दूसरों से आहत क्यों हो जाते हो?

Acharya Prashant

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दूसरों से आहत क्यों हो जाते हो?
तो जब भी कभी उम्मीदों पर, आशाओं पर चोट लगे, उसको ये मानो ही मत कि कोई व्यक्तिगत घटना घटी है, बस कुछ हुआ है। चोट पड़ी है पर जिसपर पड़ी है वो मैं नहीं हूँ, वो एक बड़े तन्त्र का हिस्सा है। एक मशीन चल रही है, उसका एक हिस्सा दूसरे हिस्से से जाकर के टकरा गया। यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, हमेशा इस बात का डर सताता रहता है कि कहीं कोई आकर मुझे आहत न कर दे। कृपया स्पष्ट करें।

आचार्य प्रशांत: मान लो कि चोट तो लगनी ही है, हर्ट (आहत) होना, घायल होना, चोटिल होना, घायल होना, क्या इससे किसी तरीके की मुक्ति, सम्भव भी है? सुबह से लेकर अभी तक क्या सबकुछ तुम्हारी इच्छाओं के अनुरूप हुआ है? और अगर जीना है तो कुछ बातें तो माननी पड़ती हैं।

तुम मानते हो कि सत्र एक नियत समय पर शुरू हो जाएगा। तुम मानते हो कि जाओगे तो मेट्रो मिल जाएगी, या बस मिल जाएगी। कितनी ही बातें है जो मानते हो। लेकिन दुनिया तुम्हारी अपेक्षाओं के अनुरूप तो नहीं चलेगी? तो लगातार तुमने जो माना है, तुमने जो चाहा है, तुमने दुनिया का जो चित्र खींचा है उसपर चोटें तो पड़ेंगी-ही-पड़ेंगी। उसका कोई समाधान सम्भव नहीं है अगर तुमने उसको समस्या बना लिया। तो उसका एक ही समाधान है, उसको समस्या बनाओ ही मत। ये मान ही लो कि जो अपेक्षा कर रहे हो उससे भिन्न कुछ हो ही सकता है। अपनी अपेक्षाओं को बहुत गम्भीरता से लो ही मत।

कभी तुमने देखा है कि तुम किसको कहते हो आहत होना? कब कहते हो कि चोट लग गयी, आहत हो गये? तभी कहते हो न जब तुमने एक ढाँचा बनाया होता है और बाहर से आकर कोई उसपर?

प्रश्नकर्ता: चोट करता है।

आचार्य प्रशांत: चोट करता है। उस ढाँचे से अगर तुम बहुत तादात्म्य न रखो। तादात्म्य समझते हो? उस ढाँचे को अगर ‘मैं’ ही न मान लो। तो उसपर चोटें पड़ती भी रहें तो तुम नहीं रोओगे।

हमारी समस्या ही ये है कि हम कुछ चाहते हैं, कुछ मानते हैं और जब विश्व उसको अवैध ठहरा देता है, या कुछ अनअपेक्षित कर देता है तो हमें ऐसा लगता है कि जैसे हमारे ऊपर कोई व्यक्तिगत आघात हो गया हो। आप पर कोई व्यक्तिगत आघात नहीं कर रहा है। जो हो रहा है वो एक बहुत बड़े तन्त्र का हिस्सा है। उसके पीछे हज़ार कारण हैं।

तो जब भी कभी उम्मीदों पर, आशाओं पर चोट लगे, उसको ये मानो ही मत कि कोई व्यक्तिगत घटना घटी है, बस कुछ हुआ है। चोट पड़ी है पर जिसपर पड़ी है वो मैं नहीं हूँ, वो एक बड़े तन्त्र का हिस्सा है। एक मशीन चल रही है, उसका एक हिस्सा दूसरे हिस्से से जाकर के टकरा गया।

बात समझ रहे हो?

