प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, प्रणाम। जो छोटा है उसकी जो निरंतर चेष्टा, चाहत होती है कि वो बड़ा हो, ख़ुद को बड़ा दिखाता है, जताता है, चाहता भी रहता है, फ़ेक (नाटक) करता है — ट्राइस टू फ़ेक इट अंटिल ही मेक्स इट (जब तक वह कुछ बन नहीं जाता तब तक उसका दिखावा करता है) — तो ये जो फेकिंग चल रही है, इसके पीछे क्या मनोविज्ञान है?
आचार्य प्रशांत: इसके पीछे मनोविज्ञान नहीं मूर्खता है। छोटे से बड़ा नहीं हुआ जा सकता। छोटे से बड़ा नहीं हुआ जा सकता, छुटपन का त्याग हो सकता है। और ये दो बहुत भिन्न दिशाएँ हैं। हमारा छोटू चाहता है बड़े-बड़े जूतों में पाँव डाल देना; हमारा छोटू चाहता है डबल-एक्सल की क़मीज़ पहन लेना, क्या होगा?
छुटपन का त्याग एक आंतरिक घटना होती है। छोटे से बड़े होने की चाहत बिलकुल वैसे ही होती है जैसे बर्फ़ का गोला पहाड़ से ढुलकता है, स्नो बॉलिंग जिसको बोलते हो। बर्फ़ की गेंद चलती है थोड़ी ऊँचाई से और ढलान पर और बर्फ़ से गुज़रती है, तो उसका आकार बढ़ता जाता है। मूल रूप से कुछ बदला? यदि एक कण छोटा था हिम का, तो हिम की बड़ी गेंद भी क्या है? बहुत बड़ी मान लें उसको? दिखने में बड़ी है। उसके मूल में तो वही बर्फ़ का छोटा सा अणु बैठा हुआ है न?
हम जिसको भी कहते हैं तरक्क़ी, प्रगति, उन्नति, आगे बढ़ना, विशाल हो जाना, वो सब ऐसा ही होता है।
तुम मूल रूप से बदल जाते हो क्या बड़े आदमी बनकर के? जब तुम कह रहे आदमी कोई बड़ा होना चाहता है, तो जो बड़ा आदमी हो गया वो मूल रूप से बदल गया क्या? दोनों ओर से, दोनों तरीक़े से देख लो बड़े होने को; शारीरिक रूप से बड़े होने को, उम्र बढ़ गयी, पाँच साल से पचास साल के हो गये; आर्थिक रूप से बड़े हो गये, बैंक-बैलेंस बड़ा हो गया; सामाजिक रूप से बड़े हो गये, प्रसिद्धि आ गयी; यही सब होता है बड़ा होना, एक-आध और उसमें कुछ जोड़ सकते हो। मूल रूप से कुछ बदला? पाँच साल का जो बच्चा था, पचास साल का जो वयस्क है, उनकी मूल-वृत्तियाँ क्या बहुत भिन्न है?
बच्चे को खिलौना लाने मैं अभी ले गया था। एक-एक खिलौना बड़ों के ही उपकरणों का लघु रूप है। एम्बुलेंस है, एक फायर-व्हीकल है, एक ट्रेन है, एक रॉकेट है, एक गन है, यही सब मिल रहा था खिलौनों की दुकान पर। भतीजा है मेरा, हैमलीज़ (कंपनी का नाम) की दुकान थी। उसको लेकर गया, यही सब मिल रहा था। मैंने कहा – इसमें से कुछ भी ऐसा नहीं जो छोटा हो वास्तव में। इसमें से एक-एक चीज़ वो है जो पचास साल वालों की है। बस आकार में उसको छोटा करके दो साल के बच्चे को थमा दिया।
पाँच साल वाले और पचास साल वाले में बड़ा क्या हुआ, मुझे बताओ? हम नहीं समझ पाते न। आयामगत भिन्नता जैसी कोई चीज़ हमारे खोपड़े में आती ही नहीं है। फिर वही आर्थिक प्रगति की बात है। कुछ और शून्य जोड़ दिए गये आपके खाते में। उससे वास्तव में कुछ बदल जाता है क्या? और मैं कोई शायरी वगैरह नहीं कर रहा हूँ। मैं पैसे का महत्व भली-भाँति जानता हूँ। पर मैं आपसे पूछ रहा हूँ, आप जब बीस-बाईस साल के थे, तो एक संख्या होती थी जो आपको किंचित संतुष्ट कर जाती थी। और आप जब बत्तीस के हुए, तो वो संख्या आपको बहुत छोटी पड़ने लग गयी। असंतुष्ट आप तब भी होते बाईस में अगर वो संख्या नहीं मिलती। बत्तीस में एक दूसरी संख्या है जो आपको असंतुष्ट कर रही है, बावन में एक तीसरी संख्या होगी। खेल तो वही संतुष्टी-असंतुष्टी का ही है न! बदल क्या गया? संख्या बढ़ती रही, आप तो वैसे-के-वैसे ही रहे।
ये लगभग वैसी सी बात है कि कोई रुपयों को पैसे में अभिव्यक्त करे और बोले, ‘मैं बड़ा हो गया’। अभी आपके पास कितना था? दस। अब? हज़ार-पति हो गये, हज़ार-पति हो गये!
