प्रश्नकर्ता: आचार्य जी को नमन, सर मैं आपका बहुत-बहुत धन्यवाद करना चाहूँगी कि आपने जो कुछ सिखाया है वो बहुत अमूल्य है और सर मैं बहुत बड़ी प्रशंसक हूँ, आपकी समर्पित प्रशंसक हूँ और सर मैं, जीवन में आपने जो कुछ सिखाया है वो पहले किसी ने बताया होता तो जो गलतियाँ की हैं वो न की होती।
और सर, मेरा एक छोटा सा प्रश्न है कि जबसे मैं आपकी आइडियोलॉजी (विचारधारा) फोलो (अनुसरण) कर रही हूँ तबसे मुझे लग रहा है कि समाज से थोड़ा कट गयी हूँ और डिफरेंस ओफ ओपिनियन (मतभेद) जो है वो थोड़ा ज़्यादा हो गया है, तो इसके बारे में मैं क्या कर सकती हूँ, थोड़ा मार्गदर्शन दिजिए।
आचार्य प्रशांत: समाज से कट गयी हैं तो बधाई — इसमें समस्या क्या है? समाज से तो आप वास्तव में तब ही कट पाएगी जब समाज से कटना समस्या न लगे मुक्ति लगे। आप जिससे दूर हो रहे हैं, उससे दूर होना आपको अखर रहा है तो कितने दिन दूर रह पाएँगे?
अध्यात्म कोई विचारधारा, आइडियोलॉजी (विचारधारा) वगैरह नहीं होता। बात सच्चाई की होती है। दिक्क़त ये है कि अहंकार इस शब्द को ही नहीं पसंद करता — ‘सच्चाई’।
तो वो कहता है, हाँ वो किसी आदमी की बात है, ये उस आदमी का व्यक्तिगत विचार है। हम कहते हैं, ‘तुम्हारा सच तुम्हारा सच है और मेरा सच मेरा सच है’। जब तुम्हारा सच और मेरा सच की बात होने लग जाए तो वो सच नहीं है फिर वो अहंकार है, सच तो एक ही होता है। और सच वो है जो किसी विचार में अभिव्यक्त नहीं हो सकता, जो सब विचारों के मूल पर जाता है और विचारक की बदमाशी को पकड़ लेता है।
विचार में सच कहाँ आएगा? विचारक की बदमाशी को पकड़ने को सच कहते हैं। और विचारक की बदमाशी को पकड़ लिया तो विचारक बचता ही नहीं। क्योंकि विचारक बदमाश के अलावा कुछ हो ही नहीं सकता।
आपने कहा — ‘अब तूझे बदमाशी नहीं करनी है’, तो वो ग़ायब हो जाता है। वो कहता है, ‘बदमाशी नहीं करूँगा तो क्या करूँगा? फिर मैं जा ही रहा हूँ’; और चला जाता है। समझ रहे हैं?
तो आपको मैं कोई आइडियोलॉजी (विचारधारा) नहीं परोस रहा हूँ। मैं तो कह रहा हूँ आपकी जो भी आइडियोलॉजी (विचारधारा) हो, ज़रा उसका अन्वेषण करिए — इन्वेस्टीगेशन , वो आ कहाँ से रही है।,कौन है जो उसको पकड़े है और कारण क्या है।
ये तो होना ही है कि जब आप अन्धेरे से रोशनी की ओर बढ़ेंगी तो वो लोग जिन्होंने अन्धेरे को ही जीवन बना लिया हो, उनको तकलीफ़ उठेंगी। आपका उस तकलीफ़ के बारे में क्या विचार है? आपको उस तकलीफ़ से सहानुभूति है या आपको ये दिखाई दे रहा है कि ये जो तकलीफ़ है ये बड़ी क्रूर चीज़ है? ये जो हमें कई बार हमारे दोस्तों-यारों, स्वजनों द्वारा एहसास कराया जाता है कि देखो भाई! ‘तुम्हारी वजह से हमें बहुत तकलीफ़ हो रही है। इस तकलीफ़ को लेकर के कहना क्या है आपका?’
