प्रश्नकर्ता: बीसवीं सदी के कई बुद्ध पुरूषों जैसे कि ओशो एवं रमण महर्षि ने मेडिटेशन टेक्नीक्स (ध्यान की विधियों) को ज़रूरी बताया क्योंकि वो शुरुआती रूप से मन को शांत करती हैं। मेरी भी समझ कहती है कि तकनीकें ज़रूरी हैं क्योंकि मन का थोड़ी देर के लिए भी शांत होना आनंदमयी घटना है। फिर आप तकनीकों को बिलकुल नकार क्यों देते हैं?
आचार्य प्रशांत: क्योंकि मुझे बेईमानी पसंद नहीं है। मैंने कभी भी तकनीकों को पूरी तरह नकार नहीं दिया। मुझे आपत्ति तकनीकों से कम और तकनीकों के पीछे के बेईमान मन से ज़्यादा है। आप ध्यान की विधियों वगैरह पर मेरे पुराने वक्तव्यों को देखेंगे, लेखों को पढ़ेंगे या वीडियोज़ देखेंगे तो आपको दिखायी देगा कि बहुत विस्तार से मैंने समझाया है कि तकनीकों के साथ ख़तरा क्या है।
एक उदाहरण मैं पहले दे चुका हूँ। आमतौर पर मुझे बिलकुल पसंद नहीं है कि पहले दिया हुआ उदाहरण दोहराऊँ, पर चलिए दोहराए देता हूँ।
नहीं दोहराऊँगा! दूसरा आ गया, ताज़ा। मेरे साथ यही समस्या है, हमेशा कुछ ताज़ा आ जाता है।
तो एक बच्चा है और उसका बाप चाहता है कि वो तैरना सीखे। बच्चे को डूबने से डर लगता है। कहता है — डूब जाऊँगा, डूब जाऊँगा, डूब जाऊँगा। तो बाप चाहता है कि ये तैरना सीखे। ठीक है! तो बाप उसको लेकर के जाता है तरणताल। अरे! स्विमिंग पूल। बाप उसको लेकर गया है कि इसको यहाँ पर मैं स्विमिंग (तैराकी) का प्रशिक्षण दिलाऊँगा स्विमिंग कोच (तैराकी प्रशिक्षक) के अंतर्गत।
साधक, सब साधक बच्चे होते हैं न, और वो डूबने से घबराते हैं। और ध्यान में क्या करना पड़ता है? डूबना ही पड़ता है, गोते मारने पड़ते हैं। लेकिन बच्चा घबराता है। तो कोच के पास लेकर गया है बाप।
कोच कहता है, ‘कोई बात नहीं। शुरुआत के लिए, ये किड्स पूल (बच्चों का ताल) है, जिसकी गहराई बस ढाई फ़ीट की है, तुम इसमें जाओगे।’ और वो बहुत छोटा सा है। और छोटा सा ही नहीं है, उसमें वो हवा के टायर हैं; और क्या-क्या होती हैं चीज़ें, वो पट्टियाँ है, ट्यूब्स हैं जो तुम यहाँ बाँहों में बाँध सकते हो और फ्लोटर्स हैं जिन पर लेट करके तुम तैर सकते हो। तमाम तरह की विधियाँ हैं जो तुम्हें डूबने से बचाएँगी।
वो जब तक मौजूद हैं, तुम डूब ही नहीं सकते। वो जब तक मौजूद हैं, तब तक तुम तैरना भी नहीं सीख सकते। लेकिन शुरुआती लाभ है उनका, उससे तैरना सीख सकते हो। चिपक गये उनसे तो तैरना नहीं सीख सकते। फिर उसमें तुम कितना तैरना सीखोगे, उसकी कुल गहराई ही ढाई फ़ीट की है!
और बाप ने अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ ली, प्रशिक्षक के हाथों सौंपकर चला गया नवाबज़ादे को, कि अब ये अपना तैरना सीखेगा। और अब ये हुनरमंद बालक रोज़ आते हैं और कहते हैं, ‘मैं जा रहा हूँ कॉस्ट्यूम (पोशाक) वगैरह लेकर के स्विमिंग पूल (तरणताल)।’
ऐसे करते-करते दस साल बीत गये। अब ये दस साल से विधि में लगे हुए हैं। किस विधि में? कि मैं स्विमिंग (तैराकी) सीखने जाता हूँ। घरवाले सोच रहे हैं कि लड़का तो ज़बरदस्त तैराक बन गया होगा, इंग्लिश चैनल पार करेगा सीधे। क्या बात है!
