प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। आपको कोटि-कोटि नमन और बहुत सारा धन्यवाद कि हम लोगों को सही रास्ता दिखाने के लिए आप इतना संघर्ष कर रहे हैं।
आचार्य जी, हम हमेशा सबके सोशल स्टेटस के बारे में जानने को क्यों उत्सुक रहते हैं? यहाँ पर भी जब प्रतिभागियों से बात हुई मेरी तो पहला सवाल यही आया कि आप क्या करते हो। तो मतलब हम इस जगह पर भी अपने सोशल स्टेटस को लेकर चलते हैं। उस चीज़ पर थोड़ी स्पष्टता चाहिए थी।
और दूसरा, मैं जब आ रहा था तो जो भी मेरे दोस्त या मेरे जानने वाले ये जानते थे कि मैं आसाम से दिल्ली तक सफर करके सिर्फ़ शिविर के लिए जा रहा हूँ तो सब हैरान थे कि सिर्फ़ इस काम के लिए मैं इतनी दूर जा रहा हूँ। भारत में जिस चीज़ को प्राइमरी (प्राथमिक) होना चाहिए था, मतलब आध्यात्मिकता, उसे लोग हमेशा सेकेंडरी (द्वितीयक) समझते हैं आज भी। तो इसमें थोड़ा क्लैरिटी (स्पष्टता) चाहिए थी।
आचार्य प्रशांत: क्लैरिटी क्या दूँ, हम ऐसे ही लोग हैं। कहीं भी जाते हैं तो वहाँ यही देखते हैं कि उन्हीं चीज़ों की कितनी अधिकता है जो हमको साधारणतया प्रिय होती हैं। आप बड़ा मंदिर किसको बोलते हो? बड़ा मंदिर माने क्या?
प्र: बिल्डिंग (इमारत) बड़ी हो।
आचार्य: समझ गये न? वहाँ भी यही देख रहे होते हो बिल्डिंग कितनी बड़ी है। और?
प्र: भीड़ किसमें ज़्यादा है।
आचार्य: भीड़ कितनी बड़ी है।
प्र: जिसमें ज़्यादा पैसा चढ़ता हो।
आचार्य: हाँ, चढ़ावा कितना जाता है।
प्र: भिखारी कितने ज़्यादा हैं। (सभी हँसते हैं)
आचार्य: बहुत बढ़िया। कितनी दूर तक भिखारियों की और दुकानों की कतारें हैं। तो ऐसे ही हैं हम। और हमें पता भी नहीं होता, हम ये सबकुछ कर रहे हैं। हमें लगता है कि हममें धार्मिकता जग गयी है, हम मंदिर से प्रभावित हैं।
आप जब जाते हो किसी मंदिर में, बड़े मंदिर में, तो आपको यही तो लगता है अचानक कि भीतर कुछ भक्ति का आवेग सा उठा; उठता भी है। कैसा भी आदमी हो, वहाँ जब खड़ा हो जाता है, वो कहता है, ‘यहाँ ज़रूर कुछ है, यहाँ ज़रूर कुछ है, अचानक मुझमें श्रद्धा जग गयी।’ उस बेचारे को पता भी नहीं कि वहाँ जो है जिससे उसमें ये श्रद्धा जग रही है वो वास्तव में क्या है।
भई! तुम वही इंसान हो जिसको ऊँची इमारतें पसंद हैं, जो लोगों की भीड़ देखकर के प्रभावित हो जाता है, जिसको रुपये-पैसे से बहुत फ़र्क पड़ता है। और वो चीज़ें जब आप एक मंदिर में भी देख लेते हो, तो वहाँ आप प्रभावित हो जाते हो। वहाँ कहने लग जाते हो, ‘अरे! मेरी श्रद्धा जग गयी, श्रद्धा जग गयी।’ और थोड़ी कुछ है! तो जो आपको प्रभावित आज भी करना चाहते हैं वो फिर बड़े-बड़े मंदिर बनवाते हैं।
और बहुत लोग मिलेंगे जो कहेंगे, ‘वहाँ कोई ख़ास फ़ील्ड (प्रभाव)) है, वहाँ जाकर के मुझे कुछ हो जाता है।’ बेटा! वहाँ फ़ील्ड नहीं है। वहाँ बस वो आठ-सौ-करोड़ का मंदिर है। वो आठ-सौ-करोड़ है जिससे प्रभावित हो रहे हो, पैसा!
