प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, ध्यान की तीसरी अवस्था में आकर ऐसा क्यों लगता है कि प्राण निकलने वाले हैं?
आचार्य प्रशांत: अगली बार प्राण निकल ही जाने दो फिर समझ जाओगे। कुछ नहीं होता है। यह भी तुम पहले से पढ़ चुके हो कि यह स्टेज (अवस्था) होती है और वह स्टेज होती है, और तीसरी स्टेज में आकर प्राण निकलने का अनुभव होता है। तुम्हें पहले ही पता है कि प्राण निकलने चाहिए, तो निकल भी पड़ते है।
प्र: जाग जाता हूँ उसी वक्त।
आचार्य: यह तुम्हें पता है न कि जग जाना होता है, क्योंकि सैकड़ों अन्य लोगों के साथ ऐसा ही हुआ है। तुम्हें पता है कि ऐसा होता है, मेरे साथ भी होगा ही। अभी तुम्हें कोई प्रयोग करा दूँ अभी जान जाओगे। मैं बता दूँ कि अभी जो प्रयोग करने जा रहें है उसमें तुम्हारे आँसू बहेंगे और देखना सबके बहने लग जाएँगे। यह प्रयोग, यह लोग बीच-बीच में कराते रहते हैं। और जितनी बार मुझे बताते हैं करा दिया मैं फिर सिर पकड़ लेता हूँ — आदमी सुधर ही नहीं रहा।
बता दिया जाता है कि अब यह फलाना प्रयोग हो रहा है। इसमें आप यह सुनेंगे और इस चीज़ को छुएँगे और ऐसा करेंगे, और ऐसा करेंगे, तो उससे आपके दिल की धड़कन थोड़ी बढ़ जाएगी, थोड़ी देर बाद आपको हँसी आएगी, उसके थोड़ी देर बाद अचानक आप में गंभीरता और अवसाद आ जाएँगे, और सब बिलकुल वैसा ही होता है जैसा बताया जाता है। तुम से करवाऊँ? जो करवाना चाहता हो; बोलो? अंदर वाला मेरा नुस्खा बहुत पुराना है।
प्र: तीसरा जो स्टेज है वह बहुत कठिन है।
आचार्य: अरे! तुम तीसरा छोड़ो यार। तुम एक घंटा छोड़ो! अभी एक मिनट के अंदर काम हो जाएगा तुम्हारा। अभी कराता हूँ। देखा हैं वह बंदर वाले विडियो ? दस साल से पहले कॉलेजी लड़कों को कराता था। लो! एक मिनट के अंदर तुम बंदरों के बारे में सोचोगे। अभी तुम्हें अनुभव होगा बंदरों का — लंबी पूंछ वाले बंदरों का, काले मुँह वाले बंदरों का, छोटे बंदरों का, बंदरिया से चिपके हुऐ बंदरों का — देखना अभी तुम्हें अनुभव होगा। यह सब मन में आएँगे बंदर। एक बंदर है वह पेड़ पर चढ़ रहा है, एक बंदर है जो दाँत दिखा के खी-खी कर रहा है। हुआ?
प्र: हाँ, वह तो हुआ सर।
आचार्य: अरे, यह कैसे हुआ?
प्र: आपने बोला तो आ गया आँखों के सामने।
आचार्य: ऐसे ही होता है।
प्र: सर, आप मेरी बात नहीं समझे?
आचार्य: नहीं, मैं कुछ समझ ही नहीं रहा। तुम समझदार हो!
प्र: ओशो है न सर, ओशो कहते थे कि अपने प्राण छोड़कर अपने शरीर को देख सकते हैं।
आचार्य: दादा, तुम बहुत भोले आदमी हो। (आचार्य जी अपने दोनों हाथ जोड़कर मुस्कुराते हुए कहते हैं) (श्रोतागण हँसते हैं)
प्र: वह स्टेज़ मैं करना चाहता था।
आचार्य: क्या करोगे?
प्र: जिससे मैं मेरे शरीर को देखना चाहता था।
आचार्य: कहाँ से?
प्र: ध्यान से।
आचार्य: आज तक नहीं देखी? कौनसा हिस्सा नहीं देखा? तुम्हें ध्यान नहीं आईने चाहिए। किन चक्करों में फँसे हुए हो रुप सिंह? यह अध्यात्म है, यह सब करना कि मेरे अपने प्राण निकलेंगे, मैं बॉडी देखूँगा। आँखे देखती हैं और आँखे माँस होती हैं। आँख ज़मीन पर छोड़ दोगे, तो कौनसी चीज़ शरीर को देखेगी पगले?
प्र: तो ओशो कौनसी ध्यान की बात करते हैं?
आचार्य: वह छोड़ो तुम! बस यह जान लो कि उन्होंने जो भी कहा तुमने समझा नहीं। “कि प्राण निकल जाएँगे, और फिर शरीर को देखेंगे।” तुम क्या हो? तुम सेटेलाइट (उपग्रह) हो, ऊपर से देखोगे नीचे? (आचार्य जी मुस्कुराते हुए कहते हैं) अरे! यह तो परेशान हो गया है। इनको अनहद कराना भाई, ज़रा अच्छे से। ये सब चक्कर छोड़ो। अध्यात्म का मतलब होता है सच्चा, सरल जीवन जीना। ऊपर-नीचे, दाएँ-बाँए, यह सब ख़ुफ़िया गिरी, नौटंकी यह नहीं अध्यात्म होता।
पहला चरण, दूसरा चरण, पाँचवा चरण। भग्ग! दो चरण होते हैं और वह दोनों शरीर में होते हैं। और कोई चरण-चूरण नहीं होता। जैसे जी रहे हो उसको ईमानदारी से देखो! अभी तक तुमने जो बातें करी थीं बहुत कीमत की थीं। तुमने बताया कि एक पशु को लेकर तुम्हारे मन में संवेदना है। तुमने बताया कि तुम जहाँ काम करते हो वहाँ पर क्या माहौल है। यह सारी बातें व्यवहारिक हैं। यह जीवन के असली प्रश्न हैं। यह वास्तविक अध्यात्म है।
यह सब नहीं है कि कब प्राण निकल जाते हैं, कब क्या हो जाता है। मरने पर शरीर से कुछ नहीं निकलता। जबतक जी रहे हो तबतक निकल रही है चीज़ें फिर भी। मर जाओगे, तो कुछ नहीं निकलेगा। जबतक जी रहे हो तबतक तो साँस भी निकल रही है, मल-मूत्र भी निकल रहे हैं। मर जाने पर तो और कुछ नहीं निकलता शरीर से। तुम किन चक्करों में हो कि प्राण निकलता है। क्या होता है प्राण? कोई चीज़ है क्या प्राण? गेंद है, लड्डू है, क्या है प्राण? हवा है? क्या है प्राण?
प्राण कोई वस्तु थोड़ी ही है, पदार्थ थोड़ी ही है। और शरीर पदार्थ है। पदार्थ से बाहर जो चीज़ आएगी वह भी निश्चित रुप से क्या होगी? पदार्थ। और प्राण पदार्थ है नहीं, तो प्राण शरीर से बाहर कैसे आ सकता है? मत पड़ो इन चक्करों में।