ड्रग्स की तस्करी और मंदिर में चढ़ावा || आचार्य प्रशांत (2024)

Acharya Prashant

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ड्रग्स की तस्करी और मंदिर में चढ़ावा || आचार्य प्रशांत (2024)

प्रश्नकर्ता: नमस्ते आचार्य जी। सबसे पहले शैलेश नागर जी हैं जिन्होंने एक बात साझा करी है। वो बता रहे हैं कि चित्तौरगढ़ में एक श्रीकृष्ण जी का मंदिर है, सांवलिया सेठ के नाम से, वहाँ ड्रग स्मगलर्स (ड्रग तस्कर) अपने माल का कुछ प्रतिशत मंदिर में समर्पित करते हैं। उनकी मन्नत ये रहती है कि हमारा माल नहीं पकड़ा जाए और अगर वो नहीं पकड़ा जाता तो वो चढ़ावा चढ़ाते हैं।

आचार्य प्रशांत: सब निष्काम कर्मयोगी हो गए! देखो, धर्म दोनों चीज़ें हो सकता है न। और निन्यानवे प्रतिशत वो गलत चीज़ ही होता है। एक तो ये कि कामना पूरी हो नहीं रही है क्योंकि कामना ही गड़बड़ है, तो मैं उसमें फिर कोई दैवीय हस्तक्षेप चाहता हूँ, बड़े मालिक का सोर्स लगा लूँ तो शायद काम बन जाए, होता है न।

लड़का पास हो नहीं रहा है क्योंकि लड़का है ही नालायक, तो वो जाकर के सांसद, विधायक किसी के सिफ़ारिश, कि काम हो जाए, ऐसा काम जो होना चाहिए ही नहीं। लड़का ऐसा नालायक है उसको पास होना चाहिए ही नहीं, तो फिर वो बड़ी सिफ़ारिश लेने के लिए जाकर के अब खड़े हो गए हैं, सांसद की कोठी के आगे कि देखिए, आप अगर एक फ़ोन कर दें तो हमारा काम हो जाएगा।

वैसे ही मंदिर जाया जाता है। वहाँ बड़े वाले सांसद, सांसद क्या मतलब, अंतिम अध्यक्ष हो सकते हैं, जो सर्वोच्च सत्ता हो सकती है वो बैठी है। तो जाकर वहाँ पर लल्लो-चप्पो, खुशामद, ‘थोड़ा सिफ़ारिश कर दीजिए हमारी, आप अगर चाहोगे तो हमारा काम हो जाएगा’ — ये है एक तो धर्म, कामनापूर्ति का साधन। वो कामना ऐसे पूरी होनी भी नहीं है पर एक अगर आशा लगी रहे तो जो बिचौलिए होते हैं उनकी जेबें भरती रहती हैं। अब अगली बार फ़लाना अनुष्ठान कर लेना, अब अगली बार फ़लानी जगह चले जाना, फ़लाना ये कर लो, वो कर लो, रीति-रिवाज़, पूजा-पाठ, यज्ञ, आरंभ, उद्यापन — एक ये धर्म है।

और एक धर्म होता है आत्मज्ञान का जहाँ पता चल जाए कि मैं कितना पागल हूँ कि फ़ालतू चीज़ें माँगता रहता हूँ। ये दोनों धर्म विपरीत हैं एक-दूसरे के। कई लोगों को लगता है कि ये जो गड़बड़ वाला धर्म है, ये प्राइमरी क्लास (प्राथमिक कक्षा) की तरह है, और वास्तविक धर्म पीएचडी की तरह है। वो गलत उदाहरण दे रहे हैं क्योंकि वो मान दोनों को एक ही आयाम में रहे हैं।

