प्रश्नकर्ता: मैं ध्यान के बारे में पूछना चाहती हूँ। ध्यान है क्या और इसका सही तरीक़ा क्या है? और इसका हमारे ऊपर प्रभाव कैसे पड़ता है?
आचार्य प्रशांत: मन को हमेशा कोई लक्ष्य चाहिए होता है। आप जब भी अपनी स्तिथि का ज़िक्र करते हैं, वर्णन करते हैं तो आप ऐसे करते हैं, 'मैं इसको देख रही हूँ, मैं ये काम कर रही हूँ।' तो 'मैं' होता है और 'मैं' के सामने कुछ और। वो जो कुछ और है उसको हम दुनिया बोलते हैं। ठीक है?
'मैं' होता है और 'मैं' के सामने कुछ और होता है। ये जो दुनिया होती है हमारे सामने, इसमें से कुछ हमें काम की लगती हैं, कुछ अंश हमें व्यर्थ लगता है। इसमें से कुछ हिस्सा हमें पसंद आता है, कुछ हिस्सा हमारी नापसंदगी का होता है। इसका कुछ हिस्सा हमें ज्ञात होता है, इसका कुछ हिस्सा हमें अज्ञात होता है। तो इस दुनिया के इस तरह से टुकड़े होते हैं।
अपनी रुचि के अनुसार — जो 'मैं' है — 'मैं' की रुचि के अनुसार, 'मैं' के संस्कारों के अनुसार, 'मैं' की सुविधा के अनुसार, ये किसी टुकड़े पर जाकर केंद्रित हो जाता है। आपकी पूरी दुनिया आप एक साथ नहीं देख रहे होते, आपके मन में हमेशा एक छोटा अंश होता है। आप उस पर केंद्रित हो जाते हैं। ठीक है? इस तरह से 'मैं' का कारोबार चलता रहता है।
ये सब कुछ देखता है, अपनेआप को नहीं देखना चाहता। ये यह नहीं देखना चाहता है कि ये इधर-उधर देखता ही क्यों रहता है।
ये जो देखने वाला है, जब अपनी ओर देखे और अपनी असलियत जानना चाहे — अपनी ओर इसलिए नहीं देखे कि उसे अपने ही नकाब भर से संतुष्ट रहना है — अपनी ओर इस उद्देश्य के साथ देखे कि अपनी असलियत जाननी है, तब उस देखने को, उस घटना को ध्यान कहते हैं।
देख रहे हैं इसलिए नहीं कि कुछ लाभ हो जाएगा। देख रहे हैं इसलिए नहीं कि कुछ पसंद है। देख रहे हैं इसलिए कि सच्चाई जाननी है। देख रहे हैं इसलिए कि जानना है कि 'मैं हूँ कौन? इस पूरे कारोबार की सच्चाई क्या है?'
और क्यों जानना है ये? क्योंकि ये जो देखने का पूरा गोरखधंधा है, इसमें सबकुछ आता-जाता रहता है, एक चीज़ लगातार रहती है — अशांति। तो हमने पूरी दुनिया अलट-पलट कर देख ली, बदल-बदल कर भी देख ली। कभी इस विषय पर केंद्रित हुए, कभी उस विषय पर। कभी इसका स्मरण किया, कभी उसका विचार किया। सब करते रहे, शांति तो मिली नहीं। तो ये बात समझ में आ गई है कि दुनिया के विषय बदलने से शांति नहीं मिलनी है, इधर-उधर है नहीं शांति।
अशांति शायद देखने वाले में ही छुपी हुई है। तो अब देखने वाले को ही देखते हैं थोड़ा कि इसका हालचाल क्या है, इसकी संरचना क्या है, इसके इरादें क्या हैं, ये जन्तु क्या है, इसकी व्यवस्था क्या है पूरी; ये ध्यान कहलाता है।
ध्यान की विधियाँ बहुत हैं और वो सब विधियाँ कुछ हद तक लाभप्रद भी होती हैं। अधिकांशतः वो विधियाँ आपके इर्द-गिर्द के वातावरण से आपको काटती हैं। क्योंकि उद्देश्य है आपको आपके सम्मुख करना। कि आप और कुछ न सोचो, और कुछ न देखो, थोड़ी देर के लिए स्वयं को ही देख लो।