हम गिनते हैं फ़लाने मंदिर में कितने लाख दीये जलाये गए और जैसे ही पता चलता है इतने लाख दीये, छाती ऐसे चौड़ी हो जाती है। दिख नहीं रहा है कि उसमें भी तुमने अपना अहंकार ही डाल रखा है। अहंकार ही है न जो संख्या गिनता है। ये गिनती करने का काम किसका होता है? अहंकार का होता है। पर आप धर्म पर भी, राम पर भी, भगवान पर भी चढ़ बैठते हो गिनतियाँ कर-करके।
और लोग कितने प्रसन्न होते हैं, ‘ये फ़लानी जगह है, इतने हज़ार करोड़ की लागत से बनी है। चलो, चलो, चलो, देखने चलते हैं। वही तो हमारी धार्मिकता की पहचान है, हम वहाँ पहुँच जाएँ तो।’
और जो जानने वाले थे — कैसे ज्ञानी और कितने गहरे लोग रहे होंगे हमारे ऋषि — उन्होंने आपके तीर्थ भी ऐसी जगहों पर बनाये जहाँ पर बड़ा निर्माण सम्भव ही नहीं था उन दिनों। बाद में वहाँ आपने जाकर के मंदिर खड़े कर दिये हों, कुछ कर दिया हो, वो अलग बात है।
पर उन्होंने कहा, ‘जाओ कभी कैलाश, कभी केदार, वहाँ कैसे तुम कुछ करोगे? वहाँ न तुमको पैसा दिख सकता है, न भीड़ दिख सकती है। अब जिसमें श्रद्धा हो, पहुँच के दिखाये। पैसे के लिए जाना है, नहीं जा पाओगे, वहाँ पैसे का कोई प्रदर्शन है ही नहीं। भीड़ के लिए जाना है, वहाँ तुम्हें चार आदमी नहीं मिलेंगे। सुख के लिए जाना है, रास्तेभर कष्ट मिलेगा। उसके बाद जो जा सकता है वो जाए।’ ये थोड़े ही था तब कि हेलिकॉप्टर में बैठकर वहाँ पहुँच गये।
धर्म और सामाजिकता — धर्म माने वास्तविक धर्म। ये कई-कई बार मुझे सफ़ाई देनी पड़ती है, धर्म माने उस सब धर्म की नहीं बात कर रहा हूँ। असल में लोगों को इसमें कंफ्यूज़न (उलझन) हो जाता है, मैं धर्म बोलता हूँ तो उनको लगता है कि मैं उसी धर्म की बात कर रहा हूँ जो सड़कों पर आजकल चलता है। मैं जब धर्म बोलता हूँ तो मेरा आशय धर्म के विशुद्ध रूप से है, अध्यात्म। तो धर्म और साधारण सामाजिकता साथ चल ही नहीं सकते।
और अब जो मैं बोलने जा रहा हूँ, उसे ग़ौर से सुनिएगा। एक सच्चा धार्मिक आदमी निश्चित रूप से एक बड़ा सामाजिक आदमी नहीं हो सकता। या तो आप सच्चे अर्थों में धार्मिक हो सकते हैं या फिर आप समाज में प्रतिष्ठित, प्रचलित और लोकप्रिय हो सकते हैं। दोनों काम बहुधा एकसाथ हो नहीं पाएँगे क्योंकि समाज तो धर्म के ख़िलाफ़ ही होता है। और सबसे ज़्यादा धर्म के ख़िलाफ़ होते हैं धार्मिक लोग, जो अपनेआप को धार्मिक बोला करते हैं। उनसे ज़्यादा अधार्मिक वास्तव में कोई नहीं होता। उनसे ज़्यादा धर्म का नुक़सान कोई नहीं कर रहा होता।
तो आप ये नहीं कर सकते कि आप स्पिरिचुअल (आध्यात्मिक) भी हो और सोशल (सामाजिक) भी, स्पिरिचुअली एडवांस्ड (आध्यात्मिक रूप से उन्नत) भी और सोशली एडजस्टेड (समाज से समायोजित) भी, नहीं हो पाएगा ये।
यूँही थोड़े ही था — मैं अंदर की बात जानता हूँ बिलकुल, इसलिए बता रहा हूँ — कि ऋषि सब जंगल में जाकर बसते थे। वो आपके शहरों-गाँवों में रह ही नहीं सकते थे। और अगर वो रह जाते तो आप उन्हें मार डालते। क्योंकि वो जैसा जीवन जीते हैं, वो आपकी सामाजिकता और नैतिकता के बिलकुल ख़िलाफ़ है। तो शांतिभर के लिए नहीं, अपनी सुरक्षा के लिए भी, उन्हें जंगल जाना पड़ा था।