भई! एक बच्चा होता है, वो चलता है नीचे से; तो प्राथमिक, माध्यमिक ऐसे करके उच्चतरकर के, और फिर वो परास्नातक और फिर वो डॉक्टरेट में घुसता है; तो ये तो एक ही आयाम है न। एक ही सड़क है जिस पर आगे बढ़ते जाते हो, एक ही दिशा है। तो लोग कई बार कहते हैं, कहते हैं कि ये सब जो बातें हैं कर्मकांड और इधर-उधर की धर्म की बातें, इनकी निंदा नहीं करनी चाहिए, ठीक वैसे ही जैसे कि आप पीएचडी स्टूडेंट के आगे प्राइमरी स्टूडेंट की निंदा नहीं कर सकते। भई! प्राइमरी वाला ही एक दिन चलकर पीएचडी में जाएगा, तो ये ऐसा तर्क देते हैं।

ये तर्क बिलकुल गलत है क्योंकि वहाँ ऐसा होता है, शिक्षा में, कि आप जिस राह चल रहे हो वो राह आगे चलकर आपको.... । यहाँ बात ये है ही नहीं कि लोकधर्म और वास्तविक धर्म है, तो लोकधर्म छोटा सा पौधा है, वही जब बड़ा हो जाता है तो वास्तविक धर्म बनता है — ऐसा बिलकुल नहीं है, उल्टा है — लोकधर्म विष है, वास्तविक धर्म अमृत है। विष क्या आगे चलकर अमृत बन जाता है? बोलो! वास्तविक धर्म को अगर आपको वृक्ष मानना ही है, तो लोकधर्म कुल्हाड़ी है। वो कुल्हाड़ी जिसमें लकड़ी लगी हुई है उसी वृक्ष की। कुल्हाड़ी में लकड़ी लगी हुई है तो वो लकड़ी क्या आगे चलकर के बड़ा भारी वृक्ष बन जाएगी? नहीं, वो कुल्हाड़ी तो वृक्षों को काटने के ही काम आएगी।

तो ये तर्क कभी नहीं स्वीकार करिएगा कि भई, सबका अपना-अपना स्तर होता है, सब कहीं-न-कहीं से शुरुआत करते हैं, कोई अगर अंधविश्वास से शुरुआत कर रहा है तो भी वो एक दिन इस रास्ते पर चलते-चलते समाधि तक पहुँच जाएगा। कैसे चलकर? ज़हर के रास्ते पर चलकर अमृत तक कहाँ से पहुँच जाओगे भाई? ये प्राइमरी-सेकेंडरी वाला उदाहरण बिलकुल गलत दे रहे हो।

पाताल की ओर चलकर आकाश तक कैसे पहुँच जाओगे? दिशाएँ ही अलग हैं, विपरीत हैं दिशाएँ, बल्कि जितना पाताल की ओर जाओगे आकाश से उतना... । तो इनको एक श्रेणी में कभी मत गिन लिया करिए — ‘लोकधर्म, वास्तविक धर्म, हैं तो दोनों ही लोग धार्मिक।’ नहीं-नहीं-नहीं-नहीं-नहीं एकदम ही नहीं। इन दोनों में तो ज़बरदस्त संघर्ष रहेगा।

लोकधर्मी के लिए वास्तविक धर्म ज़हर जैसा है। आपको समझ में नहीं आएगा कि वो इतना विरोध क्यों कर रहा है, वो करेगा। कई बार जो लोग मुझे गरिया रहे होते हैं, उनसे कुछ बंधु बड़ी मासूमियत में जाकर सवाल करते हैं, ‘पर आप भी तो धर्म की, और गीता की बात करते हैं, और वो आचार्य भी गीता की बात करते हैं, तो फिर आपको आचार्य से इतनी रंजिश क्यों है?’ और उनको सचमुच ताज्जुब होता है, कहते हैं, ‘इधर भी धर्म के लोग हैं, उधर भी धर्म के लोग हैं, तो फिर इनको इतनी घृणा क्यों है आचार्य से?’ आप समझ ही नहीं रहे हो न बात को।

लोकधर्म के लिए वास्तविक धर्म मौत होता है; वो कहता है, ‘मैं मरूँ, इससे पहले तुझे मार दूँगा।’ आप किसी के सामने मौत बनकर जाएँ, तो वो क्या आपसे प्रसन्न हो जाएगा? वो आप पर घातक-से-घातक आघात करेगा। समझ रहे हो?