एक था वो बोला करता था, बोलता था – “मुझे जापान जाना बहुत पसंद है और अमेरिका जाना एकदम अच्छा नहीं लगता।”
मैंने कहा– “क्यों?”
तो बोला – “जापान जाते ही तुरंत में करोड़पति हो जाता हूँ और अमेरिका जाते ही बड़ा कटा-कटा, घुटा-घुटा सा लगता है, कम हो गया।”
समझ में आ रही है बात कुछ?
आप बड़े नहीं हो सकते। छोटे को ही बड़ा होना होता है, बड़े होने की इच्छा के मूल में ही छुटपन का सत्यापन है। मुझे बड़ा होना है क्योंकि मैं ‘छोटा’ हूँ। अरे बाबा, यहीं से शुरू कर रहे हो तो बड़े कैसे हो जाओगे? तुमने पहली चीज़ क्या मान ली? मैं छोटा हूँ। अब ये मान लिया मैं छोटा हूँ इसके बाद तुम कह रहे हो, “मैं छोटा हूँ इसलिए मुझे बड़ा होना है। मैं छोटा हूँ इसलिए मुझे बड़ा होना है, छोटा हूँ बड़ा होना है।” तुम कितने ही बड़े हो जाओ पहली चीज़ क्या मान रखी है? मैं तो छोटा हूँ। यही फँस जाता है सारा मामला।
अध्यात्म बड़े होने का नाम नहीं, अध्यात्म कहता है पहले तो तुम पूछो कि जो तुम अपनेआप को माने बैठे हो वो कितना ठीक है। हम तो साहब सवाल करेंगे। आप जो अपनेआप को माने बैठे हो, वो कितना ठीक है? और आप जो भी अपनेआप को माने बैठे हैं, वो सब आपके छुटपन के ही नाम हैं। आप अपनेआप को कुछ भी माने बैठे हो, अपनी नज़र में आप थोड़े बड़े भी हो पर आप जितने बड़े भी हैं, अपनी दृष्टि में वो चीज़ भी बहुत छोटी है। तो जो भी व्यक्ति अपनेआप को जो कुछ भी मानता है, बहुत छोटा ही मानता है। इसीलिए तो बार-बार ऋषि तुमसे पूछते हैं, ‘क्या तुम वास्तव में वही हो जो तुम्हें लगता है तुम हो?’ और क्या सवाल है बार-बार?
तुम अपनेआप को बहुत छोटी चीज़ मानते हो। जो ये भी कहते हैं, “हम बहुत बड़े हैं,” वो वास्तव में मान यही रहे हैं कि वो बहुत छोटे हैं। क्योंकि तुम जितने बड़प्पन की कल्पना कर सकते हो अपने लिए, ख़तरनाक बात आ रही है अब, तुम उससे भी ज़्यादा बड़े हो। लेकिन जैसे ही मैं यह बात बोलूँगा यह आपको ख़तरा है कि ग़लत दिशा में धकेल देगी। आप फिर बड़े होने की दिशा में सोचने लगेंगे। बड़े होने की बात नहीं है, छोटे न रहने की बात है। अब मैं कैसे समझाऊँ कि दोनों में कितना अंतर है।
कुछ समझ में आ रहा है?
