प्रश्नकर्ता: प्रणाम, आचार्य जी। संसार में इतना कुछ है प्राप्त करने और सीखने के लिए—धन-दौलत, नाम-यश, इंद्रियभोग, सुख—बहुत कुछ है, पर इन सबके बावजूद, इन सबसे परे और श्रेष्ठ परम शांति और मुक्ति प्राप्त करना भी चाहें, तब भी मन इन्हीं सांसारिक वस्तुओं के पीछे भागता है। मगर जो व्यक्ति अपनी मुक्ति के पीछे गंभीर है, वह इस मन की दिशा को शारीरिक, सांसारिक आकर्षण से खींचकर अंतर्मुखी होने या मुक्ति की ओर बढ़ने के प्रयास की शुरुआत कैसे करे और फिर कैसे मन की दिशा को मुक्ति की ओर सतत रूप से बनाए भी रखे?
आचार्य प्रशांत: शुरुआत दुःख से होती है। तुम पूछ रहे हो, "कैसे मन को संसार से मोड़कर मुक्ति की ओर लगाया जाए और फिर कैसे उसकी दिशा को मुक्ति की तरफ़ ही रखा जाए?"
दोनों ही तुमने जो बातें पूछी हैं, उनमें दुःख का बड़ा महत्व है। शरीर का संसार से लिप्त रहना, संसार की ओर ही भागते रहना, संसार से ही पहचान बनाए रखना – यह तो तय है, यह तो पूर्वनियोजित है।
बच्चा पैदा होता है, उसे क्या पता मुक्ति इत्यादि, पर उसे पालना पता है, उसे दूध पता है, उसे मल-मूत्र पता है, उसे ध्वनियाँ पता हैं, उसे दृश्य पता है, अर्थात् उसे जो कुछ पता है वह सब संसार मात्र है। तो बच्चे का मन किधर को लगेगा शुरू से ही? संसार की ओर, शरीर की ओर। यही तो दुनिया है, और क्या है? इधर को जाएगा-ही-जाएगा बच्चा, इधर को जाएगा-ही-जाएगा जीव।
“अगर संसार की ओर जाना पूर्वनिर्धारित है, तो फिर मुक्ति की ओर कैसे मुड़ें?”
मुक्ति की ओर मोड़ता है तुमको तुम्हारा दुःख, और दुःख मिलेगा-ही-मिलेगा क्योंकि जिस वास्ते तुम दुनिया की ओर जाते हो, दुनिया तुमको वह कभी दे ही नहीं सकती।
दुनिया की ओर जाओगे सुख के लिए, सुख मिलेगा छटाँग भर और दुःख मिलेगा दो पसेरी। ले लो सुख, सुख थोड़ा ज़्यादा भी मिल गया तो भी सुख के मिट जाने की आशंका हमेशा लगी रहेगी। अब यह कौन-सा सुख है जो अपने साथ आशंका ले करके आया है? यह कौन-सा सुख है जो इतनी सुरक्षा माँगता है कि सुख तभी तक रहेगा जब तक तुम सुख की देखभाल करो, मेंटनन्स करो, सुरक्षा करो? और जिस दिन तुमने सुख की देखभाल नहीं की, तुम पाओगे कि वह सुख गायब हो गया। तो इस सुख में तो बड़ा दुःख छुपा हुआ है।
यह दुःख सामने आने लगते हैं और तब तुम कहते हो कि “नहीं भैया, यह जो संसार के साथ मेरा नाता है, इस नाते से मुक्ति चाहिए। इस नाते से मुझे कुछ नहीं मिल रहा।"
जब तुम अपनी वास्तविक इच्छा के प्रति ज़रा सजग, ज़रा संवेदनशील होते हो, तब तुम मुक्ति की ओर मुड़ते हो।
फिर तुमने पूछा है, “क्या है जो मुझे मुक्ति की तरफ़ लगाए ही रखे?”
एक दफ़े मुड़ गए मुक्ति की ओर, पर हम तो यूटर्न लेना भी ख़ूब जानते हैं। सत्संग में आए, लगा मुक्ति बड़ी अच्छी चीज़ है। जीवन में दुःख आया, तो लगा मुक्ति होनी चाहिए, लेकिन फिर दुःख के बाद थोड़ा सुख भी आ गया, तो फिर मुक्ति इत्यादि भूल गए। सत्संग ख़त्म हो गया, मुक्ति इत्यादि भूल गए।
तो तुम पूछ रहे हो, “मुक्ति की चेष्टा सतत कैसे रहे?”
वह सतत ऐसे ही रहेगी कि तुम भूलते रहो, जितनी बार भूलेगी, उतनी बार पड़ेगा। जीवन इस मामले में बड़ा इंसाफ़-पसंद है। जितनी बार तुमने मुक्ति को भूला, उतनी बार जीवन का लपेड़ा पट्ट से पड़ा। पलट-पलटकर दुःख आते किसलिए हैं? दुःख आते ही इसीलिए हैं ताकि तुम्हें याद दिला दें कि जिसको याद रखना था, उसको भूल गए, जिसको भुला देना था, उसको सिर पर बैठाए हुए हो।
दुःख से बड़ा मित्र तुम्हारा कोई नहीं।
भला हो कि तुममें दुःख के प्रति संवेदनशीलता बढ़े; तुम जान पाओ कि आम आदमी, तुम, मैं, सभी कितने दुःख में जीते हैं। जैसे-जैसे दुःख का एहसास सघन होता जाएगा, वैसे-वैसे मुक्ति की अभीप्सा प्रबल होती जाएगी।
बेईमानी मत करना, डर के मारे दुःख का आलंकरण मत करने लग जाना। दुःख तो जीवन यूँ ही देता है तो दुःख हुआ सस्ता और मुक्ति बड़ी क़ीमत माँगती है, हिम्मत माँगती है तो मुक्ति हुई महँगी। तो फिर हम बेईमानी कर जाते हैं। जैसे कि कोई चीज़ अगर बहुत महँगी लगे तो हम कह दें कि, "हमें चाहिए ही नहीं, हमारा सब ठीक चल रहा है। नहीं, ठीक है!" सब ठीक चल रहा है, क्योंकि जो चीज़ वास्तव में सब ठीक कर देगी, वह तुमको बहुत महँगी लग रही है, तुम दाम नहीं देना चाहते।
अधिकांश लोग अध्यात्म की ओर यही कहकर नहीं आते कि, "हमें ज़रूरत क्या है; ना हमें कोई डर है, ना हमें कोई दुःख है, हम क्यों आएँ अध्यात्म की ओर?"
डर भी है, दुःख भी है, बेईमानी कर रहे हैं क्योंकि क़ीमत अदा नहीं करना चाहते और डरते हैं। मुक्ति हिम्मत माँगती है न? अध्यात्म बहुत हिम्मतवर लोगों का ही काम है। डरपोक आदमी तो ऐसे ही रहेगा – थोड़ा पास, थोड़ा दूर, कभी अंदर, कभी बाहर।