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, प्रेरणा जी हैं दिल्ली से, वो पूछ रही हैं कि बच्चे जब फ़ोन में गेम खेलते हैं, या बहुत से लोग इंटरनेट सर्फ़िंग के नाम पर घंटों-घंटों रील्स देखते हैं, तो इनमें से भी उन्हें किसी फल की इच्छा नहीं होती, भविष्य की चिंता नहीं होती, तो क्या ये भी निष्काम कर्म हुआ?

आचार्य: ये निष्काम कर्म नहीं हुआ, ये एक तरह का अकर्म हुआ, जिसमें आपको पता भी नहीं है कि आप चाह क्या रहे हो। याद करो, हमने कहा था कि सकाम कर्म के कई प्रकार होते हैं, है न। सकाम कर्म के कई प्रकार होते हैं, निष्काम कर्म तो अलग ही हो गया। उसमें सब आ जाता है वर्जित कर्म, निषिद्ध कर्म, अकर्म, सब। और इनमें सबमें कामना मौजूद रहती है, बस कहीं कामना प्रकट है और कहीं कामना छुपी हुई है।

कहीं ऐसा है कि आप साफ़-साफ़ जान रहे हो कि आप क्या चाह रहे हो, और कहीं ऐसा है कि आप किसी कर्म में घुस रहे हो। कामना है पर आपको पता ही नहीं है। क्योंकि आप बहुत बेहोश हो, बहुत बेहोश हो। तो सिर्फ़ आप जान नहीं रहे हो कि आपको क्या चाहिए, इससे ये थोड़ी हो जाता है कि आपको कुछ नहीं चाहिए। आपको चाहिए है, पर आपको नहीं पता कि आपको क्या चाहिए तो आप वहाँ पर अपना कर रहे हो — उसको निष्काम कर्म नहीं कहते हैं।

वापस जाइए, जहाँ पर हमने पूरे अच्छे तरीके से समझा था कि निष्काम कर्म अपनी जगह, और बाकी कर्मों के जितने प्रकार हैं, वो सब सकाम हैं। सकाम कर्म में ही तीन प्रकार, चार प्रकार, आप जितने चाहो उतने बना सकते हो। सामाजिक दृष्टि से जो सकाम कर्म अस्वीकार्य है, उसको हम क्या बोल देते हैं? वर्जित या निषिद्ध कर्म। ठीक है न। जो सकाम कर्म कर रहे हो, पर एकदम बेहोशी में कर रहे हो, उस कर्म में चेतना कहीं है ही नहीं, वो क्या कहलाता है? अकर्म कहलाता है, तो उसको निष्कामता नहीं बोलते।

निष्काम होने के लिए भूलिएगा नहीं; जब कर्मसन्यास पर हम चर्चा कर रहे थे; कर्मसन्यास के लिए पहले निष्काम होना पड़ता है, और निष्काम होने के लिए भी पहले क्या होना पड़ता है? आत्मज्ञानी होना पड़ता है। तो जब भी ये संशय उठे कि कोई निष्काम कर्म है या नहीं है, तो देखिए कि उसके पीछे आत्मज्ञान है या नहीं। आत्मज्ञान नहीं है तो निष्काम कर्म कहाँ से आ गया? इसीलिए हम आत्मज्ञान से इतना घबराते हैं क्योंकि बड़े-बड़े दावों की पोल-पट्टी खोल देता है आत्मज्ञान।

आप कोई बहुत बड़ी बात बोलो, उदाहरण के लिए आप बोलो, ‘मुझमें करुणा बहुत है’, कोई बोले, ‘मुझमें मैत्री बहुत है’, आप बहुत बड़ी-बड़ी बातें बोलो, पर हम तो ये जानते हैं कि दुनिया में जो कुछ भी शुभ है और श्रेष्ठ है, वो आ सिर्फ़ एक जगह से सकता है, कहाँ से?