बड़े होने की बात नहीं है, छोटे न रहने की बात है। और बड़े होने की कोशिश कर-करके तुम अपने छुटपन से आज़ाद नहीं हो पाओगे। ये व्यर्थ कोशिश है। कारण समझ गये हो न? बड़ा वही होना चाहता है जो अपनेआप को पक्का-पक्का छोटा मानता है। जो इतना छोटा है, वो कितना भी बड़ा हो जाए, छोटा तो वो रह ही गया। ये है बात।
इसीलिए देखो न शब्द कैसे इस्तेमाल होते हैं। शब्द इस्तेमाल होते हैं, ‘अहिंसा’, ‘अद्वैत’। अच्छा हो कि हम विशाल भी न बोलें, हम बोलें, ‘अलघु’; ‘अ’ ‘लघु’, छोटा नहीं। यही तो नेति-नेति की ख़ूबसूरती है — सदा नकार में बात करो। ‘अचौर्य’, ‘अस्तेय’, ‘अपरिग्रह’, ‘निरालम्ब’, नकारा ही जा रहा है लगातार। अवलम्बन नहीं।
निर्मलता, निर्दोषता, निष्कपटता, ये जितनी मैंने बातें बोली इन सब में क्या साझा है? नकार। इसी तरीक़े से अलघुता। बड़ा नहीं, बस छोटा नहीं। जो बड़ा है वो तो बहुत छोटा है, मैं बस छोटा नहीं। बड़े होने से मुझे कोई मोह नहीं। ऐसी कोई आस नहीं कि बड़े हो जाएँगे, बस छोटे नहीं हैं। क्या तुम बडे हो? वो तो पता नहीं, बस छोटे नहीं हैं।
लेकिन बस यूँ बोल नहीं देना है कि छोटे नहीं हैं। अगर छोटे हो तो पहले मानना पड़ेगा, ‘हाँ, छोटे हैं। पर छोटा रहना नहीं है।‘ खाली ज़बानी कारीगरी से काम नहीं चलता कि मुँह से बोल दिया हम छोटे नहीं हैं! ऐसे थोड़े ही होता है। इसीलिए कठिन पड़ता है न? अपने खिलाफ़ जाना, यही मूल में है अध्यात्म के – कठिन पड़ता है लोगों को।
प्र१: आचार्य जी, इसी दायरे में थोड़ा निजी संघर्ष है मेरा, इसलिए और स्पष्टता चाह रहा हूँ। जो छोटूमल है उसे ही याद रखना है कि वो छोटा नहीं है।
आचार्य: उसे याद रखना है छोटूमल होकर के कितनी उसने चोट खायी है। रोज़ पिटता है, इतना घुटता है, काहे को छोटूमल रहना है? लेकिन फिर भी ये याद रखना ज़रूरी है कि ‘हूँ तो मैं छोटूमल ही, पर छोटूमल रहना नहीं है’। हूँ तो मैं छोटूमल ही, और इसीलिए तो स्वयं के विरुद्ध संघर्ष है, क्योंकि मैं…। नहीं तो स्वयं से लड़ने की ज़रूरत क्या थी? मैं छोटूमल हूँ, इसीलिए मैं खुद को पसंद नहीं करता।
और साथ-ही-साथ चूँकि मैं उस छोटूमल के खिलाफ़ लड़ने का हौसला दिखा सकता हूँ, इसलिए मैं अपनेआप को बहुत पसंद करता हूँ। लेकिन पसंद मैं अपनेआप को कुछ शर्तों के साथ करता हूँ। क्या शर्त? अगर मैं छोटूमल के ख़िलाफ़ लड़ सकूँ तो मैं अपना मुरीद हूँ, प्रशंसक। अगर मैं छोटूमल के ख़िलाफ़ लड़ सकूँ, तो मैं अपना प्रशंसक हूँ। और अगर मैं छोटूमल के ख़िलाफ़ नहीं लड़ सकता तो मैं अपना निन्दक हूँ। ऐसा होना चाहिए कि, “मैं कौन हूँ?” छोटूमल। तो अगर मैंने अपनेआप को ऐसे (गाल पर) मार लिया तो दूसरे हाथ से में अपनी पीठ थप-थपाऊँगा। क्यों? क्योंकि मैं छोटूमल के ख़िलाफ़ लड़ पाया। तो मैं अपनेआप को शाबाशी दूँगा, “वाह! बेटा वाह!” और अगर मैं छोटूमल को पुचकार रहा हूँ तो दूसरे हाथ से मैं (अपने गाल पर मारकर)। ये समझ में आ गयी बात?
तो अपनी प्रशंसा करने का हक़ तुम्हें तभी है जब तुम अपनी निन्दा कर सको। नहीं समझ में आ रही बात? जो हाड़-तोड़ श्रम करके अपनेआप को गला सके, सिर्फ़ उसी को अधिकार है कि वो अपनेआप को थोड़ा गौरव के साथ देख सके। अपना निन्दक होना आवश्यक है। अपना प्रशंसक होना शर्तों के साथ आता है। निन्दक होने में कोई शर्त नहीं, वो चीज़ तो बेशर्त है क्योंकि निन्दा के लायक तो हम हैं ही हैं। तो निन्दा तो हम कभी भी कर सकते हैं अपनी।
“हाँ बोलो, अभी करनी है, अभी कर देंगे। हम चीज़ ही ऐसी हैं, जब बोलो तब तैयार हैं अपने दुर्गुण देखने के लिए। सारे गुण ही हमारे दुर्गुण हैं।” तो निन्दक तो हम अपने निरंतर हैं। हाँ, जब कभी हम इस निंदनीय चीज़ की निन्दा ईमानदारी से कर पाएँ; इसको टक्कर दे पाएँ; इसको थोड़ा हिला-गिरा, मिटा पाएँ — तब उस दिन हम अपनेआप को ये (पीठ थपथपा) भी कर देते हैं, “अच्छा किया!”
