक ले जाता है मैं उस विषय में कैसे रोक-टोक कर दूँ? वो विषय कुछ भी हो सकता है। वो विषय हो सकता है जाकर के किसी की संगत में बैठ जाना। वो विषय हो सकता है नाचने लग जाना वो विषय हो सकता है कुछ लिखने लग जाना। कोई भी विषय हो सकता है।
संसारी तो जो भी करता है वो नियमानुसार करता है। सीमाओं में करता है। मंदिर भी जाता है संसारी तो घंटे भर को जाएगा फिर वापस आ जाएगा। कहेगा इसके लिए इतनी ही सीमा बंधी हुई है। वो कभी मंदिर में जाकर बस नहीं जाएगा। उससे पूछो मंदिर इतनी ही पवित्र पावन सुंदर प्यारी जगह है तो जाकर मंदिर में बस क्यों नहीं जाता? नहीं नहीं नहीं क्योंकि बसा हुआ तो वो अपने घर में ही है। उसका केंद्र तो उसका अपना घर उसकी चार दीवारें हैं। मंदिर में वो थोड़ी देर को जाता है। मंदिर में भी उसने सीमाएँ लगाई, इतनी देर को मंदिर को जाना है।
पर राम के प्रेमी को अगर दिखने लगा कि मंदिर से काम बन जाता है तो हो सकता है कि मंदिर में चौबीस घंटे को बस जाए। वो फिर लौटेगा नहीं। और जो बात मंदिर पर लागू होती है वह किसी नदी पर भी लागू होती है, पहाड़ पर भी लागू होती है, बाग पर भी लागू होती है, श्मशान पर भी लागू होती है। उसको जहाँ लगा कि यहाँ पर बस जाने से मुक्ति मिल जाएगी वो वहाँ पर बस ही जाता है।
हरमन हेस की सिद्धार्थ है। सिद्धार्थ का मित्र है गोविंद। सिद्धार्थ उसका केंद्रीय चरित्र है, सिद्धार्थ का मित्र है गोविंद। और दोनों बड़े साहसी और जिज्ञासु जवान लड़के हैं। दोनों एक साथ घर से निकलते हैं अपने कि जैसी ज़िन्दगी सब जी रहे हैं हमें वैसे नहीं जीनी है। पता तो करें दुनिया क्या चीज़ है। ऐसे नहीं खप जाएँगे दुनिया में।
सिद्धार्थ किसी उच्च कुलीन ब्राह्मण परिवार से है। उसके पिता उसे रोकने का प्रयास भी बहुत करते हैं, सिद्धार्थ अडिग रहता है। यह दोनों निकल पड़ते हैं। कहानी कहती है दोनों को गौतम बुद्ध मिल जाते हैं। दोनों को अपने रास्ते में साक्षात गौतम बुद्ध मिल जाते हैं और गौतम बुद्ध के साथ उनके भिक्षुओं ये पूरी भीड़ है, कारवां है। गोविंद कहता है मुझे मिल गई मंज़िल साक्षात बुद्ध मिल गए यहाँ तो मेरे प्रश्नों के उत्तर मिल ही जाने हैं।
सिद्धार्थ कहता है क्या स्वयं बुद्ध को अपने प्रश्नों के उत्तर ऐसे मिले थे? इतना आसान है क्या कि उत्तर मिल जाए? वो कहता है कर्मफल का सिद्धांत क्या व्यर्थ जानना है? बुद्ध ने तो इतना प्रयास करा, इतनी मेहनत करी तब उन्हें उत्तर मिले। मैं ऐसे ही कोई उनकी एक दो बात सुन लूँगा तो मुझे उत्तर मिल जाएँगे, बोला ऐसे नहीं होगा मेरा रास्ता शायद कुछ और होगा।
गोविंद रुक जाता है बुद्ध के पास। सिद्धार्थ आगे निकल जाता है। सिद्धार्थ आगे जाता है, सोचो साक्षात बुद्ध है उनको छोड़ के आगे निकल जाता है। वो आगे जाता है उसको एक वेश्या मिल जाती है। बड़ी नगर की प्रतिष्ठित वेश्या और उसके पास अपना पूरा एक महलनुमा घर है और बहुत पैसे हैं। सिद्धार्थ उसके पास बस जाता है। हालांकि बसने से उसे कुछ उत्तर नहीं मिल जाते दुख ही मिलता है। कुछ दिनों बाद वो पाता है कि उसको भारी ऊब पैदा हो रही है। वो पाता है कि उसकी चेतना का पतन हो गया है और एक संतान पैदा हो गई है और कमला की मृत्यु भी हो जाती है।
वहाँ से भी वह छोड़ के फिर किसी तरह आगे निकलता है। कहानी आगे जाती है आगे और एक मोड़ लेती है। गोविंद उसको फिर मिलता है और एक फिर मिलता है नाविक। रोचक कहानी है सिद्धार्थ की। कहने का आशय यह कि जो मुक्ति का प्रेमी है अगर उसको लगेगा गोविंद की तरह कि देवालय में बसना है बुद्धालय में बसना है तो वो बुद्धालय में बस जाएगा। वो ये नहीं करेगा कि बुद्ध से मिला तो बस बुद्ध के चरण स्पर्श करके वापस आ जाए। वो कहेगा मुझे तुम्हारे पास ही बसना है। वो बुद्ध के पास बस ही जाएगा कोई सीमाएँ नहीं रखेगा वो।
और अगर उसको लगा कि मुक्ति वेश्यालय में मिलनी है तो वेश्यालय में भी बस ही जाएगा। कमला के पास बहुत लोग आते थे। घंटे भर को आते थे वापस चले जाते थे। सिद्धार्थ ने कहा मैं वापस नहीं जाऊँगा। मैं रहूँगा तुम्हारे साथ वो बस ही गया। समझ में आ रही है बात?
