प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, मेरा प्रश्न वीगनिज़्म (शुद्ध शाकाहार — पशु उत्पादों के उपयोग से परहेज़) के ऊपर है। मैं पिछले सात-आठ महीने से वीगनिज़्म फ़ॉलो कर रहा हूँ। मैंने अपने घरवालों को समझाने का भरसक प्रयास किया, इससे होने वाले वैश्विक तापन, जलवायु परिवर्तन जैसे नुक़सान गिनाये। लेकिन वो हैं कि समझने को तैयार नहीं। उनका कहना है कि दूध-घी में शरीर के लिए पोषक तत्व होते हैं, इनका इस्तेमाल नहीं करेंगे तो पोषण कहाँ से पाएँगे। जब मैंने उनको दूध-घी के विकल्प बताये, तो उनका कहना है कि बिना घी के रोटी गले के नीचे नहीं उतरती। उनका ये कुतर्क भी होता है कि हज़ारों सालों से ऋषि-मुनि दूध का सेवन करते आ रहे थे, श्रीकृष्ण ने भी किया, तो हम कर रहे हैं तो क्या ग़लत हो गया।
ख़ैर अब मैंने उनको समझाना छोड़ दिया है। मैं सोचता हूँ कि मैं अपना समय क्यों नष्ट करूँ इन्हें समझाने में।
आचार्य प्रशांत: देखो, ये बात समझाने में इतनी जटिल है नहीं। बात एकदम सीधी है। और जो नहीं समझ रहा है, उसके पास तर्क कम हैं, बेईमानी ज़्यादा है। बेईमानी को छुपाने के लिये तर्क दे रहा हो, वो अलग बात है। बस एक बात बोलनी होती है — ‘आप जिसका दूध पी रहे हो, वही कल कटता है। और डेयरी उद्योग माँस उद्योग का आधार है।’ बस इतनी सी बात बोलनी होती है।
‘दूध का रंग लाल है।’ जिनको समझ में आना है, उनको बस इस एक बात से समझ में आ जाता है। जिनको नहीं समझना है, उसके बाद आप उनको सौ तर्क भी देते रहो तो वो नहीं समझेंगे। वो स्वाद के ग़ुलाम हैं। वो अपनी हिंसा, अपनी क्रूरता के ग़ुलाम हैं।
छोटा सा बच्चा होगा न, वो भी एक बार में समझ जाएगा। दो मिनट नहीं लेगा समझने में। कि बेटा, ये जो गाय है या भैंस है, जिसका तुम अभी दूध पी रहे हो, तुम्हें क्या लगता है जब ये दूध देना बन्द कर देती है, तो ग्वाला या किसान इसका क्या करता होगा? बस इतना पूछना है।
जिसको समझना है वो उसी क्षण समझ जाएगा और कहेगा, ‘बन्द, बन्द, बिलकुल बन्द।’ जो समझ सकता है, वो अपनेआप ही फिर ये भी सोच लेगा ख़ुद ही कि अगर वो गाय-भैंस पाली ही इसलिए जाती है कि वो दूध दे, तो फिर तो पालने वाले का मुनाफ़ा इसी में है कि वो लगातार दूध देती रहे। तो वो लगातार दूध देती रहे, इसके लिए उसके साथ क्या-क्या किया जाता होगा?