यहाँ पर बात लगातार अपनी भर्त्सना करने की नहीं हो रही है। यहाँ पर बात हो रही है कि अगर अपनी प्रशंसा करना चाहते हो तो किन शर्तों पर करनी है। मैं चाहता हूँ हम सब इस लायक बनें कि अपनी प्रशंसा कर सकें। पर वो चीज़ हल्की नहीं है, आसान नहीं है। कुछ नहीं रखा है व्यर्थ की विनम्रता में, कि तुम सदा यही बोलते रहो कि ‘मैं तो निकृष्ट हूँ, अधम हूँ, पापी हूँ’। नहीं, कोई आवश्यकता नहीं है। एक पल आ सकता है जब आप हुँकार करके बोलो, “अन अल हक़”; “हूँ मैं असली”; “सच्चा हूँ मैं”; “अहम ब्रह्मास्मि”। उसके लायक बनो और लायक बना जा सकता है।
लायक नहीं बना जा सकता तो ऋषि इतनी मेहनत नहीं कर रहे होते। और वो बात भी देखो एक पल की होगी। आज मैंने कुछ ऐसा करा है कि आज अपनी तारीफ़ कर लूँगा। कल मैं क्या करूँगा, मैं नहीं जानता क्योंकि माया तो ज़िंदा है। कौन ज़िंदा है? जो साँस ले रहा है वो ज़िंदा है न! उसी का नाम क्या है? माया। वो तो ज़िंदा है।
कल का भरोसा नहीं पर आज मैंने ये बच्चू छोटूमल को अच्छी टक्कर दी है। बहुत कह रहा था, “नींद आती है, नींद आती है,” ऐसी टक्कर दी मैंने इसको, चार घंटे अतिरिक्त जगा कर रखा। बार-बार बोल रहा था, “भूख लग रही है, भूख लग रही है” बढ़िया टक्कर दी इसको मैंने; छः घंटे और कुछ खाने नहीं दिया। एकदम फिसला जा रहा था, “बेईमानी करनी है आज”; पकड़ लिया मैंने पीछे से, धर- दबोचा बच्चू को; मैंने कहा, “कहीं नहीं बेईमानी करनी।” बहुत छटपटाया, लड़ने-भिड़ने को तैयार था। मैंने कहा, “छोड़ूँगा नहीं, नहीं करने दूँगा बेईमानी।”
जिस दिन ऐसा करो, उस दिन कहना, “आज ठीक है, शाबाश!” और जिस दिन बच्चूमल जीत गया, उस दिन कहना, “आज तो गड़बड़ हो गया, आज तो हमने अपना नाम ही सार्थक कर दिया, आज तो हम सही में बच्चूमल ही निकले। दुनिया यूँही हमें ग़लत नाम से नहीं बुलाती। लोग हमें बोलते हैं बच्चूमल। सही ही बोलते हैं। आज तो हमने साबित ही कर दिया कि हम बच्चूमल ही हैं।”
लिख लो बड़ा-बड़ा — ‘बच्चूमल को टक्कर देनी है’, ‘बच्चूमल तेरी तो!’। उठते-बैठते, सोते-जगते, खाते-पीते लगातार बच्चूमल ध्यान में रहे। और अपनेआप को जोश दिलाते रहा करो, ‘आ बच्चूमल आज, बताता हूँ आज तुझे’।
प्र१: आचार्य जी, गुरु को हमारी निन्दा इसलिए करनी पड़ती है क्योंकि हमारी जो एग्जिस्टेंशियल ड्यूटी (अस्तित्वगत दायित्व) है, कि हम बच्चूमल की निन्दा खुद करें। वो हम नहीं करते हैं इसीलिए उनको करनी पड़ती है।
आचार्य: वो निन्दा नहीं है, वो यथार्थ है। तुमको निन्दा लगती है क्योंकि तुम अपनेआप को पता नहीं क्या मानते हो। गुरु तो बच्चूमल को बच्चूमल बोल देता है। पर बच्चूमल का नाम कुछ अनाड़ियों ने क्या रख दिया है? महाविशाल, आकाशानंद। तुम को जब बोल दो, “बच्चूमल,” हमने तो सिर्फ हक़ीक़त बयान करी थी, बच्चूमल को चोट लग गयी।
प्र२: नमस्कार, आचार्य जी। सवाल थोड़ा धुंधला सा है। मैं इसको अपने जीवन से जोड़कर देख रहा हूँ कि तब ये, इसको करने की बात आयेगी कि आप बच्चूमल से लड़ रहे हो, या फिर जैसे इस श्लोक की सीख थी कि अपनेआप को बहुत ज़्यादा गंभीरता से मत लेना।
अब काम करते समय एक लगातार आप पर प्रेशर (दबाव) तो बना ही रहता है, तो उसको झेल सकें उसके लिए जो आपके सामने जो स्थिति है, उसको तो सीरियस्लि (गंभीरता से) लेना पड़ता है। तो जो लेने वाला है, तब उसको, स्थिति को सीरियस्लि ले रहा है, उसको गंभीरता से अपने सामने रख रहा है, तो वो क्या ग़लती कर रहा है उसको गंभीरता से लेकर? क्योंकि गंभीरता से ख़ुद को नहीं लेगा तो स्थिति को क्यों लेगा?