अगर आप रोशनी की ओर बढ़ रहे हैं और दूसरा व्यक्ति आपके साथ आने की जगह कहे कि मुझे अन्धेरे में रहना है और मुझे बड़ी तकलीफ़ है कि तुम रोशनी की ओर क्यों जा रहे हो। तो ये तकलीफ़ क्या है? ये प्यार है, हिंसा है, क्रूरता है, बर्बरता है; क्या? बोलें क्या इसको? क्या बोलें?
और हम आपको क्या बोलें अगर आप उसकी तकलीफ़ को देखकर पिघल जाएँ और कहें — ‘देखो! सही बात है किसी को दुख देना अच्छी बात नहीं है ये अहिंसा का देश है। ‘हम रोशनी की ओर बढ़ रहे हैं, हम होश की ओर जा रहे हैं, तो ये हमारे निकट बैठे हैं, इनको बड़ा दुख हो रहा है किसी को दुख देना अच्छी बात नहीं है। हमारे शायरों ने बताया है कि गीता और कुरान का सार बस ये है कि बस दिल मत दुखाओ किसी का। सारा अध्यात्म बस इसमें है कि बस किसी का दिल नहीं दुखना चाहिए। और इनका तो दिल दुख रहा है अगर हम ज़रा ज्ञान की ओर बढ़ रहे हैं तो दिल इनका नहीं दुखाएँगे। जो कुछ ज्ञान मिला भी है उस पर मिट्टी डालकर आ जाएँगे।’ ऐसा खूब होता है बहुत होता है।
हर महोत्सव के बाद संस्था के अपने बन्धु मुझे बताते हैं — बोलते हैं, ‘आये थे वो, महोत्सव में आये थे तीन दिन पाँच दिन, बड़े सक्रिय रहे थे। ऐसे थे जैसे अमृत मिल गया हो, नया जीवन मिल गया हो। और यहाँ से कसमें खाकर और वादे कर-कर के गये थे कि वापस जाऊँगा तो अपने शहर में ऐसा कर दूँगा, और ये करूँगा और वो करूँगा और अब तो आपसे नियमित रूप से सम्पर्क में रहूँगा और अब तो कुछ नया करके दिखाना है अभी तक पता चल गया है ज़िन्दगी यूँही व्यर्थ ही जा रही थी इत्यादि-इत्यादि।’ घर गये, दूसरे दिन से कह रहे हैं, ‘पता नहीं इनकी वाट्सएप डीपी क्यों नहीं दिखाई दे रही! बड़ा मासूम-सा चेहरा लेकर के आएँगे — आचार्य जी, वो जो हमने आपको बताया था न कि वो शेखर जी थे, जिनके साथ हमारा बड़ा आत्मीय सम्बन्ध बन गया था महोत्सव में?’
मैं कहूँगा, ‘हाँ, बताया तो था’।
‘पता नहीं, उनको मैसेज कर रहे हैं, नीला तो छोड़ दीजिए डबल टिक भी नहीं हो पा रहा है, (श्रोतागण हँसते हैं) सिंगल होकर रह जा रहा है। कहीं बेचारों को कुछ हो तो नहीं गया!’
उनको सहानुभूति हो गयी है, ये हुआ है। वो घर गये हैं और उनको कहा गया है कि बेवफा! ‘कसमें, वादे, प्यार, वफ़ा बातें हैं, बातों का क्या! सब पाँच दिन के अन्दर भुला आये तुम। कौन लगते हैं वो ऋषि तुम्हारे? चार श्लोक पढ़ लिए और सात फेरे भूल गये। सेवन इज़ ग्रेटर दैन फोर (सात चार से ज़्यादा बड़ा है) । और ये रोशनी और अन्धेरा क्या होता है? हमारे-तुम्हारे बीच जो भी गुलाबी रहा वो अन्धेरे में ही रहा। रोशनी एकबार धोखे से नट्टू ने बल्ब जला दिया था तो बहुत चिल्लाए थे तुम। और अब कह रहे हो रोशनी-रोशनी। तब अन्धेरा-अन्धेरा कलपते रहते थे कि अरे! जल्दी से अन्धेरा करो। और अन्धेरा न होता तो हमारा-तुम्हारा रिश्ता भी न होता। हमारे-तुम्हारे रिश्ते में रोशन कभी कुछ था क्या? कभी कुछ नहीं। सारा खेल ही अन्धेरे गुफाओं का था। अब ये चले हैं नया-नया सूरज उगाने। अभी बताते हैं। इधर दिखाओ फोन!’