अब दस साल के बाद एक बार आते हैं घरवाले देखने कि नौजवान ने तरक़्क़ी कितनी की। तो क्या पा रहे हैं — नौजवान अभी भी वो ढाई फ़ीट वाले में ही लगा हुआ है और फ्लोटर्स पर ही बैठा रहता है और पूल (ताल) के किनारे कई बार बैठ जाता है, पाँव लटका देता है पानी में। और यही वो कर रहा है दस साल से। ध्यान की विधियाँ हैं।
इनका निर्माण इसलिए हुआ है ताकि तुम महीने-भर इनको आज़मा करके असली पूल में कूद पाओ। असली पूल का नाम जीवन है और उस जीवन में कोई विधि, कोई फ्लोटर , कोई तरीक़ा, कोई सहारा काम नहीं आता। वहाँ तुम्हें हर चीज़ छोड़नी पड़ती है। उसकी गहराई कितनी है? बीस फ़ीट।
लेकिन लोग हैं जो दस साल से विधियों में ही लगे हुए हैं। वो विधियाँ ही चल रही हैं उनकी। वो विधियों से आगे ही नहीं बढ़ पाये। ध्यान की विधियाँ बस इसलिए हैं कि एक महीने, दो महीने, चार महीने करो और फिर उनको त्याग दो, आगे निकल जाओ। पर हमारी बेईमानी की कोई सीमा नहीं। हम डूबने से इतना डरते हैं कि वो विधि कभी छोड़ते ही नहीं। वो विधि ध्यान की नहीं है, वो विधि ध्यान के ख़िलाफ़ हमारी साज़िश है।
हम झूठ बोलते हैं जब हम कहते हैं कि वो मेडिटेशन टेक्नीक (ध्यान की विधि) है। इट्स अ टेक्नीक अगेंस्ट मेडिटेशन (ये ध्यान के खिलाफ़ एक विधि है)। और उस पर हमारी जुर्रत ये कि हम कहते हैं कि लगता है आचार्य जी मेडिटेशन पसंद नहीं करते, मेडिटेशन टेक्नीक्स के ख़िलाफ़ बोलते हैं।
मुझे ध्यान से प्रेम है। मैं इसलिए चाहता हूँ कि तुम ध्यान की विधियों को छोड़ो। जितनी जल्दी हो सके छोड़ो। ख़ासतौर पर वो लोग जवाब दें जो बीस साल से विधियों में ही लगे हुए हैं। किसको बेवकूफ़ बना रहे हो? सीधे-सीधे अगर नहीं जा पा रहे हो तुम पूल में, तो ठीक है, कुछ समय, अल्प समय के लिए किसी प्रशिक्षक का सहारा ले लो, टेक्नीक्स का सहारा ले लो। ये थोड़े ही कि उसी से चिपक गये।
क्या करते हैं? बड़े ध्यानी हैं। पिछले बीस साल से बिना नागा किये, रोज़ सुबह साढ़े छ: से सात तक एक है तरीक़े से, एक ही जगह पर, एक ही समय पर ध्यान लगाते हैं। बेईमान! बीस साल से एक ही जगह पर, एक ही तरह का, एक ही समय पर ध्यान लगाता है। इससे बेईमान आदमी कोई हो सकता है!
ध्यान की विधियाँ तैयारी होती हैं जीवन में उतरने की ताकि तुम्हारे चौबीसों घंटे ध्यानस्थ हो जाएँ। तुम्हारे चौबीस घंटे ध्यानस्थ नहीं हो पायें, इसी की ख़ातिर तुम विधि को चिपके रहते हो। तुम चाहते ही नहीं कि ध्यान तुम्हारे जीवन को पूरे तरीक़े से घेर ले। तो इसीलिए तुम ध्यान को अपने जीवन के एक हिस्से तक रोक देते हो।
तुम कहते हो — एक घंटा, एक जगह, बस! उससे ज़्यादा ध्यान आगे बढ़ा तो मेरे अहंकार के लिए, मेरे जीवन के ढर्रों के लिए, मेरे मोहों के लिए, मेरे लोभ और स्वार्थों के लिए बड़ा ख़तरा है। तो इसलिए ध्यान मैं बस आधे घंटे वाला करूँगा।
अरे! आधे घंटे वाले ध्यान से शुरुआत कर लो भाई। चौबीस घंटे वाला ध्यान कब करोगे?
तो मुझे ध्यान की विधियों से नहीं समस्या है, मुझे आदमी की बेईमानी से समस्या है। आदमी की बेईमानी सहारा बनाती है ध्यान की विधियों को। इसलिए मुझे उन विधियों के ख़िलाफ़ बोलना पड़ता है।
आ रही है बात समझ में?