ये तो साधारण बुद्धि की बात है न, ख़ुद ही सोच लो। फिर दूध तो सिर्फ़ जो मादा पशु है, वो देता है। लेकिन पैदा तो नर पशु भी होता होगा। वो किसी काम का नहीं है! उस नर पशु का क्या किया जाता होगा? समझने वाले तो ये बात अपनी ही बुद्धि से ख़ुद ही समझ जाएँगे कि ये चल क्या रहा है खेल। दो मिनट लगेगा। और जिनको बार-बार समझाने पर भी नहीं समझना, वो फिर अब राक्षसी वृत्ति के हो चुके हैं, उनका कुछ किया नहीं जा सकता। उनका तो फिर यही है कि जब स्थितियाँ इतनी अनुकूल (प्रतिकूल) हो जाएँगी कि दूध, माँस, इन सब पर या तो बैन (प्रतिबन्ध) लगेगा या ज़बरदस्त टैक्स (कर) लगेगा, तभी वो फिर उसका उपयोग-उपभोग कम करेंगे।
नहीं तो दूध तो दूध है, माँस के लिए हज़ार तरीक़े के तर्क देते हैं। बोलते हैं, ‘वो आपके मुँह में न ऐसे दाँत हैं जो माँस खा सकते हैं तो माँस खाना चाहिए।’ मैं बोलता हूँ, ‘आपके शरीर में कुछ ऐसे छिद्र हैं जिनसे आप मल कर सकते हैं, तो मल कर दीजिए यहीं पर।’
सिर्फ़ इसलिए कि आपके शरीर में कोई ऐसी चीज़ है जो कोई काम कर सकती है, आप वो काम करना शुरू कर दोगे क्या? मेरे ये दो हाथ हैं, इनसे मैं आपकी गर्दन दबाकर आपको मार सकता हूँ, तो मार दूँ? सिर्फ़ इसलिए कि आपके शरीर में कुछ मौजूद है जिसका एक प्रकार का उपयोग हो सकता है, तो आप कर दोगे वो उपयोग? क्या उपयोग करना है, इसका निर्धारण शरीर करेगा या चेतना करेगी? किस चीज़ का क्या उपयोग करना है, इसका निर्धारण शरीर करेगा या चेतना करेगी?
चेतना बताएगी न कि ये जो दाँत हैं, इनका उपयोग करना भी है कि नहीं करना है। शरीर में तो बहुत सारी ऐसी चीज़ हैं जिनका कुछ भी आप उपयोग कर सकते हो। शरीर तो वर्जित नहीं करता कि घर में अपनी माँओं-बहनों के साथ शारीरिक सम्बन्ध मत बनाओ। शरीर वर्जित करता है क्या? बोलो। जैसा किसी भी अन्य स्त्री का शरीर होता है, वैसे ही घर की माँओं का और बहनों का भी होता है। तो शरीर की राह पर ही चलकर उनके साथ क्यों नहीं बना लेते? क्योंकि चेतना मना करती है।
इंसान पशु नहीं है। पशु होता है जो शरीर पर चलता है, इंसान शरीर पर नहीं चल सकता। इंसान ये तर्क नहीं दे सकता कि मैं माँस खाऊँगा, क्योंकि मैं माँस पचा सकता हूँ। पचा तो तुम अपने भाई का माँस भी सकते हो। तो खाओगे क्या?
आप बहुत कुछ कर सकते हो शारीरिक तौर पर, तो कर डालोगे क्या? शारीरिक तौर पर आप बिलकुल कर सकते हो, यहीं थूकना शुरू कर दो। तो थूक दोगे? शरीर तो यहाँ लोट सकता है। सोना है, सो जाओगे? और बहुत लोग हैं, अभी खाना-वाना खाया होगा, आ रही होगी झपकी। तो यहीं सो जाओगे क्या? हम शरीर पर चलने वाले लोग थोड़े ही हैं!
और फिर वो इसीलिए जब तर्क दिया जाता है कि देखो, दूध-घी नहीं खाओगे तो शरीर कैसे बनेगा। अरे! शरीर बने न बने, किसी की हत्या थोड़े ही कर सकते हैं बाबा! भाड़ में जाए ऐसा शरीर जो किसी की हत्या करके बनता है! पहली बात तो वो सब दूध-घी, माँस खाने से शरीर बनता नहीं। दूसरी बात, अगर बनता भी होगा तो नहीं बनाना। नहीं बनाना ऐसे!
