ध्यान दिन में दो बार, या लगातार? || आचार्य प्रशांत, ज़ेन कोआन पर (2018)

Acharya Prashant

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ध्यान दिन में दो बार, या लगातार? || आचार्य प्रशांत, ज़ेन कोआन पर (2018)

प्रश्नकर्ता: टेंडई बौद्ध दर्शन का एक आश्रम था। वहाँ पर एक शिष्य ज़ेन गुरु के पास शिक्षा ग्रहण करने आया। कुछ साल बाद जब उसने गुरु से विदा ली, तो गुरु ने चेतावनी देते हुए कहा कि सत्य का अध्ययन अच्छा तरीका है उपदेश हेतु ज्ञान इकट्ठा करने का। मगर याद रखना कि अगर तुम लगातार ध्यानस्थ नहीं रहोगे तो तुम्हारी ये सत्य की रोशनी खो जाएगी।

ध्यानस्थ रहने का क्या अर्थ है? ऐसा क्यों कहा गया कि ये रोशनी जा सकती है। सत्य को जानना तो आखिरी घटना होती है न? कृपया समझाएँ। गुरु ने शिष्य को हमेशा ध्यान में रहने के लिए क्यों बोला? क्या केवल गुरु को सुनना पर्याप्त नहीं है? उसके बाद भी ध्यान में रहना होगा क्या?

आचार्य प्रशांत: क्या चाहते हो? तुम सवाल थोड़े ही पूछ रहे हो, तुम तो इच्छा बता रहे हो। तुम तो माँग रख रहे हो, ये नारेबाज़ी है, ‘हमारी माँगे पूरी करो।’ कह रहे हैं, अब गुरु की सुन तो ली। चार साल दस साल जितने भी साल था, आश्रम में रह लिये, शिक्षा-दीक्षा हो गयी। अब तो जान छोड़ो बच्चे की। अब वो बेचारा निकल भाग रहा है, विदाई ले रहा है। तो भी उसे तुम चेतावनी क्या दे रहे हो? लगातार ध्यान में रहना, नहीं तो सच की रोशनी बुझ जाएगी, खो जाएगी।

तो यहाँ ऐतराज़ जताया गया है। ये प्रश्न नहीं है, ये ऐतराज़ है, और क्या ऐतराज़ किया जा रहा है? ‘ये सदा ध्यानस्थ भी रहना पड़ेगा क्या? भई, कहीं पर तो विराम लगाइए, किसी जगह तो आकर बोलिए कि हाँ भई, पूजा अर्चना बहुत हुई, ध्यान इत्यादि बहुत हुआ, अब जाओ खेलो।’ छोटे बच्चे होते है न? ‘हो गया गृह कार्य पूरा, अब ये लो फुटबाल।’ तो सवाल कह रहा है कि गुरु जी फुटबॉल कब मिलेगी?

तुम्हारी नज़र फुटबॉल पर ही रहेगी, हाँ? मानोगे नहीं तुम। ध्यान का मतलब ये नहीं होता है कि फुटबॉल फेंक दी। ध्यान का मतलब होता है कि फुटबॉल तमीज़ से खेली। तुम्हें आता कहाँ है फुटबॉल खेलना। तुम तो फुटबॉल से सिर फुटव्वल खेलते हो। और कोई पूछता है कि ध्यान माने क्या, तो तुम ये भी प्रदर्शित कर देते हो कि तुम्हें फुटबॉल तो नहीं ही पता, ध्यान भी नहीं पता। तुम्हारे लिए ध्यान का अर्थ है फुटबॉल ना खेलना। ध्यान का मतलब होता है जो कुछ भी हो रहा है उसमें तुम्हारी निष्ठा सत्य के प्रति है। घटनाएँ घट रही हैं, घटनाओं के केन्द्र में तुम लगातार जगे हुए हो। ज्ञान की भाषा में कहूँ तो लगातार जगे हुए हो, भक्ति की भाषा में कहूँ तो तुम लगातार सत्यनिष्ठ हो।

तुम गुज़र रहे हो बाज़ार से और तुम देख भी रहे हो कि बाज़ार में कौन-कौनसी वस्तुएँ हैं, क्या काम का सामान हैं। देख भी रहे हो और हो सकता है तुम कुछ चीज़ों को खरीद भी लो। लेकिन तुमने हाथ में हाथ डाल रखा है अपने प्रियवर के। ये भक्ति की भाषा में ध्यान का अर्थ हुआ। बात समझ रहे हो? गुज़र रहे हो बाज़ार से और बाज़ार में बहुत वस्तुएँ हैं। और तुम ये नहीं कह रहे हो कि ये सारी वस्तुएँ तो प्रलोभन मात्र हैं। हमें इनसे कोई लेना-देना नहीं। तुम उन वस्तुओं को देख भी रहे हो, लेकिन ऐसे (साथ में किसी के होने और दूसरी तरफ़ आँखें फेरकर देखने का अभिनय करते हुए) देख रहे हो। यहाँ कौन है?

