प्रश्नकर्ता: नमस्ते सर। सर, मेरा नाम विनीता है, मैं बेंगलोर से हूँ और मैं यहां एक आंत्रप्रेन्योर हूँ। मेरा प्रश्न आज डॉक्टर्स को लेकर होने वाली हिंसा पर है।
हमने दो तरीके से चीजों को देखा है। अगर किसी गंभीर बीमारी के इलाज के लिए हम किसी नीम हकीम के पास जाते हैं, किसी पोंगा पंडित के पास जाते हैं या किसी बाबा के पास जाते हैं, तो हमारा स्वभाव एकदम से बड़ा श्रद्धालु होता है। हम एकदम एब्सलूट सरेंडर में जाते हैं और हमें लगता है वहां जाकर सब कुछ ठीक हो जाएगा। बहुत पोलाइट उनके साथ बिहेव करते हैं और हमें लगता है कि बस यहां आ गए तो अब सब कुछ ठीक हो जाएगा। उनके साथ तो हिंसा तो छोड़ो, हम एकदम ऐसे बिहेव करते हैं जैसे वो हमारे अपने हों।
और दूसरी तरफ, अगर उसी बीमारी के इलाज के लिए हम किसी मेडिकल प्रोफेशनल को अप्रोच कर रहे हैं या कोई कैपेबल डॉक्टर है, तो वहां पर हमारा एटीट्यूड एक शॉपकीपर की तरह रहता है। हमें लगता है कि हमने पैसा दिया है तो बस आउटपुट ज्यादा से ज्यादा होना चाहिए और सब कुछ ठीक हो जाना चाहिए। और अगर ऐसा नहीं होता है, तो डॉक्टर्स के प्रति बहुत ज्यादा हिंसा हमने देखी है।
फिलहाल में ही अभी एक केस आया था चेन्नई में, जहां पर एक ऑंकोलॉजिस्ट के ऊपर काफी घातक हमला हुआ था। तो मेरा प्रश्न आपसे यह है कि दोनों ही केसेस में हमारा रवैया इतना अलग क्यों रहता है? जहां पर एक्चुअल में प्रॉब्लम सॉल्व होने के चांसेस नेगलिजिबल हैं, वहां पर तो हम इतनी श्रद्धा के साथ जाते हैं और इतना पोलाइटली बिहेव करते हैं, और जो एक्चुअल में कैपेबल है प्रॉब्लम सॉल्व करने के लिए, वहां पर हम इतने वायलेंट हो जाते हैं। डॉक्टर्स के लिए इतना कंटेमट क्यों है?
आचार्य प्रशांत: जो आम आदमी की फिलॉसफी है, वह यही है कि दुनिया की सबसे बड़ी जो ताकत है, जिस पर पूरा भरोसा किया जा सकता है, जो सब कुछ ठीक कर सकती है, जो सब कुछ चलाती है, वह ऊपर कहीं आसमानों में बैठी है। माने, वह इस दुनिया की नहीं है। माने, जो कुछ इस दुनिया का है, उसका भरोसा मत करो, वह ना कुछ जानता, ना समझता, वह तो गड़बड़ी है। माने, अगर आपकी कोई शारीरिक समस्या भी है, तो उसका समाधान वही करेगा, जो आसमानों में बैठा है।
यही तो द्वैतवाद दर्शन है ना? वहां एक बैठा हुआ है, वही दुनिया चला रहा है। जब वही चला रहा है, तो बीमारी भी कौन ठीक करेगा? वही ठीक करेगा ना?
हम गीता का दर्शन थोड़ी समझ पाए हैं कि—
"हरि भीतर ही यदि स्वयं से तुम युद्ध करो, कृष्ण बाहर नहीं जन्मेंगें, कहीं आस ये अवरुद्ध करो। और हरि भीतर ही प्रकट अभी, यदि स्वयं से तुम युद्ध करो।"
ये हम थोड़ी समझ पाए हैं!