जब तुम इस बात को मान ही लोगे कि जीवन जैसा हम जानते हैं, उसमें घर्षण रहेगा-ही-रहेगा, कि जीवन का अर्थ ही है कुछ ऊपर जाएगा, कुछ नीचे जाएगा, कुछ अपेक्षा के अनुरूप होगा, कुछ अपेक्षा के प्रतिकूल होगा, तो उसके बाद अपेक्षाओं के टूटने से बहुत दुख नहीं होगा और अपेक्षाओं की पूर्ति कोई बहुत बड़ी बात नहीं होगी। पूर्ति हो जाएगी, ठीक है। मैं यहाँ पर ये नहीं कह रहा हूँ कि तुम अपनी अपेक्षाएँ त्याग ही दो। वो भाषा नहीं है मेरी। मैं बस ये कह रहा हूँ कि तुम जान लो कि अपेक्षाओं की प्रकृति क्या है? अपेक्षाएँ कहाँ से आती हैं? कहाँ से उठती हैं? पूरी हो जाएँ, अच्छा है। नहीं पूरी हों तो ये मत मान लो कि तुम पर कोई व्यक्तिगत हमला हो गया है।

कुछ हो गया, बस ठीक है। चाहा था, नहीं हुआ। अब, अब, बस अब, ठीक है। जो चाहा था, वो नहीं हुआ। एक बार ये कह देते हो जो चाहा था नहीं हुआ अब, तो तुम दर्शा देते हो कितनी जान है तुममें। कितनी ताकत है तुममें।

समझ रहे हो?

कहीं-न-कहीं मन में एक सपना बैठा हुआ है कि कोई दिन आएगा जब सबकुछ हमारी मर्ज़ी का होगा। और तुम चाहते हो वो सपना जल्द-से-जल्द पूरा हो जाए। वो पूरा नहीं होता, उसी की नाउम्मीदी अखरती है। तुम वो सपना ही छोड़ दो। वो दिन कभी आने का नहीं है जब सबकुछ तुम्हारी नीयत के, तुम्हारे इरादों के, तुम्हारी आशाओं के मुताबिक होगा। वो दिन कभी नहीं आने का है। हाँ, वो दिन ठीक अभी है जब भले ही तुम्हारी उम्मीदें पूरी न हों, तुम तब भी मस्त रहो, वो दिन अभी है। और आध्यात्मिक आदमी और बहके हुए आदमी में यही अन्तर होता है।

जो तथाकथित संसारी जीव होता है; पता नहीं उसे संसारी क्यों बोलते हैं मैं उसे भ्रमित बोलना चाहूँगा, वो इस उम्मीद पर जीता है कि एक दिन मेरी हसरतें पूरी हो जाएँगी। वो किसी काल्पनिक स्वर्ग की उम्मीद में जिये जाता है। ये जो इंसान ने इतने स्वर्ग रचे हैं धर्मों ने, उनका लेना-देना किसी मौत के बाद की दुनिया से नहीं है, वो हमारे जीवन से है। जीवन में भी तो हम स्वर्ग रचते रहते हैं न? एक दिन आएगा जब हमारा महल खड़ा हो जाएगा। फिर उसी लकीर को हम मौत के आगे भी खींच देते हैं। चली पीछे से आ रही होती है उसको आगे और बढ़ा देते हैं कि मौत के बाद वाला स्वर्ग भी मिलेगा। जीवन में भी हमें स्वर्गों की अपेक्षा रहती है। तुम ये देख लो ध्यान से कि ये अपेक्षा फ़िज़ूल है।

जो तुम चाहते हो वो तुम्हें कभी मिलेगा नहीं। लेकिन जो तुम्हें चाहिए, वो तुम्हें मिला ही हुआ है। ये दोनों बातें एक साथ हैं। इनमें से कोई एक बोलोगे, खासतौर पर अगर सिर्फ़ पहली बोलोगे, तो दिल टूट जाएगा।

मैंने कौन-सी दो बातें कहीं? मैंने कहा, ‘जो तुम चाहते हो वो तुम्हें कभी मिलेगा नहीं लेकिन जो तुम्हें चाहिए, वो तुम्हें मिल ही हुआ है।‘

