प्रश्नकर्ता: सर, सादर नमस्ते! सर, मेरा प्रश्न मेरे और मेरे बेटे से जुड़ा हुआ है। अपनी समझ से मेरे उसके प्रति तीन कर्तव्य हैं — एक तो उसकी भौतिक पढ़ाई के लिए धन की व्यवस्था करना, रहने के लिए छोटा मकान, फिर तीसरी बात आती है उसके विवाह की। आपने भी कहा था कि ये तीन चीज़ें आपको तोड़ देती हैं — कामवासना, इज़्ज़त और पैसा। सर, मेरा बेटा अभी दो साल का है। एक पिता होने के नाते मैं अपने आप को और अपने बेटे को क्या शिक्षा दूँ जिससे मैं और मेरा बेटा जीवन में सही फ़ैसले ले सकें? और एक पिता का अपने बेटे के प्रति क्या कर्तव्य होना चाहिए?
आचार्य प्रशांत: देखिए, मैंने अपने जीवन में जो निर्णय लिए, वो एक दृष्टि से सब बहुत उल्टे-पुल्टे थे। अब ले लिए हैं तो फिर भी ऐसा लगता है कि हाँ, ले लिए, वरना अगर आप उस समय में लौटे जब वो निर्णय लिए जा रहे होते हैं, जब प्रक्रिया चल रही होती है, तो उस समय पर वो निर्णय बड़े खतरनाक, बड़े नागवार लगते हैं। कोई अपरिचित भी वैसा निर्णय ले रहा हो तो आप उसको रोकना चाहेंगे। और मैं वैसे निर्णय एक-के-बाद एक कई लेता चला गया — उसमें एक निर्णय विवाह संबंधित भी था।
मेरे पिताजी ने मुझे कभी न इस तरफ़ का कुछ बोला, न उस तरफ़ का कुछ बोला। परसों उनका जन्मदिन है, हम एक स्कूल में कुछ करने जा रहे हैं। मुझे एक वाक्य याद नहीं आता जब मेरी उनसे विवाह को लेकर कोई चर्चा हुई हो कभी। उन्होंने मुझे सलाह नहीं दी, उन्होंने मुझे किताबें दे दी थीं — और वो भी उन्होंने दी नहीं थीं, उन्होंने रख दी थीं कि मुझे दिखती रहें। अपने हाथ से भी ऐसे थमाने (देने का संकेत करते हुए) तो शायद वो कभी भी नहीं आए। ऐसी जगह रख देते थे, लाइब्रेरी थी और ला-लाकर रखते रहते थे, मुझे दिख जाती थीं, मैं खुद ही उठा लेता था। और मैंने नहीं उठाई तो मुझसे कहते नहीं थे कि पढ़ो। किसी भी चीज़ का ज़ोर डालने कभी आए ही नहीं, ऐसे जैसे हों ही नहीं, अनुपस्थित।
आप जैसे हैं, इससे ये तय हो जाएगा कि आप बच्चे को क्या सिखा पाते हैं, संदेश दे पाते हैं, आपकी हस्ती तय करती है। बहुत अच्छी बात है अभी दो ही साल का है, मतलब अभी समाज के ज़्यादा प्रभाव पड़े नहीं होंगे उस पर — हालाँकि पड़ने शुरू हो जाते हैं। जैसे ही इंद्रियाँ सक्रिय होती हैं और मन सिद्धांत बनाना, कार्य-कारण में संबंध जोड़ना शुरू करता है न, वैसे ही समझ लीजिए कि बच्चा संस्कारित होना शुरू हो गया। पर अभी दो साल है, ठीक है।
तो आपको खुद एक बाप जैसा होना पड़ेगा। बात इसकी नहीं है कि उसको बाप ने सिखाया क्या, बात इसकी है कि बाप बाप जैसा हुआ कि नहीं हुआ, सिखाना तो पड़ता ही नहीं है। और हमारे साथ क्या विडंबना है कि हम बाप जैसे होते नहीं, पर बेटे को सिखाने की होड़ में रहते हैं। कुछ भी नहीं सिखाना है, इतना सा भी (चुटकी से संकेत करते हुए) कुछ नहीं सिखाना है; सिखा देंगे तो गड़बड़ हो जाएगी। कभी वो अपनी स्वेच्छा से कुछ पूछने आ गया तो आपने बता दिया वो अच्छी बात है। सिखाने की कोई ज़रूरत ही नहीं है, मौजूद रहिए, उपस्थित रहिए, एक साक्षी की तरह रहिए, देखते रहिए।
और अगर आप सचमुच बाप हैं तो बेटा बिगड़ेगा नहीं आसानी से। अब एकदम ही माया ने कुछ ठान रखा हो तो हम नहीं कह सकते, वो तो फिर देखिए, है न, प्रकृति का संयोग है उसकी नहीं बात करते। पर संभावना ज़्यादा यही है कि बाप अगर बाप जैसा है तो बेटा तो निखरकर ही आएगा। सब पूछते हैं, ‘बच्चों को कैसे सिखाएँ? क्या पढ़ाएँ? क्या बात बोलें? क्या अनुशासन दें?’ ये बात बहुत कम लोग कहते हैं कि हमें क्या हो जाना चाहिए। आप ठीक हो जाइए, बच्चा अपने आप अच्छा निकलेगा।
