प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। आचार्य जी, सही-गलत, पाप-पुण्य, सत्य-असत्य की परिभाषा हमेशा मुझे भ्रम और संशय देती है, इस द्वन्द्व से मार्ग कैसे ढूँढें?
आचार्य प्रशांत: होश में आओ और फिर होश को जाने मत दो, पानी जैसे हो जाओ। किसी पथरीले पहाड़ पर पानी की एक धार छोड़ो, देखो, वो कैसे अपना रास्ता तय करती है। पहाड़ है पथरीला, ऊबड़-खाबड़ चट्टानों से भरा हुआ, कहीं गड्ढा, कहीं कुछ और तुमने धार छोड़ी है। धार कहीं रुककर के विचार नहीं करती कि कौन सा मार्ग मेरे लिए ठीक है, कौन सा नहीं। उसे पता है किधर को जाना है। वो समर्पित है उस जगह पहुँच जाने को, जिसके बाद गति की कोई आवश्यकता नहीं रहेगी। नीचे कोई तालाब होगा, एक बार धार वहाँ तक पहुँच गयी, क्या उसके बाद भी बहती है?
श्रोता: नहीं।
आचार्य प्रशांत: वैसे ही जब तुम समर्पित हो जाते हो सच्चाई को, शान्ति को, तो रास्ता अपना खुद निकाल लेते हो, तुम्हें सोचना नहीं पड़ता। रास्ता निकालना सहज हो जाता है क्योंकि तुम्हें पता है कि तुम्हें कहाँ जाना है। तो तुमने पूछा, ‘क्या अच्छा, क्या बुरा, क्या पाप, क्या पुण्य?’ जो कुछ तुम्हें तुम्हारी आखिरी मंज़िल की ओर ले जाए वही अच्छा, वही पुण्य। और जो कुछ तुम्हें तुम्हारी आखिरी मंज़िल से विमुख कर दे, दूर कर दे, वही बुरा, वही पाप। आखिरी मंज़िल अपनी खुद ही जानते हो न? तुम्हें चुप होना है, तुम्हें मौन होना है, तुम्हें पूर्णता से इतना भर जाना है कि और कुछ माँगना न पड़े। तुम्हें ठहर जाना है, तुम्हें विश्राम में आना है, ये आखिरी मंज़िल है।
जो कुछ तुम्हें उधर ले जाए, उसका आँख मूँदकर के अनुपालन करना। और जो कुछ तुम्हें उसके विपरीत ले जाए, उसकी ओर चल मत देना। सही-गलत का और कोई पैमाना होता नहीं। समाज के दिये मापदंडों से ज़रा बचना। दुनिया भी बताती है, ‘ये ठीक है, ये नहीं, ये नही।’ वो सब सुन लो, पर वो बातें तुम्हारे लिए उपयुक्त और उपयोगी हों ये आवश्यक नहीं है। तो उन बातों को सुन भले ही लेना, पर अपना आखिरी निर्धारण तुम इसी कसौटी से करना कि मैं जो कर रहा हूँ वो शान्ति की ओर ले जा रहा है या जीवन को और अस्त-व्यस्त कर देगा।
अगर शान्ति की ओर ले जा रहा है, तो जिधर को भी जा रहे हो चल दो। भले ही लगे कि ये तो मुड़ गये। धारा को देखा है न, वहाँ पहुँचना होता है बीच-बीच में ऐसे (अपने हाथों से मुड़ने का इशारा करते हुए) होकर के जाती है, वो चलेगा। मंज़िल सदा मन में बसी रहे, यात्रा अपने आप तय हो जाती है। मंज़िल को भूले तो यात्रा दुश्वार है; न सिर्फ़ दुश्वार है, बल्कि भटकी हुई है। अब यात्रा में तकलीफ़ भी बहुत लगेगी, ऊँह-आँह करोगे। कहोगे, ‘अरे! ये करा नहीं जा रहा, अरे कितना और करना है, नहीं और नहीं चलेंगे।’ अगर ये सब होने लगा है तो उसकी वज़ह फिर एक ही है — तुम्हारा मन ज़्यादा चपल है, मंज़िल को भुला देता है, दस और चीज़ें याद करने लग जाता है।
मंज़िल लगातार याद रहे। एक चश्मा पहन लो जिसमें से संसार न दिखाई देता हो, आँखों के सामने बस मंज़िल रहती हो। या संसार दिखाई भी देता हो तो मंज़िल के माध्यम से दिखाई देता हो, मंज़िल के रंग से दिखाई देता हो।
प्र: इस दुनिया में बुरा या गलत कोई भी नहीं है?
