आचार्य प्रशांत: औद्योगिक क्रान्ति से पहले दो-सौ-सत्तर, दो-सौ-अस्सी पीपीएम कार्बन डाईऑक्साइड होती थी। अभी बताइएगा कितनी होगी? (श्रोता उत्तर देते हैं) नहीं, नहीं। उतनी हो गयी तो फिर तो ख़त्म। अभी साढ़े-चार सौ।
उन्नीस-सौ-नब्बे में क्योटो प्रोटोकॉल के आसपास के वर्षों की बात कर रहा हूँ, से लेकर अभी तक ही क़रीब-क़रीब पचास प्रतिशत इज़ाफ़ा हो गया है कार्बन डाईऑक्साइड के स्तर में। और ये तब है जब सन् १९९० में सब देश मिले ही इसलिए थे क्योटो में, क्योंकि स्पष्ट हो चुका था कि कार्बन डाईऑक्साइड और बाक़ी ग्रीन हाउस गैसें बहुत बड़ा ख़तरा हैं। उसके बाद भी १९९० से लेकर अभी तक क़रीब-क़रीब पचास प्रतिशत की वृद्धि हो गयी है इन गैसों के स्तर में, इतना बढ़ गयी हैं। और वृद्धि हो ही नहीं गयी है, प्रतिवर्ष वृद्धि अभी हो ही रही है।
हम कितनी बड़ी समस्या के सामने खड़े हैं, उसको जानने के लिए बस इतना समझ लीजिए कि अगर हमको स्थिति को नियन्त्रण में लाना है, तो हर आदमी अधिक-से-अधिक साल में दो टन कार्बन डाईऑक्साइड इक्वीवैलेंट (बराबर) का उत्सर्जन कर सकता है।
भाई, कार्बन डाईऑक्साइड आदमी से ही तो पैदा हो रही है न? दुनिया में कार्बन डाई-ऑक्साइड जहाँ से भी उत्सर्जित हो रही है अन्तत: आदमी के लिए ही है वो जगह। भई, फ़ैक्ट्री से भी निकाल रही है तो उस फ़ैक्ट्री के उत्पाद का उपभोक्ता कौन है? आदमी। तो हम ये थोड़े ही कहेंगे कि फ़ैक्ट्री ने वातावरण को गन्दा कर दिया! उस फ़ैक्ट्री के माल का जो लोग उपभोग करेंगे, उन्होंने गन्दा किया न? फ़ैक्ट्री में चेतना या जान तो है नहीं, फ़ैक्ट्री की अपनी तो कोई मंशा है नहीं। तो दुनिया से जितनी भी कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जित होती है, वो सब किनके लिए हो रही है? इंसानों के लिए हो रही है।
तो आँकड़ा ये सामने आया है कि अगर इसको रोकना है तो अधिक-से-अधिक दो टन प्रतिवर्ष कार्बन डाईऑक्साइड इक्विवैलेंट (के बराबर) का उत्सर्जन एक आदमी कर सकता है। ये लक्ष्य वर्ष २०५० के लिए रखा गया है और इस लक्ष्य को रखकर के माना गया है कि अगर २०५० तक इतना कम कर लिया, तो भी वातावरण में दो डिग्री की तो औसत वृद्धि हो ही जाएगी, क़रीब-क़रीब एक डिग्री की अभी हो चुकी है। जो आम औसत तापमान है, उससे हम क़रीब शून्य दशमलव आठ पाँच डिग्री सेंटिग्रेट आगे आ चुके हैं, एक डिग्री ही मान लीजिए। और दो डिग्री का लक्ष्य रखा गया कि दो डिग्री पर रोक दो भाई!
दो डिग्री पर रोकने पर भी वैज्ञानिक कह रहे हैं कि अगर आपने दो डिग्री पर भी रोक दिया, तो भी प्रलय है। और दो डिग्री से आगे चला गया तो पूछो ही मत, वो तो अकल्पनीय है कि क्या होगा। दो डिग्री पर रोकने पर सुरक्षित हैं आप, ऐसा नहीं है। और दो डिग्री पर रोकने के लिए भी आपको हर आदमी द्वारा उत्सर्जित की जा रही कार्बन डाईऑक्साइड कितने पर रोकनी पड़ेगी? प्रतिवर्ष दो टन पर रोकनी पड़ेगी। अभी कितनी है? कोई अनुमान लगाना चाहेगा?