अब आपको देख लीजिए करना क्या है ऐसी स्थिति में। मैं तो थोड़ी देर में राम-राम बोल दूँगा। आप जानिएगा आप क्या करने वाले हैं। बाक़ी हम हिन्दुस्तानी लोग जज़्बाती तो होते ही हैं। और कितना भी बता दिया जाए हमको कि मूल बात ये है कि ‘मैं’ को याद रखो। आख़िर में हमें याद ये ही रह जाना है कि सब धर्मों का सार एक ही बात है — ‘राजू! कभी किसी का दिल न दुखाना’।
कोई कुछ बता दे सब भूल जाना है। प्रज्ञानम ब्रह्म कौन? याद ही नहीं है एक ही बात याद है क्या? ‘राजू!’ और वो ही प्रश्न है देवी जी का कि सोसायटी (समाज) वालों को बुरा लग रहा है हम थोड़ा-सा भी कोई ढंग की बोल देते हैं। अब मैं क्या बताऊँ कि क्या करना है उनकी इस स्थिति का! आप जानिए; मुझे तो बस ये पता है कि सच कोई फैशन (प्रथा) नहीं होता। न सच कोई सिर्फ़ ठसक की बात होती है आप किसी का भला भी करना चाहते हैं तो कोई विकल्प नहीं है सच कहने के अलावा।
आप ये भी कहें कि आपको किसी से बहुत सहानुभूति है तो सहानुभूति के नाते ही उसको सच की ओर लेकर के आइए। औपचारिकता, और दुनियादारी, और व्यवहारिकता ये सबकुछ कोई बहुत चतुराई की बात नहीं होती है। हमें लगता है न — ‘देखिए, किताबी बातें एक तरफ़ और व्यवहारिक बात एक तरफ़; — नहीं, ये मूर्खतापूर्ण विभाजन है।
माने आप क्या बोल रहे हैं कि किताबों में जो लिखा है वो दुनिया में लागू नहीं होता है? जब आप कहते हैं कि ये सब किताबी बातें हैं, तो मतलब क्या है आपका? मतलब क्या है, ऐसी कौनसी बात है जो किताब में नहीं लिखी जा सकती? तो आप कहते हैं कि किताबी बात ठीक नहीं होती या किताबी बातें अधूरी होती हैं — कैसे? ऐसी कौनसी गुप्त विद्या आपको पता है जो किताबों में नहीं पायी जाती?
लेकिन हर आम राह चलते आदमी को पता है और वो बोल देता है — ‘अजी साहब! वो किताबी कीड़ा है। हम आपको असली दुनियादारी बताएँगे।’ ये कौनसी असली दुनियादारी, कौनसा शास्त्र है, ये बताओ तो थोड़ा मुझे। थोड़ा विचार करिएगा इस बात पर क्योंकि हम-सब वहीं छुपने को तैयार बैठे हैं और वहीं जाकर के छुप भी जाने वाले हैं कि उपनिषद् तो पुस्तकें मात्र हैं और पाँच दिन का महोत्सव बस पाँच ही दिन का था।
किताब बन्द हो जाती है, महोत्सव सम्पूर्ण हो जाता है उसके बाद तो हमें अपनी दुनिया देखनी है अपने हिसाब से, अपनी व्यवहारिक बुद्धि के हिसाब से। ‘किताबों में सबकुछ थोड़े लिखा होगा, हमें भी तो सोचना पड़ता है’!
