प्रश्नकर्ता: सर, अभी दशहरा आ रहा है और हर साल हम दशहरा मनाते आ रहे हैं लेकिन दशहरा का वास्तविक अर्थ क्या है?
आचार्य प्रशांत: जिसके दस सिर वही रावण। रावण वो नहीं जिसके दस सिर थे। जिसके ही दस सिर हैं, वही रावण। और हम में से कोई ऐसा नहीं है जिसके दस, सौ, पचास, छः हज़ार सिर ना हों। दस सिरों का अर्थ समझते हो? एक ना हो पाना, चित्त का खंडित अवस्था में रहना। मन पर तमाम तरीके के प्रभावों का होना और हर प्रभाव एक हस्ती बन जाता है। वो अपनी एक दुनिया बना लेता है। वो एक सिर, एक चेहरा बन जाता है इसीलिए हम एक नहीं होते हैं।
रावण को देखो न, महाज्ञानी है पर शिव के सामने जो वो है क्या वही वो सीता के सामने है?
राम वो जिसके एक सिर, रावण वो जिसके अनेक सिर।
दस की संख्या को सांकेतिक समझना। दस माने दस ही नहीं, नौ माने भी दस, आठ माने भी दस, छः माने भी दस और छः हज़ार माने भी दस। एक से ज़्यादा हुआ नहीं कि दस; अनेक। जो ही अलग-अलग मौकों पर अलग-अलग हो जाता हो, वही रावण है। मज़ेदार बात ये है कि रावण के दस सिरों में एक भी सिर रावण का नहीं है क्योंकि जिसके दस सिर होते हैं उसका तो अपना सिर होता ही नहीं। उसके तो दसों सिर प्रकृति के होते हैं, समाज के होते हैं, परिस्थितियों के होते हैं। वो किसी का नहीं हो पाता।
जो अपना ही नहीं है, जिसके पास अपना सिर नहीं है वो किसी का क्या हो पाएगा! एक मौक़ा आता है, वो एक केंद्र से संचालित होता है, दूसरा मौका आता है, उसका केंद्र ही बदल जाता है। वो किसी और केंद्र से संचालित होने लग जाता है। उसके पास अनगिनत केंद्र हैं, हर केंद्र के पीछे एक इतिहास है, हर केंद्र के पीछे एक दुर्घटना है, एक प्रभाव है। कभी वो आकर्षण के केंद्र से चल रहा है, कभी वो ज्ञान के केंद्र से चल रहा है, कभी वो घृणा के केंद्र से चल रहा है, कभी लोभ के केंद्र से, कभी संदेह के केंद्र से। जितने भी हमारे केंद्र होते हैं, वो सब हमारे रावण होने के द्योतक हैं।
राम वो जिसका कोई केंद्र ही नहीं है, जो मुक्त आकाश का हो गया।
यहाँ एक वृत्त खींच दिया जाए और आपसे कहा जाए कि इसका केंद्र निर्धारित कर दें, आप ऊँगली रख देंगे, “यहाँ पर”। आप इस मेज़ का भी केंद्र बता सकते हैं (मेज़ की ओर दिखाते हुए)। आकाश का केंद्र आप नहीं बता पाएँगे। आकाश में तो तुम जहाँ पर हो वहीं पर केंद्र है; अनंत है। राम वो जो जहाँ का है, वहीं का है।
अनंतता में प्रत्येक बिंदु, ‘केंद्र’ होता है।
राम वो जो सदा स्वकेंद्रित है, वो जहाँ पर हैं, वहीं पर केंद्र आ जाता है। रावण वो जिसके अनेक केंद्र हैं और वो किसी भी केंद्र के प्रति पूर्णतया समर्पित नहीं है। इस केंद्र पर है तो वो खींच रहा है, उस केंद्र पर है तो वो खींच रहा है। इसी कारण वो केंद्र-केंद्र भटकता है, घर-घर भटकता है, मन-मन भटकता है।
जो मन-मन भटके, जो घर-घर भटके, जिसके भीतर विचारों का लगातार संघर्ष चलता रहे, वो रावण।
काश की दशहरे का तीर भीतर को चलता। असल में रावण की पहचान ही यही है कि उसके सारे तीर बाहर को चलते हैं तो जब हम रावण को मारते हैं तो हम रावण हो कर के ही मारते हैं। राम तो वो है जो पहले स्वयं मिट गया। जो अभी ख़ुद ना मिटा हो वो रावण को नहीं मिटा पाएगा। रावण के ही तल पर रावण से बैर करना असंभव है।
राम यदि रावण से जीतते आएँ हैं तो उसकी वजह बस यही है कि वो रावण के सामने से नहीं, रावण के ऊपर से युद्ध करते हैं।
रावण के सामने जो है वो तो रावण से हारेगा। जो ‘रावणतुल्य’ ही है वो रावण से कैसे जीतेगा। जिसे पहले दस सिर वाले को हराना हो उसे पहले अपना सिर कटाना होगा। जिसका अपना कोई सिर नहीं, अब वो हज़ार सिर वाले से जीत लेगा। हम वो हैं, जिनके अपने ही रावणनुमा हज़ार सिर हैं इसीलिए हमें रावण को मारने में बड़ा मजा आता है और हर साल मारते हैं। मार-मार कर के हर्षित हो जाते हैं कि मर तो ये सकता नहीं।
असल में ये बड़े गर्व की बात होती है कि, ‘जान बहुत है पट्ठे में।’ हर साल मारा जाता है और लौट कर आ जाता है, फ़िर तो आत्मा हुआ रावण; अमर है। हमें अमरता का और तो कुछ पता नहीं, सच तो ये है कि हमारा अहंकार, रावण को कभी पूरा ना मरता देख कर के मन-ही-मन मुस्कुरा लेता है। कहता है कि, "जैसे ये कभी मर नहीं रहा न, वैसे ही मरोगे तुम भी नहीं।" आत्मा अमर है तो माया भी तो अमर है। कौन मार पाया आज तक माया को?