तुम ही हो, जो अपनी हस्ती लेकर फिर रहे हो। तुम्हारी जिंदगी की जिम्मेदारी भी तुम्हारी ही है। तुम्हें अगर बीमारी हो गई है, तो आसमान से कोई दवाई नहीं टपकने वाली। आज भी आपकी जो बीमारियां ठीक हो रही हैं, वह सब मनुष्य के द्वारा बनाई गई दवाइयों से ठीक हो रही हैं। किसी आसमानी ताकत ने कोई दवाई कभी आपको नहीं भेजी। या भेजी हो, तो बता दो।
करोड़ों लोग तिल-तिल करके कीड़ों की तरह मरते रहे। दुनिया की आबादी लगभग 18वीं शताब्दी तक बढ़ी ही नहीं। 18वीं शताब्दी से 2000 साल पहले जितनी थी, और 18वीं शताब्दी में जितनी थी, वो एक ही बराबर थी लगभग। अब बढ़ी भी, तो बस थोड़ी।
और अभी पिछले दो ढाई सौ साल में क्या हुआ है आबादी का? जो कर्व था, वह ऐसे चल रहा था, बिल्कुल ऐसे,(हाथ से कर्व का फ्लैट दिखाते हुए) और उसमें भी कई बार नीचे गिर जाता था जैसे यूरोप में ब्लैक प्लेग आया, तो वहां आबादी का जो कर्व था, वह नीचे गिर गया, दुनिया की आबादी—इतने लोग मरे कि दुनिया की आबादी कम हो गई। और फिर चिकित्सा शास्त्र ने, खोजियों ने, डॉक्टरों ने, वैज्ञानिकों ने आपको दवाइयाँ दीं, तो आज आदमी की आबादी ऐसे बढ़ रही है। (ऊपर की और दर्शाते हुए कर्व का।)
यह किसी ऊपर वाले ने करी है क्या? पर हमारी मान्यता आड़े आ जाती है। हम मानते अभी भी यही हैं कि जो करेगा, वो करेगा। क्यों? क्योंकि हम मानते हैं कि कोई है जिसने यह दुनिया बनाई है।
क्यों? क्योंकि वेदांत हमने कभी समझा ही नहीं। अद्वैत कभी हमारे पल्ले पड़ा ही नहीं। हम इसी अहंकार में रह गए कि जैसे दुनिया में हर चीज जो है, बनाई गई: क्रिएटेड, बिल्ट- उसको बनाने वाला भी कोई है, तो उसी तरीके से इस दुनिया को बनाने वाला भी तो कोई होगा। हमें लगा हमने कितनी गज़ब की बात कर दी, कॉमन सेंस की, हम समझ ही नहीं पाए कि तुम जिस दुनिया को बनाने की बात कर रहे हो, ये तो बताओ कि की दुनिया बनाई माने क्या? दुनिया माने वही सब कुछ तो जो तुम्हारी पांच इन्द्रियों से अनुभव में आता है। दुनिया की परिभाषा क्या है, बताओ तो। ये परिभाषा हमने कभी पूछी ही नहीं। सीधे इस सवाल पर कूद पड़े ये दुनिया बनाई किसने?
कभी आपके सामने कोई आए और पूछे अच्छा इतनी बड़ी दुनिया है तो बताओ किसने बनाई? तो उससे पूछो बता देंगे, बिल्कुल शुरू से शुरू करते हैं बताओ दुनिया माने क्या?
वो कहेगा यह सब, हम कहेंगे यह सब वही ना जो तुम्हारी सेंसेस की पकड़ में आता है?
अच्छा, एक बात बताओ, कोई चीज़ ऐसी हो जो ना दिखाई पड़ती हो, ना सुनाई पड़ती हो, ना उसे सूंघ सकते हो, ना उसे छू सकते हो, और ना उसके बारे में सोच सकते हो, ना उसका कोई स्वाद ले सकते हो। बताओ, तब भी क्या वो चीज़ है?
नहीं है!
तो इसका मतलब, किसी भी ऑब्जेक्ट का सत्यापन करने वाला, वेरिफिकेशन करने वाला, वैलिडेशन करने वाला कौन है? बस वह, जो देख रहा है।
तो दुनिया माने वह, जो तुम्हें दिखाई पड़ती है। दुनिया माने वह, जो तुम्हारी पांच सेंसेस की पकड़ में आती है बस, उसको तुम दुनिया बोल देते हो।
तो माने, फिर दुनिया की परिभाषा ही क्या है? वो जो तुम्हारी सेंसेस में आती है, उसको दुनिया बोलते हो।
अब बताओ, दुनिया किसने बनाई?
तुमने बनाई क्योंकि तुम्हारी सेंसेस में तो सोते वक्त भी बहुत कुछ आ जाता है! बताओ, किसने बनाया? तुमने ही ने तो बनाया! दुनिया किसने बनाई? तुमने बनाई! अब लोग पगला जाते हैं, कहते हैं—"ऐसे कैसे हो सकता है? मैंने बनाई दुनिया?" तो जो बगल में रहता झुनू लाल, इसने क्या बनाया फिर? सारा काम हमी ने किया है?