ऐसा क्या है जो किताब में नहीं लिखा है बताइए, मैं चुनौती दे रहा हूँ। और विशेषकर मुझे ये बताइए जो किताब में नहीं लिखा लेकिन अन्टू-पन्टू-चन्टू, राम-शयाम सबको पता है। वो सब जान रहे हैं, दर्ज़ी की दुकान में दर्ज़ी बैठा है उसको भी पता है, सब्ज़ीवाले को पता है, रिक्शेवाले को पता है, सबको पता है, राजा से लेकर रंक तक सबको पता है; बेचारे ऋषि को नहीं पता तो वो किताब में नहीं लिख पाया। बाक़ी सब जानते हैं।
क्योंकि ये जो लोग आपसे नाराज़ हो रहे हैं न इनका तर्क यही रहता है — ‘ज़्यादा आइडियलिस्टिक (आदर्शवादी) हो रहे हो, बुकिश (किताबी) हो रहे हो’, ऐसी ही बातें करते हैं न? उनसे पूछिए कि तुम्हें ‘आइडियल’ शब्द का मतलब भी पता है कि क्या है, आइडियलिस्टिक तुम हो, आइडियलिस्टिक उसको बोलते हैं जो आईडियाज (विचारों) में जियें, जो विचारों में जियें, जो एक छवि बना लें, एक आइडिया (विचार) बना लें और उसमें जीने लग जाएँ उसको कहते हैं आइडियलिस्टिक (आदर्शवादी)। वैसे तो आप हैं।
अध्यात्म विचारों में जीना सिखाता है या ज़मीनी ठोस तथ्य पर। कहिए, वो तो बार-बार बोलता है कि अपने जीवन के तथ्य को पकड़ो, अध्यात्म आइडियलिज़्म कैसे हो गया, आदर्शवाद कैसे? आप बताइए तो। अध्यात्म और आदर्शवाद का तो दूर-दूर तक कोई लेना-देना नहीं है। लेकिन आप पर इल्ज़ाम यही लगने वाला है। ‘बहुत हवाई बातें करने लग गये हो’, हवाई बातें आप कर रहे हो या वो कर रहे हैं जिनको अध्यात्म का ‘अ’ नहीं पता।
फिर वो ये सब आपको कहे और आप असमंजस में पड़ जाए कि अरे! सोसाइटी (समाज,) वाले नाराज़ हो रहे हैं बुरा हो रहा है हम क्या करें? तो मैं क्या बताऊँ ये तो अब आपके ऊपर है कि इतना मैं आपसे कह देता हूँ कि सोसायटी (समाज) , आपका जो समाज है जिसकी आप संगत करते हैं उसका निर्धारण आपको करना होता है।
और एक बात समझिए, आप वैसे ही लोगों से घिरे होते हैं जैसा आपका मन होता है। आपकी जो संगति है और आपका जो मन है इन दोनों की गुणवत्ता एक बराबर होती है। ये एक नियम है। आपके चारों ओर जैसे लोग हैं उनमें कितनी गुणवत्ता है और आपके मन की क्या गुणवत्ता है ये दोनों चीज़ें, बिलकुल एक बराबर होती हैं।अब अगर मन की गुणवत्ता बदलेगी, बढ़ेगी तो ज़ाहिर है आपको अपनी संगति भी बदलनी पड़ेगी न!