अब अमरता के लिए आत्मा होना ज़रा टेढ़ी खीर है; वहाँ कई तरीके के झंझट- ये छोड़ो, ये ना करो, वो करो। रूप नहीं चलेगा, रंग नहीं चलेगा, व्यसन नहीं चलेगा, विकार नहीं चलेगा। (व्यंगात्मक तरीके से) अरे! अमर ही होना है न? एक पिछला दरवाज़ा है, ‘माया’ का। माया को भी कौन मार सका आज तक? जब तक संसार है, तब तक माया रहेगी। तो हम उस रूप में फिर अमर हो जाना चाहते हैं। कभी विचार किया आपने, हर साल मारते हो, कभी मार ही दो कि, ‘अब गया।’ अब इसका श्राद्ध ही हो सकता है पर अब दोबारा मारने की ज़रूरत नहीं पड़ सकती। हमने श्राद्ध करते तो किसी को देखा नहीं। मरा होता तो?
प्र: चौथा मनाते।
आचार्य: अरे! छठा, चौथा, तेरहवाँ कुछ तो मनाते। कुछ नहीं होता, वो फिर खड़ा हो जाता है। उतना ही बड़ा और हम ही खड़ा करते हैं। आतंरिक विभाजन का ही नाम रावण है और सत्य के अतिरिक्त, आत्मा के अतिरिक्त जो कुछ भी है वो विभाजित है। जहाँ विभाजन है, वहाँ आप चैन नहीं पा सकते। उपनिषद् कहते हैं- ‘नाल्पे सुखं’, अल्प में सुख नहीं मिलेगा। सिर्फ़ जो बड़ा है, अनंत है, सुख वहीं है, ‘योवैभूमा तत सुखं’। जहाँ दस हैं, वहाँ दस में से हर खंड छोटा तो होगा ही न? अनंत होता तो दस कैसे होते, दस अनंतताएँ तो होती नहीं।
छोटे होकर जीना, खंडित होकर जीना, दीवारों के बीच जीना, प्रभावों में जीना, इसी का नाम है रावण।
शांत हो कर के जीना, विराट हो कर के, आकाश हो कर के जीना, इसका नाम है राम। जहाँ क्षुद्रता है, हीनता है, दायरे हैं, वहीं समझ लीजिए राक्षस वास करता है। वहीं पर आपकी सारी व्याधियाँ हैं।
जिसने अपने आप को छोटा जाना वही रावण हो गया। जिसने अपने भीतर किसी कमी को तवज्जो दी वही रावण हो गया। जो इस भावना में जीने लग गया कि, "भूखा हूँ, प्यासा हूँ, और अभी सल्तनत और बढ़ानी है, और अभी रनिवास में एक सीता और जोड़नी है, और अभी एक दुश्मन और फ़तह करना है", वही रावण हो गया। जो ही आतंरिक रूप से छोटा होकर यूँ डर गया कि सद्वचन से मुँह फेर ले और जो राम का नाम ले उसे देश-निकाला दे दे, उसे अपने से दूर कर दे, वही रावण हो गया।
प्र: सर, अगर एक आदमी है जो बदल नहीं रहा हर परिस्थिति में। वो एक बना हुआ है तो वो अगर अपनी तरफ से खुश है, किसी से कुछ ले नहीं रहा दे नहीं रहा, तो दुनिया कहती है, "देखो, अकड़ कितना रहा है।"
आचार्य: रावण वो जिसे दुनिया के बोलने से फ़र्क पड़ता हो। अब मैं निवेदन कर रहा हूँ कि अब मैं जितना बोल रहा हूँ, उतना ही बोल रहा हूँ। मेरी बात में अपनी बात जोड़ करके सामने ना रखा करें। मैंने कब कहा कि आदमी कभी बदले न? मैंने कहा आप किस केंद्र से संचालित हो रहे हैं, ये ज़रूरी है।
