ध्यान की एक विधि, शून्य-स्मरण || आचार्य प्रशांत (2015)

Acharya Prashant

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ध्यान की एक विधि, शून्य-स्मरण || आचार्य प्रशांत (2015)

आचार्य प्रशांत: ध्यान की एक विधि। उत्सुकता आयी थी कि ध्यान की एक विधि दी जाए। तो आपमें से जो लोग उसके बारे में जानना चाहें, वो समझें।

शून्य-स्मरण। शून्य-स्मरण – जो कुछ भी बहुत आवश्यक और ज़रूरी लगता हो, जो कुछ भी नितांत क़रीबी, आवश्यक प्रतीत होता हो, उसको उसी आवश्यकता के क्षण में, यह कहकर देखें कि तू कुछ नहीं है, शून्य है, झूठा है।

देखिए, हम मौन का जब स्मरण करते हैं तो हम मौन को भी कोई वस्तु या विषय बना लेते हैं। मौन का, शून्य का वास्तविक स्मरण करने का तरीक़ा है कि जब शोर छा रहा हो मन पर — और शोर तभी छाता है जब शोर में कुछ खिंचाव होता है, शोर में कुछ ज़रूरी और आवश्यक लगता है —‌ जब शोर छा रहा हो मन पर, जब कुछ बहुत प्यारा लग रहा हो या जब कुछ बहुत ही बुरा लग रहा हो, या मन में नफ़रत उठ रही हो, कुछ बहुत ही आकर्षक लग रहा हो या घोर विकर्षण हो, तब कहिए – शून्य है यह। ठीक तब।

वह पल, जब आप यह कहेंगे, खिंचाव का होगा, पर बीत जाएगा। बीत जाएगा और आपको हल्का कर जाएगा।

क्या विधि समझ में आयी है?

जब भी कोई चीज़ मन पर हावी हो जाए, जब भी कोई चीज़ अत्यंत महत्वपूर्ण प्रतीत हो, जब भी आप किसी बाहरी वस्तु से घिर गए हों और ऐसा लगे कि यह जीवन और मृत्यु का मामला है, उसी क्षण अपनेआप से कहें, ‘यह कुछ भी नहीं है। यह कुछ भी नहीं है। यह कुछ भी नहीं है। यह कुछ भी नहीं है।’

अपनी पसंद के आधार पर आप यह भी कह सकते हैं कि ‘यह झूठ है’, या ‘यह महत्वपूर्ण नहीं है’, या ‘मुझे इसे गंभीरता से लेने की आवश्यकता नहीं है।’ यह इस बात पर निर्भर करता है कि आप किस भाषा का उपयोग करना चाहते हैं, और आप किसी भी भाषा का उपयोग करना चाहते हैं भी या नहीं। इसका अभ्यास करें।

हम सभी—युवा और वृद्ध समान रूप से—जानते हैं कि परिस्थितियाँ मन पर किस प्रकार हावी हो जाती हैं, है न? और उस क्षण हमें और कुछ याद नहीं रहता। उस क्षण बाक़ी सब कुछ दूर, पृष्ठभूमि में चला जाता है। हम अपने चारों ओर जो भी महानताएँ देखते हैं, उनमें से कोई भी महत्वपूर्ण नहीं रह जाती। न कृष्ण, न गीता, न उपनिषद्, न महावाक्य, न अध्यात्म। उस समय जो बात मायने रखती है वो होती है वह मुद्दा जो ठीक आपके हाथ में है। ठीक है? हम सभी हर दिन ऐसी स्थितियों से गुज़रते हैं, है न?

तरकीब यह है कि उस स्थिति में अचानक, कुल्हाड़ी के प्रहार की तरह, अचानक प्रहार से, बस यह कहें कि यह कुछ भी नहीं है। अब वह कहने में शुरू में थोड़ी हिम्मत चाहिए होगी। इससे आपको दुख होगा। लेकिन दुख का क्षण, मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ, गुज़र जाएगा और सभी क्षणों की तरह बहुत तेज़ी से गुज़र जाएगा। और फिर तुम्हारे पास रह जाएगा… क्या रह जाएगा?

श्रोता: हल्कापन।

आचार्य: हल्कापन। मैं इसे शून्य-स्मरण विधि कहता हूँ।

प्र२: सर, इससे संकेत मिलता है कि जो मुद्दा हाथ में है, उस पर काम न करें। जैसे कि भले ही यह झूठ हो, तो मेरा घर जल रहा है। अगर मैं कहूँ कि यह झूठ है...

