श्रोता: क्या ये संभव है कि हमारी आँखों से जो अच्छी चीजें हुई थी निकल जाए और हम उसे नज़रअंदाज़ कर दे?
वक्ता: बढ़िया, बैठो। बहुत बढ़िया। क्या ये संभव है कि नजरों के सामने से कुछ अच्छा-बुरा, काला-सफ़ेद किसी भी प्रकृति का गुज़रे और उसे नज़रअंदाज़ कर दें? नज़रअंदाज़ करने से आशय ये है कि प्रभावित ना हो उससे। कौन अप्रभावित रह जाए? कौन अछूता रह जाए? नज़र तो अप्रभावित नहीं रह सकती। नज़र अप्रभावित नहीं रह सकती क्योंकि नज़र क्या है? नज़र एक यंत्र है। तो उसे तो देखना है, उस पर तो प्रभाव पड़ेगा लेकिन ये संभव है कि तुम पर प्रभाव ना पड़े।
नज़र का यंत्र कैसे काम करता है, इसको थोड़ा समझेंगे। मान लो अभी सूचना आए कि हाईवे पर दुर्घटना हो गई है। तुम्हारे दोस्त को चोट आई है; चोट ज़्यादा आ गयी है। तुम भागोगे, हाईवे की तरफ़ भागोगे। यहाँ से लेकर हाईवे के बीच में जो भी कुछ है, वो यदि तुमसे पूछा जाए हाईवे पहुँचने के बाद कि बताओ बीच में क्या-क्या देखा? तो कितना बता पाओगे? हाईवे पर दुर्घटना हुई है, तुम्हें हाईवे पहुँचना है तत्काल, दौड़ के, भाग के पहुँचना है। यहाँ से हाईवे के बीच में तुमने जो कुछ देखा, तकरीबन सौ मीटर तो होगी दूरी?
श्रोता: जी सर, दो सौ मीटर।
वक्ता: इस दो सौ मीटर को तुम दौड़ते हुए पार कर गए और जब पार कर जाओ तो तुम्हें पूछा जाए कि बताओ रास्ते में क्या-क्या देखा? क्या बता पाओगे?
श्रोता: नहीं सर।
वक्ता: क्या ऑंखें बंद कर के दौड़े?
श्रोता: नहीं सर।
वक्ता: आँखें खुली थी, आँखों ने देखा। नज़रो ने बेशक देखा लेकिन मन ने उसे इक्कठा नहीं किया क्योंकि मन कहीं और लगा हुआ था। मन कहीं और लगा हुआ था तो मन पर इन सारी बीच की घटनाओं का कोई प्रभाव ही नहीं पड़ा। तुम दौड़ते जा रहे थे बीच में, तुम्हें ना जाने और कितने दोस्त मिले, यार मिले, छात्र मिले, छात्राएं मिली। तुमने जैसे देख कर भी नहीं देखा और अगल-बगल पेड़-पौधे थे और सामने से किसी की बाइक आ रही थी, तुमने देख कर भी नहीं देखा। तुम्हारा चित अभी बिलकुल एकाग्र हो चुका था।
उसको एक घटना के अलावा और कुछ दिखाई नहीं दे रहा था। वो घटना क्या थी? दोस्त को चोट लगी है। अब आँखें देख कर भी कुछ और नहीं देख पा रही थी क्योंकि मन पर कुछ और था जो महत्वपूर्ण था। तो आँखों का यंत्र काम करता है लेकिन प्रभावित होने वाली आँखें कभी नहीं होती। प्रभावित होने वाला कौन होता है? मन। मन प्रभावित उसी से होता है, जिसको मन महत्वपूर्ण मानता है। ये बात शोध के द्वारा अब बहुत बार सिद्ध हो चुकी है कि इन्द्रियों को जितनी सूचनाएँ मिल रही होती हैं, इन्द्रियां उसमें से एक प्रतिशत दो, प्रतिशत लेती हैं, बाकी खुद ही छोड़ देती हैं। छान देती हैं, फ़िल्टर आउट कर देती हैं। ये बात तुम्हें बड़ी विचित्र सी लगेगी पर ऐसा ही है।
किसी भी समय हम पर लगातार सूचनाएँ बरस रही हैं। आँखों पर, कानों पर, त्वचा पर और समस्त इन्द्रियों पर। पर वो सूचनाएँ मन तक नहीं पहुँच रही हैं क्योंकि मन ने तय कर रखा है कि वो महत्वपूर्ण नहीं हैं।