श्रोता: आत्मज्ञान से।

आचार्य: और आपका दावा है कि आपके पास ये शुभता है, ये श्रेष्ठता है, ‘मैं दयालु आदमी हूँ, मैं भला आदमी हूँ, मैं दान कर देता हूँ।’ और आप जो भी बात बोल रहे हैं, उसकी सच्चाई परखने का कोई तरीका नहीं मिल रहा। कोई तरीका नहीं मिल रहा तो आपकी बात पर भरोसा करना पड़ रहा है। भरोसा करना पड़ रहा है तो आपको और गहरा हो जाता है आत्मविश्वास, जो कि बस गलतफ़हमी है कि आप तो हो ही अच्छे आदमी।

फिर एक चीज़ आती है जो आपका आत्मविश्वास और गलतफ़हमी सब तोड़ देती है, क्या? ये प्रश्न कि क्या आत्मज्ञान है। और आत्मज्ञान नहीं है तो करुणा कहाँ से आ गई। आत्मज्ञान नहीं है तो प्रेम और मैत्री, तितिक्षा, वीरता कहाँ से आ गए?

तो हम इस प्रश्न से बहुत घबराते हैं, ‘क्या जानते हो, जो कुछ भी कर रहे हो, भीतर से आ कहाँ से रहा है?’ वो हम नहीं जानते पर किसी तरह के कुछ रूप धारण किए हुए कर्म करना ज़्यादा आसान रहता है। उदाहरण के लिए चिल्लाकर के बोल दो, और छाती ठोककर एक भीड़ के सामने खड़े हो जाओ, तो ऐसा लगता है कि ये वीरता है, निडरता है। और लग भी जाएगा ऐसा, देखो, क्या वीर जवान खड़ा हुआ है, दस लोगों के सामने भी हुंकार मार रहा है, और लड़ रहा है लट्ठ लेकर के, बंदूक चला रहा है, बिलकुल निडर है।

बड़ा अच्छा लगेगा आपको ये कहते हुए भी कि वाह! ये देश है वीर जवानों का। जवान को भी बड़ा अच्छा लगेगा कि मुझे वीर कहा गया; और फिर कोई धीरे से आकर के पूछ देगा, क्या? ‘आत्मज्ञान है?’ और आत्मज्ञान नहीं है, तो निडरता कहाँ से आ गई? माने ये निडरता जैसी दिख रही है चीज़, है कुछ और। और तुम बड़े झांसेबाज़ आदमी हो, और बेहोश आदमी हो। खुद के प्रति बेहोश हो इसलिए जानते ही नहीं कि ये साहस नहीं है, निडरता नहीं है। और दूसरों को भी झाँसा दे रहे हो, तो उनको भी दिखा रहे हो कि मैं तो निडर हूँ।

आत्मज्ञान का सवाल बहुत चिढ़ाता है क्योंकि कोई अच्छाई नहीं हो सकती आत्मज्ञान के बिना, शुभता आ ही नहीं सकती। ‘मैं प्रेम में हूँ आजकल, बहुत प्यार करता हूँ, दिनभर गाना गाता हूँ, उसी को सोचता रहता हूँ, एकदम डूब गया हूँ प्रेम में।’ और धीरे से पूछ देंगे, क्या? ‘आत्मज्ञान है?’