प्रश्नकर्ता: मिला ही हुआ है।

आचार्य प्रशांत: अब तुम तय कर लो कि तुम्हें हँसना है या रोना? हँसना है या रोना है? अगर यही देखोगे कि जो चाहते हो वो कभी मिलेगा नहीं, तो रो लो खूब, कोई बुराई नहीं है रोने में। बरसात का मौसम है, रोओ। लेकिन ज़रा गौर से देखोगे तो जो तुम्हें वास्तव में चाहिए, वो लबलबा रहा है, छलक रहा है, और कितना माँगोगे? जितना है, उतना ही नहीं पी पा रहे।

चाहने से मुझे कोई दुश्मनी नहीं है। आप चाहिए, बेशक चाहिए, लेकिन चुटकुले की तरह चाहिए। कि ये और चाह लिया। नहीं तो बच्चों का क्या है? वो तो वीडिओ गेम में भी हारते हैं तो रोना शुरू कर देते हैं। आप भी ऐसे ही कर लीजिए। हँ-हँ-हँ (रोने का नाटक करते हुए) महल बना रहे थे, महल पूरा नहीं हुआ तो रो रहे हैं बैठकर के।

छोटे बच्चों को कभी वीडिओ गेम खेलते देखिए, वो अगले राउन्ड में नहीं पहुँचेंगे तो रोना शुरू कर देंगे। वैसे ही आपकी अगली मंज़िल नहीं तैयार हुई, आप रोना शुरू कर दीजिए। रोने की तो कोई सीमा नहीं है लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि वीडिओ गेम नहीं खेलेंगे। बड़े मज़ेदार होते हैं। खेलेंगे ज़रूर, कोशिश भी करेंगे कि जीत जाएँ, अगले राउन्ड में पहुँच जाएँ, बन जाए अगली मंज़िल हमारे महल की। नहीं बनी तो दुबारा खेल लेते हैं, क्या हो गया?

समझ रहे हो?

दोनों बातें जुड़ी हुई हैं। जब तुम जानोगे जो तुम्हें चाहिए वो मिला हुआ है, उपलब्ध है तो वहीं से ये ताकत आती है कि खेल अभी आगे भी खेले जाओ, अन्यथा बड़ी घनी निराशा है और उस निराशा के मारे हुए कई बार अपनेआप को आध्यात्मिक कह देते हैं। उनका दिल ऐसा टूटता है कि फिर वो दुनिया से बिलकुल बाहर हो जाते हैं, वो खेल ही छोड़ देते हैं, फिर वो कहते हैं कि अब हम विरक्त हो गये।

जीवन विरक्ति के लिये नहीं है। पैदा इसलिए नहीं हुए हो कि जहाँ पैदा हुए हो उससे रूठना है। पैदा तो हुए हैं लेकिन देखिए अब ये पानी से इनको विरक्ति है। सत्तर प्रतिशत तो तुम ही पानी हो। पैदा हुए हैं लेकिन लोगों से इनको विरक्ति है। लोगों से ही तो पैदा हुए हो। पैदा हुए हैं लेकिन ज़मीन से विरक्ति है। कहाँ चलोगे? आसमान में उड़ोगे? पेड़ पर टँगोगे? क्या करोगे? ये सब उनके काम हैं जिनके मन बिलकुल टूट गया है। और मन टूटने का कारण एक ही होता है कि मन ने असम्यक अपेक्षाएँ खड़ी कर लीं थीं, महल खड़े कर लिये थे। और ये कहने में भी दोहरा रहा हूँ, तिहरा रहा हूँ महलों से हमारा कोई बैर नहीं। आप बनाएँ आपको जितने महल बनाने हैं। पर महलों की नियति को याद रखिएगा और महलों की नियति याद न रहे तो इतने सारे टूटे हुए खँडहर हैं, मकबरे हैं, आप दिल्ली में हैं, उनको देख आइए। जब वो खड़े हुए थे तो उनको बनवाने वाले भी उनके सामने ऐसे तन कर (तनी हुई अवस्था में आते हुए) खड़े थे, हमने बनवाया है।

हर महल का क्या होना है आपको पता होना चाहिए। अगर आप बिलकुल ही अन्धे नहीं हैं तो आपको आपकी तमन्नाओं में बहुत यकीन हो नहीं सकता। हर तमन्ना का हश्र एक ही होता है और ये कोई निराश होने की बात नहीं है, क्योंकि दोनों बातें एक साथ हैं। जो चाहिए?