मन तक वही पहुँचता है, मन जिसे महत्वपूर्ण मानता है।
बात समझ आ रही है? अब हमने जो उदाहरण लिया उस उदाहरण से सिर्फ़ इतना ही सिद्ध हो पाया कि यदि मन एक चीज़ को महत्वपूर्ण मानता है दूसरी चीज़ की अपेक्षा, तो दूसरी चीजें उस पर अंकित नहीं होती, छाप नहीं छोड़ती क्योंकि उसने एक चीज़ को महत्वपूर्ण माना है, ठीक। हमारे प्रयोग से इतना ही सिद्ध हुआ।
प्रयोग को आगे बढ़ाएंगे। मन की एक दशा ये भी हो सकती है: जब ये न हो कि एक चीज़ की अपेक्षा दूसरी चीज़ महत्वपूर्ण है; ये हो जाए कि जो भी चीज़ है, वो महत्वपूर्ण है ही नहीं।
जो महत्वपूर्ण है, वो चीज़ नहीं है।
नहीं समझे? अभी हमने कहा कि रास्ते में तुम्हें इधर-उधर के छात्र दिखे, तुम्हारा मन उनको अंकित नहीं करेगा क्योंकि मन के लिए कौन ज़रूरी था? दोस्त। ठीक है ना? कोई विषय है, कोई ऑब्जेक्ट है जो कि एक व्यक्ति है। वो महत्वपूर्ण है दूसरी चीज़ों से, दूसरे विषयों से, दूसरे व्यक्तियों से। मन की एक स्थिति वैसी भी हो सकती है कि जिसमें कोई विषय उसके लिये महत्वपूर्ण ना रह जाए। मन अपने आप में समा जाए। मन कहे जितने भी विषय हैं, उन सब की प्रकृति एक है; वो आते हैं जाते हैं। मुझे उनमें से कोई भी महत्वपूर्ण लगता नहीं क्योंकि जो सर्वाधिक महत्वपूर्ण है, वो मेरे भीतर ही है। ना अच्छा महत्वपूर्ण है, ना बुरा महत्वपूर्ण है; जो महत्वपूर्ण है वो हमने पा लिया है, तो अब प्रभावित क्या होना।
अब पूरा खेल तुम्हारे सामने चलता रहेगा और तुम उसके मध्य में अनछुए से बैठे रहोगे। तुम्हारे चारों तरफ़ जैसे नदी बह रही हो और तुम उस नदी के केंद्र में बैठी हो और पानी तुम्हें स्पर्श ना कर पा रहा हो। ऐसी स्थिति हो जाएगी। याद रखना इस स्थिति में ये नहीं हुआ है कि तुमने कोई कल्पित विषय महत्वपूर्ण मान लिया है। अब तुम्हारे लिए कोई विषय महत्वपूर्ण नहीं है। कबीर कहते हैं एक स्थान पर कि सारी खींचा तान मिट गई।
मिट गयी खिंचा तान,
उलट समाना आप में हुआ ब्रह्म समान।
यहाँ किसी जादू वगैरह की बात नहीं हो रही है कि कोई अपने आप में समा गया, कुछ हो गया। उसका अर्थ इतना ही है कि बाहर जो कुछ है वहाँ तो सिर्फ तनाव और खींचा-तान ही है। कभी ये आकर्षक लग रहा है, कभी वो अनाकर्षक लग रहा है, कभी ये दोस्त लग रहा है, कभी वो दुश्मन लग रहा है, कभी ये अच्छा है, कभी ये बुरा है। बाहर जो कुछ भी है, उसका विपरीत भी मौजूद है और विपरीतों के मध्य घर्षण होता ही है।
ये ना सोचना कि तुमने बड़ा अच्छा काम कर दिया अगर तुम अच्छे के पीछे भागे और बुरे से बचे क्योंकि जो आज अच्छा लग रहा है वो कल बुरा लगेगा, जो आज बुरा है वो ज़रूरी नहीं कि कल भी बुरा हो। एक के पीछे भागना दूसरे से बचना ये सब तो चिन्ह हैं इस बात के कि मन अभी आश्रित है दुनिया पर, अपनी पहचान के लिए। जिसको वो अच्छा समझता है, उसके साथ अपनी पहचान जोड़ता है। जिसको वो बुरा समझता है उससे दूर भागता है और ये भी एक प्रकार की पहचान है कि हम तो बुरे से दूर भागते हैं। समझ रहे हो?