आचार्य: गंभीरता से उस स्थिति के प्रति जो स्वयं में विरोध है, उसको लेना है। बच्चूमल हल्की चीज़ नहीं है न! उसको हराना है तो उसे गंभीरता से तो लेना ही पड़ेगा। कोई भी स्थिति थोड़े ही गड़बड़ होती है भाई। कोई भी स्थिति बड़ी, भयानक, विशाल या गंभीर नहीं होती। गंभीर होती है उस स्थिति के आगे बच्चूमल की विवशता, स्थिति थोड़े ही गड़बड़ होती है।
एक पाँच किलो का वज़न उठाना है, तुम्हारे लिए गंभीर स्थिति है? नहीं है। तीन साल का बच्चा है उसके लिए? तो वज़न गंभीर था या बच्चूमल का छुटपन गंभीर है? गंभीरता से किसको लेना है, वज़न को या बच्चूमल का जो गहन विश्वास है अपनी अक्षमता में, उसको? क्योंकि बच्चूमल ही हैं वो तीन साल वाले। उनको कोई काम आ जाए सामने, तो कहेंगे, “अरे! बड़ी गंभीर, भयानक स्थिति आ गयी, हमसे तो होगा ही नहीं।” वो स्थिति को भयानक बोल देते हैं। जबकि बात ये है की स्थिति होती सब पाँच ही किलो की है। लेकिन तुम अपनेआप को माने बैठे हो छोटू सा। छोटूमल हूँ न! मैं तीन साल का छोटूमल हूँ तो पाँच किलो वज़न देखकर भी मैं कह देता हूँ, “अरे! बाप रे बाप! क्या आफ़त आ गयी।” तो गंभीरता से तो लेना है, किसको लेना है? पाँच किलो के वजन को या…?
लगातार गंभीरता से लेना है बच्चूमल को। बच्चूमल जहाँ आफ़त नहीं है वहाँ आफ़त खड़ी कर देते हैं। और जो सबसे बड़ी आफ़त है, वो उनको दिखाई नहीं देती। कौन है सबसे बड़ी आफ़त?
प्र२: बच्चूमल।
आचार्य: बच्चूमल स्वयं। वो उनको समझ में नहीं आती बात। वो लगातार बाहरी हालात का रोना रोते रहते हैं — “पाँच किलो का वज़न आ गया, हम क्या कर सकते थे, आप बताइए? नहीं, आप बताइए न! इतनी ज़बरदस्त भयानक स्थिति थी बाहर, कोई क्या कर सकता है, आप बताइए।” किसको गंभीरता से लें, पाँच किलो के वज़न को या बच्चूमल की जो ये कृत्रिम लघुता है, इसको?
तो गंभीर तो रहना ही है। अपने पक्ष में नहीं, अपने विपक्ष में। अपने पक्ष में गंभीर नहीं रहना है। अभी तुम्हें जो भी लोग दिखेंगे, बड़े गंभीर-गंभीर सब दुनिया में रहते हैं। वो अपने पक्ष में गंभीर रहते हैं। तुम्हे भी गंभीर रहना है, अपने विरोध में।
प्र२: बस, इसके ऊपर ही एक छोटा सा और सवाल था कि जिस यंत्र को हम इस्तेमाल कर रहे हैं, जिससे हम अपने ही छुटपन से लड़ने की कोशिश कर रहे हैं — हमारा अपना मन, उसी का इस्तेमाल हमारा अपना मन भी कर रहा है अपने छुटपन को बचाने के लिए। तो जहाँ तक विवेक की बात है कि आप इस विवेक के साथ आगे बढ़ सकें कि आप समझ पाएँ कि अभी फ़िलहाल जो आवाज़ आप सुन रहे हो, जो आपके मन में चल रहा है, वो बच्चूमल से निकल रहा है या फिर ये विवेक की जो शक्ति है कि आप देख पाओ कि ये छुटपन से निकल रहा है, कि इससे बचा जा सकता है।
और एक बात है ‘तथ्य’ कि बच्चे के लिए पाँच किलो है। पाँच किलो का वज़न असल में आपकी जो ताकत है, आप संभाल सकते हो। लेकिन अगर तथ्यवत सामने सौ किलो रखा हुआ है, तो तथ्यों को नकारना भी तो एक तरीक़े से नासमझी हो जाएगी। तो ऐसा कैसे कर सकते हैं कि तथ्य भी देखते रहें और फिर बच्चूमल से भी बचे रहें?