नहीं तो एक विषम स्थिति, एक बेमेल स्थिति पैदा हो जाएगी। भीतर अब आप एक स्तर पर हैं और बाहर जो आपके लोग हैं वो दूसरे स्तर पर हैं। और ये जो असमानता है ये चल नहीं सकती बहुत देर तक।
तो जो भीतर से बदल रहा है उसको अपना समाज भी बदलना पड़ेगा। आप अगर ये सोचकर जाएँगे यहाँ आपने चुपके-चुपके अपना अन्तस बदल लिया, आपने वेदान्त का कुछ ज्ञान ले लिया, आप सत्रों में बैठ लिये, आप कुछ भीतर से आलोकित हो लिये और वो सब आप दबाकर-छुपाकर रखेंगे। और वापस आप ठीक उसी समाज में पहुँच करके सामंजस्य बैठा लेंगे जहाँ से उठकर आये थे तो ऐसा होने का नहीं रहा। अगर आपको वापस जाकर के उसी दुनिया में समायोजित हो जाना है, उन्हीं लोगों के साथ, उन्हीं तौर-तरीक़ों के साथ, जैसे आपके पहले से थे, तो आपके लिए मजबूरी हो जाएगी कि आपको वो सब भूलना पड़ेगा जो आपने यहाँ सुना।
और यहाँ जो आपने सुना और पाया है अगर आप उसे अपने साथ रखना चाहते हैं तो आपको अपनी बाहरी परिस्थितियाँ और बाहरी माहौल भी बदलना पड़ेगा, तब वो आपकी मज़बूरी हो जाएगी। दोनों में से एक को तो बदलना हैं, आप पर छोड़ रहा हूँ किसको बदलना हैं क्योंकि इन मामलों में ज़बरदस्ती नहीं की जा सकती।
और न ऐसा हो सकता है कि सबको साथ लेकर चल लेंगे क्योंकि ये भी ठीक है और वो भी ठीक है, ऐसा नहीं होता है, आप कर नहीं पाएँगे कोशिश कर लीजिए, मेरी बात यूँही क्यों मान लेनी है!
प्र: सर, कुछ रिश्ते हैं जो परिवार, सगे सम्बन्धी होते हैं, उन्हें तो हम बदल नहीं सकते न!
आचार्य: कोई रिश्ता नहीं होता है, कोई रिश्ता नहीं होता है आप फिर अभी एकदम नयी-नयी है। आप कौन हैं? तो अपना रिश्ता बताइए।
प्र: नहीं, तो मतलब घर के जो बुज़ुर्ग हैं।
आचार्य: अरे! मैं समझ गया आपने बुज़ुर्ग बोला, बार-बार दोहराने से क्या होगा? मैं जो बोल रहा हूँ आप समझिए, आप जो बोल रही हैं वो बात तो बच्चा-बच्चा समझता है। मैं जो बोल रहा हूँ वो समझने की कोशिश करिए। कुछ मामलों में इंसान बिलकुल अकेला होता है जो बहुत मूलभूत मामला है जीवन का, उसमें आप बिलकुल अकेले हैं, उसमें ये सब मत बोलिए कि कुछ रिश्ते तो ऐसे होते हैं, वैसे होते हैं; क्या रिश्ता होता है?
कितने दिन हो गये आपको उपनिषद् समागम में, अभी आपको समझ में नहीं आया कि आप कौन हैं? और आपका वाक़ई प्रगाढ़ रिश्ता कौनसा है? ये सब साथ जाएँगे चाचा-ताऊ, माँ-बाप, भाई-बहन, पति-पत्नी?
प्र: सर, मैं तो समझती हूँ लेकिन...
आचार्य: आप समझती हैं तो आपके लिए काफ़ी है। अगर आप समझती हैं तो आपको इस बात से अन्तर क्यों पड़ रहा है कि कोई और नहीं समझता। अगर आप वाक़ई..