आत्मज्ञान नहीं है तो प्रेम तो हो नहीं सकता। एकदम चिड़चिड़ा जाए आदमी, ‘हटाओ न ये सवाल आत्मज्ञान का, हमें प्रेम है तो है। देखो सब गुलाबी पहनकर घूम रहे हैं।’ और ये दिल लेकर ऐसे घूमते हैं, जेब से निकाला दिल, हमें प्रेम तो है ही और दुनिया मान रही थी कि ये प्रेम ही है। पर ये सवाल सामने आकर सिद्ध कर देगा कि तुम प्रेम का ‘प’ नहीं जानते।

जो आत्मज्ञानी नहीं है उसके पास जड़ ही नहीं है, वो फल-फूल का दावा कैसे कर सकता है। इसीलिए ज्ञान शब्द का भारी मज़ाक उड़ता है, इसीलिए धर्म का ज्ञान से कोई संबंध रखा ही नहीं जाता क्योंकि आत्मज्ञान आकर सब पोल-पट्टी खोल देता है। बहुत समर्पित हैं, बहुत समर्पित हैं। किसको? और कौन समर्पित हैं? ‘बड़े भारी भक्त हैं’, किसके? और जिसके भक्त हो, वो कहाँ से आया? आग लग जाती है, भबका उठता है।

कोई आ रहा है बिलकुल एकदम भक्ति में नहाया हुआ, नख-शिख गीला, चू रहा है, और उससे इतना पूछ दो, ‘किसके भक्त हो?’ हो सकता है अभी कुछ जवाब दे दे; फिर पूछो, ‘जिसके भक्त हो, वो तुम्हारे मन में कहाँ से आया, तुम्हें कैसे पता?’ अब समस्या होनी शुरू हो गई, बोलेंगे ‘उस स्रोत से आया’, बोलेंगे, ‘वो जहाँ से, जिसने तुमको बताया, उसके पास कहाँ से आया?’ अब चिढ़। और एकाध-दो आगे सवाल, भक्ति शक्ति में बदल जाएगी, ले दनादन, दे दनादन। समझ में आ रही है बात?

इसको, सवाल को, ऐसे (मुट्ठी बाँधकर) पड़कर रख लीजिए, फिर इस तरह की गलतफ़हमियाँ नहीं होंगी। एक पागल है, वो पेड़ को गाली दे रहा है, उसे कोई उम्मीद तो नहीं न पेड़ से? वो भी निष्काम कर्मयोगी हो गया। जैसे हम ये कह सकते हैं कि बच्चे हैं, वो कुत्तों को दौड़ा रहे हैं, उससे कुछ कुत्ते से मिलेगा तो है नहीं। कुत्ते को बहुत ज़ोर से दौड़ाया, तो कुत्ता अपना पर्स छोड़कर भाग गया, बच्चों ने लूट लिया, ऐसा तो होता नहीं। तो कुत्ते से कुछ मिलना तो है नहीं, तो बच्चे कुत्ते को दौड़ा रहे हैं, तो सब बच्चे निष्काम कर्म योगी हो गए — ऐसी गलतफ़हमियों से बच जाओगे, प्यार के झूठे वादों से बच जाओगे, चरित्र के दंभ से बच जाओगे, अगर एक सवाल याद रखोगे — ‘क्या आत्मज्ञान है?’

आत्मज्ञान है तो सब एकसाथ हो जाता है। आत्मज्ञान है निष्काम होना, योगी होना, करुण होना, प्रेमी होना, मित्र होना, वीर होना, समर्पित होना, ये सब एकसाथ हो जाता है। ये सब एक ही चीज़ के अलग-अलग संदर्भों में अलग-अलग नाम हैं, एक ही चीज़ के नाम हैं ये। और आत्मज्ञान नहीं है तो (पंजा हिलाते हुए), कुछ नहीं, बेहोशी।