तो अधिकांशतः वो विधियाँ आपके रोज़मर्रा के कारोबार से आपको काटेंगी। वो किसी विशेष माहौल की माँग करेंगी या विशेष माहौल का निर्माण करेंगी।
उदाहरण के लिए, कोई विधि होगी जो कहेगी 'रात्रि ध्यान।' तो अब ये विधि क्या माँग कर रही है? रात होनी चाहिए। कोई विधि होगी 'एकांत ध्यान।' अब ये विधि क्या माँग कर रही है? एकांत होना चाहिए। कोई विधि होगी 'मौन उपासना।' ये विधि क्या माँग कर रही है? मौन होना चाहिए। कोई विधि कह रही है कि 'एक पखवाड़े तक इसका पालन करना है।' ये विधि क्या माँग कर रही है? एक पखवाड़े तक अपना जो सामान्य कारोबार है उसको स्थगित करो।
तो इन विधियों को थोड़ी सफ़लता भी मिल जाती है क्योंकि आप उससे तो मुक्त हो ही गए जिसमें आप खोए हुए थे। पर ये सफलता आंशिक है और कृत्रिम है। क्योंकि जिसमें आप खोए हुए थे उसमें आप पुनः लौटोगे। ये इन विधियों की पहली सीमा है।
और इन विधियों की दूसरी सीमा यह होती है कि आप जो हो, आपकी जो अशांति है, वो प्रकट होती ही है दुनिया के संपर्क में आने पर। है न? आपको दुनिया से काट दिया तो वह अशांति प्रकट ही नहीं होगी, छुप जाएगी। अब आपको वह अशांति नज़र कैसे आएगी? आप उसका उन्मुलन कैसे करोगे?
भई, आप घर पर व्यथित रहते थे। आप दुकान पर उत्तेजित रहते थे। आपको दस दिन के लिए बुला दिया गया है किसी जंगल में। और यहाँ कहा गया है कि अब यहाँ बैठ जाओ और ध्यान करो। अब आपकी आँखों के सामने वो सब कुछ है ही नहीं जो आपको व्यथित करता था और उत्तेजित करता था, तो दस दिन के लिए कृत्रिम रूप से शांत तो हो ही जाओगे न। न तो ग्राहक आकर के मोलभाव कर रहे हैं, न घर पर पति-पत्नी और बच्चे शोर मचा रहे हैं या माँगें रख रहे हैं या शिकायतें कर रहे हैं। दस दिन के लिए आपको उन सब चीज़ों से काट दिया गया। तो सहज बात है उन दस दिनों में आपको कुछ शांति का अनुभव होगा। और अच्छी बात है, शांति का अनुभव हो रहा है। इसी नाते शांति के प्रति कुछ प्रेम तो बढ़ेगा, आपका परिचय तो हुआ शांति से।
ध्यान की विधियों का लक्ष्य यही होता है कि कृत्रिम रूप से ही सही, आंशिक रूप से ही सही, कुछ छोटी अवधि के लिए ही सही, आपको शांति से परिचित करा दिया जाए। थोड़ा स्वाद दे दिया जाए, झलक दिखा दी जाए।
और उम्मीद यह की जाती है कि आपको झलक मिल गई, थोड़ा स्वाद मिल गया तो उसके बाद आप अपनी पुरानी दुनिया को ख़ुद ही परिवर्तित करेंगे। आप कहेंगे, 'शांति की झलक मिली थी, मुक्ति का स्वाद मिला था। बड़ी मस्ती थी, अब वही स्वाद दोबारा चाहिए। और जो वो हमारी पुरानी दुनिया है उसमें वह स्वाद मिलता नहीं, तो हम उस पुरानी दुनिया को परिवर्तित कर देंगे।'
तो ध्यान की विधियों का यह उद्देश्य होता है कि आपको थोड़ा-सा बस ज़ायका दे दें। और वह सब विधियाँ यह आशा रखती हैं कि वो ज़ायका मिलने के बाद आप उस ज़ायके के प्रेम में पड़ जाएँगे। आप कहेंगे, 'मुझे यह ज़ायका बार-बार चाहिए, बार-बार भी नहीं, लगातार चाहिए।'