अब ये क्या है कि घी नहीं चुपड़ा रोटी पर तो गले से नीचे नहीं उतरती! हम मुँह में हाथ डालकर उतार दें गले से नीचे? फिर देखेंगे कैसे नहीं उतरती! बेहूदे ज़लील क़िस्म के तर्क! सीधे नहीं बोलते कि स्वाद की हवस है। और उस हवस के कारण किसी भी जीव पर कितना भी अत्याचार करने को तैयार हो।
‘वो कृष्ण जी दूध-घी खाते थे।’ चाय भी पीते थे? चाय तो अंग्रेज़ पीते थे। चलो, एक काम करो, चाय छोड़ दो। चाय छोड़ दो, खाओ दूध-घी। अब क्या तर्क है? मतलब जहाँ जो तर्क फ़िट हो, वही लगा दो। जैसे ही दूध-घी का नाम आता है, इन्हें कृष्ण प्यारे हो जाते हैं। और मैं कहता हूँ, ‘अरे! कृष्ण प्यारे हैं, बैठो बैठो, गीता पढ़ेंगे।’ सरपट भागते हैं! अब कृष्ण कहाँ गये?
जब गीता की बात आती है तो धाँय से भागते हो! गोली छूटी बन्दूक से! जब दूध की बात आती है तो कृष्ण से प्यार हो जाता है। और अगर वही चीज़ें तुम्हें खानी है जो कृष्ण खाते थे, तो चाय मत पियो। तब लस्सी भी नहीं होती थी। ‘नहीं, चाय तो बड़ी प्यारी चीज़ है!’ चाय उन्हीं की दी हुई चीज़ है जिनसे आज़ाद होने का कल तुम कार्यक्रम मनाओगे। तो आज़ादी को आप एक नया अर्थ दें। आप समझ गये हैं मैं क्या बोलने वाला हूँ। पन्द्रह अगस्त पर चाय से आज़ादी! अंग्रेज़ों की चीज़ है, काहे को रखनी है?
कुछ नहीं है, समझने वाले तुरन्त समझ जाते हैं। बाक़ी मैं क्या समझाऊँ? बाक़ियों का तो फिर यही है कि डंडा चलाओ तो समझेंगे। उनका यही इलाज है। और किसी की जान बचाने के लिए अगर डंडा चलाना पड़े तो कुछ ग़लत नहीं हो गया।
आपमें से भी बहुत लोग दूध पीते होंगे। बस, अगर मुझे थोड़ा भी सम्मान देते हो, प्रेम देते हो, तो इतना कर लेना कि दूध को जब भी देखना तो उसका रंग लाल देख लेना। खून पी रहे हो! उसके बाद पी सकते हो तो पी लेना।
मैं छोटा था। मुझे भेजा जाता था। जाओ, दूध लेकर आओ। छठी-सातवीं की बात होगी। वो जो डब्बा लेकर सुबह-सुबह जाते हैं। मैं देखूँ ये करता क्या है। भैंस को फच्च से पीछे इंजेक्शन डालता है दूध दुहने से पहले। मुझे समझ में न आये, पर बात फिर भी अटपटी लगे। मैंने पूछा एक-दो बार तो बोला दवाई है। मैंने जाकर पूछा नहीं, बोला दवाई होगी कोई, ज़ुकाम होगा भैंस को। फिर धीरे-धीरे पता चलना शुरू हुआ कि किस-किस तरह के अत्याचार किये जाते हैं।
आप भैंस का दूध पीते हो, एक बात बताओ। आपने इतनी भैंसें देखी होंगी, ‘भैंसें’। आपने भैंसा देखा है कभी? आपमें से कितने लोगों ने पिछले एक महीने में एक भी भैंसा देखा है कहीं? पिछले छ: महीने में किसी ने कोई भैंसा देखा है कहीं? तो भैंस तो नर-मादा दोनों बच्चे पैदा करती होगी, भैंसे कहाँ गये? भैंसे कहाँ हैं? समझ में नहीं आ रहा कि दूध का रंग लाल है? अब दूध तो अस्सी प्रतिशत भैंस का ही चलता है न! बस!