आपके पक्ष में दो बातें जा रही हैं — एक तो बच्चा छोटा है, दूसरा, आप संतों के साथ और कृष्णों के साथ हैं। ये दोनों बातें आपको बिल्कुल ठीक करके चलेंगी। पैसा, आपने कहा कि पैसा वो कितना उसके लिए ज़रूरी है। मैं वो उद्धृत करता रहता हूँ न, हमारी तरफ़ चलता है कि
पूत सपूत तू क्यों धन संचय। पूत कपूत तू क्यों धन संचय।।
अगर वो कपूत ही निकल गया तो जो आपने उसको पैसा दिया है वो उसका दुरुपयोग ही करेगा; और अगर सपूत निकल गया तो आपके दिए हुए पैसे का वो करेगा क्या? अगर वो सपूत है तो आपसे पैसा क्यों माँगने आएगा? हाँ, एक साधारण न्यूनतम राशि ज़रूर होती है, पिता का फर्ज़ बनता है, उसकी पढ़ाई में तो आपको व्यय करनी पड़ेगी। और आरंभ के कुछ दिनों में हो सकता है आपको उसको थोड़ा सी सहायता भी देनी पड़े। लेकिन वो जो बड़ी-बड़ी राशियाँ माँ-बाप इकट्ठा करते हैं न, ‘बच्चे को ये दूँगा, वो दूँगा,’ उसकी ज़रूरत पड़ती नहीं है अगर पूत सपूत है। तो आप बेटे पर कम-से-कम ध्यान दीजिए, आप स्वयं पर ज़्यादा-से-ज़्यादा ध्यान दीजिए।
कोई सलाह नहीं देनी है, ये मामले ऐसे हैं ही नहीं, क्या सलाह दें उसको कि किससे शादी करो, किससे नहीं करो! देख लेगा न! उसको इंसान बनाना है। वो इंसान बन गया तो इंसान का मतलब ही होता है मुक्त। जो मुक्त है वही तो मनुष्य कहलाने लायक है न? जो मुक्त नहीं है वो इंसान ही नहीं है, वो तो पशु है। तो हमें उसको मनुष्य बनाना है और बाकी काम वो खुद करेगा। और आपको गर्व होना चाहिए अगर वो कभी आपसे अपनी शादी-ब्याह की चर्चा करने न आए। आमतौर पर ये कोई बहुत गौरव की बात नहीं होनी चाहिए अभिभावकों के लिए अगर बच्चे आकर के उनकी अनुमति वगैरह माँग रहे हैं कि फ़लाना रिश्ता है, आगे बढ़ूँ कि नहीं बढ़ूँ। ठीक है?
मैं ये नहीं कह रहा हूँ कि बच्चों को छुपानी चाहिए ये बातें, मैं उस स्थिति की चर्चा कर रहा हूँ जहाँ बच्चा इस लायक ही नहीं बना है कि वो पच्चीस-अट्ठाइस का या बीस-बाईस का हो रहा है और अभी वो ये जान पाए कि किसको साथी बनाना है, किसको नहीं बनाना है। बीस-बाईस का हो गया है, अभी भी है वो बच्चा ही, ये माँ-बाप के लिए कोई गौरव की बात है? तो माँ-बाप के लिए भी ये नाज़ की बात होनी चाहिए कि इन मामलों पर हमारे बच्चे को हमारी ज़रूरत नहीं पड़ती, हमने उसको ऐसा ताकतवर और आज़ाद इंसान बनाया है कि वो समर्थ है, काबिल है इन चीज़ों पर अपने फ़ैसले खुद लेने के लिए। हाँ, अनुभव अभी उतना नहीं है उसे, और अनुभव का भी कुछ महत्व होता है, तो जब उसे लगता है कि उसे हमारी सलाह चाहिए, तो वो आकर हमसे बात कर लेता है। लेकिन आज़ादी और बोध का महत्व अनुभव से हमेशा ज़्यादा होता है; अनुभव छोटी चीज़ होती है बोध के आगे।
तो अपने अधिकांश फ़ैसले वो खुद ही ले लेता है, या ले लेती है, बच्चा हो, बच्ची हो, जो भी हो। ये माँ-बाप के लिए गौरव की बात होनी चाहिए, लेकिन माँ-बाप के लिए ये बड़े विरोध की बात बन जाती है। वो इसमें अपमान मानने लगते हैं कि हमारे बच्चे ने बातें हमसे पूछी नहीं, अपनी ज़िंदगी के फ़ैसले खुद ले रहा है। अगर वो अपनी ज़िंदगी के फ़ैसले खुद ले रहा है तो इसमें आपका अपमान है कि सम्मान है, सही-सही बताइए?