श्रोता: दस टन।
आचार्य प्रशांत: अरे! इतनी भी नहीं है बेटा। इतनी है, भारत की नहीं हैं। विश्व का औसत नहीं है, दस टन। अमेरिका की है सोलह टन। अमेरिका की, ऑस्ट्रेलिया की सोलह टन प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष है। और होनी कितनी चाहिए? दो टन। और ये जो सोलह टन है ये सोलह नहीं है, ये हर साल बढ़ रही है, सोलह से साढ़े-सोलह, सत्रह; लाना है दो पर और वो हर साल बढ़ती जा रही है।
भारत की दो टन से कम है। भारतीय भी उसे बढ़ाने पर उतारू हैं। विश्व की तीन-चार टन के औसत पर है; विश्व की तीन-चार टन प्रति व्यक्ति के औसत पर है। भारत की अभी दो टन से कम है। तो इस स्थिति पर हम खड़े हुए हैं। ये आँकड़े थे।
अब इसका जो आध्यात्मिक पक्ष है, इसका जो पक्ष आदमी के मन से सम्बन्धित है, अब मैं उस पर आऊँगा। उस पर आने के लिए ये भूमिका बतानी ज़रूरी थी। ये स्पष्ट हो गया है कि स्थिति कितनी भयावह है? अगर हम दो टन प्रति व्यक्ति प्रतिवर्ष कार्बन डाईऑक्साइड पर भी आ जाते हैं, तो भी कितना तापमान बढ़ जाएगा? दो डिग्री। और दो डिग्री भी बढ़ गया तो कयामत है। अगर हम दो टन पर आ गयें तो भी दो डिग्री बढ़ेगा और दो डिग्री का बढ़ना भी प्रलय जैसी बात है। और अभी जो हमारी हालत है, उस पर हम किसी भी तरीक़े से दो डिग्री पर रुकने नहीं वाले हैं।
मैं कह रहा हूँ कि वैज्ञानिक हलकों में आशंका व्यक्त की जा रही है कि फ़ीडबैक इफ़ेक्ट सक्रिय हो चुके हैं। हो सकता है २०५० तक ही तापमान चार, साढ़े-चार या पाँच डिग्री भी बढ़ चुका हो औसतन। उतना अगर बढ़ गया तो आग लगेगी। और हम ये बहुत दूर की बात नहीं कर रहे हैं। हम अपने जीवन काल की बात कर रहे हैं। हम देखेंगे ये सब, अपनी आँखों से होता हुआ, अपने साथ होता हुआ देखेंगे।
तो अभी तक हमने तथ्य के तल पर एक-दो बातें समझी। पहली बात कार्बन डाईऑक्साइड, मीथेन इत्यादि गैसें जितनी हैं वातावरण में, ये वातावरण के तापमान को बढ़ाती हैं। वातावरण के तापमान के बढ़ने के कारण धरती पर तरह-तरह के अनिष्ट होते हैं। और हमने ये भी देखा कि जितना ग्रीन हाउस गैसों का कंसेंट्रेशन (घनत्व) बढ़ गया है अब वायुमंडल में, उसको वापस लाने के आदमी के प्रयास सफल होते दिखाई नहीं दे रहे हैं। क्योंकि आदमी ने तो सन १९९० से सभाएँ और कॉन्फ्रेंसेस और कनवेन्शन (सम्मेलन) शुरू कर दी थीं और अभी तक भी करता जा रहा है। नतीजा क्या है? कार्बन का स्तर तो लगातार बढ़ ही रहा है।
तो एक बात तो स्पष्ट हो गयी है कि ये काम सरकारों के बस का शायद है नहीं। सरकारों के बस का क्यों नहीं है, वो भी हम समझेंगे। ये काम सरकारों के बस का नहीं है। ये काम वैज्ञानिकों के बस का भी नहीं है क्योंकि जो तथ्य और आँकड़े मैं आपको बता रहा हूँ ये सार्वजनिक हैं, सबको पता हैं लेकिन फिर भी आदमी वायुमंडल में कार्बन डाईऑक्साइड का उत्सर्जन, एमिशन करे ही जा रहा है।