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, एक आखिरी प्रश्न और है। देवांकित ठाकुर जी, उड़ीसा से, वो पूछ रहे हैं कि आचार्य जी, आपने कहा था कि सही कर्म का चुनाव करना बहुत ज़रूरी है, जो निष्काम होकर ही किया जा सकता है, परंतु बहुत से लोग ऐसे हैं जो बहुत देर तक गलत जीवन जीते हैं, गलत कर्म करते हैं, और सकाम-भाव से जीते हैं। उससे ज़िंदगी को तो बर्बाद करते ही हैं, साथ में अपने पोटेंशियल (संभावना) तक भी नहीं पहुँच पाते। अभी धीरे-धीरे अपने पुराने कर्मों को देख रहा हूँ और बहुत बुरा लग रहा है। क्या वेदांत में प्रायश्चित संभव है? अभी अपनी ज़िंदगी को लेकर जो ग्लानि भाव आ रहा है, उसे कैसे दूर करूँ?

आचार्य: आप वो हो ही नहीं जिसने सब उल्टे-पुल्टे काम करे थे। उल्टे-पुल्टे काम सब किसने करे थे? विक्षिप्त अहंकार ने, और आपकी सच्चाई क्या है? आप आत्मा हो। तो वेदांत में प्रायश्चित का मतलब यही होता है, जो उल्टे-पुल्टे बनकर उल्टे-पुल्टे काम करे थे, वो रहो मत।

प्रायश्चित का अर्थ होता है पाप धोने नहीं हैं; पापी को ही धो दिया, है ही नहीं, ऐसा धोया कि पीछे छोड़ आए। यहाँ बड़ी मज़ेदार बात है, गांधी जी कहा करते थे, ‘पाप से घृणा करो, पापी से नहीं’, ये बात बिलकुल भी वेदांत सम्मत नहीं है। वेदांत कहता है, ‘पापी पर ही ध्यान देना है।’ पाप तो पापी की छाया होती है और पापी का एक ही नाम है, क्या? अहंता, वही पापी है।

पाप पर ध्यान देते रहोगे तो पापी रूप बदलकर दूसरे तरह के पाप कर लेगा। तुम एक तरह के पापों को रोकोगे, वो दूसरे तरह के, दूसरी दिशा में पाप कर देगा। तो पाप पर ध्यान नहीं देना होता, पापी पर ध्यान देना होता है। यही प्रायश्चित है कि हम जो थे, अब हम वो रहेंगे ही नहीं।

प्रायश्चित का मतलब होता है अपना नकार, स्वयं का ही त्याग; मैं जो था, जिसने ऐसे कर्म करे कि अब दुख पा रहा हूँ, ग्लानी हो रही है, उसका सुधार नहीं हो सकता, उसका बस त्याग हो सकता है, उसका विसर्जन हो सकता है। प्रायश्चित माने आत्मविसर्जन, बहा दिया स्वयं को। अब हम वो हैं ही नहीं जिसका अतीत था, हम कुछ और हैं।

भूल का नहीं सुधार करना होता, अच्छे से समझना होता है कि भूल तो अनिवार्य थी, वो भूल थी ही नहीं। भूल का तो अर्थ होता है कुछ जो असंगत हो, बेमेल हो, होना नहीं चाहिए था पर हो गया हो, उसको भूल कहते हैं न। आप जो हो, आप भूल थोड़े ही करते हो, आप जो करते हो वही भूल है। एकाध-दो कामों को भूल मानने या गलती मानने के पीछे बड़ी गहरी चालाकी होती है।

जब आप कहते हो, ‘अरे भूल हो गई’, तो आप जानते हो क्या कह रहे हो? ‘इस मामले में भूल हो गई, बाकी सब तो बढ़िया है।’ नहीं, वेदांत कहता है, ‘तुम जो हो, तुम जो कर रहे हो, सब भूल है। हाँ, दस भूलें करते हो, बेहोश इतने हो कि उसमें से दो भूलें ही तुम्हारी पकड़ में आती हैं, बाकी आठ भूलें पकड़ में नहीं आतीं तो तुम्हें लगता है भूल हुई ही नहीं।