प्रश्नकर्ता: वो मिला हुआ है।

आचार्य प्रशांत: वो तो मिल हुआ है न? तमन्ना तो बजट के आगे की बात है। वो तो ऐसा है कि पेट भरा हुआ है, अभी और ठूसना है। तो अब इसमें रोने की क्या बात है? पेट भरा हुआ था उसके बाद भी अभी और खाये जा रहे थे, खाये जा रहे थे और वो थाली छिन गयी। ये तो अच्छी बात है न? या बुरी बात है?

प्रश्नकर्ता: अच्छी बात है।

आचार्य प्रशांत: तो आहत होने से डरो नहीं। मान ही लो कि आहत होना तो जीवन की प्रकृति है। अब वो करो जो होना चाहिए। और उसमें बीच-बीच में आहत होते रहोगे, रोते रहना। क्या हुआ? चोट लग गयी।

बच्चे जाते हैं खेलने बाहर, घुटना तुड़ा कर आ जाते हैं तो अगले दिन खेलने नहीं जाएँगे?

प्रश्नकर्ता: जाएँगे।

आचार्य प्रशांत: चोट लग जाए, अगले दिन फिर खेलने निकल जाना। महल गिर जाए, अगले दिन फिर बनाने निकल जाना। किसने कहा है कि तुम बहुत इज्ज़त की परवाह करो कि एक बार अरमान टूट गये तो दुबारा नहीं पूरे करेंगे? तुम मरते-मरते भी अरमान पूरे करो। अरमानों में क्या बुराई है? जितने यहाँ बैठे हैं सबको अपने-अपने अरमान हैं। उससे ज़िन्दगी में ज़रा ज़ायका रहता है, थोड़ा मसाला रहता है। उसमें कोई अपराध नहीं हो गया।

किसी को नीला रंग पसन्द है, किसी को बैंगनी पसन्द है, किसी को कुछ, किसी को कुछ। उसका फल भुगतना पड़ता है, भुगत लेंगे, उसमें क्या है?

क्यों भई! कोई है यहाँ पर जिसने कीमतें न अदा करीं हों? अब जब व्यापार करने निकले हो तो कीमत तो देनी पड़ेगी न? हर उम्मीद की कीमत यही होती है, क्या? कि थोड़ा दुख मिलेगा। झेल लो दुख भई! उम्मीद करी थी तो दुख तो झेलोगे। झेल लो; फिर उम्मीद कर लेना। गलती तब होती है जब ये मानते हो कि उम्मीद करेंगे पर?

प्रश्नकर्ता: दुख नहीं पाएँगे।

आचार्य प्रशांत: दुख नहीं पाएँगे। वो नहीं होगा। उम्मीदों की प्रकृति को जान कर रखना, वो भूलना मत। वो मत भूलना। जानो, उसके बाद खेलो, खेल को। भई! तुम्हें पता होता है, महँगे रेस्टरॉ में जा रहे होते हो तो बिल भी तो मोटा आएगा। अब खा लो, पी लो, फिर बिल आये तो रोना शुरू कर दो, कि उम्मीदें टूट गयीं। ये क्या है?

खा लिया, पी लिया, अब जेब हल्की करो। और फिर अभी बचा हो तो फिर खा-पी लो। कौन रोक रहा है? अब यहाँ पर एक बैठीं हैं, वो नाचने गयीं थीं पाँव तुड़ा लिया, ठीक है। तो क्या हो गया?

नाचे हो, गाये हो, घूमे हो, फिरे हो, पाँव टूटा।

कुछ दिनों में फिर जुड़ जाएगा (हँसते हुए) फिर नाच लेना, फिर तुड़ा लेना। पर ये मत मानना कि झूमने निकलोगे, नाचने निकलोगे तो कोरे-के-कोरे लौट आओगे। कभी भीगना पड़ेगा, कभी शरीर पर मिट्टी पड़ेगी, कभी टाँग भी टूट सकती है, ठीक है, टूट गयी।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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