श्रोतागण: सम्मान।
आचार्य प्रशांत: आपको फ़क्र होना चाहिए न कि देखो, मैंने ऐसा काबिल इंसान पैदा करा है, ये अपनी ज़िंदगी के फ़ैसले खुद ले सकता है। और जिसको इस लायक बनाना होता है कि वो अपने फ़ैसले खुद ले जाए, उसे अभ्यास करने देते हैं। हम जिसको चाहते हैं कि ज़िंदगी की राह पर वो अपनी टाँगों से चले, उसे हम बचपन से ही उसकी ही टाँगों पर चलने देते हैं। आप किसी को बीस साल तक अपने कंधे पर बैठाए रहोगे और बीस की उम्र में कहोगे, ‘जा, अब अपनी टाँगों से दौड़ लगा,’ तो अब वो दौड़ना तो छोड़ो, वो चल भी पाएगा? तो बचपन से ही स्वतंत्रता का बच्चों को अभ्यास कराइए।
मुझे याद आता है, मैं बहुत-बहुत छोटा था। मैं बता देता हूँ बिल्कुल ठीक-ठीक, पाँच या छः साल का, ठीक है? केजी या फ़र्स्ट की बात है, रुद्रपुर शहर की। तो हीरो साइकिल थी लाल रंग की — और वैसी वाली नहीं जैसे बच्चे चलाते हैं, जैसे बड़ी वाली होती है न। मैं अस्सी के दशक की बात कर रहा हूँ, अर्ली एट्टीज़, तो वो जो बड़ी वाली एवन साइकिल होती है, तो उसी का छोटा संस्करण समझ लीजिए। वैसे ही पूरी, बस कद में छोटी थोड़ी, लाल रंग की थी — वो ले आए थे।
अब मेरे कद के हिसाब से वो अच्छी बड़ी थी, बस ऐसा था कि मैं जब पाँव पूरा लंबा कर लेता था तब उसके पैडल घूमते थे। और पैडल जब पूरा नीचे तक जाता था तब तो थोड़ा सा जैसे मेरे पाँव से वो छूटने ही लगता था। उसको शायद ये सोचकर लाए थे कि आज ला रहे हैं, अभी छः महीने बाद कद बढ़ ही जाना है, जो भी है। तो एक दिन का मुझे याद है, एक सड़क है — और रुद्रपुर उस समय बहुत छोटा सा शहर होता था, कस्बे जैसा होता था बहुत खूबसूरत, नैनीताल के पास। हम लोग नैनीताल चले जाया करते थे शनिवार-एतवार — तो कोई नहीं है आस-पास, शाम का समय है, आबादी बहुत कम थी वैसे भी वहाँ की। और वो ऐसे ही पतली सी है सड़क और उस पर है और वो मुझे पीछे से पकड़कर साइकिल चलाना सिखा रहे हैं, करा करते थे।
और उस दिन मैं साइकिल चला रहा हूँ, चला रहा हूँ, चला रहा हूँ और काफ़ी देर बीत गए, दस मिनट बीत गए, तो मुझे कुछ हुआ खटका सा! मैं पीछे देखता हूँ, तो शायद वो जाने पाँच-सौ मीटर या एक किलोमीटर पीछे हैं और वहाँ से ही बोलते हैं, बस ऐसे (हाथ से आगे बढ़ते जाने का इशारा करते हुए)। उन्होंने छोड़ दिया था, बिना ये सोचे कि उतरते समय गिर सकता है, घुटने छिलेंगे, जो भी होगा, छोड़ दिया था। छोड़ दिया था पर वहाँ खड़े हुए थे सड़क पर और जान रहे थे कि मैं पीछे तो देखूँगा। तो प्रतीक्षा कर रहे थे कि जैसे ही पीछे देखा, बोले, ‘चलते जाओ।’
वो असल में एक बहुत बड़ा मैदान था — बहुत बड़ा जो कि छोड़ा गया था, शायद वहाँ पर कोई कॉलोनी विकसित होनी थी, इतना बड़ा मैदान — तो वो जो सड़क थी वो उसके पूरा ऐसे इर्द-गिर्द घूमकर आती थी। तो शायद अपने उसमें चाह रहे थे कि मैं पूरा घुमाकर के वापस उन तक लौटकर आऊँ। मैं उतना नहीं घुमा पाया, मैं रास्ते में ही दिख गया था न कि कोई नहीं है, तो रास्ते में ही फिर मैं एक जगह जाकर गिर गया। पर उन्होंने अपनी ओर से एक जगह तक लाकर के छोड़ दिया था कि जाओ, अब चलते जाओ और मैं चलता भी गया कम-से-कम। ये छोड़ना बहुत ज़रूरी है। और छोड़ने का मतलब ये नहीं होता कि आप देख नहीं रहे हो अब, छोड़ने का मतलब ये भी नहीं होता कि आपने उसको जाकर अंधे कुएं में छोड़ दिया है।