बोले जहाँ से मुझे मुक्ति मिलनी है, जहाँ से राम मिलने हैं, वहाँ से वापस जाने का क्या प्रश्न है? कोई भी कर्म हो चाहे देवालय जाने का, चाहे वेश्यालय जाने का उसकी कसौटी तो मुक्ति है ना। कर्म अपने आप में थोड़ी अच्छा बुरा हो गया। हाँ, हम अपनी साधारण दृष्टि से देखेंगे, सांसारिक दृष्टि से तो हमें लगेगा कि गोविंद ने बड़ा अच्छा काम किया वो बुद्ध के पास बस गया।
पहले तो हम गोविंद के काम को भी अच्छा नहीं बोलेंगे क्योंकि गोविंद भी बस गया। सांसारिक दृष्टि तो कहती है जाओ मिलो और वापस घर आ जाओ। पर गोविंद को हम फिर भी क्षमा कर देंगे कि वह कम से कम बसा तो बुद्ध के पास बसा। सिद्धार्थ को तो हम कभी ना क्षमा कर पाए। कहेंगे एक तो अपने बूढ़े पिता का आग्रह ठुकरा करके वो घर से निकल गया। और सिद्धार्थ बड़ा प्रतिभाशाली युवक था। सुंदर दिखने वाला भी बहुत विद्वान भी और पिता ने कहा अपना जो पुश्तैनी काम है शिक्षा का, पांडित्य का तुम उसी को आगे बढ़ाओ सिद्धार्थ।
सिद्धार्थ ने कहा मैं यह नहीं कर सकता। तो पहले तो सिद्धार्थ तुमने यह गलत करा और उसके बाद तुम्हें साक्षात बुद्ध मिल गए, तुमने वहाँ भी रुकना नहीं ठीक समझा और फिर तुम एक वेश्या के यहाँ चले गए। और वहाँ भी यह नहीं कि अगर गए हो तो घंटे दो घंटे दो चार दिन मन बहला करके वापस आ जाओ। तुम उस वेश्या के साथ बस ही गए रहने ही लग गए। कितनी सारी तुमने एक के बाद एक गलतियाँ करी।
पर ये जो गलतियाँ हैं इन्हीं में हरमन हेस के कथानक की खूबसूरती है। और सिद्धार्थ अंत तक भटकता है आखिरी क्षण में उसको मुक्ति मिलती है। वह बहुत रोचक बात है। कैसे मुक्ति मिलती है? क्या होता है? क्या समझ में आता है उसको? जो उसने संतान पैदा करी होती है, वही उसकी आसक्ति बन जाती है। कमला तो मर गई पर लड़का छोड़ गई पीछे अपने एक। समझ में आ रही है बात?
जो इतिहास में आज तक सदा से मुक्ति के दीवाने रहे हैं उच्चतम के प्रार्थी रहे हैं, उन्होंने सांसारिक नियम कायदों की परवाह नहीं करी है।
संसारी कहता है, 'हाँ सजना है मुझे किसके लिए?' जैसे वो फिल्मी गाना है। सजना है मुझे सजना के लिए। मैं तो सज गई रे सजना के लिए। ये सांसारिक नियम कायदा है। माने मैं सज रहा हूँ संसार के लिए। सजना माने संसार। जो संसार से आए वही तुम्हारा सजन है। हमारा सब कुछ संसार से ही होता है तो संसार का कायदा है कि मैं संसार के लिए सजूँगा। इससे ऊपर थोड़ा जो आता है वो आता है धार्मिक आदमी। धार्मिक आदमी कहने लग जाता है मुझे सजना ही नहीं है या सीमाओं में सजना है। बहुत थोड़ा-सा श्रृंगार करना सादगी से रहो वो धार्मिक आदमी होता है।
आध्यात्मिक आदमी कहता है मैं सजने के बारे में यह भी नहीं कह सकता कि मुझे बहुत सजना है। मैं सजने के बारे में यह भी नहीं कह सकता कि मुझे बिल्कुल नहीं सजना है। अगर बात दुनिया की है तो भाड़ में जाओ तुम सब मुझे बिल्कुल नहीं सजना। ना सजना ना बजना ना कुछ करना तुम्हारे लिए कुछ नहीं करना लेकिन अगर राम की बात है तो हम उतना सज लेंगे जितना कोई संसारी अपने सजन के लिए नहीं सजता। अगर राम की बात है तो उतना सज लेंगे जितना कोई स्त्री किसी पुरुष के लिए, कोई पुरुष किसी स्त्री के लिए नहीं सज सकता। जो राम का प्रेमी है वो राम के लिए उतना सज सकता है।
हाँ, राम के अलावा वो किसी के लिए कुछ ना सजे कुछ नहीं और राम के लिए जो करना हो बताओ सब करेंगे। राम के लिए सारा आभूषण सारी लज्जा उतार देनी है वो भी कर देंगे। सज भी सकते हैं और सजावट उतार भी सकते हैं। अगर पहनने से मिलेंगे राम तो पहन लेंगे उतारने से मिलेंगे तो उतार देंगे। ना पहनने से मतलब है, ना उतारने से मतलब है राम से मतलब है।