वही लोग जो उन्हें पूजते हैं, जब वो जंगल में होते हैं। ऋषि का आश्रम है जंगल में, तो पूजा जाता है और आप साल में एक बार वहाँ जाते हो और नमस्कार करके और चरण स्पर्श करके लौट आते हो। वही ऋषि अगर आपके शहर और मोहल्ले के बीचों-बीच बसा हो, तो आप उसको मार डालोगे क्योंकि उसकी चाल-ढाल, उसका आचरण, उसका जीना आपके जीवन से बिलकुल मेल नहीं खाएगा।
आप जिन तरीक़ों पर, क़ायदों पर, आदर्शों पर चलते हो, ऋषि के जीवन से उनका कोई लेना-देना नहीं। ऋषि का केंद्र बिलकुल अलग है। वो आपके ढर्रों के साथ कभी सुव्यवस्थित हो ही नहीं पाएगा। और जब नहीं हो पाएगा तो आप कहोगे, ‘ये ग़लत आदमी है, इसको ख़त्म कर दो। देखो, ये कैसे जी रहा है! और ये ऐसे यहाँ रहता है, ऐसे जीता है, हमारे बच्चों पर ग़लत असर पड़ता है। हमारी महिलाओं पर क्या संदेश जा रहा है! ये ऐसे रहता है यहाँ पर।’
तो उन्होंने कहा, इससे पहले कि तुम कुछ करो, हम निकल लेते हैं। तो वो चढ़ गये पहाड़ों पर, गुफाओं में चले गये, जंगलों के भीतर चले गये। बोले — जंगल में रहने का कष्ट झेलना बेहतर है, समाज में रहने के कष्ट को झेलने से। जंगल में यही होगा न कि जंगली जानवर खा जाएँगे, अरे! तो जंगली जानवर सिर्फ़ तभी खाएगा जब उसे सचमुच भूख लगी होगी पर समाज में रहूँगा तो ये लोग खा जाएँगे। दूर चलो।
हम जैसे हैं, हमें वैसे ही रहना है और हम धर्म को भी अपने ऊपर बस एक आवरण की तरह, एक लिबास की तरह डाल लेना चाहते हैं। हम ये नहीं कहते कि हम सामाजिक हैं, अपनी सामाजिकता को हटाकर हम धार्मिक हो जाएँगे। हम कहते हैं सामाजिकता तो रहेगी, उसके ऊपर हम धर्म का चोला पहन लेंगे। तो वही आपने कहा कि यहाँ भी जब आते हो, मिलते हो, तो कहने को ये एक आध्यात्मिक समागम है लेकिन यहाँ भी एक-दूसरे से मिलते हो तो बातें सब सामाजिक ही करते हो। वो छूटेंगी कैसे! वो झट से मुँह से निकल आती हैं क्योंकि केंद्र तो सामाजिक ही है न। यहाँ आकर भी केंद्र आध्यात्मिक नहीं हो गया, केंद्र सामाजिक ही है।
आ रही है बात समझ में कुछ?
ये समाज बड़ी गड़बड़ चीज़ होता है। ये बहुत बड़ा राक्षस है जिसकी अपनी कोई चेतना नहीं है लेकिन ताक़त बहुत है इसके पास। मैं तुमसे कहूँ, जाओ समाज को मेरे सामने लेकर आओ, किसी को ला पाओगे? समाज नाम की कोई इकाई होती है क्या? समाज कुछ नहीं है। एक तरीक़े से समाज सिर्फ़ एक नाम है, एक शब्द और सिद्धांत है। समाज एक कॉन्सेप्ट (अवधारणा) है। सोसाइटी (समाज) क्या है, एक कॉन्सेप्ट ही तो है न। लेकिन दम बहुत है उसमें। उसके पास अपनी कोई चेतना नहीं लेकिन आपकी चेतना को वो खा जाती है।
हर आदमी समाज से डरा हुआ है, कहता है, ‘अरे! समाज वाले क्या कहेंगे?’ मैं कह रहा हूँ, वो समाज है कौन? लेकर तो आओ। समाज दिखा तो दो, समाज माने कौन? 'हर कोई समाज है।' समाज माने कौन? अब समाज माने कोई नहीं। लेकिन हर आदमी समाज से बहुत डरता है। और हर आदमी समाज के ही कहे पर, समाज के ही पदचिह्नों पर चलता है जैसे एक अदृश्य राक्षस हो कोई।
कह रहे हैं डर लगता है। मैं पूछता हूँ — ऑफ इक्ज़ेक्ट्लि व्हाट? अफरेड ऑफ इक्ज़ेक्ट्लि हूम? (वास्तव में किस चीज़ से डरते हो, किससे डरते हो?)
