एक छोटा-सा वायरस ही काफी है || आचार्य प्रशांत, नवरात्रि विशेष, आठवाँ दिन (2021)

Acharya Prashant

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एक छोटा-सा वायरस ही काफी है || आचार्य प्रशांत, नवरात्रि विशेष, आठवाँ दिन (2021)

आचार्य प्रशांत: प्रकृति देवी हैं जो कहती हैं कि मुझे भोगोगे, तो तुम्हें नष्ट कर दूँगी । प्रकृति को भोगा नहीं कि प्रकृति तुम्हें नष्ट कर देगी। अभी तो आगे तुम्हें बहुत एकदम भौंचक्का कर देने वाली बात पता चलेगी। जब शुम्भ-निशुम्भ का आगे चलकर वध होता है और इसमें तो कोई छुपी बात नहीं है कि वध तो इनका होना ही है। वहाँ तो कोई सस्पेंस नहीं।

तो ‘सप्तशती’ कहती है कि नदियाँ ठीक से बहना शुरू कर देती हैं, हवाएँ ठीक से बहना शुरू कर देती हैं। आकाश में जो उल्कापात और अन्य तरह के विक्षेप होते थे, वो बन्द हो जाते हैं। समूची प्रकृति ही अपनी निर्दोष लय को दोबारा प्राप्त कर लेती है। कुछ इशारा मिल रहा है? ये भोगने वालो ने प्रकृति का ही सत्यानाश कर रखा था। जैसे आज हो रखा है।

इन्होंने नदियाँ खराब कर दी थी, इन्होंने पहाड़ खराब दिये थे, इन्होंने वायुमंडल खराब कर दिया था। तो कथा कहती है कि जैसे ही फिर इनका वध हुआ, वैसे ही नदियों का जल स्वच्छ हो गया। नदियों की धारा अपने पुराने मार्ग पर वापस लौट आयी। जो सब ज्वालामुखी फट रहे होते थे इधर-उधर, वो शान्त हो गये और वायुमंडल में जो उपद्रव हो रहे होते थे वो सब। वायुमंडल में उपद्रव को क्लाइमेट चेंज (जलवायु परिवर्तन) क्यों न माना जाए?

नदियों की धारा तो आज भी सूख रही है न। तुम देख पा रहे हो? जो सामने स्थापित हो रहा है एनालॉजी (समानता)। क्या? कि जो प्रकृति का दोहन करता है वो फिर मारा जाता है। प्रकृति का दोहन ही उसके अन्त का कारण बनता है। तो आज जितने भी ये दुनिया में राज करने वाली ताकतें हैं, वही तो शुम्भ-निशुम्भ हैं। शुम्भ-निशुम्भक्या कर रहे थे, राज ही तो कर रहे थे।

आज भी जिनका राज है, ऐसे ही नहीं राज होता कि राजनैतिक रूप से राज है। आप किसी बहुत बड़ी कम्पनी के बड़े शेयर होल्डर हो, आपका राज है न दुनिया पर? और आप प्रकृति को खराब कर रहे हो। यही शुम्भ-निशुम्भ हैं आज के। दुनिया को जीते हुए हैं, प्रकृति को तहस-नहस कर रहे हैं। अगर कथा सच्ची है तो इनका अन्त आएगा।

तो दूत तो भई अपमानित सा चेहरा लेकर के गया दैत्यराज के पास। तो दैत्यराज ने भी अपेक्षा नहीं करी थी कि एक स्त्री उनका विवाह प्रस्ताव ठुकरा देगी। वो भी तब जबकि उन्होंने इन्द्र को हरा रखा है, त्रिभुवन को जीत रखा है और ये सारी बातें। तो वो एकदम अपमानित और कुपित हो गये और उनके सेनापति थे धूम्रलोचन। उनसे बोले, ‘धूम्रलोचन! तुम शीघ्र अपनी सेना साथ लेकर जाओ और उस दुष्टा के केश पकड़कर घसीटते हुए उसे बलपूर्वक यहाँ ले आओ।’

ये तो ये विवाह करने को आतुर थे, ये विवाह था? या इनका बलात्कार का मन था। ऐसे होते हैं भोगी। ये बस, प्रकृति का शोषण और उत्पीड़न करना चाहते हैं। देख रहे हो? नारी के प्रति घोर असम्मान। कि विवाह प्रस्ताव भेजा और स्वीकार नहीं हुआ तो कह रहे हैं कि जाओ और उसके केश पकड़कर घसीटते हुए यहाँ ले आओ। स्पष्ट ये है कि ऐसों का अन्त होगा, देवी इनका नाश करेंगी।