अगर बिल्कुल फक्कड़ गरीब होकर जीने से मिलेंगे तो गरीब हो लेंगे और करोड़ों इकट्ठा करने से मिलते हो तो करोड़ों इकट्ठा कर लेंगे। बहुत दुर्बल हो जाए, कृशकाय हो जाए ऐसे मिलते हो तो ऐसे हो जाएँगे। और बहुत हट्टे-कट्टे हो जाएँ स्वस्थ हो जाएँ वैसे मिलते हो तो वैसे हो जाएँगे। सिद्धार्थ की कहानी में बीच में सिद्धार्थ ऐसा हो जाता है कि जैसे बिल्कुल दो हड्डी का, खाना पीना छोड़कर के सूख जाता है।
जो श्रमण साधक हैं उनकी संगति में आ जाता है। और वो कहते हैं कि जब तक तुम अपने आप को सुखाओगे नहीं तब तक शरीर तुम पर हावी ही रहेगा। वो अपने आप को उतना सुखाता है जितना उसके श्रमण गुरुओं ने भी अपने आप को नहीं सुखा रखा होता। वो कहता है अगर शरीर को सुखाने से सत्य मिलता है तो मैं शरीर को ऐसा सुखाऊँगा जैसा किसी ने नहीं सुखाया होगा आज तक। सिद्धार्थ पूरा प्रयोग करता है।
और फिर जब वो कमला के पास जाता है तो कमला बड़ी सुंदर होती है। उसको देखती है ज़ोर से हँसती है। क्योंकि वह तो कमला के दरवाजे पर बिल्कुल बेखौफ खड़ा हो जाता है। वो कहता है कि मैंने सुना है कि तुम्हारे पास ऐसा कुछ है कि पूरा नगर यह पूरा क्षेत्र तुम्हारे पास आता है। मैं जानना चाहता हूँ कि जो उच्चतम है मैं जिसकी तलाश में घर से निकला हूँ क्या वो भी है तुम्हारे पास?
तो कमला हँसती है उसके ऊपर और कमला कहती है अपना मुँह देखो अपने बाल देखो। उसके बाल उलझे हुए हैं और उनमें धूल भरी हुई है। बोलती है अपना शरीर देखो तुम कितने सूखे हुए हो और कुछ रुपया पैसा है तुम्हारे पास? तुम मेरे दरवाज़े आए हो। बोलता है कुछ नहीं है। तो बोलती है कि जो नगर के इस पूरे क्षेत्र के बड़े-बड़े धनी हैं, राजा हैं, सेठ हैं वो मेरे यहाँ सामने कतार लगा के खड़े होते हैं, तुम यहाँ आ कैसे गए?
हँस रही है उसके ऊपर। तुम्हारी कैसे दृष्टता हो गई? तो तुम्हारे पास क्या है? तुम क्या कर सकते हो? तो वो जवाब देता है कि मेरे पास तीन चीज़ें हैं। बोलता है मेरे पास वो सब कुछ नहीं है, जो तुम्हारे ये अन्य लोग हैं इनके पास होता है। पर मैं देख सकता हूँ। आई कैन फास्ट। मतलब मैं अनासक्ति में जी सकता हूँ और संयम है मेरे पास। आई कैन वेट। क्या है? (पूछते हुए)
‘आई कैन थिंक, आई कैन वेट, आई कैन फास्ट।’
तो कमला को लगता है कि यह कुछ खास ही बात है। वो उसको भीतर बुला लेती है और भीतर बुला के कहती है वहाँ जाओ वहाँ पर सब बढ़िया से बढ़िया नहाने धोने की चीज़ें हैं। जाके पहले ठीक से नहाओ। फिर नहा-धो के आता है तो कहती है ये लो ये कपड़े हैं, ये कपड़े पहनो। वो आदमी जो फटे कपड़ों में घूम रहा था अचानक ऊँचे से ऊँचे महँगे से महँगे कपड़े पहन लेता है। वो आदमी से खाने पीने की सुध नहीं थी, वह अचानक ऊँचे से ऊँचा भोजन करना शुरू कर देता है।
वो कहता है अगर शरीर को सुखाने से मिलती है तो शरीर को सुखा दूँगा। शरीर को भरने से मिलती है तो शरीर को भर डालूँगा। फटे कपड़े पहनने से, मुनियों जैसे नग्न रहने से मिलती है मुक्ति तो नग्न रह लूँगा। और अगर बहुत सुंदर और महंगे परिधानों से मिलती है मुक्ति तो उनको भी पहन लूँगा। सब कुछ छोड़ देने से मिलती है मुक्ति तो सब कुछ छोड़ दूँगा और अगर एक वेश्या के घर में रहने से मिलती है तो वेश्या के घर में भी रह लूँगा।
बात कर्म की है नहीं बात राम की है। राम जहाँ भी मिलते हो हम वहीं चले जाएँगे। राम जो करने से मिलते हो हम वही कर जाएँगे। ‘ता कारण रचि करो श्रृंगार।’ ता कारण — वही कारण है, उसके कारण श्रृंगार करना हो श्रृंगार करेंगे। जो करना हो सब करेंगे बताओ, वही कसौटी है। समाज की नैतिकता नहीं कसौटी है। राम कसौटी है। कोई काम राम तक ले जाता है तो अच्छा हो गया। कोई पूछे अच्छा काम किया क्या मैंने? देखो तुम्हारा काम तुम्हें राम तक ले जाता है तो अच्छा है। कोई पूछे क्या मैं अच्छा आदमी हूँ? राम के प्रेमी हो तो अच्छे हो। नहीं हो तो नहीं हो अच्छे। राम माने सत्य मुक्ति ब्रह्म। समझ में आ रही है बात?
