श्रोता: मन लगातार छवियाँ बनाता रहता है, लगातार धारणाएँ बनाता रहता है। और हम कितनी भी कोशिश कर लें असंस्कारित होने की, पर हो नहीं पाते। कुछ न कुछ हिस्सा रह ही जाता है तो इसके बारे में क्या किया जाए?
वक्ता: देखिये, एक बात ये समझिएगा कि प्रभावित होने वाला और ये अनुभव करने वाला कि, ‘’मैं प्रभावित हुआ हूँ,’’ वो एक ही हैं। थोड़ा इसमें गौर से जाइएगा, वरना बात समझ में नहीं आएगी। हम हमेशा ये कहते हैं कि, ’’मैं किस तरीके से तनाव कम करूँ अपना, दुःख अपना कम करूँ?’’ आपको दुःख नहीं सताता है, आपको दुःख का अनुभव सताता है। या ये कहिये कि जिसको आप दुःख कहते हैं, वो दुःख का अनुभव है। जो दुखी होने वाला मन है, वो ही निर्णयता भी है कि दुःख कितना हुआ है। ये सब बातें वस्तुगत नहीं है। आप नाप नहीं पाओगे कि कितने यूनिट्स दुःख है मुझे। दुःख, हमेशा दुःख रहेगा।
असल में आज आप जहाँ बैठे हो, वहाँ बैठ करके आपको लगता है कि मुझे दुःख बहुत है। कुछ कम हो जाए, तो प्रसन्नता रहेगी। ये आप जहाँ बैठे हो न, वहाँ पर दुखी होने वाला और दुःख कितना है, इसका निर्णय करने वाला, दोनो बैठें हैं एक साथ। और जिसको आप कहते हो कि दुःख कुछ कम हो जाए, वो कम भी होगा तो ये दुखी होने वाला, और दुःख का निर्णय करने वाला फिर दोनों एक साथ ही बैठे होंगे। दुःख कितना है, ये तय करने वाला भी बदल गया, दुःख हमेशा एक बराबर रहेगा।
दुःख कम केवल कल्पनाओं में होता है।
नहीं समझ रहे?
श्रोता: मतलब जो ये निर्णय करने वाला है कि दुःख कितना है, उसी को बदलना है?
वक्ता: अभी क्या होना है, वो छोड़ें! जो इसकी प्रक्रिया है, उसको समझिये।
आज आप बैठे हैं, और कोई आपको चार गालियाँ देता है। आपको क्या चुभता है? चार गालियाँ या उन गालियों से होने वाला अनुभव?
श्रोता: अनुभव।
वक्ता: ठीक है? आप कहोगे कि अगर मुझे चार की जगह एक ही गाली पड़े, तो शायद मेरा दुःख कुछ कम हो जाएगा। और पूरी कोशिश करते हो, पूरी कोशिश करते हो और दो साल बाद आप ऐसी स्थिति में पहुँचते हो, जहाँ पर आपको चार गाली नहीं दी जा सकती। आपका समाज में कोई स्थान हो गया है, आपकी उम्र बढ़ गई है, कुछ पैसा आ गया है, कुछ हो गई है बात। आपने कुछ अर्जित करा।
दो साल बाद कोई आता है और आपको सिर्फ़ एक गाली दे करके चला जाता है। आपको क्या लगता है कि आपको एक चौथाई दुःख होगा? क्या एक चौथाई दुःख होगा? क्योंकि जो दुःख का अनुभव कर रहा था, वो भी बदल गया और जो निर्णय कर रहा था कि कितना दुःख है, वो भी इस प्रक्रिया में बदल गया। तो दुःख अभी भी उतना ही होना है।
दुःख से मुक्ति संभव नहीं है। संभव है इस बात को समझ लेना कि दुःख क्या है ?
संभव है सिर्फ़ ये समझ लेना कि दुःख क्या है।
“कुछ” हो जाए, उससे दुःख कम हो जाए, नहीं ऐसा नहीं होता। ऐसी सिर्फ़ कल्पना होती है। कुछ हो जाए, उससे सुख बहुत बढ़ जाए, ऐसा भी आवश्यक नहीं है। हाँ! कल्पना ज़रूर आप इस बात की कर सकते हो खूब जमके।
दुःख समझा जा सकता है कि जब दुःख है, तो जान लिया कि ये क्या है। और जानने से ये नहीं होता है कि दुःख गायब हो जाता है। जानने से बस इतना होता है कि आप सिर्फ़ उस दुःख के आयाम में ही नहीं रहते। दुःख और सुख के ही आयाम में नहीं रहते। आप किसी ऐसे आयाम में भी स्थित हो जाते हो, जहाँ पर दुःख और सुख दोनों ही नहीं है।
“मैं दुखी हूँ और दुःख का मुझे बोध है।” उसका अर्थ ये नहीं है कि दुःख कम हो जाएगा। दुःख रहेगा। जगत का स्वभाव है दुःख, और जिस हद तक आप जगत हो, आप दुखी भी रहोगे। पर साथ ही साथ आप किसी ऐसे में भी स्थित हो जाओगे, जहाँ पर दुःख और सुख दोनों अनावश्यक हैं। एक ऐसा बिंदु, जिसको दुःख नहीं छू सकता, सुख नहीं छू सकता। दुःख कम नहीं हो गया। कोई इस लालच में न रहे कि ये सब करके दुःख कम हो जाते हैं। दुःख रहेंगे।
दुःख जिन्हें कम करना हो, उनके लिए तो मामला बहुत आसान है। उनके लिए तो बहुत सस्ता उपाय है।
श्रोता: सुख भी छोड़ दो।
वक्ता: सुख भी छोड़ दो। जिन्हें दुःख कम करने हैं, उनके लिए तो बिलकुल सीधा उपाय है: सुख भी छोड़ दो, और दुनिया करती भी यही है। और ये बात बड़ी आसानी से समझ में आने वाली है। बहुत क्योंकि मूर्खतापूर्ण बात है, इसीलिए समझ में भी आ जाती है। बिलकुल मन में समा जाती है। दुःख परेशान कर रहा है न? सुख भी छोड़ दो। और उसका अर्थ इतना ही है कि मुर्दा हो जाओ, क्योंकि जो द्वैत को छोड़ रहा है, वो अद्वैत की सम्भावना को भी छोड़े दे रहा है।
अद्वैत को और पाओगे कहाँ द्वैत के अलावा ?
कहीं लटक रहा है क्या कि द्वैत को छोड़ करके जाओगे, और अलग से अद्वैत को पा लोगे। “वो अद्वैत का पेड़ है।”
द्वैत में गहराई से पैठना ही तो अद्वैत है। और क्या है ?