'वो नहीं, बस लगता है। कुछ हो जाएगा, कुछ कह देगा।'
जो कह देगा, वो कौन है? उसके कहने से क्या जाता है? आमतौर पर जो कह देगा, वो आपका कोई लगता नहीं, उसके कहने से कुछ जाता नहीं। और जिनको आप कहते हो कि आपके कुछ लगते हैं, अगर वो आपको कुछ कह रहे हैं तो आमतौर पर वहाँ मामला भौतिक होता है, मटेरियल होता है, स्वार्थगत होता है, तो वहाँ भी आपको कोई फ़र्क पड़ना नहीं चाहिए।
उदाहरण के लिए, बेटा बाप की बहुत सुनता है जब तक बाप पर आश्रित होता है। होता है न? तो तब तक बहुत डरेगा, ‘अरे! पापा को पता चल गया तो? डरना पड़ता है न!’ वो तुम डर इसलिए रहे हो क्योंकि बाप से पैसा मिल रहा है और जब अपना कमाने-धमाने लग जाते हो — बीस साल बाद का दृश्य देखिए, लड़का ख़ुद कमा रहा है। बाप अब रिटायर हो चुका है, अपने घर में बैठे हुए हैं, उनकी अब ज़्यादा आमदनी नहीं है, तब भी बेटा बाप से डरता है क्या? तो मामला डर का नहीं, स्वार्थ का था। या ये कहिए कि डर स्वार्थ से आ रहा था।
तुम डर इसलिए नहीं रहे थे पिता से, चाचा से, ताऊ से, पड़ोसियों से कि समाज बहुत बड़ी चीज़ है। डर इसलिए रहे थे क्योंकि स्वार्थ बड़ी चीज़ है, पैसा उनसे आ रहा था। और जिस दिन उनसे स्वार्थ कट गया, उस दिन से डरना भी बंद कर दिया।
तो समाज दो चीज़ों पर चलता है, आपके दो स्वार्थों का इस्तेमाल करके आपको पकड़े रहता है — एक, आपको पैसा चाहिए; दूसरा, आपको प्रतिष्ठा चाहिए। जिनसे आपको पैसा मिल रहा है, जिन पर आप किसी भी भौतिक कारण से आश्रित हो, आप उनसे डरोगे। दूसरा, जिनसे आप प्रतिष्ठा ले रहे हो, उनसे भी आप डरोगे। भले ही वो आपको पैसा नहीं देते पर आपको कुछ बोलते हैं न।
मान लीजिए आपका नाम श्रीकांत है। तो आपको 'श्रीकांत जी' बोलते हैं न, वो ‘जी’ बोलकर उन्होंने पकड़ लिया आपको। अब आपको पता है आपने कुछ ऊपर-नीचे का करा तो वो 'जी' बोलना बंद कर देगा, तो ग़ुलाम हो गये आप उनके जिन्होंने आपको ‘श्रीकांत जी’ बोल दिया। तो इसीलिए बार-बार उपनिषद् आपसे कहते हैं — न स्तुति न निंदा, न मान न अपमान। दोनों में से किसी पर ध्यान नहीं देना है। और अगर मान को तुमने ग्रहण कर लिया तो तुम्हें अपमान को भी ग्रहण करना पड़ेगा।
कोई बहुत मान दे रहा हो, मान लेना नहीं। जब कोई बहुत इज़्ज़त दे रहा हो, उस जगह से कम-से-कम मानसिक रूप से गायब हो जाओ क्योंकि अगर उसकी दी हुई इज़्ज़त तुमने ले ली तो उसकी दी हुई बेइज़्ज़ती भी तुम्हें लेनी पड़ेगी, क्योंकि तुमने द्वार खोल दिये अपने।
अभी इन्होंने सवाल पूछने से पहले इतनी बड़ी बात कर दी, 'नमस्कार आचार्य जी! आप ये कर रहे हैं, आप वो कर रहे हैं', उतनी देर में मैं क्या कर रहा था? मैं कोशिश कर रहा था मैं सुनूँ ही नहीं। मैंने आँख बंद कर ली थी। मैंने सुना ही नहीं। तुम ही हो जो कल जाकर के कहीं इधर-उधर से मुझे गाली दोगे। न मुझे तुमसे स्तुति-श्लाघा लेनी है न मुझे तुमसे गालियाँ लेनी हैं। मैं मैं हूँ। मुझे पता है आइ एम व्हाट आइ एम (मैं वही हूँ जो मैं हूँ)।
उनसे बचकर रहो जो बहुत तुम्हें चढ़ाकर रखते हैं। वही हैं जो या तो गिराएँगे या फिर गिराने की धमकी देकर तुमपर हक़ दिखाएँगे।