यह बड़ी हम में एक धारणा हो जाती है कि संसारी का काम क्या है? भोगना। और अगर आप आध्यात्मिक होने लगे तो आपको भोग से दूर रहना होगा। बहुत लोग तो इसी मारे अध्यात्म से दूर भागते हैं। बहुत लोग इसी चक्कर में गीता से ज़रा बच-बच के निकलते हैं। उनको लगता है कि अगर इस तरफ आ गए तो फिर भोग में कमी पड़ जाएगी। तो इस तरफ अगर आना भी है तो पचहत्तर (७५) के बाद आओ जब यू ही भोगने की कोई संभावना बचती नहीं है। जब भोग सकते ही नहीं, शरीर ही इस लायक ना बचे तब आके कहो अब हम भोग का त्याग कर रहे हैं।
हम जब तक सेब चबा सकते थे, काट सकते थे, दांत ऐसे सब थे तब तक सेब पूरा जितना सेब काट सकते हो, चाट सकते हो, पी सकते हो, सब कर डाला सेब का। सेब ही सेब — सेब प्रतीक होता है। किस चीज़ का? संसार का। एक ऐसी चीज़ जिसके प्रति संसारी में बड़ा लालच, बड़ा आकर्षण होता है। कि सेब दिखा नहीं कि… । अमेरिका को भी बोला जाता है 'द बिग एप्पल।'
जब तक तो सेब चबाने की उम्र थी सेब पूरा चबा लिया। जब अस्सी (८०) साल के हो जाओ तो बोलो हमें फेब खेब का त्याग कर दिया है। तुम त्याग नहीं करोगे तो क्या करोगे? दांत छोड़ दो तुम्हारे पास जबड़ा भी नहीं है। तुमने त्याग क्या करा है? रस भी नहीं पीते। रस पियोगे तो पचेगा नहीं तुमको तो पानी भी नहीं पचता। सेब का रस क्या पचेगा? तो ये संसारी की कुटिल बुद्धि रही है।
ये कहते हैं पचहत्तर (७५) के बाद संन्यास। इस कुटिल बुद्धि का मतलब समझते हो ना क्या है? कि भोगने के समय में बाधा नहीं पड़नी चाहिए। जब तक भोगने का चल रहा है काल तब तक तो पूरा एकदम तांडव कर दो, भोग भोग कर सब विषयों के चीथड़े उड़ा दो और जब हालत ही ना बचे कुछ भोगने की तब एक आखिरी चीज़ और भोग लो नैतिक श्रेष्ठता, 'मैं भोगी थोड़ी हूँ मैं त्यागी हूँ।'
जब भोग सकते ही नहीं तब भोगना छोड़ के बोलो कि मैंने अब एक चीज़ और भोग डाली। क्या? प्रतिष्ठा श्रेष्ठता का भाव। देखा इन्होंने सब त्याग दिया है। अब अस्सी (८०) के हो गए हैं और ऐसे महान त्यागी हैं कि सेब के पेड़ के ऊपर चढ़ के बैठते ही नहीं। बिल्कुल, एकदम। अरे कहीं भी चढ़ने की अब उनकी उम्र बची है? जब तुम अब चढ़ सकते ही नहीं तो अब ना चढ़ने में किस बात का श्रेय ले रहे हो? और इन्हीं संसारियों ने जवान लोगों को गीता से दूर कर दिया क्योंकि इनको लगा कि जो जवानी में गीता के पास आ जाएगा वो भोगेगा नहीं, यह बहुत डर गए। ना! ऐसा नहीं है।
अध्यात्म भोग को वर्जित नहीं करता। अध्यात्म कहता है बस यह बता दो तुम्हारा भोग तुम्हें राम से मिलाता है क्या? जिस भी विषय के साथ जुड़ रहे हो वह राम तक जाता है क्या? अगर जाता है तो बिल्कुल जुड़ जाओ।
कोई नहीं रोक रहा और ऐसा जुड़ो, ऐसा जुड़ो कि सब बंध तोड़ के जुड़ो, कोई सीमा नहीं है। इतनी गहराई से जुड़ो। बस जाओ कोई सीमा नहीं है। बशर्ते वो विषय राम से मिलाता हो तो और राम से नहीं मिलाता तो इतना भी नहीं चाहिए। समझ में आ रही है बात ये?