आपने जो करा है वो दस-की-दस चीज़ें गलत हैं। आप जो कर रहे हो सबकुछ गलत है, आप एक कदम भी किधर को बढ़ा रहे हो, तो वो भी गलत है। इसीलिए तो लोगों को बहुत बुरा लग जाता है, कहते हैं; मैं कुछ बताऊँ कहते हैं, ‘इनको सबसे तकलीफ़ है, हर बात से समस्या है, अरे! हममें कुछ ठीक होगा, कुछ गलत होगा, कभी-कभी तारीफ़ भी होनी चाहिए हमारी। क्या हम सबकुछ गलत ही करते हैं?’ और मैं पूछता हूँ, ‘एक बात बताओ, कोई आदमी एकदम धुत्त हो नशे में, और चौराहे पर खड़ा हो, तो बताओ वो किस तरफ़ को जाए कि न गिरे?’ जिधर जाएगा, उधर गिरेगा न? वो खड़ा भी रहेगा तो भी गिरेगा।

तुम जो करोगे सब गलत होगा क्योंकि तुम गलत हो, और ये बात बहुत अखर जाती है, कहते हैं, ‘नहीं ऐसे थोड़े ही होता है। हर आदमी थोड़ा गलत, थोड़ा सही होता है, वी ऑल एगज़िस्ट इन शेड्स ऑफ़ ग्रे (सभी में अच्छाई, बुराई दोनों होती हैं) कभी-कभी हमारी तारीफ़ करो, हम जो कुछ करते हैं सब गलत है? एक-एक बात हमारी गलत है?’ हाँ, तुम्हारी एक-एक बात गलत है क्योंकि तुम गलत हो।

तो वेदांत कहता है प्रायश्चित माने कुछ भी पुराना बचना नहीं चाहिए, माने तुम ही बचने नहीं चाहिए, कि तुम बचे हुए हो तो पूरा-का-पूरा अतीत बच गया। कर्म सुधार जैसा कुछ नहीं होता, भूल सुधार, मिस्टेक से गलती हो गया — ये वेदांत में नहीं चलता। कोई मिस्टेक नहीं हुई है; तुम जो हो, तुमसे वो होना ही था, जो तुमसे हुआ है और तुम्हारी जो पकड़ में आई है भूल, तुम उससे कई गुना ज़्यादा भूलें करते हो।

अभी इस लायक भी नहीं हो कि अपनी सारी भूलें पकड़ भी सको, कि मैंने ये गलती भी करी, अरे, ये भी तो गलत है, अरे, ये भी तो गलत है, सबकुछ ही तो गलत है। जो यहाँ पर पहुँच जाता है कि सबकुछ ही गलत है, वो फिर जैसा है वैसा बना नहीं रह पाता; तो इसीलिए हम अपनेआप को कभी यहाँ पहुँचने ही नहीं देते कि सबकुछ गलत है। हम कहते हैं, ‘दो-चार चीज़ें गलत हो गईं, बाकी तो हम आदमी बढ़िया हैं।’ दो-चार चीज़ें नहीं ठीक हो गई हैं, सबकुछ ही गलत है।

तुम्हें एक रुमाल तक खरीदने की तमीज़ नहीं है, ‘हैं...? ऐसा थोड़ी होता है। अरे! हमने चादर गलत खरीदी थी, रुमाल तो सही खरीदा।’ न, चादर खरीदने वाला, रुमाल खरीदने वाला एक है। जिस दिन तुम्हें एक रुमाल भी खरीदना आ गया, तुम्हारी ज़िंदगी संवर जाएगी — तुम्हें एक रुमाल खरीदना भी नहीं आता।

‘कुछ ज़्यादा ही नहीं बोल रहे हैं आप? ये आदमी एक्सट्रीम (चरम) में जाता है। अरे! बाय मिस्टेक रुमाल गलत ले लिया, इसका मतलब ये थोड़ी है कि तंबू भी गलत तान दिया।’ तुम्हें कुछ नहीं आता। थोड़ा-थोड़ा लेने-देने की बात करो, कुछ तुम्हारी, कुछ हमारी। कभी-कभार तो तारीफ़ भी, अच्छा लगता है। जब तारीफ़ होगी तो पूरी होगी। सच और झूठ के बीच में कोई मध्यम मार्ग नहीं होता, एब्सोल्यूट (परम) का खेल है भाई। समझ में आ रही है बात ये?