यह जो कॉमन सेंस है, बड़ी खतरनाक चीज होती है। आप बिल्कुल बेतुके सवाल पूछते हो, जिसमें कोई बुद्धि आपने नहीं लगाई होती, और आपको लगता है आपने बड़ी ग़ज़ब की बात कह दी। हम इतने ज्यादा बॉडी आइडेंटिफाईड होते हैं कि हमें लगता है जो कुछ बॉडीली है वह सच है। क्यूंकि हम अपने आप को भी क्या मानते हैं? सच। मैं बॉडीली हूँ तो मैं सच हूँ, तो ये भी (गिलास को दिखाते हुए) बॉडीली है तो ये भी सच है।
हम ये पूछना भी नहीं चाहते कि ये क्या है? दुनिया माने क्या? यही है ना दुनिया? दुनिया माने कलेक्शन ऑफ ऑब्जेक्ट्स। हम पूछना भी नहीं चाहते कि ये क्या है? ((गिलास को दिखाते हुए) ये वो है, मैं जिसका स्पर्श कर सकता हूँ। यह वो है, मैं जिसके तापमान का अनुभव कर सकता हूँ। ये वो है, मैं जिसका स्वाद ले सकता हूँ। ये वो है, मेरे हाथों जिसकी रचना हुई है। तो इसकी पूरी परिभाषा में कौन आ रहा है बार-बार? मैं आ रहा हूँ। तो दुनिया किसने रची है? मैंने। तो गड़बड़ हो गई!
अगर दुनिया मैंने रची है, तो दुनिया चलाने की जिम्मेदारी भी फिर किसकी है? मेरी है भाई! अब क्या करें वो जो बैठ जाते हैं राम भरोसे कि जो करेगा, वह करेगा। वह नहीं करेगा! उसने नहीं बनाई दुनिया। दुनिया तुमने बनाई है। तो दुनिया में अगर तुम्हें दुख है, दुनिया में अगर कुछ ठीक करना है, तो वह भी तुम ही करोगे।
लेकिन हमारी जो यह धारणा है, द्वैतवादी, कि ऊपर कोई बैठा है और यह विश्व के सभी धर्मों में है। वेदांत में नहीं थी फिर भारत में भी आ गई बाद में। वो एक प्रदूषण ही है वेदांत का। वेदांत में मिलावट करी गई। वेदांत का यह एक तरह से प्रदूषण है। भारत में भी यह मानना शुरू हो गया कि वहां कोई बैठा, उसने ऐसे-ऐसे करके दुनिया जो है, वह रची है।
अगर उसने दुनिया रची है ना, तो इंसान कभी भी दुखमुक्त नहीं हो पाएगा। किसी तरह की रिस्पांसिबिलिटी, जिम्मेदारी इंसान लेने को तैयार नहीं होगा क्योंकि हर चीज में भाग्य घुस आएगा और प्रारब्ध की कहानी आ जाएगी। और आप कोई कहानी बता दोगे कि, "अरे, उसकी मर्जी के बिना तो पत्ता भी नहीं हिलता। वही है वही, जो राम रचि राखा!" कुछ भी बोल दोगे, बिना अर्थ समझे।
तो ले देकर के यह जो द्वैतवादी है, इसको सारी जिम्मेदारी किसके ऊपर डालनी है? अब ये आ गए हमारे (बाबा का खिलौना दिखाते हुए), "आओ यार, कैमियो बचा रह गया था!" यह बोलते हैं, "मैंने कोई डिग्री-विग्री कुछ नहीं ली है। मेरा सीधा कनेक्शन उससे है और यह मेरी क्वालिफिकेशन है। मेरा सीधा कनेक्शन ऊपर से है।" आप पूछो, "ऐसा कोई कनेक्शन आप दिखा सकते हो?" बोले, "कुछ नहीं! वो ना वेरीफाइबेल है, ना फौलसीफाइबेल है, वो तो बस हम जानते हैं, हमारा डायरेक्ट कनेक्शन है, हरि ओम तत्सत!" और ज्यादा पूछोगे, तो अभी श्राप मार के भस्म कर देंगे। पांच भस्म पहले ही कर रखे हो, देखो वहां पड़े हुए हैं!