विजय सुपर स्कूटर होता था स्कूटर्स इंडिया लिमिटेड का, लखनऊ में बनता था। अब तो किसी ने देखा हो शायद, वो बड़ा भारी स्कूटर होता था, बहुत भारी! तो मुझे मेरे नाना ने हीरो पुक तोहफ़े में दे दी थी। मैं आठवीं-वाठवीं में रहा होऊँगा, मुझे वो चलानी ही नहीं आती थी। तो उन्होंने मुझे ‘विजय सुपर’ (साइकिल) से ‘हीरोपुक’ (स्कूटर) चलानी सिखाई। मैं चला रहा होता था, वो पीछे बैठ जाते थे, कहते थे, ‘चलाओ।’ और वो बहुत भारी स्कूटर था और गिरता तो मुझे तो लगती-तो-लगती, उन्हें भी लगती। पर मुझे स्वतंत्र छोड़ने के लिए उन्होंने ये तक स्वीकार किया कि उनको चोट लग जाएगी। पर ये नहीं था कि अभी तो तुम बहुत छोटे हो, अभी तो तुम मोपेड चलाओ, ऐसे करो, वैसे करो, जो भी है।
तो ये प्रश्न मुझे विचित्र लगता है जब कोई पूछता है कि हम बच्चों को क्या सिखाएँ, क्या सलाह दें। मैं बोलता हूँ, ‘कुछ मत सिखाओ, मौजूद रहो। तुम्हारी हस्ती बहुत सारी बातें बच्चों को सिखाती है।’ आपकी हस्ती ऐसी होनी चाहिए न कि बच्चा खुद सीख ले, बच्चे को सीधे-सीधे क्या सिखा रहे हो, बच्चा आपको देख तो रहा है। मैंने उनको भरे मंच पर मुख्यमंत्रियों को लताड़ते हुए देखा है। और मुख्यमंत्री वही मंच पर बैठे हुए हैं। घर में वो कभी आवाज़ नहीं ऊँची करते थे। लेकिन विभाग के ऊँचे अधिकारी हों, चाहे मंत्री हों, मुख्यमंत्री हों, उनके सामने वो कभी दबते-झुकते नहीं थे। मैंने ये देखा है न, तो अब मुझे क्या ज़रूरत है कि वो मुझे अलग से आकर के ज्ञान दें? उनका जीवन ही मेरे लिए ज्ञान था। और बड़ा अजीब हो जाए न कि वो आकर के वीरता का संदेश दे रहे हैं और जबकि मैं उनको पाऊँ कि वो बिल्कुल घुघ्घू हैं, दब्बू हैं।
मैंने तो उनको पाया कि उनके साथ जो कुछ भी विभाग कर सकता था और लखनऊ में बैठे सत्ता के लोग कर सकते थे, सब करते गए। अपनी एक-एक प्रमोशन (पदोन्नति) के लिए उन्हें कोर्ट जाना पड़ा। वो कोर्ट जाते थे, लड़कर प्रमोशन लेते थे। तो ये सब देखा है न; और वो देखना पर्याप्त था। इससे क्या करोगे सुनकर, ये ज़बान दो कौड़ी की है, चमड़े की चीज़ है, क्या सुनाऊँ! बात ज़िंदगी की होती है। आपकी ज़िंदगी ऐसी होनी चाहिए कि आपके बच्चे-बच्चियाँ, आपके आसपास के सब लोग आपकी ज़िंदगी का लोहा मानें।
बड़ा अजीब हो जाता है, मतलब मैं कल्पना भी नहीं कर पा रहा हूँ, आपसे बात कर रहा हूँ इतने में दो-तीन बार कि मैं उनके साथ बैठकर अपने विवाह की बात कर रहा हूँ, मैं कर ही नहीं सकता था। हमारा रिश्ता ही ऐसा नहीं था कि हम ये बातें करें। ये कोई करने की बात है! पापा, उन्हें भी पता है मैं, उनको अजीब लगता, ऑकवर्ड लगता कि ये क्या बात करने आए हो, देख लो जो भी करना है, मुझसे क्यों पूछ रहे हो, ये तुम मुझसे क्यों डिस्कस (चर्चा) करने आए हो! मैन टू मैन रिलेशन (इंसान का इंसान से संबंध) रखिए न!