आचार्य: बच्चूमल का काम होता है लगातार ये कहना कि मैं बच्चू हूँ ताकि उसे वज़न उठाना न पड़े। वज़न यदि इस लायक है कि उठाना ही है, तो आप तरीक़ा खोजोगे वज़न उठाने का, न कि अपनी अक्षमता की सुरक्षा करने का। बहुत दो अलग-अलग बातें हैं।
एक बात यह है कि सामने किसी ने सौ किलो लाकर रख दिया। अपने साथ मेरा अनुभव यह रहा है कि मैंने आज तक पचास से ऊपर उठाया नहीं है, ठीक है? अब एक बात ये होती है कि मैं तो छोटा हूँ, मैं बच्चू हूँ, मैंने पचास से ऊपर कभी उठाया नहीं है, सौ आ गया है। पता नहीं कौनसे ऐसे ज़ालिम लोग हैं, घोर अन्याय कर दिया। सामने सौ किलो वज़न रख दिया। इस पूरी बात में ‘मैं’ कहीं नहीं आता। इस पूरी बात में उन लोगों की दुष्टता आती है जो सौ किलो वज़न रख गये हैं।
“मैं तो बच्चूमल ही हूँ और पचास का मेरा अनुभव है, पचास उठाता हूँ मैं। यही तो मेरी....। और मैं तथ्य की बात कर रहा हूँ, सौ किलो है।” तुम तथ्य की बात थोड़े ही कर रहे हो! तुम पूरे तरह से आत्म-केंद्रित बात कर रहे हो। तुम कह रहे हो ‘सौ किलो मेरे लिए बहुत ज़्यादा है।’ इसमें तथ्य कहाँ हैं? तथ्य का तो बहाना है। सौ किलो मेरे लिए बहुत ज़्यादा है। मेरे लिए क्यों बहुत ज़्यादा है? क्योंकि मैं तो वही हूँ न जो आज तक पचास ही उठाता था।
क्या तुम वास्तव में वही हो? वेदान्त यही तो पूछता है। और तुम्हें क्या सुख मिल रहा है वही रह करके जो पचास ही उठाता था? क्या सुख मिल रहा है?
‘पर आचार्य जी बहुत मुश्किल है, अचानक पचास से सौ में चले जाना।’
तरीक़ा खोजना, खोजने की शुरुआत करना, यह भी बहुत मुश्किल है? कम-से-कम रवैया ही यह रखना कि अपनी अक्षमता को चुनौती देनी है, यह भी बहुत मुश्किल है?
प्र२: आचार्य जी, इससे एक सवाल और जो रोज़मर्रा के जीवन से है, कि अब दिख रहा है कि अपनी क्षमता पर कोई भी लगाम लगाना, कुछ भी उस पर व्यंग्य रखना, वो अपनेआप में उसकी एक सीमा बाँधना है। जो कि छुटपन का खेल है। अगर हमारा जो पूरा तंत्र है सोचने का, उसका निन्यानवे प्रतिशत ही सही, ऐसा है कि वो आपके छुटपन से ही निकल रहा है। तो फिर मतलब अभी सत्र चल रहा है, आपको सुन रहे हैं, बढ़िया है। अभी सत्र ख़त्म हो तो पहली चीज़ तो ये होगी कि वो सवाल उठता है कि इसके बाद अब क्या किया जाए? तो उसका जवाब भी तो सोच-विचार से ही निकल रहा है।
आचार्य: नहीं, नहीं, यह प्रश्न नहीं उठता कि क्या किया जाए। आपके सामने करने के लिए जीवन अगला क्षण लाकर रख देता है। क्या किया जाए क्या?
कोई क्षण होता है जीवन का जब आपके पास करने के लिए कुछ नहीं होता? यहाँ से उठोगे, क्या यह ईमानदारी की बात है कि तुम पूछोगे अब क्या किया जाए? तुम्हें भली-भाँति ही पता है कि यहाँ के बाद तुम्हारे पास करने के लिए क्या है। अब प्रश्न यह है कि वो जो करना है उसके सामने तुम्हें छोटूमल रहना है या छोटूमल को टक्कर देनी है।
यहाँ से उठने के तुरन्त बाद तुम्हें एक रिपोर्ट बनानी है और उस रिपोर्ट का ख़याल आते ही छोटूमल बोल रहा है ‘हम तो सोयेंगे, और बेईमानी करेंगे, हम नहीं बनाएँगे।’ अब वो तुम देख लो क्या करना है।
जीवन कोई पल खाली नहीं छोड़ता। करने के लिए तो हमेशा कुछ-न-कुछ होता ही होता है। जीव पैदा हुए हो, कर्म से कैसे बचोगे? उस कर्म के सामने तुम कौन हो? किसी भी पल की चुनौती के सामने तुम कौन हो? छोटूमल या छोटूमल को टक्कर देने का इरादा है?