और समाज यही दो चीज़ें — पैसा और प्रतिष्ठा — दिखाता है। न किसी से पैसा लो, न किसी से इज़्ज़त लो; बहुत आज़ाद जियोगे। एकदम सरल सूत्र है, न किसी से पैसा लेना है न किसी से प्रतिष्ठा लेनी है। पैसा होता है स्थूल शरीर के लिए, प्रतिष्ठा होती है सूक्ष्म शरीर के लिए। पैसा मिल जाता है तो इसको बहुत मज़ा आता है, शरीर को। बढ़िया कपड़ा मिलेगा, खाने पीने को मिलेगा, ये सब पैसे से मिलेगा। पैसे से मज़ा अन्दर वाले को भी आता है पर पैसे से ज़्यादा मज़ा बाहर वाले को आता है।
और प्रतिष्ठा से मज़ा इस शरीर को नहीं आता। प्रतिष्ठा से मज़ा आता है जो भीतर का सूक्ष्म शरीर है, मन, उसको। और यही दो हैं, नहीं फँसना! यही आध्यात्मिक आदमी की निशानी है — न वो पैसे में फँसता है न प्रतिष्ठा में फँसता है। इसीलिए कह रहा हूँ कि आध्यात्मिक आदमी वास्तव में कभी सामाजिक हो नहीं सकता। क्योंकि समाज में जो रिश्ते बनते हैं, वो तो इन्हीं दो चीज़ों के रहते हैं — पैसा और प्रतिष्ठा। या कि प्रेम के रहते हैं?
प्रेम के तो रिश्ते नहीं बनते न समाज में, प्रेम तो बल्कि वर्जित है समाज में। समाज जहाँ प्रेम को देख लेता है वहाँ समाज परेशान हो जाता है — ये क्या हो गया? कुछ अलग हो रहा है। और मैं स्त्री-पुरुष के ही प्रेम की बात नहीं कर रहा, आप यदि ऐसे व्यक्ति हैं जिसको अपने काम से भी गहरा प्रेम हो गया है तो समाज आप पर फब्तियाँ कसेगा। आप ऐसे हो जाइए, आप कहिए कि डूब गया हूँ मैं अपने काम में, लोग कहेंगे, ‘ये क्या है!’
समाज माने स्वार्थों का ताना-बाना। और स्वार्थों के ये दो नाम — पैसा और प्रतिष्ठा। इन दो का आदान-प्रदान बंद कर दें, आप मुक्त हो जाएँगे। और ये जगह भी, जहाँ आप अभी आये हुए हैं तीन दिन के लिए, इसलिए नहीं है कि यहाँ भी आप अपने सामाजिक स्तर का प्रदर्शन करें। वो तो आप करते ही रहते हैं। यहाँ पर आप आये हैं कि उससे ज़रा मुक्त हो पायें।
बहुत लोग विचलित दिख रहे हैं, 'आचार्य जी! सचमुच, आध्यात्मिक हो गये तो सामाजिक नहीं हो सकते?' सॉरी! 'नहीं, पर हमने देखा है, मतलब इतने अच्छे-अच्छे लोग सामाजिक भी होते हैं, उन्हें सब लोग मानते हैं। उनके सबसे अच्छे मधुर सम्बन्ध होते हैं, वो सबसे हँसकर मिलते हैं।' समझ लो बेटा! कुछ गड़बड़ होगी। वोट के लिए मिलना पड़ता है सबसे हँस-हँसकर, ज़रूर कुछ उगाहा जा रहा होगा तुमसे, ज़रूर कोई प्रछन्न स्वार्थ होगा।
लेकिन आध्यात्मिक आदमी सामाजिक हो न हो, प्राणदायी ज़रूर होता है। उसको आप कह सकते हो कि एसोशल (असामाजिक) है या एंटीसोशल (समाज विरोधी) है। पर वो लाइफ़ गिविंग (जीवनदायी) होता है। समाज उसे पसंद नहीं करता पर वो व्यक्तियों के बहुत काम आता है क्योंकि प्राण समाज में तो होते नहीं।
जब मैं कह रहा हूँ, ‘प्राणदायी होता है’, तो किसको प्राण देता है? वो व्यक्तियों को प्राण देता है। आध्यात्मिक आदमी समाज के काम का नहीं होता, समाज तो उसका विरोध ही करेगा; हो सकता है सूली पर चढ़ा दे। लेकिन व्यक्तियों के बहुत काम का होता है वो। वर्गों के काम का नहीं होता, व्यक्तियों के काम का होता है।