एक ही केंद्रीय भूल होती है जो अलग-अलग रूपों में प्रकट होती है। उस केंद्रीय भूल का क्या नाम है? अहंकार। वो सौ तरीके से प्रकट होती है। तो जब एक ही भूल है तो फिर एक ही प्रायश्चित होता है — उसको पहचान लो, जो भीतर बैठा है उसको पहचान लो, यही प्रायश्चित है। और बाकी प्रायश्चित ये सब नहीं कि जाकर दान दे आए, या अपनेआप को कोड़े-वोड़े मार रहे हो बहुत ज़ोर से, इससे नहीं हो जाएगा प्रायश्चित।

क्या है अब, ’कुछ करना नहीं आता, अब इसका प्रायश्चित तो करना पड़ेगा।’ कैसे? ‘कोड़े मारने हैं खुद को।’ दिक्कत हो गई, क्या? कोड़े मारना भी नहीं आया। तुम्हें तो खुद को कोड़े मारना भी नहीं आता। ये क्या कर रहे हो? दस-बीस कोड़े चलाए, खुद को लगे एक-दो, बाकी पूरा कमरा तहस-नहस कर दिया, चार छिपकलियाँ मार दीं, उनकी क्या भूल थी? दीवार से सारा प्लास्टर गिरा दिया, वो तो कोड़े चलाना भी नहीं आता।

जैसे कोई बावरची हो, रसोईया, एकदम घटिया उसने खिला दिया, ज़हर एक आदमी को; बोला, ‘अब प्रायश्चित करूँगा, पैसे लिये बिना तुम्हारे पूरे घर को दस दिन तक खिलाऊँगा।’ वो प्रायश्चित क्या करेगा, एक आदमी को एक दिन ज़हर खिलाया था, अब दस लोगों को दस दिन ज़हर खिलाएगा, तू तो वही है न?

आपकी कोई गाड़ी चला रहा है, इधर-उधर हर जगह जहाँ-जहाँ ठोक सकता है, ठोक रहा है, फिर बोलता है, ‘ये जो मैंने आपका नुकसान करा है, मैं इसकी भरपाई कर दूँगा।’ कैसे? बोले, ‘दो महीने तक अपनी सेवाएँ मुफ़्त दूँगा, ये प्रायश्चित है मेरा।’ अभी तो गाड़ी ही ठोकी है, पता नहीं क्या करेगा, कहाँ जाकर, कौनसा रॉकेट मारेगा। तुम जो हो वही बने-बने प्रायश्चित कैसे कर सकते हो?

प्रायश्चित अगर सच्चा है तो आपको मिटाएगा, और मिटना ही प्रायश्चित है, उसके अलावा ऊपर-ऊपर रंग-रोगन, लीपा-पोती — ये नहीं प्रायश्चित होता। प्रायश्चित से बिलकुल उल्टी चीज़ क्या है? पछताना, गिल्ट , वो सस्ता हिसाब है। उसमें अहंकार पूरा बचा रह जाता है, ‘मैं अच्छा आदमी हूँ, बाय मिस्टेक गलती हो गया।’ सबसे पहले तो जानो कि बाय मिस्टेक कुछ नहीं है, पैटर्न है, लगातार हो रहा है। वहाँ तो हो ही रहा है जहाँ दिख रहा है, जहाँ नहीं दिख रहा है, वहाँ भी हो रहा है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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