प्र३: नमस्कार आचार्य जी। आचार्य जी, ये जो बच्चूमल है, वो यानी एक तो डिस्टिंग्विश (अंतर) करना कभी-कभी कठिन हो जाता है। बहुत बार मुश्किल हो जाता है, कभी-कभी नहीं कि बच्चूमल जैसे कि बेल (घंटी) बजी। अब बेल बजने में ही बच्चूमल में एक स्ट्रिंग (श्रृंखला) एक थॉट प्रोसेस (विचार प्रक्रिया) पैदा हो जाता है। कौन होगा? एक छोटी सी चीज़ है, पहले तो उस चीज़ का पता ही नहीं था, पर अभी कभी-कभी पता लगता है तो एक तो बच्चूमल और फिर बच्चूमल को फिर यह होता है कि जो विचार उत्पन्न हुआ, वो तो, पहले तो, यह भी एक क्वेश्चन (प्रश्न) यह भी है उसमें क्लेरिफिकेशन (स्पष्टीकरण), जो हम प्राण, इंद्रिय और अंतःकरण इसमें बोल रहे है श्लोक में, वो इन तीनों का कलेक्टिव एसेंस (सामूहिक सार) बच्चूमल है। इन तीनों को मिलाकर ही बच्चूमल की पर्सनालिटी बन रही है।
आचार्य: उसकी ओर इशारा करने के लिए तीनों का सहारा लिया गया है।
प्र३: जी। तो ये जैसे कि अभी मेरे ख़याल से कोई आप के यहाँ से बोल भी रहा था कि बच्चूमल की आवाज़ और जो अपनी आवाज़ है जो, उसको बहुत बार डिस्टिंग्विश नहीं कर पाते हैं, इनबिटवीन (इनमें से)। फिर एक यह भी आपके उसमें मिलता है कि उसको आपको मारना नहीं है जैसे आप आज भी बोल रहे थे। उससे आपको लड़ना नहीं है कि नहीं तो वो भी एक विचार है। तो उसको रिएक्शन नहीं करना है और लड़ना भी है, वो थोड़ा सा कंफ्यूजन (उलझन) हो रहा है वहाँ पर।
आचार्य: देखिए, ऐसे समझिए। हम ज्ञान के अनुग्रह से इतना तो जानते ही है न कि बच्चूमल की वृत्तियाँ क्या-क्या हैं, उसके लक्षण क्या-क्या हैं? यह सब, इतना तो पता ही है। तो बहुत मुश्किल तो नहीं होना चाहिए न पकड़ने में कि बच्चूमल की आवाज़ है ये जो उठ रही है अभी भीतर से।
आवाज़ काँप रही है, आवाज़ में भय है, आवाज़ लालच में पगी हुई है बिलकुल। कितना मुश्किल है यह जानना कि यह कहाँ से आ रही है? और जब जानना मुश्किल हो और हम पहले ही स्वीकार रहे हैं कि आपने जैसे कहा डिस्टिंग्विश करना मुश्किल है, तो फिर तो सीधा सा नियम है कि सावधान रहो और जो भी आवाज़ उठ रही है ज़रा उसकी छानबीन करते चलो।
अगर तो यह होता कि हम बिलकुल साफ़-साफ़ पहचान ही जाते हैं कि कब भीतर से वही क्षुद्र अहंकार बोल रहा है, तब तो फिर भी बात ठीक थी। पहचान गये, तुरंत आगे बढ़ गये। लेकिन यदि स्थिति यह है कि पहचानना कठिन है, तब तो अतिरिक्त सावधानी चाहिए न? फिर तो कुछ भी उठ रहा हो भीतर से जिसको हम बोलते हैं कि “हमारी यह आत्मा की आवाज़ है, हमारी चेतना की आवाज़ है, हमारी कांशियंस (अंतःकरण) की आवाज़ है,” जो भी है, हमको तो अब सभी की छानबीन करनी है।
जैसे आप जाएँ किसी बड़े हॉल में आप प्रवेश ले रहे हों या आप हवाई अड्डे पर हों, तो क्या फ़र्क पड़ता है आप कौन हैं? सुरक्षाकर्मी खड़ा हुआ है और पूरी आपकी छानबीन तो करेगा-ही-करेगा। भले ही ये बात सही है कि जब एक लाख लोगों की छानबीन होती है तो उसमें से कोई एक निकलता है अपराधी। पर छानबीन तो सबकी करनी है। कई बार तो जो छानबीन कर रहे हैं उन्हें भी पता है कि अब जो आ रहा है सामने, अब एक वृद्धा महिला हैं मान लीजिए, वो अट्ठासी वर्ष की है और दिख रहा है दुर्बल भी है, अब ये थोड़े ही कोई फ्लाइट में वारदात करेंगी? लेकिन फिर भी प्रक्रिया पूरी की जाती है, पूरी ख़ोजबीन की जाएगी, एक-एक सामान तलाशा-टटोला जाएगा।
ऐसे ही अपने विचारों के लिए रहना है। जहाँ दिखाई दे कि यहाँ तो कोई ख़तरा ही नहीं है, वहाँ भी जो मूलभूत सवाल-जवाब हैं वो पूछ ज़रूर लेने हैं। अपने पक्ष में खड़े होने के लालच से बचे रहना है। थोड़ी तीखी सी ही निगाह रखनी है ख़ुद पर। उन आवाज़ों पर भर ही नहीं जो भीतर से उठती है, उन उत्तरों पर ही नहीं जो भीतर से उठते हैं, उन प्रश्नों पर भी जिन्हें हम महत्वपूर्ण समझते हैं। समझ रहे हैं?