सत्य सामूहिकता और सामाजिकता की बात नहीं होती। जिन्हें सच्चा जीवन जीना है, वो अकेले होने का भय त्याग दें।
आप नहीं कह पाएँगे कि मुझे सत्य बहुत प्रिय है लेकिन मुझे होना लोकप्रिय है। जिसको सत्य प्रिय हो गया, उसे लोकप्रियता से बहुत मतलब नहीं रह जाता। लेकिन ये भी अजीब बात है! मानव इतिहास में जो लोग सबसे ज़्यादा जाने गये हैं, वो सब वही हैं जिन्हें सत्य सबसे ज़्यादा प्रिय था। और जिन्हें सत्य की अपेक्षा समाज प्रिय था, समाज ने भी उन्हें समय की धूल बना दिया, कोई नहीं उनको याद रखता।
समाज को ही ख़ुश करने में पूरा जीवन बिताकर करोड़ों-अरबों लोग मर गये न। यही करा न उन्होंने ज़िन्दगीभर कि वो बुरा न माने? न वर्माजी बुरा मानें, न शर्माजी बुरा मानें। 'मैं तो सबको ख़ुश करके रखता हूँ।’ ‘हम तो सामाजिक आदमी हैं।’ ‘सबसे बना कर चलनी पड़ती है भाई!' कहाँ हो तुम? कहाँ हो?
महात्मा बुद्ध ने एक बार कहा था — ये वहाँ हैं और ये उतने ही हैं जितना गंगा के तट पर रेत के कण हैं। गंगा किनारे रेत के जितने कण हैं न, ये सब वही हैं, जो कभी सामाजिक रूप से सफल होना चाहते थे और लोकप्रिय होना चाहते थे। कौन इन्हें याद रख रहा है? पाँव तले हैं ये सब आज। याद भी तुम किनको रख रहे हो? जिन्होंने समाज की नहीं परवाह करी, जिन्होंने सत्य की परवाह करी। उन्हें उस समय पर जो भी बर्ताव मिला हो समाज से, जब तक समय रहेगा, इतिहास रहेगा, वो याद रखे जाएँगे।
बुद्ध सामाजिक थे या समाज छोड़ कर हटे थे? बोलो! और जब समाज में वापस भी गये तो क्या समाज की शर्तों पर गये? समाज की किसी शर्त का पालन करते थे? और ऐसा नहीं है कि उस समय उनको तत्काल लोगों ने आदर और आसन ही दे दिया। उनके ख़िलाफ़ भी जो कुछ करा जा सकता था, सब कुछ करा, आज़माया, मारने की कोशिश भी करी उनको। उन्होंने परवाह नहीं करी। उन्होंने कहा — जो सही है वैसे जीना है। और सही जीने का नतीजा ये हुआ कि बाद में उन्हें समाज में भी स्वीकृति, प्रसिद्धि, सब मिल गयी। और जो लोग समाज की ही स्वीकृति, प्रसिद्धि के लिए मरे जाते हैं वो समय की धूल बन जाते हैं।
एक सवाल अच्छे से पूछ लीजिएगा अपनेआप से — जिन लोगों को ख़ुश रखने में अपनी ज़िन्दगी ख़राब किये दे रहे हो, वो लोग किसी काम के भी हैं आपके? जिनके डर के साये में ज़िन्दगी बिता रहे हो, वो उखाड़ क्या लेंगे आपका? ये पूछिएगा अपनेआप से। या जिनको पैसा वग़ैरा दिखाकर के बहुत प्रभावित, इम्प्रेस , करते हो, वो तुमसे प्रभावित हो भी गये, तो तुम्हें मिल क्या जाएगा? मिलता है कुछ? या जिनका पैसा-रुतबा देखकर के आप प्रभावित हो जाते हो, उनसे प्रभावित होकर आपको क्या मिल जाता है? ये सब किसी काम का है क्या? बस छाया रहता है लेकिन मन पर।
अध्यात्म सर्वप्रथम एक विद्रोह होता है, अतीत के और आंतरिक ढर्रों के विरुद्ध। जो अतीत में चला आया है, नहीं चलेगा अब! और जो भीतर-भीतर लगातार चलता रहता है, नहीं चलेगा अब! जो विद्रोही नहीं है वो आध्यात्मिक नहीं हो सकता।
कुछ जम रही है बात?