प्र: मैं समाज से कटती जा रही हूँ और बहुत एकाकी होती जा रही हूँ।
आचार्य: फिर अभी आपका समय नहीं आया है अभी आपको काफ़ी तकलीफ़ हो रही है अपनी बीमारी से कटने में। फिर अभी आपका समय नहीं आया है स्वस्थ होने का। जिस चीज़ पर, जिस चीज़ पर उत्सव होना चाहिए, उस चीज़ पर आपको अफ़सोस हो रहा है तो आपका अभी फिर समय नहीं आया है।
लेकिन अगर अभी आपका समय नहीं आया है तो बहुत सम्भव है कि वो समय कभी आएगा भी नहीं, ख़ासतौर पर जब मैं महिलाओं को देखता हूँ। तो मुझे ये पता होता है कि अगर उनका ये समय जल्दी नहीं आया तो कभी नहीं आएगा क्योंकि महिलाओं के साथ जो बन्धन जुड़ते हैं वो इतने ठोस होते हैं फिर और इतने अपरिवर्तनीय होते हैं कि उनको काटने के लिए बहुत मोटी कुल्हाड़ी चाहिए वो उपलब्ध हो नहीं पाती।
हमें क्या लगता है? हमें लगता है कि सब अच्छे-अच्छे लोग हैं तो मुझे कोई अच्छी चीज़ मिली है तो मैं उनमें भी बाँट दूँ। ठीक है! समझिए। मैं घर की अच्छी बच्ची हूँ और सब अच्छे-अच्छे लोग हैं क्योंकि बचपन से लगा ही ऐसा है कि सब अच्छे-अच्छे लोग हैं तो मुझे कोई अच्छी चीज़ मिली है तो मैं इन अच्छे-अच्छे लोगों में बाँट दूँ। लेकिन फिर झटका लग जाता है। क्योंकि हमें जो चीज़ अच्छी लगी है, जो अच्छी मिली है वो जब उन्हें बाँटने जाते हैं तो वो बिदक जाते हैं।
तो अब दो में से एक चीज़ को तो झूठा होना होगा या तो आपको जो चीज़ मिली है वो अच्छी नहीं है या फिर जिनमें आप बाँटने गयी वो हैं वो अच्छे लोग नहीं हैं। ये स्वीकार करते अहंकार को बड़ी तकलीफ़ होती है कि वो लोग ही अच्छे नहीं हैं। क्योंकि फिर पूरे अतीत पर ये सवाल खड़ा हो जाता है न — ‘वो लोग अच्छे नहीं हैं तो मैं उनके साथ बीस-पच्चीस साल से कर क्या रही थी! वो लोग अच्छे नहीं हैं तो मुझे आजतक क्यों बताया गया था कि रिश्तेदार तो सब अच्छे ही होते हैं?’ वो लोग अच्छे नहीं हैं अगर हमने ये मान लिया तो ज़िन्दगी की बुनियाद हिल जाती है।
तो फिर हम एक सस्ता रास्ता निकालते हैं, हम कहते हैं, ‘उपनिषद् ही अच्छे नहीं होंगे क्योंकि अगर उपनिषद् अच्छे होते तो मेरे अच्छे वाले पिताजी, और चाचाजी, और ताऊजी, और माताजी, और मौसीजी ये सब भी तो अच्छे हैं, ये सब उपनिषदों को क्यों नहीं मानते!’ क्योंकि अगर उपनिषद् भी अच्छे हैं और ये भी अच्छे हैं तो एक अच्छे को दूसरे अच्छे को स्वीकार कर लेना चाहिए था। लेकिन अहंकार कहता है कि घरवालें तो अच्छे ही होंगे।
घरवाले अच्छे हैं और उपनिषद् को नहीं मानते तो उपनिषद् ही बुरे निकले इन्हीं को त्याग दो। मैं आपको कोई मिश्री मिला उत्तर भी दे सकता हूँ, जिसमें मैं आपको समझा सकता हूँ कि देखो अब इस तरीक़े से जाओ, इस तरीक़े से बात करो और ऐसे करो और वैसे करो, तो लोग समझ जाएँगे। लेकिन वो मिश्री मिला उत्तर आपके काम आने का नहीं। मैं पहले दे चुका हूँ मिठास वाले जवाब भी, वो काम नहीं आते। मुझे एक बात पता है यदि कोई व्यक्ति ऐसा है जो उपनिषदोंं और अध्यात्म को बुरा-भला बोल सकता है, जो वेदान्त को कह सकता है कि अरे! ऐसे ही बेकार की बात है कहाँ फँस रही हो।