आप लोगों को पता नहीं कैसा लगेगा सुनने में, आइआइटी में थे तो सेमेस्टर जब पूरा होता था तो आपको महीने — अगर विंटर्स (सर्दी) वाला है तो, महीने के लिए समर (गर्मी) वाला है तो; दो-तीन महीने के लिए — कमरा छोड़ना होता था। फिर जब दोबारा सेमेस्टर शुरू हो तो आप वापस आ जाइएगा अपना। तो वही लड़के थे, तो डिड एज़ द ब्वॉएज़ डू (जैसा लड़के करते थे वैसा किया)। उस समय पर ऑनलाइन नहीं होता था मामला। तो उस समय पर एडल्ट मैग्ज़ीन्स चलती थी, तो वो मेरी अलमारी के ऊपर दो-तीन पड़ी हुई थी। डालकर के भूल गए होंगे, डेबोनीयर वगैरह ये सब; जो पुराने खिलाड़ी हैं उनको पता है!
तो सेमेस्टर ओवर हुआ, वो गाड़ी लेकर आए कि हाँ भाई, समान अपना लाद दो, चलो। तो सामान पूरा पैक-वैक हो रहा था, तो मैं बाहर जाता हूँ — वहाँ पर स्लिप (पर्ची) लेनी होती थी वार्डन ऑफ़िस से — वहाँ से स्लिप लेकर आता हूँ, तो वो हाथ में डबोनीयर लेकर खड़े हुए हैं! फिर बस कुछ नहीं, मुझे देखकर बोलते हैं, ‘ये रखनी है?’ मैंने कुछ नहीं, न मैंने कोई जवाब दिया, न कुछ, बस। मैन टू मैन, मैन टू किड क्या होता है? किड (बच्चा) पैदा करा था और उसको किड ही रखना है क्या? बस!
ये बातें बहुत निजी होनी चाहिए; और निजता और मज़बूती एक साथ चलते हैं। कुछ भी निजी वही रख पाएगा जो मज़बूत है। जो मज़बूत नहीं है न, उसका सबकुछ सार्वजनिक होता है — जैसे गरीब के झोपड़े का सबकुछ सार्वजनिक होता है। आप सड़क पर भी गुज़र रहे हो, वहाँ बगल में झोपड़ पट्टी है, सब दिख जाता है कि उसके अंदर क्या है। निजता तो मज़बूत दुर्गों के भीतर ही पाई जाती है, वहाँ कुछ पता चलता है? ये भारी, चौड़ी और ऊँची दीवारें हैं, अंदर क्या है झाँककर दिखा दो।
ये बातें जीवन में बहुत निजी होती हैं — प्रेम, साथ, संबंध — लेकिन हम निजी रख नहीं पाते क्योंकि हम मज़बूत लोग नहीं हैं। बच्चे को मज़बूत बनाइए। और निजी माने गुप्त नहीं होता, फिर कह रहा हूँ, प्राइवेसी इज़ नॉट सीक्रेसी, गुप्त नहीं है। हो सकता है प्रकट हो, प्रत्यक्ष हो, लेकिन फिर भी निजी है, क्योंकि हमारा है। हमें पचास लोगों से उसमें पूछने की ज़रूरत नहीं है, क्योंकि हमारा है। इसका मतलब ये नहीं कि छुपा रखा है, गुप्त है, सीक्रेट है; न-न-न, वो सब नहीं। क्यों माँ-बाप होने के नाते हमें इतनी हसरत हो कि बच्चे-बच्चियों के ब्याह में और संबंध में हमें घुसना है? क्यों घुसना है? देखने दो न उनको। हाँ, उपस्थित रहिए, वो सलाह माँगने आए तो सलाह ज़रूर दीजिए। लेकिन आपका भी गौरव इसी में है कि उन्हें सलाह माँगने की ज़रूरत कम-से-कम पड़े। और ‘प्रेम’ और ‘निजता’ इन शब्दों का सम्मान करना सीखिए।
भारत में हम इन चीज़ों का बहुत कम सम्मान करते हैं। भारत इसीलिए तो आत्मा से वंचित रह गया न, क्योंकि आत्मा माने वो जो सबसे निजी है। यहाँ हम हर चीज़ को सोशल, सार्वजनिक बना डालते हैं, हर चीज़ को चौराहे पर टाँग देते हैं। इतना भद्दा लगता है, वैसे तो हम कहते हैं कि साहब, हम बड़े सांस्कृतिक लोग हैं और हम बड़े मर्यादा का पालन करते हैं। और जितनी अश्लील हरकतें हम करते हैं, इतने दुनिया में कम ही लोग होंगे जो करते होंगे। ब्याह हो रहा है तो सेज सजाई जा रही है।