आप तो यह पहले ही माने हुए आए थे ना बाबा जी के पास? वैसा कोई है संचालक शक्ति, ऊपरी, जो सब चला रही है और बाबा जी ने बोल दिया कि, "मैं व मिडल मैन हूँ। मैं दलाल हूँ, मैं मध्यस्थ हूँ।" तो आप फिर इनके सामने पूरी तरह से दंडवत हो जाते हो।
डॉक्टर वो कहता है, "मैं ऊपर-नीचे का तो मेरे पास ऐसा कुछ है नहीं। क्रेडिट? हां, मैंने मेहनत करी है। मैंने किताबें पढ़ी हैं। मैंने प्रयोग किए हैं। और जो मेरा ज्ञान है, मैं विनम्रता के साथ यह भी बोल रहा हूँ कि वह ज्ञान हो सकता है आगे गलत साबित हो जाए, या जो मुझे पता है, उससे बेहतर कोई बात पता चल जाए। जो आज आप दवाइयां इस्तेमाल करते हो, उससे बेहतर दवाइयां लगातार आती रहती हैं, इसीलिए तो रिसर्च होती है। तो डॉक्टर जरा भी दैवियता का, डिविनिटी का दावा नहीं करता और हम हैं, सब डिविनिटी के आशिक। हमको तो ये सुनना है कि भविष्यवाणी हुई, कि ये मरा हुआ बालक अभी मर नहीं सकता, ये ज़िन्दा होगा। ठीक छह महीने बाद, इसकी लाश में प्राण आ जाएँगे। और उस बालक की लाश में प्राण आ गए, छह महीने बाद- “जय हो!”
हम तो इन सब चीज़ों के बिल्कुल प्रशंसक हैं ना! इसी को हम धर्म बोलते हैं। वास्तविक धर्म क्या होता है, हम जानते नहीं। बाबा जी कहते हैं, "वो सब हम जानते हैं, वो सारी विद्या हमसे पूछो। मरे हुए में प्राण कैसे लाने हैं? कोई मर गया है, 13 दिन बाद भी उसमें प्राण रहते हैं, वह मैं लाकर दिखा दूंगा।" यह सारे काम बाबा जी करते हैं। बाबा जी उस दुनिया की बात करते हैं, जहां बाबा जी को गलत साबित कर ही नहीं सकते, क्योंकि गलत साबित करने के लिए कुछ होना तो चाहिए गलत साबित करने को। कुछ है ही नहीं! बाबा जी बस सीधे बोल रहे हैं, "हूर हूर हूर, को गलत साबित कैसे करोगे?"
और डॉक्टर जो कुछ बोल रहा है, वह गलत साबित हो सकता है, कई बार गलत साबित हो जाता है। कई तरह की बीमारियों के इलाज की जो थ्योरी आज से 40 साल पहले थी, वो थ्योरीज़ डिस्कार्ड हो चुकी है। उनसे बेहतर थ्योरीज़ आ गई है। और आज जो थ्योरीज़ आ गई है, 50 साल बाद उससे भी बेहतर कुछ आ जाएगा। तो डॉक्टर तो बेचारा साधारण इंसान होता है, रिसर्चर। हम उसको क्यों इज्जत देंगे? हमारे हिसाब से तो बंदा दवा से नहीं, दुआ से ठीक होता है!
हमारे हिसाब से जो बंदा है... । एक अस्पताल का मैंने पढ़ा था, प्राइवेट हॉस्पिटल है। उनके पास जगह की कमी है, ना वह अपने बेड्स बढ़ा पा रहे हैं, ना वह वहां और फैसिलिटी ऐड कर पा रहे हैं। एक डिपार्टमेंट नया खड़ा करना है, वह भी नहीं कर पा रहे। मैंने पूछा, "क्यों?" बोले, "अस्पताल के जितने एरिया में, उसमें एक तिहाई पर बड़ा भारी मंदिर बनवाया है। क्योंकि मरीज आते हैं, तो वह डॉक्टर के यहां से निकलकर सीधे जाकर मंदिर में गिरते हैं!" बोले, "मंदिर तो चाहिए ही चाहिए! और क्योंकि हमारा प्राइवेट हॉस्पिटल नया-नया है, तो हमारा तो स्टार अट्रैक्शन ही यही है कि अस्पताल में मंदिर है। हम लिखकर देते हैं, 'दवा नहीं, दुआ!' हमारे यहां जो ठीक होता है, वह दुआ से ही ठीक होकर जाता है।" दवा देनी तो वैसे भी हमारे निठल्लों को आती नहीं। सस्ता प्राइवेट अस्पताल, उसमें सस्ते डॉक्टर रखे हैं। आधों की तो डिग्री फर्जी है। उनकी दवा से वैसे भी कुछ होना नहीं। जो बचा है आज तक, वो दुआ से ही बचा है!