तो इस इंसान से आगे बहुत नाता रखने की ज़रूरत है नहीं कोई उम्मीद है नहीं। शायद उस इंसान का उपचार भी इसी में है कि उससे कोई नाता रखा न जाए। बहुत बर्दाश्त करने या बहुत सहिष्णुता से काम बनता नहीं है, होता बल्कि ये है कि अहंकारी आदमी को ज़्यादा बर्दाश्त करो तो उसको लगता है कि मुझमें तो कोई ख़ासियत है इसीलिए मुझे बर्दाश्त किया जा रहा है। झूठ को ज़्यादा बर्दाश्त करो तो उसके नखरे और बढ़ जाते हैं।
चुनाव करना पड़ता है बच्चे, आप कर लो चुनाव। दोनों चीज़ें एकसाथ नहीं चल पाएगी। “कह रहीम कैसे निभे बेर केर को संग।” कुछ संगतियाँ सम्भव नहीं होती, कुछ चीज़ें साथ-साथ नहीं चलती। या तो ये ले लो या तो वो ले लो। देखो भैया! महाशिवरात्रि की रात है कहते हैं आज तांडव हुआ था। (श्रोतागण हँसते हैं)तो मैं कोई आपको झुनझुना बज़ाकर तो सुनाऊँगा नहीं कि आपको एक आस बँधी रहे और मिठास बनी रहे। समझमें आ रही है बात?
“मैं कहता अखन देखी तू कहता कागद की लेखि”, “तेरा-मेरा मनवा कैसे एक होई रे।” अरे! जब वो हार गये। वो भी अपना मन बहुतों से एक नहीं कर पाये, उन्होंने भी विवश होकर कह दिया — “तेरा-मेरा मनवा कैसे एक होई रे”; नहीं हो पाएगा। तो मैं आपको कैसे कह दूँ कि नहीं-नहीं प्रेम के रास्ते सब सम्भव है, हाथी उड़ने लगेंगे, (श्रोतागण हँसते हैं) अरे! जिसे नहीं ही समझना जिसने ठान रखी है नहीं समझने की, वो नहीं ही समझेगा, चुनाव वो आपको करना है कि आपको समझना है कि नहीं समझना है।
मुझको तो ये पता है कि मेरे भी दोस्त-यार थे। अगर कोई आकर के कोई ढंग की बात बताता था तो मैं तो आभारी होता था और वो भी आभारी होते थे कि कुछ बढ़िया बता दिया। वेदान्त जैसी चीज़ आप किसी के सामने ले जाकर के रखें और वो नाक-भौंह सिकोड़ने लगे, तो ऐसा व्यक्ति संगति के काबिल नहीं है चाहे रिश्ता जो भी हो।
साँप सूँघ गया बहुत लोगों को। भोले बाबा वाला सॉंप; और एक नहीं बहुत सारे होंगे क्योंकि बहुतों को सूँघा है। कह रहे हैं इनका तो निपट जाएगा अभी दो-चार घंटों में चल देंगे। आगे का तो हमें देखना है। उपनिषद् वगैरह सब ठीक है, गृहस्थी की जटिलताएँ ये क्या जानें? वहाँ ऐसे मंच नहीं मिलता कि बैठ जाओ और बोलते रहो, वहाँ सुनना पड़ता है। (श्रोतागण हँसते हैं)और माइक नहीं मिलता, डंडा मिलता है। वो आप जानिए, मेरा रास्ता मैंने चुना है, आपका आपने चुना है। आपने खूब मज़े लिये होंगे अपने रास्ते के, अब मैं आपके मज़े लेता हूँ। (श्रोतागण हँसते हैं)
तो मेरे पास इससे आगे कुछ नहीं है कहने के लिए। मुझे मालूम है मैंने तुम्हारी उलझन थोड़ी और बढ़ा ही दी है, पर मैं और कुछ कर नहीं सकता। आगे बढ़िए।