आचार्य: कृपया ज़ोर से बोलो।

प्र२: सर, मान लीजिए मेरा घर जल रहा है और मैं कहूँ, ‘यह झूठ है’, लेकिन फिर भी मुझे भागना पड़ेगा या आग बुझानी पड़ेगी। इसका मुद्दे पर काम करने से क्या सम्बन्ध है, जब साथ ही मैं यह भी कह रहा हूँ कि यह झूठ है? क्योंकि वैसे भी मैं नहीं कर सकता...

आचार्य: इसका कोई उत्तर नहीं है। यदि आपको अभी भी लगता है कि यह बहुत महत्वपूर्ण है, तो महसूस करते रहिए। लेकिन बात तो यह है कि आपने कितनी बार अपना घर बचाया है, है न? लेकिन कमबख़्त घर बार-बार जलता रहता है। (श्रोतागण हँसते हैं) एक बार इसे छोड़कर देखो।

श्रोता: लेट इट बर्न, न्यू हाउस विल कम। (इसे जलने दो, नया घर आएगा।) (श्रोतागण हँसते हैं।)

आचार्य: कौन जानता है? नये घर भी बार-बार आए हैं। क्या हम नये घर में नहीं गए हैं? कई बार हम गए हैं। लेकिन वो चीज़ें भी टूट ही जाती हैं। ऐसा होता है, और अगर नहीं हो रहा है तो उसे थोपा नहीं जा सकता। अगर आप यह नहीं करना चाहते, तो आपके पास इसे न करने के लिए हज़ार तर्क होंगे।

प्र १: प्रश्न यह है कि क्या आप इसे याद रखेंगे? मान लीजिए एक ख़तरा है, कोई मेरे सिर पर या किसी पर रिवॉल्वर तान रहा है। वह कैसे सोच सकता है कि यह नहीं होगा?

आचार्य: सोचना असंभव है। ऐसा होगा या ऐसा नहीं होगा, यह सोचना नामुमकिन है। लेकिन अनुकम्पा से ऐसा होता है कि कोई कहता है कि ठीक है, बहुत हो गयी लड़ाई, चला दो गोली, दबा दो ट्रिगर।

श्रोता: उसके अंदर गोली नहीं है।

आचार्य: देखिए, अंततः ध्यान की सभी तकनीकें या विधियाँ इस बात पर निर्भर करती हैं कि क्या आप समर्पित हैं। यदि समर्पण नहीं हैं तो विधि सफल नहीं होगी। इसीलिए समर्पण प्रयास करने से ज़्यादा महत्वपूर्ण है। विधि से तात्पर्य है प्रयास करना। लेकिन प्रयास करने से पहले आपको समर्पण करना होगा।

आपको कहना होगा, ‘ठीक है। मैं बस इतना कर सकता हूँ कि अपनेआप को याद दिलाता रहूँ। लेकिन मुझे याद रहेगा या नहीं, यह उस पर (ऊपर की ओर इशारा) निर्भर करता है, यह मुझ पर निर्भर नहीं है। यह उस पर निर्भर करता है। तो अगर तुम चाहो तो मैं याद रखूँगा, और अगर तुम नहीं चाहो तो वैसे भी मैं याद नहीं रख सकता। मैं सिर्फ़ इतना ही कह सकता हूँ कि मुझे याद करने जैसा महसूस हो रहा है।‘

‘मुझे क्या करना है?’

मैं याद करने जैसा महसूस करता हूँ, बाक़ी आप तय कर लीजिए। यहाँ छोटी सी युक्ति यह है कि यदि आप वास्तव में याद रखने जैसा महसूस करते हैं, तो आपको सहायता प्राप्त होगी। क्योंकि पहले से मदद प्राप्त किए बिना आप याद रखने जैसा महसूस नहीं कर सकते। इसलिए याद करने जैसा महसूस करने का प्रयास करें।

प्र३: क्या यह विधि केवल उन स्थितियों पर लागू होती है जब हम बहुत अधिक तल्लीन होते हैं या दुविधा में होते हैं, या रोज़मर्रा की सामान्य, छोटी-छोटी चीज़ों के लिए? जैसे कि मुझे खाना चाहिए। यह कितना महत्वपूर्ण है?

आचार्य: यह हर स्थिति पर लागू होता है। मैंने आपको असाधारण स्थितियाँ बताई हैं। लेकिन ज़ाहिर है कि अगर आप इसे रोज़मर्रा के छोटे-छोटे मामलों में लागू नहीं कर सकते हैं, तो असाधारण स्थितियों में इसे लागू करना असंभव होगा। तो ज़ाहिर है यह हर स्थिति पर लागू होती है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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