और यही जो मूर्खता पूर्ण धारणा है कि संसारी वो जो भोगता है और आध्यात्मिक आदमी वो जो त्यागता है यही जो गलत धारणा है बेवजह की मान्यता है, बिल्कुल इसके कारण फिर संसारी ठगा भी बहुत जाता है। संसारी ने यही तो नियम बना लिया ना कि जो भोगे वो संसारी और जो त्यागे वो संन्यासी। यह गलत है सिद्धांत। इस सिद्धांत के कारण संसारी को ठगना बहुत आसान हो गया। बस उसको यह दिखा दो कि हमने त्यागा हुआ है। वो तुरंत शतशत नमन पर उतर आता है। उसको थोड़ा-सा यह जता दो कि फलाने ने फलानी चीज़ त्यागी हुई है वो बिल्कुल पागल हो जाता है।
कहता है, अरे! गज़ब हो गया। त्याग दिया क्या महान काम करा है त्याग दिया। अरे उस त्याग से उसे राम मिल रहे हैं क्या? त्याग का अपने आप में कोई महत्व नहीं है। जैसे भोग का अपने आप में कोई महत्व नहीं है। त्याग से राम मिलते हो तो त्यागने में कोई अर्थ है, त्याग से राम नहीं मिलते तो तुम पागल होगे कि त्याग रहे हो या त्याग से भी तुम कोई फायदा लूट रहे होगे इसीलिए त्याग रहे हो। छोटी-मोटी चीज़ों को त्याग करके या त्याग का प्रदर्शन करके संसारी को ठगना बहुत आसान हो गया। दिखाओ कुछ त्याग दिया, उसको ठग लो खट से।
और अगर आध्यात्मिक आदमी भी संसारी को दिख गया श्रृंगारित, ‘ता कारण रचि करो श्रृंगार,’ तो यह मूर्ख संसारी जाकर यह नहीं पूछेगा कि किसके लिए श्रृंगार करा है। यह कहेगा अरे! ये आध्यात्मिक कहते थे और श्रृंगार करते मिले अरे यह संन्यासी नहीं है ये तो संसारी भी नहीं है ये तो व्यभिचारी है, यह तो व्यभिचारी है। अगर आध्यात्मिक होता तो श्रृंगार क्यों करता? नहीं! आध्यात्मिक है और श्रृंगार करा है, राम के लिए करा है, राम के लिए करा है झुन्नू के लिए थोड़ी करा है। उसको थोड़ी रिझाना है राम को रिझाना है। बस वही श्रृंगार बढ़िया है जिस पर राम रीझ जाए।
श्रृंगार ऐसा कि तुम्हारे बंधन काट दे किसी तरह से तो कर लो श्रृंगार। जो कुछ भी तुम्हें अपने साथ करना है कर लो। तुम्हें बहुत तरह के अनुभव लेने हैं ले लो अगर उन अनुभवों से राम मिलते हो। तुम्हें ज्ञान बहुत इकट्ठा करना है कर लो अगर उस ज्ञान से राम मिलते हो। ज्ञान माने जो सांसारिक ज्ञान होता है। तुम्हें राजनीति बहुत करनी है। कर लो अगर उससे राम मिलते हो। बहुत तुम्हें घूमना फिरना है घूम फिर लो अगर उससे राम मिलते हो। राम फिर कह रहा हूँ राम पैमाना है। राम मानदंड है राम ही कसौटी है। राम माने मुक्ति। समझ में आ रही बात?
"मैं बौरी मेरे राम भरतार।" भरतार माने 'वही' और हमें ये थोड़ी कि मैं धनिया हूँ, मेरा झुन्नू भरतार। आम भाषा में भरतार माने पति होता है। कभी भरतार बोलते हैं, कभी भतार भी बोलते हैं। संसार को बड़ी समस्या हो जाती है। सत्य को परमपिता बोल दो तो चल जाता है। परम पति बोल दो तो संसारियों की सारी व्यवस्था हिलने डुलने लग जाती है। पर सत्य तो यही है क्योंकि पति माने स्वामी कि जो परमपिता पिता है वह परम पति भी है।
पिता माने स्रोत, उद्गम, जहाँ से आए हो, जन्म है जहाँ से, जहाँ से शुरुआत है। जो तुम्हें शुरुआत दे रहा है वही वास्तव में तुम्हारा स्वामी भी है तो जो परमपिता है वो है तो परमपति भी। पर तब बड़ी समस्या हो जाती है जब मीरा जैसा कोई कह देता है। अगर मीरा कह देती कृष्ण पिता है तो थोड़ी उनको ज़हर पिलाया जाता। मीरा अगर इतना ही कह के रुक जाती कि कृष्ण को मैं पिता मानती हूँ। सब बहुत खुश रहते पर मीरा ने कह दिया पति मानती हूँ पति हैं मेरे। और वही है दूसरा कोई है भी नहीं। यह भी नहीं कि वो ऊपर वाले पति हैं, एक नीचे वाला भी चलेगा।
वो बोली दूसरो न कोई जाके सिर मोर मुकुट मेरो पति सोई। एक ही है वही है। अब बड़ी समस्या हो गई। बोले पिता बोल दो पिता बोल दो थोड़ा-सा भाषा में गलती हो गई है। प और त ठीक है वो पति को पिता कर दो। बोले, 'पिता कुछ नहीं, पति तो पति,' अब बड़ी समस्या हो गई। अब लो भाइयों राणा के पूरे परिवार वाले लग गए। इसको खत्म करो ये तो इज़्ज़त उछाल रही है और जाकर बैठ भी किन के पास रही है? वो जो हमारी लोक मान्यता में निचले वर्ग के माने जाते हैं उन लोगों के पास जाकर बैठ रही है। कहीं कोई साधु कोई संत संत रविदास हैं। उनसे कह रही है कि शिष्या हूँ आपकी। बड़ी समस्या हो गई। समझ में आ रही है?