रावण वो जो कभी भय के केंद्र से संचालित हो रहा है, कभी संदेह के केंद्र से, कभी राग, कभी द्वेष, कभी क्रोध, कभी गर्व। राम वो जिनके केंद्र में एक मौन है, एक खालीपन, स्थिरता। जहाँ कुछ भी पहुँचता नहीं, जिसे कुछ भी गंदा नहीं कर सकता।
रावण वो जिसने एक ऐसी जगह को केंद्र बना लिया है जिसे गंदा करना आसान है कि कोई आया और ज़रा सा व्यंग कर दिया, तो चोट लग गई। आपने केंद्र ऐसी जगह को बना दिया था जो इतनी सतही है कि उस तक समाज की, दूसरों की चोट पहुँच जाती है।
आपका केंद्र इतना गहरा होना चाहिए कि जैसे पृथ्वी का गर्भ जहाँ पर आपकी खुर्पी और कुदाल और मशीनें पहुँच ही नहीं सकतीं, या आपका केंद्र इतना ऊँचा होना चाहिए कि जैसे आकाश की गहराई कि जिसको आपका विचार भी ना नाप सकता हो, कि जिस पर कोई पत्थर उछाले तो पत्थर वापस ही आ कर के गिरेगा; आप तक नहीं पहुँचेगा।
आप इतने गहरे बैठे हो कि वहाँ कोई चोट, कोई पत्थर, कोई उलाहना, कोई उपहास पहुँचती ही नहीं, “तुम्हें जो करना है कर लो, तुम्हें जितना परेशान करना है कर लो, तुम मुझे ख़रोंचें तो मार सकते हो, तुम मुझे लहू-लुहान तो कर सकते हो पर तुम मेरे केंद्र तक नहीं पहुँच सकते। वो तुम्हारी पहुँच से बहुत दूर है”।
"दुनिया क्या कहेगी, क्या सुनेगी, क्या सोचेगी, ये बातें तो सतही तौर पर हम संज्ञान में ले लेते हैं पर गहराई से हमें इससे कोई लेना-देना है नहीं। जो मन में आए कहते रहो। जैसे तुम ऊपर-ऊपर से कह देते हो, वैसे हम ऊपर-ऊपर से ले लेंगे पर तुम्हारी कही बात को हम आत्मा नहीं बनने देंगे, अपना केंद्र नहीं बनने देंगे। हम अपने ह्रदय को नहीं मलिन होने देंगे, तुम्हारे आक्षेपों से।" जो ऐसा हो गया, सो राम। जो ऐसा नहीं हुआ, उसके पास राम और रावण के बीच का कोई विकल्प नहीं है। जो राम नहीं सो रावण।
तो ये ना सोचिएगा कि राम से बच कर के आप मध्यवर्ती कुछ हो सकते हैं, कि राम तो नहीं हैं पर रावण भी नहीं हैं। तो क्या हैं आप? “जी हम ‘रामण’ हैं”। नहीं, ये चलेगा नहीं। ये आध्यात्मिक खिचड़ी होती नहीं।
या तो राम, नहीं तो रावण। सत्य, नहीं तो माया। जागृति, नहीं तो अंधकार। समर्पण, नहीं तो अहंकार।
और, बड़ा मेहनत का काम है रावण होना। तकिया तक पता नहीं किस तकनीक से बनता होगा। करवट लेने की दुश्वारियाँ समझिए और, यदि आप स्त्री हैं तो रावण की पत्नी होने की तकलीफ सोचिए। दस सिर हैं। उससे कहीं सहज है राम हो जाना। आपको मेहनत करने में कुछ विशेष आनंद है क्या? दाढ़ी बनाते-बनाते आधा दिन बीत जाएगा, और खर्चे सोचिए।
(सभी हँसते हैं)
हमारे भी तो खर्चे इसीलिए होते हैं। एक सिर की एक माँग होती है वो पूरी करो, दूसरे सिर की दूसरी माँग आ जाती है, तीसरे सिर की तीसरी माँग आ जाती है। अब मुश्किलें, अब मेहनतें, अब खर्चे।