आचार्य प्रशांत: अभी-अभी तो हमने कहा कि गलत कुछ होता है, बेहोशी गलत है, शान्ति को भुला देना गलत है और ऐसा वाक्य लिख देना भी गलत है।
प्र: इस दुनिया में बुरा या गलत कोई भी नहीं है, सभी अपने हिसाब से अच्छा और सही ही करते हैं, फिर भी इस दुनिया में लोगों के साथ गलत क्यों हो जाता है?
आचार्य प्रशांत: हाँ, सब सही करते हैं, पर सब — जैसा कि आपने लिखा, अपने हिसाब से सही करते हैं, इसीलिए गलत हो जाता है। तुम्हारा हिसाब तो सदा गलत ही होगा न, तुम्हें हिसाब करना आता कहाँ है? अच्छा बस उनके साथ होता है जो ऊपर के हिसाब पर चलते हैं। तुम्हारा जो व्यक्तिगत लेखा-जोखा है, वो तो अन्धेरे में तीर मारने जैसा है। तुम ये जानते नहीं कि तुम्हें कहाँ पहुँचना है, तुम ये जानते नहीं कि रास्ता कौन सा है जो तुम्हें ले जाएगा, तुम ये जानते नहीं कि तुम्हारा वाहन क्या है। और तुम ये भी नहीं जानते कि तुम्हें वाहन चलाना आता भी है या नहीं। पर तुमने खूब हिसाब लगा लिया है कि कितनी देर में पहुँच जाओगे। ऐसा है तुम्हारा हिसाब। और संसार में जो बैठा है, वो ऐसे ही कुछ हिसाब लगाकर के बैठा है।
मंज़िल क्या है इसका पता नहीं, लेकिन क्या करके मंज़िल तक पहुँच जाएँगे ये सबको पता है। और सब वही करने में जुटे हुए हैं। जिसको देखो मेहनत कर रहा है, सब तत्पर हैं, ‘ऐसे चलो, वैसे चलो, यहाँ जाना है, वहाँ जाना है।’ और कहाँ जाना है, और कैसे जाना है, और किस माध्यम से जाना है, और जाने वाला कौन है, इसका कुछ पता नहीं और हिसाब तब भी लगाया जा रहा है। तो ऐसे हिसाबों पर चलकर के दुख तो मिलेगा न? ऊपर के हिसाब पर चलने का क्या अर्थ होता है? उसका अर्थ होता है कि जहाँ पहुँचना है, उसी से पूछ लो कि बताओ कैसे आएँ। जहाँ पहुँचना है, उस तक पहुँचने की व्यक्तिगत कोशिश की जगह अपने आप को उसके हवाले कर दो कि तुम्हें सौंप दिया अब अपने आप को, अब तुम जैसे चाहो वैसे हमें अपने तक लेकर के आओ।
इसका अर्थ ये नहीं है कि आप श्रम नहीं करेंगे, उद्यम नहीं करेंगे। इसका अर्थ ये है कि अब आपका श्रम आपकी व्यक्तिगत बुद्धि से संचालित नहीं होगा। श्रम तो आप खूब करेंगे, पर अपनी व्यक्तिगत बुद्धि से नहीं। और आगे की कहता हूँ, इसका अर्थ ये है कि अब आपकी व्यक्तिगत बुद्धि वास्तव में व्यक्तिगत नहीं होगी, वो समष्टि में समाहित होगी। बुद्धि अब आपकी ऐसी हो जाएगी कि आपको विचार ही वही आएँगे जो मानो आपके न हों। आपके विचार अब परमात्मा के विचार हो जाएँगे। आपकी प्रेरणा ही परमात्मा की हो जाएगी। आप परमात्मा के बिलकुल पीछे-पीछे चलेंगे, या कह दीजिए कि बगल में चलेंगे। जैसे दो समानान्तर रेखाएँ चलती हों कि उनमें कभी दूरी बढ़ती ही न हो, बिलकुल जैसे ट्रेन की पटरी। ये दो पटरियाँ हैं, जिनमें जैसे एक पटरी दूसरे का अनुसरण कर रही है कि तुम जहाँ जाओगी, हम साथ-साथ चले चलेंगे। जब तुम ऐसे हो जाओगे, मात्र तब तुम्हारा हिसाब ठीक बैठेगा।