मुझे लगा, मैं कहूँ कि फिर एक तिहाई में ही क्या रखा है? सब गिराकर मंदिर ही बनवा दो! देवालय की जगह उसको औषधालय बोल दो। धन्वंतरि का मंदिर है भाई! जब तक भारत जिम्मेदारी लेना नहीं सीखेगा, किसी तरह की प्रगति संभव नहीं है। हम एस्केपिस्ट बन गए हैं, और वही चीज हमें नकली धर्म ने सिखा दी है। लोक धर्म हमारा पलायनवाद, एस्केपिस्म, अदर-वर्ल्डलीनेस के अलावा कुछ नहीं है।
यह दुनिया सड़ी हुई रहेगी। जाकर पूछो, "इतनी सड़ी हालत में क्यों जी रहे हो?" कुछ नहीं, बस साल-दो साल की बात है। उसके बाद तो अप्सराएँ मिलेंगी। काहे के लिए एक-दो साल के लिए अपनी हालत ठीक करूं? मैंने इतने पुण्य कमाए हैं कि अप्सराएँ मिलेंगी! पुण्य कैसे कमाए? बोले, "वो सारे काम करें हैं, जो कहानियों में वर्णित हैं कि यह करो, वो करो। चींटी को आटा खिलाया है, फलाने जानवर की फलाने मंदिर में बलि दी है, भारी-भारी पुण्य किए हैं! बहुएं किसी भी तरीके से दूषित न हो जाएं, इसीलिए उन्हें कभी घर के बाहर क्या, कमरे के बाहर भी नहीं निकलने दिया है। भारी-भारी पुण्य करे हैं, स्वर्ग पक्का है, वह भी फर्स्ट क्लास में!"
काहे के लिए दुनिया ठीक करें? अब समझ में आ रहा है भारत दुनिया के सार्वजनिक तौर पर सबसे गंदे देशों में क्यों है? कोई जिम्मेदारी नहीं लेना चाहता। हम बहुत गैर-जिम्मेदार लोग हैं, क्योंकि "जो करेगा, वह करेगा!" तो मैं क्यों कुछ करूं? मैं क्यों कुछ करूं? अरे, बचना होगा तो बच जाएंगे!
"जा को राखे साइयां, मार सके ना कोई, बाल न बांका कर सके, जो जग बैरी हो।"
और यह बात ऐसे रौद्र रूप में बोली जाती है कि लगता है बिल्कुल सत्य ही वर्णित किया है, बिल्कुल। महावाक्य उपनिषदों का जो यह बताया! "गुड-गुड गु!" क्या करना पढ़ाई करके? अरे, जिन्हें पास होना होता है, वह हो जाते हैं! क्या करना है यह विचार करके कि परिवार का आकार बढ़ाना है कि नहीं बढ़ाना? तुम्हारे पिताजी ने कोई विचार किया था? तुम 18 भाई-बहन पल गए कि नहीं? "जा को राखे साइयां!"
और कैसे पल गए? कीड़ों की तरह! इसका तो कोई जिक्र होना ही नहीं है कि यहां 18 जने पल गए, पर सब कीड़े की तरह पले हैं! प्रोविडेंस, डेस्टिनी, फेट—यही हमारी जिंदगी है! बह रहे हैं, रुख हवाओं का जिधर है, उधर के हम हैं! कोई दम नहीं, कोई जान नहीं, कोई ताकत नहीं, कोई आत्मबल नहीं! धर्म के नाम पर पुरानी आदतों, परंपराओं से भरी हुई लोक-संस्कृति, जिसमें दर्शन के लिए कोई स्थान नहीं।
और जितने ज्यादा अशिक्षित और गरीब होते हैं, वही इसमें और ज्यादा फंसते हैं। जिन्होंने शिक्षा ले ली है, विशेषकर विज्ञान में, वे दुनिया की थोड़ी सच्चाई जानना शुरू कर देते हैं। यहां, हमारे यहां, इधर भी आप जाएंगे, तो वहां पर सड़क किनारे एक बाबा जी ने अपना तंबू गाड़ रखा है। वहां जितने बेचारे मजदूर वगैरह होते हैं, ठेले वाले, वह सब वहां पर घुसते रहते हैं और ना जाने कौन सी वो बूटी लेते हैं, चूरन लेते हैं। उनको वो दिया जा रहा है और वो इधर से उधर निकल रहे हैं! उन्हें पूरा भरोसा है कि यहां मामला ठीक है!
कोई हम गणना ही नहीं करते कि भारत में अंधविश्वास कितनी लाख जाने लेता है हर साल! कोई इस तरह का, सेंसस होना चाहिए ना इस बात का भी? जैसे जब जनगणना होती है तो उसमें मृत्यु दर निकाली जाती है तो उसमें जो अंधविश्वास से मृत्यु हुई है उसकी भी दर निकाली जानी चाहिए, हर तरह के अंधविश्वास से। अभी तो था एक बच्चे की बलि दी उसके टीचर ने, ये सब चल रहा है और मैं बस वह बता रहा हूँ जो खबरों में आ गया सुर्खियों में आ गया। जो पीछे पीछे खुद चल रहा है, उसका तो कुछ पता ही नहीं चलता।
मुझे बड़ी समस्या हुई थी, कोविड आया था, लगे हुए थे, कोई बता रहा, "कबूतर का कलेजा खा लो तो कोविड नहीं होगा।" कोई बोल रहा है, "गौमूत्र, गंगाजल से नहीं होगा।" मैंने उस पर खुलकर बात करी, कई बार बात करी। तो लोगों को बड़ा क्रोध आया। बोले, "अधार्मिक आदमी यह कह रहा है कि कबूतर के कलेजे और गौमूत्र से कोविड नहीं ठीक होता?"