अभी राजस्थान में कहीं का आया कि वहाँ पर वो अगले दिन जाकर के दुल्हन को सफ़ेद चादर खून भरी प्रमाण में दिखानी पड़ती है। ब्याह के अगले दिन सुहागरात के बाद वो सफ़ेद चादर दिखाती है और वो सफ़ेद चादर घर के लोग बिछाते हैं। कुछ भी निजी रहने दोगे या सब चौराहे पर हीं टाँग दोगे? माँ-बाप क्यों घुस रहे हैं, परिवार का इसमें क्या लेना-देना, हर बात! और बल्कि डपट देना चाहिए। इन मामलों में तो अगर वो जो बच्चा है, नालायक निकल रहा है और पूछने आ रहा है, तो उसको डपट देना चाहिए, ‘ये बात मुझसे क्यों पूछ रहा है, खुद समझ, खुद तय कर। घोड़े जैसा हो गया है पचीस साल का, इसमें मुझसे सलाह लेने आया है, क्यों लेने आया है?’ इसकी जगह हम उल्टे बुरा मान जाते हैं अगर वो हमसे पूछने न आए तो।
अगर बच्चे का केंद्र ही गलत है, तो आप कितनी भी सलाह दे लो, वो काम तो अपने ही केंद्र से करेगा न, उल्टे-ही-पुल्टे करेगा। अभिभावक होने के नाते उसके निर्णयों की ज़िम्मेदारी आपकी नहीं है, उसके केंद्र की आपकी ज़िम्मेदारी है। जिस हद तक एक व्यक्ति की दूसरे व्यक्ति के प्रति ज़िम्मेदारी हो सकती है, बाकी कोई किसी का भाग्य विधाता नहीं होता। आपने बच्चा पैदा किया है, आप उसके रचयिता नहीं हो गए हो, विधाता नहीं हो गए हो। ये बिल्कुल हो सकता है कि आपका बच्चा हो और आपके सारे प्रयासों और आपकी सुदृढ़ हस्ती के बावज़ूद वो बहुत एक कमज़ोर जंतु बनकर निकल जाए, बिल्कुल ऐसा हो सकता है। लेकिन जिस हद तक हो सके, आप उसकी हस्ती को संबोधित करें, उसके निर्णयों पर छाने का प्रयास न करें।
मैं आइआइएम से अपना बोरिया-बिस्तर लेकर लौट रहा था — मार्च 2003 की बात है। आश्रम एक्सप्रेस चलती थी। वो पुरानी दिल्ली आती थी, तो वो मुझे लेने आए थे — तो मैं डिपार्टमेंट से सबैटिकल (अध्ययन प्रोत्साहन अवकाश) पर था उस समय पर, तो सरकारी नौकरी उस वक्त भी मेरे हाथ में थी। अब आइआइएम से भी आप ग्रेजुएट कर गए, तो अब आपको चुनना है कि कॉरपोरेट जॉब है, ये रहा उसका ऑफर (प्रस्ताव) और ये रही सरकारी नौकरी, दोनों में से ज्वाइन (चयन) किसको करना है। तो हम वहाँ पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन से आ रहे थे, तो मुझे याद है, गाड़ी में मैं बैठा हूँ पिछली सीट में, मेरे बगल में वो (पिता जी) बैठे थे; मैं इधर खिड़की पर, वो उधर खिड़की पर। तो चुप-चुप, चुप-चुप बैठे हैं और लगभग आधे घंटे बाद मैं उनसे बोलता हूँ, ‘पापा, मैं छोड़ ही रहा हूँ।’ न कोई भूमिका, न कोई संदर्भ, कुछ भी नहीं है, कोई बात नहीं हुई है।
वहाँ ट्रेन से उतरने के बाद से, गाड़ी में पार्किंग बैठने के बाद से, इतना आगे आने तक में कोई बात नहीं हुई है और मैं सीधे बोलता हूँ, ‘पापा, मैं छोड़ ही रहा हूँ।’ ये भी नहीं बताया कि भाई, नौकरी की बात कर रहे हो, खाने की बात कर रहे हो, गर्लफ्रेंड की बात कर रहे हो, दुनिया की बात कर रहे हो, क्या छोड़ रहे हो, कुछ नहीं, कोई उसमें कॉन्टेक्स्ट सेटिंग (प्रसंग निर्धारण) हुई ही नहीं। मैंने बस इतना बोला, ‘पापा, मैं छोड़ ही रहा हूँ।’ और अगर नौकरी की भी बात हो रही है तो उसमें मैं कौन-सी छोड़ रहा हूँ, सरकारी या कॉरपोरेट, ये भी बात नहीं, कुछ स्पष्ट नहीं। मैं, वो उधर अपना बैठे हुए हैं, ‘पापा मैं छोड़ ही रहा हूँ।’ तो ऐसे करते हैं, (आँखों से छोड़ने का इशारा करते हुए), ‘छोड़ दे।’