लेना एक न देना दो, दुनिया सिर पर चढ़ी आती है। और हम इसे सिर पर बिठाये भी रहते हैं। तुम हो कौन? यही सवाल होना चाहिए — हो कौन? क्यों सुनें तुम्हारी? कौन हो तुम?
हाँ सुनेंगे, ऐसा नहीं कि हमारे पास कान नहीं होंगे, हमारे पास कान उनके लिए होंगे जिनके पास प्रेम है। तुम्हारे पास प्रेम है तो मेरे पास कान हैं। और अगर तुम्हारे पास प्रेम है तो फिर मेरे पास ज़बान भी है। बात भी उन्हीं से करूँगा, जवाब भी उन्हीं को दूँगा, जिनके पास प्रेम है। सुनेंगे भी उनकी जो प्रेम करते हैं, बोलेंगे भी बस उन्हीं से जो प्रेम करते हैं। जो यूँही चले आये हैं, लेना एक न देना दो, यूँही घुसे चले आ रहे हो।
कोई डर दिखा रहा है, कोई धौंस बता रहा है, कोई पैसा चमका रहा है; जो भी लेकर आये हो अपने घर रखो। हमसे तुम्हारा ताल्लुक़ क्या? आज तक तुम्हारी मान भी ली तो तुमने हमें दे क्या दिया है। तुम्हारे क़ायदों पर चलकर तुमको ही कुछ नहीं मिला, हमें क्या मिल जाएगा?
हेल्दी कंटेम्प्ट , दुनिया के प्रति एक स्वस्थ अवमानना का भाव रखिए। कंटेम्प्ट , कैसी कंटेम्प्ट? हेल्दी कंटेम्प्ट बोल रहा हूँ, ये नहीं कि बस जो मिला उसे ही कह दिया, 'हैं!' जो कोई आक्रामक हो रहा हो, जिसके इरादे आपकी बाँह मरोड़ने के हों, जो कोई चाहता हो आपको अपनी उम्मीदों के अनुसार चलाना, उसको बस यही सवाल — तू है कौन? हू आर यू?
और जगत का काम है हर दिशा से आप पर चढ़े आना, वो यही चाहता है। पर ये भी नहीं कि हर बार वो एक इंसान के रूप में ही आप पर चढ़ेगा। आप गुड़गाँव जाइए, आप बंबई जाइए, वहाँ ये बड़ी इमारत है पचास मंज़िली! सत्तर मंज़िली! आप उसके नीचे खड़े हो, आपको दिख नहीं रहा वो इमारत आप पर चढ़ी आ रही है? भीतर ये सतर्कता रहे, जैसे ही दिखे कुछ चढ़ा आ रहा है, तुरन्त क्या बोलना है? है कौन? वही रास्ता है, वे , वे माने हू आर यू? तू है कौन?