ये जो आँकड़े मैं आपको दे रहा हूँ ये आये दिन अख़बारों में छपते हैं, क्या फ़र्क़ पड़ रहा है? सरकारें मिलती हैं, बैठती हैं, पेरिस-अकॉर्ड, पेरिस-अकॉर्ड की बात करती रहती हैं, क्या फ़र्क़ पड़ रहा है? सामाजिक कार्यकर्ता रैलियाँ निकालते रहते हैं। ग्रेटा थनबर्ग की बात करी और भी बहुत नाम हैं। एक और युवती है जिसने कैम्पेन चला दिया है 'नो फ़्यूचर, नो चिल्ड्रन'। टीनेजर्स उसमें शपथ लेते हैं, कहते हैं कि अगर दुनिया का यही हाल रहा तो हम बच्चे ही नहीं पैदा करेंगे क्योंकि इस दुनिया में बच्चे लाने से लाभ क्या। तो ये कई अभियान चल रहे हैं, पर उनमें से कोई भी अभियान सफल होता दिखाई नहीं दे रहा है।
क्यों नहीं सफल होता दिखाई दे रहा है? अब यहाँ से मेरी बात शुरू होती है, क्योंकि ये बात आदमी के मन की है, आदमी के मूल पहचान की है। ये समस्या वास्तव में आध्यात्मिक है और जब तक आध्यात्मिक तल पर इस समस्या को सम्बोधित नहीं किया जाएगा, मानव जाति के बचने की कोई सम्भावना नहीं है। वातावरण में कार्बन डाईऑक्साइड पहुँच कहाँ से रही है और क्यों रही है? छब्बीस प्रतिशत जो कार्बन डाईऑक्साइड वातावरण में पहुँच रही है, उसका सम्बन्ध आदमी के खानपान से है, सीधे-सीधे माँसाहार से है। छब्बीस प्रतिशत कार्बन डाईऑक्साइड के लिए माँसाहार ज़िम्मेदार है। और बाक़ी चीज़ों के लिए फ्रेट एंड ट्रांसपोर्टेशन (माल-ढुलाई और परिवहन)।
आप जिन भी चीज़ों का उपयोग करते हैं, वो आपके पास ट्रक से लायी जाती हैं, पानी के जहाज़ से लायी जाती हैं, हवाई जहाज़ से लायी जाती हैं, उस सबमें क्या होता है? फ़ॉसिल फ़्यूल (जीवाश्म ईंधन) जलाया जाता है न, फ़ॉसिल फ़्यूल जलाया जाता है न। फ़ॉसिल फ़्यूल समझते हैं न क्या होता है? गैस, पेट्रोल, डीज़ल, ये सब फ़ॉसिल फ़्यूल कहलाते हैं। जिसमें हाइड्रो-कार्बन होते हैं और वो जलते हैं तो कार्बन डाईऑक्साइड निकलती है।
तो खानपान, यात्रा, कंस्ट्रक्शन (निर्माण) — पन्द्रह प्रतिशत कार्बन उत्सर्जन का ज़िम्मा है कंस्ट्रक्शन एक्टिविटीज़, बिल्डिंग कंस्ट्रक्शन (निर्माण गतिविधियाँ, इमारतों का निर्माण)। वो बिल्डिंग ज़रूरी नहीं है आपका घर हो; वो आपका दफ़्तर भी हो सकती है, वो कोई होटल भी हो सकता है; जहाँ कहीं भी कंस्ट्रक्शन हो रहा है। उसके अलावा भाँति-भाँति के जो उत्पाद हम पहनते हैं, ओढ़ते हैं, उपयोग में लाते हैं उससे कार्बन उत्सर्जित होता है। मैं ये नहीं कह रहा ये सब हमारे घरों में हो रहा है।
भई, हवाई जहाज़ चल रहा है, हवाई जहाज़ जो धुआँ छोड़ रहा है, वो तो वायुमंडल की ऊपरी तहों में छोड़ रहा है। आपके घर से वो कार्बन डाईऑक्साइड नहीं निकाल रही है, पर वो जो धुआँ हवाई जहाज़ छोड़ रहा है, किसकी ख़ातिर छोड़ रहा है? वो आपकी ख़ातिर छोड़ रहा है न, आपको यात्रा करनी है। तो उसका ज़िम्मा भी फिर किसका है? हमारा ही है न? इसलिए वायुमंडल से कार्बन डाईऑक्साइड को हटाना इतना मुश्किल हो रहा है क्योंकि उसका सीधा सम्बन्ध आदमी के भोग से है।
तो जानने वालों ने दो बातें कही हैं। वो कह रहे हैं, या तो भोग कम कर दो, या भोगने वालों की संख्या कम कर दो और कोई तरीक़ा नहीं है। या तो प्रति व्यक्ति जितना कंज़म्प्शन (उपभोग) हो रहा है उपभोग हो रहा है या तो वो कम करो, और इतना कम करो कि अमेरिका में सोलह टन उत्सर्जन है, उसको दो टन के स्तर पर ले आ दो। या तो भोग कम कर दो, या फिर भोगने वालों की संख्या कम कर दो; और कोई तरीक़ा नहीं है। और हमसे दोनों ही काम नहीं हो रहे हैं।