इतना सावधान होने के बाद भी भूल होती रहेंगी, पर कुछ कम होगी, उत्तरोत्तर प्रगति होगी। पहले जैसे थे उससे थोड़े बेहतर होते जाएँगे। कोई यह शर्तिया फॉर्मूला इत्यादि नहीं है। लेकिन जाँचने से कुछ लाभ तो होता ही है न? उसी को आत्म-जिज्ञासा कहते हैं। सेल्फ इनक्वायरी (आत्म जिज्ञासा) यही है – पूछते चलो, परख़ते चलो।
अब बात यह कि जो पूछने वाला है, वो स्वयं भी पूर्णतया निर्दोष तो है नहीं। है तो वो भी मन ही! तो गच्चा खाएगा। और जिसकी जाँच-पड़ताल करनी है, वो भी बहुत शातिर है। बच्चूमल हल्का आदमी नहीं। तो कुछ न कुछ दाँव खेलेगा। तो बहुत बार ऐसा होगा कि कितनी भी आत्म-जिज्ञासा करो, फिर भी चूक हो जाएगी। हमें नहीं पता चलेगा कि हमें जो भावना उठ रही थी, वो किस केंद्र से उठ रही थी, ऐसा होगा। हमने सोचना चाहा कि अभी मान लीजिए किसी तरफ़ को जाने का मन कर रहा है, कोई व्यक्ति अच्छा लग रहा है, कोई व्यक्ति बुरा लग रहा है, किसी स्थिति के प्रति राग उठ रहा है। हमने जिज्ञासा करी भी कि यह सब क्या है? किस केंद्र से आ रहा है? कुछ उत्तर आ गया, बाद में पता चला कि नहीं झाँसा था, फँस गये। कोई बात नहीं, आप जिज्ञासा फिर भी करते रहिए। करते रहिए क्योंकि हम क्या करें, हम विवश हैं, कोई उपाय और है नहीं हमारे पास। ऐसी ही है मानवीय स्थिति सबकी, पूछने के अलावा कोई उपाय नहीं।
लेकिन जो लोग इस प्रक्रिया पर गंभीरता के साथ, सत्यनिष्ठा के साथ रहते हैं, धीरे-धीरे उनकी दृष्टि पैनी होती जाती है। फिर झूठ के लिए मुश्किल होता जाता है उनके सामने से बच निकलना। वो पकड़ लेते हैं, जल्दी पकड़ लेते हैं, पकड़ने की सम्भावना बढ़ती जाती है।
प्र३: सर, उस झूठ को, मान लीजिए, जैसे बहुत बार अपनी समझ से पकड़ लेते हैं या उसकी चीज़ की थॉटप्रोसेस , तो वो भी तो एक पकड़ना भी तो एक अपनेआप में ही एक थॉटप्रोसेस से हुआ?
आचार्य: बिलकुल हुआ। लेकिन आपके पास और कोई विकल्प नहीं है न! और ये सिद्धांत किसने बता दिया कि इस मायाजाल से निकलने के लिए मायाजाल से बाहर का कोई उपकरण मिलेगा आपको?
मन से बाहर निकलने के लिए मन ही एकमात्र सहारा है। उपनिषद् बोलते हैं न ‘मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः’। ठीक वैसे जैसे मन आपके बंधन का कारण है, मन ही आपके मोक्ष का कारण बनेगा।
जंगल से बाहर जाने के लिए भी जंगल के बीच से ही गुज़रना पड़ेगा, जंगल की ही धरती पर गुज़रना पड़ेगा, जंगल के ही पेड़ों का सहारा लेकर ज़िंदा रहना पडेगा, उस दिन तक जिस दिन तक जंगल से बाहर न निकल जाओ।
प्र३: जी सर, इस मैनुफेक्चरिंग इंडस्ट्री में स्टॉकिंग प्रोसेस का ड्यूरेशन बहुत लंबा है।
आचार्य: बहुत लम्बा है। और भी बहुत सुंदर-सुंदर, छोटे-छोटे श्लोक हैं। मुझे बहुत याद नहीं रहता लेकिन फिर भी याद आ रहा है।
एक श्लोक है जिसका भाव यह है कि ‘मन से मन को आलोकित करो’। उपनिषदों का ही है ‘मन से मन को आलोकित करो’, कितनी सुंदर बात है देखिए। कोई नहीं आने वाला सहारा देने के लिए। मन की दुष्टाई को मन से ही पकड़ना है; मन के अंधेरे पर मन का ही प्रकाश डालना है।
लेकिन जैसा अभी थोड़ी देर पहले मैंने कहा, “मन का ही जो प्रकाश मन के अंधेरे पर डालेंगे उसमें कई बार भूल-चूक होगी।”
हर भूल को, हर चूक को आगे के लिए सबक़ बनाना है।