‘और धूम्रलोचन अगर उस स्त्री की रक्षा के लिए कोई दूसरा वहाँ खड़ा हो चाहे देवता, यक्ष या गन्धर्व, उसे मार अवश्य डालना।’

तो प्रकृति का तो शोषण करेंगे और जो प्रकृति की रक्षा के लिए खड़े होंगे, उन्हें मार डालेंगे — ये दैत्यों की निशानी है। प्रकृति का शोषण करना है और उसकी रक्षा के लिए जो भी कोई खड़ा हो, उसको मार ज़रूर डालना। ये सिर्फ़ कहानियाँ नहीं हैं, ये निरन्तर चलने वाली सच्चाइयाँ हैं। ये बात तब भी सच थी, ये बात आज भी सच है।

इनको कल्पना मत मान लेना कि किसी ने ऐसे ही बस कल्पना करी, लिख दिया। ये अमर सच है। आदमी तब भी दैत्य था, आदमी आज भी दैत्य है। मनुष्य के भीतर शोषण की वृत्ति तब भी विद्यमान थी, आज भी है। ये बात क्या पुरानी लग रही है? आज की ही नहीं है बिलकुल?प्रकृति का शोषण करना है और अगर कोई उसको बचाने के लिए खड़ा हो तो उसको मार डालो, बचना नहीं चाहिए।

तो शुम्भ के इस प्रकार आज्ञा देने पर वह धूम्रलोचन दैत्य साठ हज़ार असुरों की सेना लेकर चल दिया। उसने हिमालय पर रहने वाली देवी को देखा और ललकार कर कहा, ‘अरी! तू शुम्भ-निशुम्भ के पास चल। यदि प्रसन्नतापूर्वक मेरे स्वामी के पास नहीं चलेगी तो मैं बलपूर्वक, झौंटा पकड़कर घसीटते हुए तुझे ले चलूँगा।’

ये भाषा देख रहे हो, ये तेवर देख रहो। ये पुराने ही नहीं हैं ये आज के भी हैं। या तो आ जा, नहीं तो ज़बरदस्ती तेरे बाल पकड़कर, घसीटते हुए ले आऊँगा । तुझे भोगूँगा तो ज़रूर।

देवी बोली, ‘तुम्हें दैत्यों के राजा ने भेजा है। तुम स्वयं भी बलवान हो और तुम्हारे पास विशाल सेना भी है। ऐसी दशा में यदि मुझे बलपूर्वक ले चलोगे तो मैं तुम्हारा क्या कर सकती हूँ।’

चुनौती दे रही हैं, देवी कह रही हैं , ‘इतने तुम ताकतवर हो, महादैत्य हो। क्या तुम्हारी भुजाएँ हैं, क्या तुम्हारी छाती है और क्या तुम्हारी ये बड़ी सी सेना है, क्या तुम्हारे पास अस्त्र-शस्त्र हैं। मुझे ललकार क्या रहे हो, आओ और मुझे ज़बरदस्ती उठाकर ले चलो न। मैं क्या कर पाऊँगी , मैं तो अबला नारी।’

तो देवी के यूँ कहने पर असुर धूम्रलोचन उनकी ओर दौड़ ही पड़ा। पुरुष का अहंकार, दौड़ ही पड़ा। ‘अच्छा! चुनौती देती है। बोलती है बलपूर्वक ले चलो।’

तो अम्बिका ने ‘हूँ’ शब्द के उच्चारण मात्र से उसे भस्म कर दिया। महिषासुर वध में तो फिर भी थोड़ा लम्बा -चौड़ा कार्यक्रम था। ऐसे मारा, वैसे मारा, कुछ नहीं। आ रहा था, बोलीं, ‘हूँ’। वो जहाँ था, वहीं पर राख हो गया। प्रकृति ऐसे खत्म करती है। बड़े-बड़ों को कोरोना ने गिरा दिया। होगे तुम कहीं के बादशाह, देवी ने बोला बस ‘हूँ’ और गिर गये।

बच भी नहीं पा रहे। अपने घर में ही कैद हो गये, तब भी नहीं बच पा रहे। जेल, कारागार बस वही होता जब तुम्हें कोई घसीटकर ले जाएँ और कहीं पर डाल दे? किसी को सज़ा दी जाती है तो उसे जेल दी जाती है। और अभी प्रकृति ने दुनिया के आठ-सौ-करोड़ लोगों को सबको जेल दे दी। दे दी कि नहीं दे दी? ऐसी जेल दे दी जिसमें तुम खुद जेलर हो। कोई बाहर से नहीं आया ताला लगाने। पर तुम्हारी हिम्मत नहीं पड़ेगी बाहर निकलने की। निकलो बाहर, और मरोगे।

समझ में आ रही है बात?