और दस इंटरव्यू हो चुके हैं, बाहर वाले पूछते हैं, ‘आपने यूपीएससी छोड़ दी, आपके घर वालों का इसमें क्या प्रतिक्रिया थी? उन्हें बुरा नहीं लगा?’ अब मैं उन्हें कैसे बताऊँ कि कुल ये थी उनकी (आँखों से छोड़ने का इशारा करते हुए)। कैसे समझाऊँ, उन्हें समझ में ही नहीं आता। और वो भी मैं थोड़ा अतिशयोक्ति करके जोड़कर बता रहा हूँ, उन्होंने इतना बड़ा भी ये (इशारा) नहीं किया था। उनको स्पष्ट था शायद कि आधे घंटे के मौन के बाद जो प्रश्न आता है, वो प्रश्न शायद उत्तर अपने साथ लेकर आया है, ज़रूरत ही नहीं है कि मैं कुछ समझाऊँ। ये कोई उथला प्रश्न नहीं है, ये बड़े विचार, बड़े मौन से उठा हुआ प्रश्न है, तो मैं इसमें क्या सलाह दूँगा! जैसे मैंने पूछा, वैसे उन्होंने तत्क्षण कर दिया, फ़ैसला हो चुका था।
असल में वो जानते थे कि फ़ैसला सवाल पूछने से पहले ही हो चुका है; क्या हो चुका है ये भी उनको पता था। न कुछ, न पूछा, किस बारे में कह रहे हो, न आगे की बात, न पीछे की बात, न तर्क-वितर्क, न वाद-विवाद; क्या बताऊँ! बच्चों को बड़ा कैसे करें, मुझे तो किया ही नहीं गया। और चूँकि मुझे किसी ने बड़ा करने का प्रयास नहीं किया, इसीलिए शायद मैं बड़ा हो पाया। किसी ने मुझ पर भी जोड़ आज़माइश कर दी होती मुझे बड़ा करने की, तो मैं भी बौना रह जाता। ‘बच्चों को कैसे बड़ा करें?’ उन्हें बड़ा होने के लिए छोड़ दो, वो खुद बड़े हो जाएँगे। माली पौधों को खींच-खींचकर बड़ा नहीं करता, वो बस मौजूद रहता है, देखता रहता है। मिट्टी सूख गई है तो पानी डाल दो, मिट्टी सख्त हो रही है तो गुड़ाई कर दो, पत्तियाँ कुँभला सी रही हैं तो थोड़ी खाद डाल दो।
और माली लेकर आए स्ट्रेचर और, ‘आदर्श बाप बनकर दिखाऊँगा! दुनिया का सबसे लंबा पौधा मेरे यहाँ होगा! वर्मा वाला छः फुट दो इंच का हुआ है, मैं इसे छः फुट चार का करके दिखाऊँगा। और ये पहला वाला नहीं हो रहा, तो चलो रे, एक और पैदा करते हैं। दूसरा वाला सबसे लंबा खींचकर दिखाएँगे।’ छोड़ दो, वो खुद होता है। उन्हें बढ़ने के लिए, फलने-फूलने के लिए अनुकूल माहौल दो और विथड्रा (पीछे हटना) करना सीखो। ये भारतीय अभिभावक नहीं जानते हैं विथड्रॉल , पीछे हटना। जहाँ ज़रूरी नहीं है वहाँ मौजूद क्यों हो? अपनी गरिमा, अपनी इज़्ज़त का खयाल करो, पीछे हटो। हम घुसना जानते हैं, पीछे हटना नहीं जानते।
पोस्टर बनाया था, एक कोटेशन (उक्ति) थी — कि प्रेम गले लगाना भी जानता है और दूरियाँ निभाना भी। हम गले ऐसे लगाते हैं कि फिर चिपक ही जाते हैं। जैसे कल्पना करो, कोई आकर आपसे गले लगा, अब दस सेकेंड तो अच्छा लगेगा, गले लगा हुआ है; और दस सेकेंड के बाद आप क्या चाहने लगते हो? ‘हट भी जा।’ बीस सेकेंड के बाद आप थोड़ा सा खुद ही उसको हल्का सा इशारा देने लगते हो, ‘भाई, बीस सेकेंड, हट।’ अब एक मिनट हो गया, हट नहीं रहा है, तो अब कैसा लगने लगता है? पाँच मिनट हो गए हैं अभी भी नहीं हटा, तो छटपटाने लगोगे, हाथ-पाँव फेंकने लगोगे। और दस मिनट बीत गए तो अब तो घूसा मारोगे, ‘हट!’ हम रिश्तों में ऐसे चिपकते हैं कि गले लगते हैं तो चिपक ही जाते हैं। गले लगना बहुत अच्छी बात है; गले लगना भी सीखो और दूर जाना भी सीखो। विथड्रॉल, पीछे हटना बहुत ज़रूरी है।
प्रश्नकर्ता: सर, पूरी बातचीत में आपने जो एक अभिभावक के तौर पर समझाई है, वो मुझे अपने जीवन में तो उतारनी ही पड़ेगी। उसका नाम मैंने ‘अर्जुन’ ही रखा है। मैं भी अर्जुन हूँ, वो भी अर्जुन है, तो मेरे जीवन का लक्ष्य ही यही है कि वो कृष्ण के पास रहे।
आचार्य प्रशांत: नहीं, ये मत करिए।
प्रश्नकर्ता: तो सर?