श्रोता: सर, क्या समाज में रह कर ये पॉसिबल है कि किसी चीज़ से प्रभावितना हो? ये तो हो ही नहीं सकता मतबल कि हो भी सकता है जब पहाड़ पर चले जाएँ कहीं ऐसी जगह चले जाएँ, जहाँ सिर्फ़ हम हो और कुछ भी नहीं?
वक्ता: तुम यहाँ पर बैठे हो क्या ये ज़रूरी है कि तुम इस बात से प्रभावित हो कि तुम्हारा दोस्त क्या कर रहा है बगल में?
श्रोता: नहीं, लेकिन इतने सारे लोग हैं वो देख रहे हैं और कुछ ना कुछ तो करते ही हैं।
वक्ता: तुम यहाँ बैठे हो, समाज ही है चारों ओर, और यहाँ पर दो तरह के लोग बैठे हैं: एक जिनको इस बात से बहुत फ़र्क पड़ रहा है कि मेरा पड़ौसी क्या लिख रहा है कि वो क्या खुसुर-फुसुर कर रहा है और दूसरे वो जो ध्यान में बैठे हैं। क्या ये दूसरे तरह का व्यक्ति संभव नहीं है? निश्चित रूप से संभव है।
श्रोता: लेकिन ये हर समय पर नहीं हो सकता है मेरी पूरी लाइफ़ है, लाइफ़ बहुत लम्बी लाइफ़ है।
वक्ता: जो तुम सोच रहे हो वो मात्र सोच है कि लाइफ़ बहुत लम्बी है। इस क्षण में हो सकता है ना? अभी हो सकता है ना?
श्रोता: दो मिनट, पांच मिनट के लिए।
वक्ता: दो मिनट, पांच मिनट भी नहीं मात्र इस पल में हो सकता है?
श्रोता: हाँ इस पल में है।
वक्ता: तो बस अभी है, और अभी ही असली है।
आगे की सोचना तो अभी से बचना है।
अगर अभी हो सकता है तो अभी करो। छोड़ो इस बात को कि आगे कैसे होगा, कि नहीं होगा आगे, कि आगे देखी जाएगी। जब यहाँ आने से पहले खाना खा रहे थे तो क्या ये सोच रहे थे कि जब यहाँ पहुँचोगे तो ध्यान से सुनोगे? अब जब आए हो, तो सुनो ध्यान से, जब आगे जाना तब आगे की देखना। खाते समय यहाँ की नहीं, यहाँ के समय मैदान की नहीं, जहाँ हो वहाँ की देखना।
ये बात समझने में हिचकिचाहट इसीलिए होती है क्योंकि हम यहीं पर बैठ कर के आगे की पूरी गारंटी चाहते हैं और खेल ऐसा है नहीं कि पूरी गारंटी मिल जाए। उसमें तो जो जब होना है, तभी होगा। ये विचार करने से कि आगे भी हो जाए, पीछे भी हो जाए वैसा कुछ होता नहीं है। ‘’अभी थोड़ी देर पहले दूसरे लोगों से हॉल भरा हुआ था, उस समय पर मेरे लिए विचार करने का कोई कारण नहीं था कि आगे क्या सवाल पूछे जाएँगे। जो जब सामने है, उसको देखेंगे और एक बात और समझना, मन में ये भ्रम मत आने दो कि दूसरों से प्रभावित ना होने का अर्थ ये है कि, ‘’मैं दूसरो से कोई सम्बन्ध नहीं रखूँगा।’’ जब भी कभी तुम दूसरों से प्रभावित हो कर के जीते हो, तो तुम गौर भी तो करो कि तुम्हारे सम्बन्ध होते कैसे हैं।
हाँ, सम्बन्ध होते हैं बेशक होते हैं, पर कैसे होते हैं? कष्ट के सम्बन्ध हैं, हिंसा के हैं, मालिक और गुलाम के हैं एक दूसरे को प्रभावित किए दे रहा है, हावी हो रहा है, ये मालकियत का सम्बन्ध है। ये कैसा सम्बन्ध है? और हम इसी को बचाने कि लिए बार-बार ये तर्क उठाते हैं कि क्या ये संभव है कि प्रभावित हो कर ना रहें? प्रभावित होने का अर्थ ही है कि मेरे भीतर कोई कमी थी, कोई हीनता थी जिसको मैं उम्मीद कर रहा हूँ कि दूसरा आ कर के पूरी कर देगा। और सम्बन्ध बनाने का एक दूसरा तरीका है कि अपने आप में पूरा हूँ, मौजूद हूँ, कोई ऐसी हीन भावना नहीं है भीतर, जिसके कारण सम्बन्ध बनाया जाए।