मैं बोल रहा हूँ, "पागलों! जितनी तुमको डॉक्टरों द्वारा सावधानियां बताई जा रही हैं, उनका पालन करो। और हो जाए कोविड, तो जो दवाएं दी जा रही हैं, सिर्फ उन दवाओं के भरोसे रहो। और कुछ नहीं तुमको बचा सकता!"
बोले, "आचार्य हो के ऐसी बात करता?"
"क्या बात करूं?"
बोले, "ऐसे बोलो ना कि यह तो अमेरिका का षड्यंत्र है, क्योंकि अमेरिका भारत की धार्मिकता और आस्तिकता से जलता है। तो भारत के महान आस्तिक और धार्मिक लोगों के शरीर में नास्तिकता की वैक्सीन लगाई जा सके, इसलिए अमेरिका ने यह षड्यंत्र रचा है कोविड का! तुम आचार्य हो, तुम ऐसे बोलो!"
मैंने कहा, "अच्छा, लगाओ कैमरा ऑन करो!" बोलते हैं।
आप यह बात बहुत अच्छे से समझ लीजिए- कोई नहीं है, कोई नहीं है माने, कोई नहीं है, कोई नहीं है! आपका करता-धरता आप ही हो। शुरू में डर लगता है यह समझकर, पर सुलह कर लो इस बात से। सच से झगड़ने से कोई लाभ नहीं होता ना! सच से झगड़ के क्या मिलेगा? तो सच्चाई यही है कि अकेले हो।
कोई नहीं आने वाला तुमको पालने के लिए। कितने मर रहे हैं, दुनिया आगे बढ़ जाती है। कोई नहीं है तुम्हारा गार्जियन फादर। इतनी देर में हमने बात करी, हजारों लोग मर गए इतनी ही देर में बात करते-करते। किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता, प्रकृति अपना चक्र आगे बढ़ाती रहती है, कोई फर्क नहीं पड़ता किसी को। कोई नहीं बैठा हुआ है ऊपर, दयालु पिता परमेश्वर, जो तुम्हारी देखभाल करे। कोई नहीं, जो तुम पर करुणा बरसाने वाला। तुम बस अकेले हो।
वेदांत का बड़ा गहरा संबंध है इन तीन से—एक्जिस्टेंशलिज्म, एब्सर्डिज्म और निहिलिस्म। निहिलिस्म तो लगभग वही है, जो आप शून्यता सप्तति में पढ़ रहे हो- शून्यवाद और एक्जिस्टेंशलिज्म कहता है, "मालिक हो तुम!"
तुम्हें अपने जीवन का उद्देश्य स्वयं निर्धारित करना है, तुम्हें अपनी आंखों से देखना है, तुम्हें अपनी चेतना से विचार करना है। और एब्सर्डिज्म कहता है कि कुल मिलाकर मैक्रो स्केल में यह पूरी चीज़ का कोई उद्देश्य नहीं है, सब कुछ बस यूं ही है, रैंडम है, एब्सर्ड है। यहां कोई महान खेल नहीं चल रहा। यह पूरी सृष्टि किसी पवित्र और ऊंचे उद्देश्य की ओर नहीं बढ़ रही बस ऐसे ही है। जैसे समुद्र में लहरें उठती-गिरती रहती हैं ना, मामला एब्सर्ड है! उसका कोई उद्देश्य थोड़ी है? उसमें किसी ने कोई योजना थोड़ी बनाई है? वहां कोई छुपी हुई कहानी थोड़ी है? Behind all this randomness is some great scheme!