आचार्य प्रशांत: सुनिए, किसी और की ज़िंदगी को अपनी ज़िंदगी का लक्ष्य मत बनाइए, आप समझ ही नहीं रहे मेरी बात को। आप अपनी मुक्ति को अपनी ज़िंदगी का लक्ष्य बनाइए, इससे उसका कल्याण स्वमेव हो जाएगा। ये जो अतिशय दूसरे पर मन केंद्रित हो रहा है, दिस एक्सेसिव फोकस इज़ ऑबसेशन (ये अतिशय केंद्रीयता एक सनक है)। दूसरे की भलाई के लिए भी आप अगर हर समय उसी के बारे में सोच रहे हो तो ये स्वस्थ बात नहीं है, इसमें सिकनेस (बीमारी) है। ये नहीं करना है कि मेरी ज़िंदगी का लक्ष्य यही है कि मेरा बच्चा अर्जुन बनकर निकले। वो बच्चा इसमें खराब हो सकता है। आप अपनी ज़िंदगी को अपनी ज़िंदगी का लक्ष्य बनाएँ।
बिल्कुल बच्चे के प्रति, बल्कि पूरी मानवता के प्रति हमें प्रेम से भरा हुआ होना चाहिए, लेकिन जब अभी मैं ही बीमार हूँ, तो किसी दूसरे का स्वास्थ्य मेरे जीवन का लक्ष्य कैसे हो सकता है? हो ही नहीं सकता, बात नियम विरुद्ध है, नहीं हो सकता। तो इतना बच्चे के बारे में सोचना बंद करिए। बच्चे के बारे में आप इतना सोचेंगे न, तो वो चीज़ उस बच्चे को भारी पड़ जाएगी। स्वयं पर ज़्यादा ध्यान दीजिए, आप अपने पर ध्यान देंगे ये बच्चे के प्रति सबसे बड़ी आपकी मदद हो जाएगी।
प्रश्नकर्ता: सर, स्वयं पर ध्यान तो दे रहा हूँ, गिरता भी हूँ, चोट भी लगती है। और अभी बेहोशी में मैंने कुछ गलतियाँ भी की हैं। जैसे आपने बताया था कि जब आप अध्यात्म के रास्ते पर चलते हो तो समाज आपके विरुद्ध खड़ा हो जाता है, समाज सही अध्यात्म को नहीं पसंद करता। मुझे पागल की डिग्री भी मिल गई, लेकिन मैं इस रास्ते को छोड़कर भाग नहीं रहा हूँ, डटकर खड़ा हूँ। आपने बताया था कि हमारे असली पिता — उन्हें श्रीराम भी कह सकते हैं, श्रीकृष्ण भी कह सकते हैं — वो हैं। तो मेरे सभी साथी मेरे ऊपर हँस पड़े, शायद वो इस बात को समझ नहीं पाए। आज के सेशन में था कि
**कबीरा कुत्ता राम का, मोतिया मेरा नाऊं। गले राम की जेवरी,जित खींचे तित जाऊं।।
मैं अपने आप को डिपार्टमेंट में कई बार कुत्ता भी कह देता हूँ, मुझे कोई शर्म-लिहाज वगैरह लगता नहीं है। तो इन सब मामले में मैंने उस इज़्ज़त को बिलकुल त्याग दिया है। और जैसा आपने मुझे निर्देश दिया है, अपने अंदर वो चीज़ लेकर आऊँगा, गति भी बढ़ाऊँगा। सर, अटक रहा हूँ कि…
आचार्य प्रशांत: मैं समझ गया हूँ। मैं इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि आपने बिल्कुल दिल से बात करी है और इतना तो आपको मुझ पर यकीन है ही कि मैं समझ रहा हूँ।
प्रश्नकर्ता: जी सर।
आचार्य प्रशांत: यात्रा अभी लंबी है, दूर तक जाना है। और चोट भी लगेगी, जो भी लगेगा, उस चोट में भी हम और आप साथ-साथ हैं। आपको भी चोट लगती है, मुझे भी लगती है, ठीक है? तो हम दोनों साथ-साथ ही हैं, बढ़ते रहिए बस। ठीक है?
प्रश्नकर्ता: जी सर, धन्यवाद।