कुछ दुष्टई तो करी होगी न, कुछ कुकर्म तो करा होगा, कुछ पाप तो करा होगा। जो कारागार की सज़ा मिली। और अभी वो सज़ा टल नहीं गयी है। कोई नहीं जानता कि वायरस का अभी क्या रूप आने वाला है। कोई नहीं जानता कि अगला वायरस कौनसा आएगा जिस तरीके से हमारी हरकतें हैं। समझ में आ रही है बात?

तो देवी को बहुत कुछ नहीं करना पड़ता। बस ‘हूँ’। एक नन्हा सा वायरस और सब भस्म हो जाता है। कुछ नहीं बचता, चिताएँ-ही-चिताएँ । समझ में आ रही है बात? छेड़ो तुम प्रकृति को, फिर देखो क्या होता है!

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी! आपने अभी कोरोना के उदाहरण के द्वारा दैवीय प्रकोप को समझाया। लेकिन वे लोग जो दैत्य नहीं हैं उन्हें भी इस दैवीय प्रकोप का सामना क्यों करना पड़ता है?

आचार्य: सब, सब आठ-सौ-करोड़ लोग, सब आठ-सौ-करोड़ लोग, सब। इसीलिए अध्यात्म बार-बार बोलता है कि किसी भी कुकृत्य से ये कह करके अपनी ज़िम्मेदारी समाप्त मत मान लेना कि मैंने नहीं किया, मैंने नहीं किया।

कर्मफल व्यक्तिगत तो होता ही होता है, वो सामूहिक भी होता है। तुमने किया भले नहीं पर तुम्हारे सामने हो रहा था न, तुम्हें दंड मिलेगा। तुम जिस काल में जीवित हो, उसी काल में पृथ्वी का नाश हो रहा था न। भले ही तुमने नाश नहीं किया। पर तुम्हारे ही काल में हो रहा है। तुम देख रहे हो, तुम्हें भी दंड मिलेगा।

तुमने क्या वो सबकुछ करा उस चीर-हरण को रोकने के लिए, जो तुम कर सकते थे? यदि नहीं करा तुमने वो सबकुछ तो भले ही चीर-हरण में हे भीष्म! तुम्हारा हाथ न हो लेकिन दंड तुम्हें भी मिलेगा। चीर-हरण करा किसने था? दुःशासन ने। दुर्योधन की आज्ञा पर। पर दंड द्रोण को भी मिला, भीष्म को भी मिला। क्यों? उन्होंने तो नहीं किया न, वो उपस्थित थे इसलिए मिला।

इसी तरीके से आज पृथ्वी पर जो कुछ हो रहा है उसका दंड हमें भी मिलेगा, भले ही हमने करा नहीं। क्यों? क्योंकि हम उपस्थित हैं। और जो हम अधिक-से-अधिक कर सकते हैं, आज जो हो रहा है उसे राकने के लिए, हमने वो करा नहीं है न।

तो क्या पैमाना है इस बात का कि आपने अधिकतम करा कि नहीं करा? आपने अधिकतम तब तक नहीं करा, जब तक आपने जो हो रहा है उसको रोक ही नहीं दिया। या तो उसको रोक दो या रोकने के प्रयास में मिट जाओ।

आप अभी हो और जो कुकृत्य चल रहा है वो चल ही रहा है। इसका मतलब आपने अधिकतम करा नहीं न। आपने अधिकतम अगर कर दिया होता, तो या तो जो चल रहा है शोषण प्रकृति का, आपने रोक दिया होता उसको। या उस शोषण को रोक पाने के प्रयास में आप समाप्त हो गये होते, मिट ही गये होते। न आप समाप्त हुए हो, न शोषण समाप्त हुआ है।

इसका मतलब आपने पूरी तरह प्रयास नहीं किया, और नहीं किया तो फिर जैसे बाकियों को सज़ा मिल रही है आपको भी मिलेगी। जैसे बाकियों को फिर वायरस का डर है कि आपको भी घर में कैद रहना होगा।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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