दुनिया उपद्रव से भरी हुई है, दुनिया दुख से भरी हुई है और दुनिया में जिसने चाहा है हमेशा सुख ही चाहा है। तुम्हें दिख नहीं रहा हमारा हिसाब कितना गलत बैठता है? तुमने जिसको सिखाया यही सिखाया है कि झूठ गलत बात है, हिंसा गलत बात है। और देखो, अपने आसपास तुम्हें क्लेश, कपट, हिंसा, व्यभिचार के अलावा कुछ दिखाई देता है? और माँ-बाप बच्चों को सिखाते ही रह गये, ‘बेटा, किसी को दुख मत देना, हिंसा मत करना, झूठ मत बोलना।’ और यहाँ छोटी-मोटी हिंसा नहीं है, यहाँ अणुबम चल रहे हैं। जो अणुबम चला रहे हैं वो भी किसी के बच्चे ही रहे होंगे। उनको भी उनके माँ-बाप ने यही सिखाया होगा, क्या? हिंसा बुरी बात है। और हिंसा बुरी बात कहते-कहते दुनिया आज महाविनाश की कगार पर आ गयी।
तुम्हें दिख नहीं रहा कि हमारा हिसाब, हमारी सीख, हमारी व्यक्तिगत सोच और समझ कितनी झूठी है? हम कुछ नहीं जानते कि मामला क्या है, लेकिन विश्वास हमें पूरा है कि अपनी ही बनायी राह चलेंगे।
प्र२: मैंने आपको मृत्यु के विषय में कहते हुए सुना था कि मृत्यु न तो टोटल डिपार्चर है न ही *टोटल डिज़ोल्यूशन*। तो आपने मृत्यु मुक्ति नहीं है यह कैसे जाना, क्योंकि जो मर गया वह तो नहीं आएगा बताने?
आचार्य प्रशांत: अगर आप घर में बैठे हैं अपने, तो ये तो जानते ही हैं न कि कौन सी जगह घर नहीं है? मृत्यु अन्तिम मुक्ति नहीं है। ये आप बेशक कह सकते हैं अगर आप अन्तिम मुक्ति पर स्वयं ही बैठे हैं। अगर आप सही जगह पर खड़े हैं, तो जान गये है न कि कौन-कौन सी जगहें सही नहीं हैं। जहाँ आप हैं, उसके अतिरिक्त जो कुछ है वो घर नहीं है। मुक्ति मरकर के नहीं मिलती। मरना तो वैसे ही है जैसे जीवन का पाना, जैसे जन्म। मृत्यु में इतना ही है कि जो कहानी कभी शुरू हुई थी, वो कहानी कभी खत्म हो गयी। उसका मुक्ति से कोई लेना-देना नहीं।
मुक्ति तो तब है जब ये सबकुछ जो चल रहा है यन्त्रवत, जन्म, जीवन-मरण, सब दिख गया, सब समझ में आ गया और सबके प्रति जो धारणा थी, और लिप्सा थी, वो हट गयी। जब दिख गया कि तुम घर में बैठे हो और यहाँ से उड़ा हवाई जहाज — घर के एक तरफ़ से, बहुत दूर से — और फिर उड़कर के घर के ऊपर से निकला। और फिर उधर कहीं जाकर के पुनः ज़मीन पर आ गया। तुम कह पाओगे न साफ़-साफ़ कि अपने घर पर बैठकर के मैंने तीनों को देखा? किन तीनों को? टेकऑफ़ (उड़ान भरना) को, उड़ान को, और लैंडिंग (अवतरण) को। और मैं साफ़ कह सकता हूँ कि तीनों में से ही कोई भी घर नहीं है, मुक्ति नहीं है, टोटल डिपार्चर (कुल प्रस्थान) कुछ नहीं है। न तो टेकऑफ़ था टोटल डिपार्चर , न उड़ान थी टोटल डिपार्चर , न लैंडिंग है टोटल डिपार्चर , हमें दिख रहा है।
प्र२: आपने आइ टेंडेंसी (अहम् वृत्ति) की बात करी थी कि व्यक्ति की मृत्यु के बाद भी अहम् वृति बची रहती है। तो ये कैसे कहा जा सकता है कि व्यक्ति मर नहीं सकता? हम तो उस स्टेज़ में पहुँचे नहीं हैं, तो अभी तो हमलोग बात कर पा रहे हैं न इस बारे में?