बात ये मैं बोरी मेरे राम भरतार वो सब कुछ है। इसीलिए आध्यात्मिक साहित्य में सत्य को मात्र पिता ही नहीं बोला गया है पति भी बोला गया है प्रेमी भी बोला गया है प्रेमिका भी बोला गया है। उसको कभी कह दिया है कि वो रमता जोगी है जो संसारियों के घरों पर आकर बीच-बीच में दस्तक दे देता है। रमता समझते हो? एक जगह बसने वाला नहीं जो एक गांव एक शहर से दूसरी जगह चलता रहता है। तो कह देते हैं वो जो है ना सत्य वो रमते जोगी जैसा होता है वो बंजारे जैसा होता है। उसका कोई घर नहीं होता वो अनिकेत होता है।
उपनिषद् कहते हैं सत्य अनिकेत होता है उसका कोई घर नहीं होता। तो संतों ने बड़े खूबसूरती से कहा जिसका कोई घर नहीं होता वो तो बंजारा है माने सत्य बंजारा है। ऋषियों ने कहा सत्य होता है अनिकेत तो संतों ने उसी बात को बहुत सुंदर काव्यात्मक मीठे तरीके से आगे बढ़ा दिया। बोले अनिकेत होता है तो माने बंजारा होता है। तो बोले सत्य बंजारा होता है बोले सत्य रमता जोगी होता है। वह आता है और गृहस्थों के द्वार पर दस्तक देता है। किसी का दिल आ गया तो आ गया, नहीं तो दस्तक देकर आगे बढ़ जाता है और जिनका दिल आ गया उनको अपने साथ ले जाता है।
बाबा बुल्ले शाह की एक बड़ी सुंदर काफ़ी है कि- "वणजारे आए नी माए, से वणजारे आए"
और वो कहती है बहुत सुंदर बंजारे आए हैं और मेरे दिल में हूक उठती है इनको देख के कि मैं इनके साथ जाना चाहती हूँ। पर जहाँ तक मुझे लगता है माई ने अनुमति नहीं दी होगी कि बंजारों के साथ चली जा। पढ़िएगा। बंजारों को लेकर, जोगियों को लेकर के प्रेम साहित्य में संत साहित्य में, भक्ति साहित्य में बड़े गीत लिखे गए हैं। एक फिल्मी गीत भी मुझे याद आ रहा है।
"जोगी जब से तू आया मेरे द्वारे, जोगी जब से तू आया मोरे द्वारे, मोरे सज गए सांझ सारे तू तो अंखियों से जाने दिल की बतियाँ तुझसे मिलना ही जुल्म भया रे"
कि तू जब से मेरे द्वार आया है सांझ सकारे माने मेरी सुबह और मेरी सांझ यह अलंकृत हो गए हैं। पहले जैसे थे वैसे नहीं है और तू तो आंखों में बस देख के मुझे पूरा पढ़ लेता है। सारी बात जान जाता है। तुझसे मिलना ही जुल्म भया रे। तुझसे मिलना ही मेरे लिए बड़े दर्द की बात हो गई है। तू आकर के एक बहुत अलग तरह का दर्द दे गया है मुझे। समझ में आ रही है बातें?
सत्य से बड़ा अंतरंग, बड़ा घनिष्ठ, बड़ा इंटिमेट रिश्ता रखना होता है। तो इसलिए संत साहित्य में अक्सर उसको प्रेमी, स्वामी, कभी पति, यहाँ भरतार ऐसे संबोधित किया जाता है।
अहम् को कह दिया जाता है तू तो सदा की विरहिणी प्रेमिका है। अहम् क्या है? विरहिणी प्रेमिका। और तेरा प्रेमी है वो। तू शहर में बसती है तू गांव में बसती है वो जंगल का बाशिंदा है। वो जंगल में बैठकर के मुरली बजाता है और कातिल इतना है कि कभी संसारियों के बीच नहीं आता है। तू रहती है गांव में गांव के बाहर है नदी और नदी के पार है जंगल और वो जंगल में रहता है और वहीं से बैठ के मुरली बजाता है। वहीं से बैठ के मुरली बजाता है और तू मुरली सुनती है। वो मुरली भी कब बजाता है? वो आधी रात को बजाता है। जब पूरा गांव सो गया होता है। कोई सुन ही ना पाए उसकी कोई बात और उसकी तू मुरली सुनती है और तेरी रातों की नींद उड़ गई है।
और फिर एक दिन वो कहती है चुपचाप रात के अँधेरे में नदी पार करूँगी और मैं भी जा रही हूँ। कहीं कह दिया जाता है कि वो नदी पार कर रही थी वो बह गई नदी में। तो बहुत बार कह देंगे कि वो बह ही गई। उसके बह ही जाने को मुक्ति का ही प्रतीक, द्योतक माना जाता है और कुछ दूसरी कथाएँ होंगी जिनमें फिर वह नदी पार कर जाती है और जंगल में जाकर के अपने प्रेमी से मिल जाती है। प्रेम की जितनी कथाएँ हैं इनमें सब में यही है।
आप लैला मजनू को उठाएँगे सोहनी महिवाल हीर रांझा सब में वही बात चल रही है। विरह है, संसार से अनासक्ति है और फिर या तो मृत्यु है या मिलन है। या तो मृत्यु है जैसे सोहनी महिवाल वाले वहाँ मृत्यु हो जाती है या फिर मिलन है। और ऐसी मैंने तीन नाम लिए क्योंकि ये सबसे प्रसिद्ध है ऐसी सैकड़ों कहानियाँ हैं। भारत में है पूरे विश्व में है। जहाँ एक स्त्री और एक पुरुष को प्रतीक बना करके अहम् और आत्मा की बात करी गई है कि कैसे अहम् दिन-रात तड़पता है। आत्मा के संसर्ग के लिए और फिर ऊँची से ऊँची कीमत चुका के अंतिम कीमत चुका के भी वह आत्मा से मिल जाना चाहता है। अहम् को स्त्रीलिंग से कर देते हैं संबोधित और आत्मा को पुल्लिंग से कर देते हैं।