कई लोग बोलते हैं, "यह जो तुमको दुख वगैरह मिल रहे हैं, तुमको पता नहीं है, इसके पीछे हमारे महान ईश्वर की एक गहरी प्रेमपूर्ण योजना है!" किसी की कोई योजना नहीं है! दुख है तो है! और दुख है, तो उसको तभी हटाने का प्रबंध कर लो। उस दुख के पीछे कोई योजना नहीं है तुमको स्वर्ग आदि पहुंचाने की। कोई दुख नहीं है जो कह रहा है "इसको दुख दो," कोई पर्दों के पीछे से छुपकर यह प्लानिंग नहीं कर रहा कि "इसको दुख के माध्यम से बंदे को बेहतर बनाना है।" कुछ नहीं ऐसा हो रहा। और यह सब आप जल्दी स्वीकार कर लीजिए! आपकी ज़िंदगी आपकी जिम्मेदारी है।
आईआईएम में थे, तो वहां नाटक था, Waiting for Godot—वह यही है! वह खड़े हुए हैं दो, और पूरे नाटक में बस इंतजार कर रहे हैं! यह मनुष्यता का हाल है, विशेषकर भारत में। तुम इंतजार कर रहे हो, जानते हो किसका? जो है ही नहीं! तुम जिसके भरोसे जी रहे हो, जानते हो, वह है ही नहीं! और जिसके भरोसे जिया जा सकता है, उसकी तुम इज्जत नहीं करते!
वो कौन है? वह तुम हो! तुम अपनी ज़िंदगी की कमान अपने हाथ में लेने को तैयार नहीं हो। तुम न जाने किस अदृश्य शक्ति की बाट जोह रहे हो। वह कभी आने नहीं वाली है, क्योंकि वह है ही नहीं! और यदि है भी, तो कहां है? वह तुम्हारे भीतर है, और कहीं नहीं है!
लोक धर्म का भगवान वहां होता है, और वास्तविक धर्म का भगवान यहां होता है (ह्रदय की ओर इंगित करते हुए)—तुम्हारी उच्चतम संभावना के रूप में! उसे "आत्मा" कहते हैं।
ये जो "मिस्टिसिज़्म” शब्द है ना, उस दिन भी मैं कह रहा था—इसने बड़ा उपद्रव करा है! मिस्टिसिज़्म का मतलब ही हम यह समझते हैं कि "कुछ है!" वो होता भूतिया बात- शू उ उ उ, ‘कुछ तो है! कोई तो है!’ कोई नहीं है! हल्यूसिनेट करते हो और कहते हो, "कोई तो है!" कोई नहीं है! हमने ऑकल्टिज़्म और सेंटिमेंटलिज्म को बना दिया है मिस्टिसिज़्म!
ऑकल्टिज़्म माने "कोई तो है!" माने भूत-प्रेत हैं, छुपी हुई नेगेटिव शक्तियां हैं!" ऑकल्टिज़्म यह हो गया!
और सेंटिमेंटलिज्म क्या हो गया? कि "मुझे ऐसा अनुभव हो रहा है कि मेरा प्रियतम कहीं तो है! मुझे बनाने वाले ने अकेला नहीं बनाया। जरूर उसने मेरा हमसफर, हमराह, हमबिस्तर कहीं तो बनाया होगा! वह है!" शाहरुख खान ने बताया था कि "हम जोड़ों में पैदा होते हैं!" "वह है! मैं अकेली हूं, पर मैं उसकी धड़कन सुन सकती हूं! वह है!"
बावरी! कोई ना है! सो जा!
और यह सब हम बोलते हैं "मिस्टिसिज़्म है!" मिस्टिसिज़्म बस एक बात होती है—जो समझ के बाहर जैसी होती है। ये जो हाड़-मांस का आदमी है, मिट्टी से उठा जीव है, यह मिट्टी में ही लोट-लोट के खुश क्यों नहीं रह सकता, दूसरे जानवरों की तरह? यही मिस्टिसिज़्म है! यह जो भीतर हमारे अहंकार बैठा हुआ है, यह क्यों मुक्ति की तलाश करता है? और तो कोई जानवर नहीं कहता कि "मुक्ति चाहिए!" मस्त खड़े रहते हैं!
भैंस को बांध देते हो पांच साल तक, वो एक-डेढ़ फुट की रस्सी से बंधी खड़ी रहती है! इंसान मर जाएगा! दुख भैंस भी अनुभव करती है, पर मरती नहीं है! क्योंकि उसे मुक्ति की बहुत बड़ी आकांक्षा नहीं है!सोचो, पांच साल तक तुम एक मादा को एक-डेढ़ फुट की रस्सी से बांध कर खड़ा कर दो! रोज उसको ऑक्सीटोसिन मारो! रोज उसका दूध निकालो! जबरदस्ती उसके बच्चे पैदा कराओ! जब बच्चे पैदा हों, तो मार दो उन बच्चों को! और ये तुम तब तक कर रहे हो, जब तक वो दूध दे सकती है।
इंसान मर जाएगा, कोई नारी हो, मनुष्य हो, वह मर जाएगी। यह मिस्टिसिज़्म है कि इंसान में ऐसा क्या है, जो मुक्ति के बिना नहीं जी सकता जान दे देता है! बस वही मिस्टिसिज़्म! बाकी सब कोई मिस्टिसिज़्म नहीं होता। यह मिस्टिसिज़्म नहीं है कि वहां आसमानों के पार बताओ कौन सा ईश्वर है! यह मिस्टिसिज़्म नहीं होता। एक ही मिस्टिसिज़्म है कि मेरी छाती किस आज़ादी के लिए धड़क रही है। यही मिस्टिकल बात होती है।
भूत-प्रेत, डायन, सेंटीमेंट्स, इमोशंस, पैरानॉर्मल एक्सपीरियंस—ये मिस्टिसिज़्म नहीं होते! कि वह तो मेरे पति मर रहे थे, उनकी आत्मा उनके शरीर से निकल रही थी, और मैंने देख ली निकलती हुई। एकदम मौके पर मेरी नींद खुल गई, बस निकल ही रही थी, मैंने देख ली। कि मैं तो हूँ ही ऐसी, ‘ये भी जब निकल ही रहे होते थे, मैं इनको देख लेती थी और तभी भांजी मार देती थी! चुपके-चुपके, निकल कहां रहे हो?’