आप कहीं पर गये हैं नौकरी का इंटरव्यू देने। बड़ा मल्टीनेशनल का ऑफिस है, उसके आप रिसेप्शन पर बैठे हैं। वो बड़ा इम्पोज़िंग (प्रभावशाली) होता है, वो आपके ऊपर एकदम चढ़ा आता है। बहुत पैसा लगाकर वो रिसेप्शन बनाया जाता है ताकि आप जल्दी से प्रभावित हो जाएँ, सरेंडर (आत्मसमर्पण) कर दें जल्दी से। जैसे ही देखिए कि रिसेप्शन इस हिसाब से बनाया गया है, वहाँ पर ऐसे बैठिए (अकड़ कर)।
हम उल्टा करते हैं। बदतमीज़-से-बदतमीज़ आदमी भी जब किसी बड़ी कंपनी के रिसेप्शन पर बैठा होता है, किसी फाइव स्टार होटल में जाता है, तो वहाँ वो बहुत तमीज़दार और अदब वाला हो जाता है। कुल-मिलाकर पालतू हो जाता है। जर्मन शेफर्ड फाइव स्टार में पहुँच के क्या बन गया? देसी पिल्ला। बाहर घूम रहे हैं और जैसे ही देखा कि ये पाँच-सौ-करोड़ की इमारत, वहाँ बिलकुल 'यस, यस, यस, सो व्हाट डू आइ हैव टू गिव? वेयर डू आइ सिट?' (मुझे क्या देना है? मैं कहाँ बैठूँ?) वहीं बाहर निकलकर के दुनियाभर से गाली-गलौज और बदतमीज़ी।
पालतू नहीं बनना है, समाज के बाहुबल के सामने झुक नहीं जाना है। जितनी विनम्रता सच्चाई के सामने होनी चाहिए उतनी ही ऐंठ माया के सामने होनी चाहिए।
सच के सामने सिर उठे नहीं और माया के सामने सिर झुके नहीं।
बदतमीज़ी सीखिए। ख़ासतौर पर जो संस्कारी लोग हैं उन्हें बदतमीज़ी आनी चाहिए, जिन्हें ऊँचा बोलना नहीं आता क्योंकि बहुत संस्कारवान बनाया गया है, ख़ासतौर पर — वो मुस्करा रही हैं — लड़कियों को; मैं उनसे कह रहा हूँ ऊँचा बोलना सीखो, कुछ गालियाँ देना भी सीखो।
कहेंगी, 'आचार्य जी, आप तो गालियों के ख़िलाफ़ थे।' वो निर्भर करता है न, वेदान्त क्या बोलता है — फॉर हूम? (किसके लिए?) जो बहुत ज़्यादा बोलते हैं, उनसे बोलता हूँ, ‘चुप’; गाली दिये जा रहा है, चुप कर। और जो संस्कारों की बेड़ियों के चलते मुँह ही नहीं खोल पाते, आवाज़ नहीं ऊँची कर पाते, उनसे मैं कहूँगा, आवाज़ भी ऊँची करो और गाली देना भी सीखो।
आ रही है बात समझ में?
प्रेम में मौन हो जाना एक बात होती है और डर की चुप्पी बिलकुल दूसरी बात।
मुझे बड़ा मज़ा आता है देखने में लोग कितने तमीज़दार हो जाते हैं एयरपोर्ट पर, फ्लाइट के अंदर, बड़ी कंपनियों में, बड़े अफसरों के सामने, नेताओं के सामने, बड़े रेस्ट्राँ में, कितने तमीज़दार हो जाते हैं! जहाँ बदतमीज़ी करनी चाहिए वहाँ तुम तमीज़दार हो जाते हो। और जहाँ विनम्रता आनी चाहिए, जहाँ मृदुभाषण आना चाहिए, वहाँ तुम तेवर दिखाते हो।
कोई सब्जी वाली बैठी होगी बूढ़ी, उससे लगे हुए हैं बहस करने में कि पाँच रुपया बच जाए, और उसको उल्टा-पुल्टा भी बोल रहे हैं। ऑटो पर बैठ करके रेस्ट्राँ पहुँचे हैं, ऑटो वाले से बदतमीज़ी कर रहे हैं। हाँ! रेस्ट्राँ में घुसते ही वहाँ पर गेट पर ही खड़े हुए हैं दो भारी-भरकम गार्ड, बाउंसर , वहाँ बिलकुल एकदम सीधे हो गये।
कमज़ोर के साथ नरम रहो और अत्याचारी के साथ एकदम गरम। समाज उल्टे सिद्धांत पर चलता है। समाज और अध्यात्म की इसीलिए बनती नहीं आपस में। समाज कहता है ऊँचे लोगों से रिश्ता बना कर रखो न, नेटवर्किंग। अध्यात्म कहता है, ‘ऊँचा तो सिर्फ़ एक है, हमारी नेटवर्किंग तो उसी के साथ होगी। और बाक़ी जितने दुनिया में अपनेआप को ऊँचा कहते हैं, मेरी जूती पर।'
बोलना सीखो।
एक है जो पूज्य है, एक है जिसको दिल दे दिया है। सिर्फ़ एक है जिसको सम्मान। बाक़ी सब? बोला ही नहीं जा रहा, संस्कारी लोग हैं! (श्रोताओं पर व्यंग्य करते हुए)
कहें, ‘पर आचार्य जी हम तो श्लोक सुनने आये थे, ये आप किस क़िस्म की बातें कर रहे हैं — जूती पर वग़ैरा; संस्कृत कब शुरू होगी?’ (श्रोता हँसते हैं)