ठीक वैसे ही जैसे मुक्त चेतना को पुरुष बोलते हैं ना सांख्य योग में उसी तरह से कि आत्मा माने मुक्त चेतना तो आत्मा को कह देते हैं पुरुष है और अहम् सदा की तड़पती हुई विरह में रोती हुई प्रेमिका है। बाबा बुल्ले शाह की बात कर रहे थे। उनकी ही एक और बहुत सुंदर काफ़ी है। 'मुरली बाज उठी अनघाता।'
अनघाता माने बिना दो के टकराए। ये आमतौर पे आवाज़ होती है तो ऐसे होती है। (दोनों हाथों से ताली बजाते हुए) दो टकराते हैं तो आवाज़ होती है। जैसे घात, घात से आवाज़ होती है। द्वैत है यह, दो है ना? दो टकराए तो आवाज़ होती है। और एक मुरली का संगीत होता है अनघाता। अनघाता माने जिसमें दो नहीं हो अद्वैत संगीत है वो अद्वैत संगीत है। वो अद्वैत संगीत अब बज उठा है और अब मैं अपना आपा खो रही हूँ। मैं तो अगर ठीक है अब मुरली बाज उठी अनघाता, मैं तो भूल गईयां सब बातां। कुछ इसी तरह से देखिएगा।
कि जितनी बातें मुझे संसार ने पढ़ाई थी सच-झूठ अच्छा-बुरा आचरण-चरित्र नैतिकता-मर्यादा के नियम मैं सब भूल गई, वो मुरली बजती है और मैं सब भूल जाती हूँ।
"मुरली बाज उठी अनघाता"
भूल गई है सब। भूल गई है सब बात तो ये कोई बस रूखी सैद्धांतिक बात नहीं होती है। ऋषियों ने दर्शन दिया और संतों ने दर्शन को जीवन के सब रंगों से भर दिया। ऋषियों ने दर्शन दिया। सांख्य योग मिल रहा है, वेदांत मिल रहा है यह ऋषियों से आ रहा है और संतों ने जो दर्शन है उसमें आम संसारी की ज़िन्दगी के सारे रंग भर दिए।
मटकी ले दी उसमें श्रृंगार ले दिया उसमें चक्की ले दी उसमें मुरली ले आ दी उसमें बंजारा ले आ दिया उसमें जोगी ले आ दिया उसमें तोता आ गया, कौवा आ गया। आ रही बात समझ में? छोटा बच्चा आ गया, बुजुर्ग आ गया, कपड़ा आ गया, पत्थर आ गया, घांगरा चोली सब आ गए।
उसमें इन सबको प्रतीक की तरह बड़े ज़बरदस्त तरीके से संतों ने इस्तेमाल करा वैसे ही हमें यहाँ पर आज दिख रहा है। ऋषियों की बात ऐसी जैसे आसमान की बात हो। जान निकल जाती है क्या बोल दिया? ब्रह्मसूत्र में पहला ही सूत्र आता है। 'अथातो ब्रह्म जिज्ञासा' और विद्वान लोग आज तक उसी पर एकमत नहीं हो पाए कि ब्रह्म जिज्ञासा तो ठीक है पर अथातो माने क्या? किसके बाद ब्रह्म जिज्ञासा?
संतों ने कहा इन सब में नहीं पड़ना है। रोज़मर्रा की ज़िन्दगी ये जो हमारा आकाशीय नहीं, जो हमारा पार्थिव प्रेम है — हम इसको राम के रंगों से भर देंगे। फिर वहाँ से प्रेम की कहानियाँ उठती हैं फिर वहाँ से हीर रांझा की बात होती है। सोहनी महिवाल की बात होती है। ये भारतीय बातें हैं भाई साहब कोई विदेशी बातें थोड़ी है पंजाब की बातें हैं। समझ में आ रही है बात?
ये बोले होंगे ऊँचे सिद्धांत पर वो ऊँचे सिद्धांत सब उतारने कहाँ हैं? इसी ज़िन्दगी में उतारने हैं ना? तो हम गाएँगे कि कैसे इसी ज़िन्दगी में वो सिद्धांत हमारे दिल पर छा रहे हैं। हम इस ज़िन्दगी की बात करेंगे। हाँ, आधार उन ऊँचे सिद्धांतों का ही रहेगा। ‘अहम् ब्रह्मास्मि’ का ही सिद्धांत रहेगा, बिल्कुल रहेगा। प्रज्ञानं ब्रह्म का ही सिद्धांत रहेगा, बिल्कुल रहेगा। अहमेव हि केवलम् का सिद्धांत रहेगा बिल्कुल रहेगा। दो नहीं है एक है, यही सिद्धांत रहेगा, बिल्कुल रहेगा। लेकिन अहमेव हि केवलम् इसी बात को हम ऐसे कहेंगे कि तू तू करता तू हुआ।
अब कह दिया जाए अहमेव हि केवलम्। तो जान निकल जाती है। ये कैसे हो सकता है? मैं ही मैं हूँ। लेकिन संतों ने इसको ऐसे कर दिया। समझ रहे हो बात? मैं मिट गया बस तू बचा। कैवल्य यहाँ भी है। जैन दर्शन में कैवल्य माने मुक्ति होता है। कैवल्य मुक्ति मोक्ष निर्वाण ये सब एक ही दिशा के नाम है।
तो ऋषियों की ऊँची बातों को संतों ने आम ज़िन्दगी की धरती पर उतार दिया। फिर वहाँ से जो गीत निकले हैं वह ऐसे अमर हुए हैं, ऐसे अमर हुए हैं कि आज भी अगर कोई प्रेम गीत लिखा जाता है तो उसका आधार किसी ना किसी संत का गीत ही होता है।
आज भी अगर आप पाएँ कि किसी लेखक ने, गीतकार ने, कवि ने कुछ बहुत अच्छा लिखा है जो आपके दिल को ऐसे बिल्कुल पकड़ रहा है, छा रहा है आपके ऊपर, गहराई से आपको छू रहा है तो यकीन जानिए जो लिखा गया है उसके आधार में किसी संत का कोई बहुत बहुत हार्दिक वक्तव्य होगा। वहीं से वो बात आ रही है और संत का जो वक्तव्य होगा उसके आधार में ऋषियों का दर्शन होगा। समझ में आ रही है बात?