भिखारी होता है, एक चौराहे पर उसका भी तो सम्बन्ध है ही ना जिससे वो भीख माँग रहा है। ऐसे सम्बन्धों का क्या फायदा, ऐसे सम्बन्धो में तो मात्र कष्ट है। लेकिन अगर तुम ध्यान से देखो, तो हमारे सारे सम्बन्ध ऐसे ही हैं उनमें कुछ पाने की इच्छा लगातार छुपी हुई है। और भिखारी तुमसे कुछ पाएगा नहीं, अगर तुम्हें प्रभावित ना करे और जब तुम भिखारी को कुछ दे देते हो, तो वो तुम्हें खूब जताता है कि वो प्रभावित हो गया। देख रहे हो ना पारस्परिक प्रभावित करने का खेल है? पहले भिखारी आएगा, वो तुम्हें प्रभावित करेगा; मेरी दीनता देखो मुझे कुछ दे दो। जब तुम उसे कुछ दे दोगे तो कहेगा, ‘’जुग-जुग जियो बेटा! वो दिखायेगा तुमसे प्रभावित हो गया है।’’
ऐसे सम्बन्धों के साथ चलने में रखा क्या है? और याद रखो दो भिखारी यदि एक दूसरे से भीख माँगे तो करोड़पति नहीं हो जाएँगे। हम करते भी यही है ना? ‘’मेरे भीतर भी हीनता की भावना और तेरे भीतर भी हीनता की भावना और इसी भावना से हमारा रिश्ता निकल रहा है। तू मुझसे याचना कर रहा है, मैं तुझसे याचना कर रहा हूँ।’’ दो याचक अगर मिल भी गए तो उनका क्या हो जाना है? अक्सर इस बात को गलत समझ लिया जाता है, पहले भी एक सवाल उठा हुआ है कि भाई हम सामाजिक प्राणी हैं, हमे दुनिया में रहना है। हमसे ये क्यों कहा जा रहा है कि दूसरों से प्रभावित ना हो? ठीक है बिलकुल सही बात है तुम सामाजिक प्राणी हो पर समाज माने क्या? इंसान का इंसान से रिश्ता, यही है ना समाज?
श्रोता: हाँ।
वक्ता: तो वो रिश्ता कैसा हो इस पर गौर तो करो। डर से बना हुआ है रिश्ता, तो ये कैसा समाज है? लालच से बना हुआ है रिश्ता, तो ये कैसा समाज है? और इनके अतिरिक्त एक और रिश्ता हो सकता है इस बात से तुम अविश्वास किए जाते हो और ठीक है कि अविश्वास है क्योंकि ये बात मान लेने की नहीं है, ये तो जीने की है, उसको जियो तो पता चले। हम जिन सम्बन्धों की बात करते हैं, वो बड़े भ्रष्ट और बड़े हिंसक सम्बन्ध हैं।
प्रेम के सम्बन्ध में प्रभाव नहीं होता, स्वस्थ सम्बन्ध में प्रभाव नहीं होता। प्रभाव का तो मतलब ही है अभाव। जहाँ अभाव है, वहीँ प्रभाव है।
तुम्हारे बगल में कोई है, वो तुमसे कोई बात कहता है, ठीक है। अभी तुम मुझसे सुन रहे हो हम एक बात कर रहे हैं, ठीक है। तुम्हारा पड़ौसी तभी तुम्हें कोहनी मारता है और तुमसे कुछ फुस-फुसा कर के कहता है, एक बात। प्रभावित हो जाने का अर्थ क्या है इसको गौर से समझेंगे। जैसे पानी हो और तुम पानी को १०० डिग्री तक ले जाओ तो पानी को भाप बनना ही बनना है, ठीक। बनना है ना? कोई विकल्प नहीं है पानी के पास। पानी कभी ये नहीं कह सकता कि इस समय उचित नहीं है भाप बनना। पानी के साथ यदि तुमने क्रिया करी तो प्रक्रिया आएगी ही आएगी, ठीक। पानी के पास कोई निजता नहीं है, पानी के पास कोई समझ या इन्डिविजुएलिटी नहीं है, निजता नहीं है। ठीक वैसे ही अगर तुम्हारा पड़ौसी तुम्हारे साथ खुराफ़ात करे, छेड़े तुम्हें, तुमसे कोई बात कहे और तुम तुरंत उसकी ओर मुड़ जाओ और तुम भूल ही जाओ कि तुम यहाँ बैठ कर के मुझे सुन रहे थे तो तुम में और पानी में कोई अंतर नहीं हुआ ना? पानी के पास कोई विकल्प नहीं था उबलने के अलावा और तुमने सिद्ध कर दिया कि तुम्हारे पास भी कोई विकल्प नहीं था प्रभावित हो जाने के अलावा। पानी के पास कोई चेतना नहीं, पानी मृत है। प्रभावित हो जाने का बिलकुल यही अर्थ है कि, ‘’मैं मृत हूँ; मैं तो बस सीधे-सीधे रियेक्ट कर देता हूँ।’’ जैसे पानी सोडियम पर डालो रिएक्शन हो गया सोडियम के पास कोई विकल्प नहीं है। कभी सोडियम नहीं कह सकता कि, ‘’इस समय नहीं फटूंगा, शोर मचेगा!’’