"इस बार तो इनकी आत्मा ही निकल रही थी, चुपके-चुपके! ऐसे ही थोड़ी, मैं सती-सावित्री पत्नी हूँ इनकी! खट से मैंने भांजी मार दी, वो निकल रही थी, ऐसे धीरे-धीरे-धीरे-धीरे, अजीब सी गंध के साथ, छत से बगल के मंदिर में गई!" "मैंने कहा, 'देखो तुम परमेश्वर, ऐसे नहीं मरने दूंगी! मैं सावित्री के देश की हूँ!' और वापस आई। मैंने देखा, वह आत्मा बिल्कुल डर के दुबक के मेरी दहशत में फिर से अंदर घुस गई!"
यह मिस्टिसिज़्म है हमारा! और यह खूब चलता है! तुम इतनी सी मेरी वीडियो क्लिप ले लो और चला दो। और बता दो कि "आचार्य जी का व्यक्तिगत अनुभव!" बस इतना ही चला दो! एकदम वायरल हो जाएगी!
"देखा! आखिरकार यह पट्ठा भी आ ही गया लाइन पर! मानने ही लग गया कि शरीर से आत्मा निकलती है! और सावित्री जैसी पत्नी परमेश्वर से प्रार्थना करके आत्मा को दुबारा घुसा देती है!" “चल, घुस वापस, बिल में अपने!"
अब इन सब विद्याओं में बेचारे डॉक्टर बड़े असमर्थ होते हैं। वो कहते हैं, "यह तो एमबीबीएस क्या, एमडी, क्या एमडीडी पीडी पीडी चीडी—क्या? यह तो कहीं भी नहीं सिखाया जाता!"
"शरीर से आत्मा निकल रही है, उसको वापस कैसे भेजें?" "चल घुस, घुस!"
और इन सब चीजों की शुरुआत न, आप खुद ही कर देते हो। यह जो आप काला टीका लगाते हो, यह जो आप काजल लगाते हो, यह जो आप उनके कमर में काला धागा बांध देते हो—बच्चों में अंधविश्वास के बीज, मेडिकल साइंस से रिलेटेड जो बातें हैं, उनमें बिल्कुल अनसाइंटिफिक एटीट्यूड डालना—यह आपका ही तो काम होता है! फिर वही बच्चा आगे निकलकर घोर अंधविश्वासी बन जाता है, बाबा जी के पास जाकर पूछता है, "एड्स हो गया है, कैसे ठीक होगा?" बाबा जी बोले, "बेलपत्र चबा, अभी ठीक हो जाएगा!"
"वैसे, यह बताना, एड्स हुआ कैसे?" "पता बताना ज़रा थोड़ा!" बाबा जी मिर्ची जला कर उसकी नज़र उतार रहे हो! फिर वही होता है कि, "द सुपरनेचुरल, द पैरानॉर्मल!"
सब प्रकृति मात्र है। कुछ सुपरनेचुरल नहीं है। कुछ पैरानॉर्मल नहीं है। सब नॉर्मल ही नॉर्मल है। उसको "प्रकृति" कहते हैं! सांख्य योग पूरा यही है! मैं कितना भी समझा लूं, जज़्बात तो सबके यहीं उमढ़ रहे हैं—"पर कुछ तो है!"
रखे रहो फिर! कुछ डॉक्टर भी अब होशियार हो गए हैं, जो थोड़े रुतबे वाले हैं, ‘गार्ड रखते हैं’ और कहते हैं, "ज़रा भी यह बहके, देखना, किसी को पट से मारना!" एक उधर फेंक देना! कहना, 'तू जा! दवा की नहीं, दुआ की ज़रूरत है!’