अब वो एक ज़रा-सी आज एक, ‘जग मुझ पर लगाए पाबंदी मैं हूँ ही नहीं इस दुनिया की।’ इसको खोजिएगा। यह भाव आपको संत साहित्य में बड़ी प्रचुरता से मिलेगा। और ये आज का एक फिल्मी गीत है। अब इसमें बीट्स वगैरह है हमें लगता है ये आज की बात है। जहाँ पर यह गीत फिल्माया गया है वहाँ शायद किसी बीच पर कोई या किसी पार्टी में कहीं कोई डांस हो रहा होगा। तो हमें लगता है यह तो कोई आज की मॉडर्न आधुनिक बात है।
आधुनिक वगैरह कुछ नहीं।
प्रेम बड़ी पुरातन बात है और प्रेम में जब भी कुछ मीठा बोला जाएगा उसके आधार में उसके केंद्र में किसी संत का धड़कता हुआ दिल होगा।
कोई प्रेम कहानी नई होती है? दुनिया की सबसे पुरानी चीज़ अगर कुछ है तो प्रेम है। कोई नई प्रेम कहानी नहीं होती। एक ही प्रेम कहानी है और वो तब से चली आ रही है। जब तक दुनिया है तब तक वो प्रेम कहानी चलेगी कभी पूरी नहीं होगी।
मैं बौरी मेरे राम भरतार।।
यही है दुनिया की सबसे पुरानी प्रेम कहानी। अहम् बावला है राम के लिए। राम के लिए अहम् बावला है। लेकिन फँसा कहाँ हुआ है? फँसा हुआ है अपने रिश्तेदारों में। मुरली की आवाज वहाँ से आ रही है लेकिन घरवाले उसको छोड़ ही नहीं रहे।
वो बिरहन तड़प रही है उसको जाने ही नहीं दे रहे और ऐसे ही दृश्य रचे जाते हैं और घरवाले इस हद तक विरोधी हो सकते हैं, ईर्षालु हो सकते हैं कि वो घड़े लेकर के खाली घड़े लेकर के उन्हीं के दम पे नदी पार कर जाया करती थी। चेनाब नदी शायद सोहनी महिवाल में वो चेनाब को पार कर जाती थी खाली घड़े लेकर के। और यह पता चल गया दुनिया वालों को तो उसका घड़ा हटा के कच्चा घड़ा रख दिया। जनाब कि रात में अब जब यह पार करेगी तो इसका जो घड़ा है वो नदी में टूट जाएगा। घड़ा टूट गया वो मर गई लेकिन अमर हो गई। वो अमर हो गई।
दुनिया की सब प्रेम कहानियाँ बहुत पुरानी है। और सब प्रेम कहानियों में एक ही बात होती है। अहंकार संसार से घिरा हुआ है। प्यार को नहीं पा रहा है संसार ने ऐसा घेर लिया अहंकार को कि प्यार से वो वंचित रह जा रहा है। सारी प्रेम कहानियाँ बस यही होती हैं। राम मेरे भरतार हैं और जगत मुझे बौरी बोलता है। राम मेरे प्यारे हैं पर मैं राम की बात करती हूँ तो संसार मुझे मारने को दौड़ता है। बस यही है प्रेम कहानी। आ रही है बात समझ में?
अलग-अलग रंग होंगे, अलग-अलग जगह होंगी, अलग-अलग तरीकों से यही बात कही जाएगी। पर बात यही कही जाएगी। खोजिएगा कितने सुंदर सुंदर आपको गीत मिलेंगे। सारे गीत यही है। हम जिसको अध्यात्म में, प्रेम मार्ग कहते हैं उसमें सारे गीत यही है और कोई गीत नहीं है।
कबीर साहब कहते हैं आई गवनवा की साड़ी। कहते हैं वो मेरे भरतार, मेरे पति, मेरे प्यारे ने मुझे विदाई की साड़ी भेजी है। जब विदाई हो रही होती है तो उसके लिए साड़ी भेजी है। और आगे बढ़ती है उस गीत में बात तो पता चलता है कि वो अर्थी की साड़ी है। स्त्री की जब घर से विदाई होती है पिता के, तब भी वो नई साड़ी पहनकर निकलती है और जब उसकी अर्थी निकलती है तब भी उसको नई साड़ी पहनाते हैं।
तो कबीर साहब कहते हैं, 'आई गवनवा की साड़ी।' गमन की साड़ी आ गई है। फिर पता चलता है वह तो साड़ी तो यही शायद एकमात्र तरीका था। कभी गाते हैं, 'नैहरवा हम का ना भावे।' नैहर माने मायका, संसार बोल रहे हैं यहाँ संसार में फँसी हुई हूँ। हमें अच्छा नहीं लगता। साईं, साईं माने स्वामी। साईं शब्द स्वामी से आता है। स्वामी माने पति उसके यहाँ जाना है पर ये दुनिया वाले मुझे छोड़ ही नहीं रहे। अब वो बैठ के जो उसका कष्ट है वही उसका करुण राग बन जाता है।
नैहरवा हम का ना भावे। जा मार्ग साहब मिले प्रेम कहावे सोए। इसके अलावा प्रेम की कोई परिभाषा नहीं। जो राम से मिला दे उसको प्रेम बोलते हैं। बाकी सब बकवास।