तो फिर आप अपनी पुरानी दुनिया को पुराने तरीक़े से चलाना बर्दाश्त ही नहीं करेंगे और आप अपना जीवन ही परिवर्तित कर देंगे।
ध्यान का अंतिम उद्देश्य तो जीवन का परिवर्तन ही है। लेकिन दुर्भाग्य की बात यह है कि मन हमारा बड़ा शातिर होता है। वह कहता है कि जब अशांति बढ़ेगी तो ध्यान कर आएँगे और ध्यान करके शांत हो जाएँगे। और शांत हो गए तो अशांति झेलने की और ताक़त आ जाएगी। तो वापस आ करके और अशांति बढ़वा लेंगे। क्योंकि अब तो हमें पता है कि अशांति बहुत घातक नहीं हो सकती। बहुत बढ़ी तो ध्यान कर आएँगे।
तो ध्यान की विधियाँ दुर्भाग्य की बात है कि अशांति को घटाने की जगह अशांति को बनाए रखने का, बल्कि अशांति को बढ़ाने का साधन बन जाती हैं। कि साल भर अपना गंदा कारोबार, गंदा व्यापार करो और फिर जब माथा बिलकुल भनभनाने लगे, जीवन बिलकुल गंधाने लगे, तो पंद्रह दिन के लिए किसी आश्रम में जाकर ध्यान कर आओ। और ध्यान करके फिर से आंतरिक रूप से चुस्त-दुरुस्त होकर अपने कारोबार में फिर वापस लौट आओ और फिर और ज़्यादा गंदगी करो। क्योंकि अब तो पता है कि गंदगी बहुत बढ़ी तो आश्रम उपलब्ध है न, हम चले जाएँगे, वहाँ ध्यान कर आएँगे।
जिन्होंने हमें ध्यान की विधियाँ दीं उनका यह आशय तो निश्चित रूप से नहीं था। वह यह चाहते थे कि आपको स्वाद लगे और आपमें उस स्वाद के प्रति प्रेम बढ़ जाए। आप कहें कि यह ऐसी चीज़ मिल गई है कि इसको छोड़ेंगे नहीं। दस दिन के लिए आए थे पर यह चीज़ अब प्रतिपल चाहिए, ज़िन्दगी भर चाहिए। पर ऐसा होता नहीं है।
ध्यान का मतलब कुछ क्षणों की शांति नहीं होती। ध्यान का उद्देश्य होता है जीवन का ऐसा मौलिक अंतरण कि शांति ही जीवन बन जाए। शांति ही जीवन बन जाए। फिर शांति बताएगी कि घर कैसे चलेगा। फिर शांति बताएगी की दुकान चलानी है या नहीं चलानी है। शांति प्रथम है, सबकुछ अब शांति की आज्ञा से होगा।
जब ध्यान का उद्देश्य जीवन का पूर्ण रूपांतरण है, प्रतिपल जीवन कुछ नया होना चाहिए, सधा हुआ होना चाहिए, आज़ाद होना चाहिए, तो फिर आवश्यक है कि जीवन को ही ध्यान की विधि बना लिया जाए। वह ध्यान की सर्वश्रेष्ठ विधि है। यह विधि जीवन के ऊपर आरोपित नहीं है, यह विधि जीवन का कुछ समय नहीं ले रही है; यह विधि जीवन के मध्य से निकली है। जीवन ही विधि बन गया। जी रहे हो न, वही विधि है। देखो कैसे जी रहे हो, यही विधि है।
और मैंने कहा, ख़ुद को देखो, कैसे जी रहे हो और साथ-ही-साथ वह जो दूर है, वह जो पार का है उसके दर्शन करते चलो ताकि तुम्हारे भीतर जो असंतोष है वो और प्रबल हो जाए। यह जो सवाल भीतर फुसफुसाता भर है कि 'क्या ऐसे ही जीना है!' यह सवाल चित्कार कर उठे तुम्हारे कानों में। ज़ोर से चिल्ला उठे कि 'क्या ऐसे ही जीना है!' फिर बदलता है जीवन, यह ध्यान है।
सच्चाई को, मुक्ति को ध्येय बना लिया तो जीवन ध्यान हो गया।
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