आचार्य प्रशांत: तो क्या हो गया बात कर पाने से?
प्र: अहम् वृत्ति बनी रहेगी, उसके लिए इतना निश्चित कैसे हैं आप?
आचार्य: क्योंकि मौतें होती रहती हैं, आइ टेंडेंसी बची रहती है। आइ टेंडेंसी (अहम् वृत्ति) व्यक्तिगत थोड़े ही होती है। तुम आइ को बोलते हो ‘मैं’, तो इसलिए तुम्हें लग रहा है कि आइ टेंडेंसी की बात हो रही है तो जैसे तुम्हारे जिस्म की उस व्यक्ति की बात हो रही है। आइ टेंडेंसी की बात हो रही है, तुम्हारी आइ टेंडेंसी की बात थोड़े ही हो रही है। एक लहर थी; क्या नाम है तुम्हारा?
प्र: सौरभ।
आचार्य प्रशांत: एक लहर थी उसका नाम था ‘सौरभ’, वो लहर मिट गयी। सौरभ मिटा न, लहर जो है वो तो नहीं मिट गयी न? अनन्त लहरें हैं। द टेंडेंसी टू वेब इज़ स्टिल एक्जिस्ट इन ओसन (समुद्र में लहरों की वृत्ति अभी भी मौजूद है), *आइ टेंडेंसी*। सौरभ नहीं रहा, सौरभ जैसी पचास और लहरें खड़ी हुई हैं, तो? टेंडेंसी समझते हो, वृत्ति? कि सागर लहराता रहेगा, ये सागर की वृत्ति है ,*टेंडेंसी*। सौरभ की लहर गयी तो गौरव की लहर आ गयी, पर लहर रहेगी। सागर लहराएगा, ये उसकी टेंडेंसी है।
तुम सिर्फ़ एक उदाहरण हो, तुम एक व्यक्तिगत मेनिफेस्टेशन (अभिव्यक्ति) हो। जैसे कि कोई फैक्ट्री हो, उसमें से उत्पाद निकलते हों एक-के-बाद एक। वो काफ़ी कुछ एक से होते हैं और उनमें थोड़े-थोड़े अन्तर भी होते हैं। तो उनमें से जो माल निकल रहा है, जो पैकेज्ड प्रोडक्ट, तुम उसकी बस एक इकाई हो, एक विशिष्ट यूनिट। तुम नहीं रहोगे, तुम्हारे पीछे से दूसरा आ जाएगा, बट द टेंडेंसी ऑफ़ द फैक्ट्री टू कीप प्रोड्यूसिंग रिमेन्स (लेकिन कारखाने की वृत्ति रहेगी उत्पादन जारी रखने की)। तुम नहीं हो तो कोई और। और जितने निकल रहे हैं वो अपने आप को क्या बोल रहे हैं? क्या बोल रहे हैं? वो सब अपने आप को क्या नाम देते हैं सर्वप्रथम?
प्र: आइ , मैं।
आचार्य प्रशांत: *आइ*। तो ये जो आइ कहने की टेंडेंसी है, ये मरी क्या? सौरभ वाला डिब्बा मर गया, सौरभ वाली लहर मिट गयी। पर जो ही लहर है, वो अपने आप को क्या बोल रही है?
प्र: *आइ*।
आचार्य प्रशांत: तो आइ टेंडेंसी ?
प्र: बची हुई है।
आचार्य प्रशांत: हाँ, तो गड़बड़ हो गयी।
प्र: टोटल डेथ (पूर्ण मृत्यु) है क्या बीच में?
आचार्य प्रशांत: इतने सस्ते में, ऐसे!
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