“अरे! संवाद चल रहा है इस समय फटना उचित नहीं है शोर मच जायेगा धुआं हो जाएगा।” सोडियम कभी ऐसा नहीं कह सकता। ठीक उसी तरीके से अगर तुम्हारा पड़ौसी तुमसे कुछ कहता है और तुम भूल ही जाते हो कि यहाँ क्या हो रहा है और तुम उसके साथ हो जाते हो, इसको कहते हैं प्रभावित हो जाना। ये जीवन का निषेध है, इसमें तुम अपने आप को जीवित मानो ही मत। भले ही साँस ले रहे हो, पर जीवित नहीं हो क्योंकि तुम्हारी चेतना इसमें कहीं थी ही नहीं। समझ का कोई काम ही नहीं हुआ। सम्बन्ध बना, बिलकुल बना; अगर कोई दूर से देखे तो उसे एक सम्बन्ध दिखाई देगा। क्या सम्बन्ध था? तुम बैठे थे, तुम्हारा पड़ौसी बैठा था, पड़ौसी ने थोड़ा सा छेड़ा तुमसे कुछ कहा और तुम पड़ौसी के साथ बातचीत में लग गए। तो सम्बन्ध तो है।
अब एक सम्बन्ध यह है: ये समाज है और दूसरा सम्बन्ध क्या है? कि, ‘’हम बैठे हैं और हम ध्यान में डूबे हुए हैं और ये पड़ौसी मुझसे कुछ कह रहा है, हमें पता है इस वक्त उचित क्या है; हम अपने ध्यान को टूटने नहीं देंगे और इतना ही नहीं यदि तू वास्तव में मेरा मित्र है, तो तेरी भी मदद करेंगे। हल्के से आँख के इशारे से समझा देंगे कि मैं ध्यान दे रहा हूँ दोस्त, और तू भी ध्यान दे।’’ ये दूसरे प्रकार का सम्बन्ध है, इसमें प्रभाव नहीं है इसमें प्रेम है, इसमें स्वास्थ्य है। समाज टूट तो नहीं गया कि टूट गया समाज? या समाज को समाज तभी मानते हो जब एक दूसरे को भ्रष्ट करें?
पहली स्थिति में क्या हो रहा था? एक दूसरे को क्या कर रहा था? भ्रष्ट कर रहा था। ये सम्बन्ध, स्वस्थ सम्बन्ध नहीं है। एक दूसरे प्रकार का समाज भी संभव है, जिसमें आदमी से आदमी का नाता एक स्वस्थ नाता हो। तो ये ना समझना कि ये सब बातें तुमसे कही जाती हैं, या इससे तुम्हारे रिश्ते नाते टूट जाएँगे कि हम तुमसे कोई असामाजिक बात कर रहे हैं। हम बातें ये नहीं कर रहे हैं कि तुम्हारे रिश्ते नाते टूट जाएँ बल्कि जो इनको समझेगा उसके रिश्ते नाते और स्वस्थ और प्रगांण हो जाएँगे। हम रिश्ते तोड़ने वाली बात नहीं कर रहे, हम रिश्तों को शुद्ध करने वाली बात कर रहे हैं।
शब्द-योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।