क्योंकि हमारे लिए तो सुखी जीवन का मतलब ही यही होता है कि हम भोग रहे हैं और हमारा एक कुनबा है, एक परिवार है, वो भी भोग रहा है। भोगने से काम नहीं चलता न? हम सिर्फ़ वस्तुओं को, पदार्थों को नहीं भोगते, स्त्री-पुरुष एक-दूसरे के शरीर को भी तो भोगते हैं। और उससे पैदा होते हैं बच्चे। और वो जो बच्चा है वो आगे चलकर और भोगेगा। अब आपको एक हैरत-अंगेज़ आँकड़ा बताता हूँ, अगर एक बच्चा पैदा होता है तो वो औसतन अपने जीवनकाल में प्रतिवर्ष अट्ठावन टन कार्बन डाईऑक्साइड का उत्सर्जन करेगा। आज की जो स्थिति है, आज के जो ट्रेंड (प्रचलन) हैं उसके हिसाब से। उसकी तुलना में अगर आप कार्बन डायऑक्साइड कम करने के दूसरे तरीक़े लगाते हैं, तो उन तरीक़ों से एक टन कम हो सकती है। कार्बन डाईऑक्साइड दो टन कम हो सकती है, आधा टन कम हो सकती है।
तो जिन्होंने इस पूरे गणित को समझाया, वो कह रहे हैं कि अगर तुम्हें ग्लोबल वार्मिंग रोकनी है तो जो एक सबसे कारगर तरीक़ा है, वो ये है कि एक बच्चा कम पैदा करो, एक बच्चा अगर तुमने कम पैदा किया तो अट्ठावन प्वाइंट तुम्हारे हैं। उसकी जगह अगर तुम दूसरे तरीक़े आज़मा रहे हो, दूसरे तरीक़े क्या होते हैं? पेड़ लगा देंगे। अब पेड़ लगाने से ये समझो कि एक पेड़ चालीस साल में एक टन कार्बन डायऑक्साइड सोखता है। चालीस साल में एक टन और अगर आपने बच्चा पैदा कर दिया तो एक साल में अट्ठावन टन, अब पेड़ लगाने से क्या क्षतिपूर्ति हो गयी? पेड़ लगाने से कोई प्रायश्चित हो गया?
इसी तरीक़े से बात की जाती है कि ये बिजली के जो बल्ब हैं, ये कम पावर वाले लगाओ। उससे कुछ नहीं होगा, उससे आप ज़रा-सा बचा पाओगे। जो असली दानव है, वो है आबादी। कौनसी आबादी? ऐसी आबादी जो उपभोग करने पर उतारू है।
समझ में आ रही है?
वैज्ञानिक तथ्यों के नीचे इस पूरी समस्या का मानवीय पक्ष है। ये समस्या मानवकृत है, एंथ्रोपोजेनिक है न? हमने बनायी है। हमने कैसे बनायी है, वो समझना ज़रूरी है। हमने बनायी है कंज़म्प्शन कर-करके और बच्चे पैदा कर-करके, उपभोग के माध्यम से और सन्तान उत्पत्ति के माध्यम से।
और चूँकि उपभोग करने वाली सन्तान ही होगी, तो इसलिए इस समस्या को रोकने का जो सबसे कारगर तरीक़ा है, वो है सन्तानों पर नियन्त्रण लगाना। जब सन्तान ही नहीं होगी तो भोगेगा कौन? और हर पीढ़ी पिछली पीढ़ी से ज़्यादा ही उपभोग कर रही है। तो यहाँ तो हम बात कर रहे हैं कम करने की, अगली जो आएगी वो और ज़्यादा करेगी। क्यों? क्योंकि आर्थिक सम्पन्नता बढ़ रही है, लोगों के पास पैसे आ रहे हैं। जब पैसे आ रहे हैं तो जो आदमी सब्जी खाता था, वो माँस खा रहा है। जहाँ माँस खानी शुरू की, तहाँ समझ लो कि आप कार्बन डायऑक्साइड बढ़ाने वालों की कतार में शामिल हो गयें।
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