श्रोता: जो प्रेमी है।

आचार्य: यहाँ वो है जिसे होना चाहिए। तुम गलत समझ रहे हो। (श्रोतागण हँसते हैं) यहाँ वो है जिसे होना ही चाहिए। मैंने प्रियवर बोल दिया न, इसलिए प्रसन्न हो गये। अब बोल रहा हूँ, यहाँ बाप है (श्रोतागण हँसते हैं)। सूफियों ने उसे प्रियतम बोला है तो ईसाइयों ने फादर बोला है, बाप बोला है, यहाँ बाप है। तो तुम गुज़र बाज़ार से रहे हो और बाज़ार में रुचि भी है तुम्हारी। लेकिन साथ सदा तुम्हारे, तुम्हारा बाप है। रामकृष्ण के पास जाओ तो वो कहेंगे बाप नहीं, माँ है। जो कहना है कहो, प्रियवर कह लो, बाप कह लो, माँ कह लो। अर्जुन से पूछोगे तो कहेगा, ‘सखा है — सखा, कृष्ण, सखा।’ सखा कह लो।

लेकिन बात ये है कि बाज़ार तुम पर इतनी हावी हो गयी है कि जो तुम्हारे साथ है तुम उसे भूल गये। न ही जो तुम्हारे साथ है वो तुम्हें ये देशना दे रहा है कि बाज़ार की ओर देखो ही मत। वो तुमसे कह रहा है, ‘चलो दोनों एक साथ बाज़ार में रमण करेंगे।’ दोनों एक साथ बाज़ार में रमण करेंगे। और बाज़ार और भी मज़ेदार हो गयी है क्योंकि प्रियवर साथ में है। बात आ रही है समझ में?

लगातार ध्यानस्थ रहने का मतलब है, बाज़ार में अकेले नहीं घूमना है। दुनिया एक बहुत बड़ा बाज़ार है उसमें अकेले नहीं घूमना है। और अकेले नहीं घूमने का मतलब ये नहीं है कि भीड़ में घूमना है। उस एक के साथ रहना है। हुआ है कभी? कि बहुत ही घटिया पिक्चर थी लेकिन जिसके साथ देख रहे थे वो प्यारा था, तो पिक्चर को झेल गये। हुआ है?

(एक श्रोता को सम्बोधित करते हुए) तेरे साथ नहीं हुआ है, तू मत बता (श्रोतागण हँसते हैं)। जो अनुभवी खिलाड़ी हैं उनके साथ हुआ होगा। हुआ है न? कि चलो पिक्चर देखेंगे, पिक्चर निकली बेहूदा। लेकिन हमसफ़र कुछ ऐसा था की पिक्चर बर्दाश्त हो गयी, कहा, ‘चलो कोई बात नहीं। थोड़ा पॉपकॉर्न तुम खाओ, थोड़ा हम खाएँ, इसको झेल जाएँगे।’ ये है लगातार ध्यानस्थ रहने का अर्थ। बात आ रही है समझ में?

‘स्थ’, ‘स्थान’, ‘ध्यान-स्थ’, ध्यानस्थ माने लगातार सही स्थान पर रहना। तुम सही जगह स्थित रहो, परिस्थितियों को जैसा उन्हें होना है, होने दो। ये है लगातार ध्यानस्थ होना। आयी बात समझ में?

और एक जिज्ञासा ये भी आयी है कि जो आत्मस्थ हो गया, सत्य जिसपर उद्घाटित हो गया। अब उसको क्यों लगातार जागृत रहने की चेतावनी या सलाह दी जा रही है? क्योंकि जो जग गया वो तो जग गया। तुम भी सुबह जगे हो? शाम को सो भी जाओगे। ये मन से भ्रम बिलकुल निकाल दो कि कोई आखिरी घटना होती है बुद्धत्व। तुम छोड़ दो इस बात को कि बात पलटी नहीं जा सकती, कि अपरिवर्तनीय स्थिति में पहुँच गये हो तुम। कि अटल, अचल सिंहासन हो गया है तुम्हारा। ऐसा नहीं होने वाला, सतत् जागरूकता चाहिए। बुद्ध को भी ध्यानस्थ रहना होगा। हाँ, बुद्ध के लिए ध्यानस्थ रहना स्वभाव है, उन्हें अब कठिनाई नहीं है, सहजता है। पर कोई क्षण ऐसा नहीं आता है जहाँ पर तुम कह दो कि मुझे सजगता की, जागरूकता की कोई आवश्यकता नहीं है। हाँ, होता ये है कि तुम्हें जागरूकता से इतना घना प्रेम होता जाता है कि फिर तुम कहते हो, ‘प्रेम काफ़ी है चेतावनी क्यों दे रहे हो?’

जब कोई तुमसे कहता है कि लगातार ध्यानस्थ रहना, तो तुम कहते हो, ‘हमें तो ध्यान से प्रेम है, चेतावनी क्यों दे रहे हो? हम ध्यानस्थ रहेंगे पर उसके लिए हम डर या चेतावनी मत बताओ। हमें तो ध्यान से प्रेम है।’ इसलिए लेकिन फिर भी न्यूनतम ही सही पर सम्भावना सदा रहती है कि जो ऊँचे-से-ऊँचे सिंहासन पर भी विराजा है, वो वहाँ से ढुलक सकता है, फिसल सकता है।

अगर तुम इस लालच में अध्यात्म की ओर आये हो कि एक दिन आकाश पर बैठ जाओगे और वहाँ से गिरने की कोई सम्भावना नहीं रहेगी, तो भूल जाओ। जीव हो, शरीरी हो और ये शरीर विकारों का घर है। जिस दिन तक शरीर रहेगा उस दिन तक विकार, वृत्ति उपस्थित रहेंगे। गड़बड़ कभी भी हो सकती है, दुर्घटना कभी घट सकती है। कबीर कहते हैं, ‘मनोनिग्रह पूरी तरह से सम्भव ही नहीं है।’ कहते हैं, ‘मन को मृतक तो कभी जान ही मत लेना।’

मन को मृतक जान के, मत कीजे विश्वास

जब लगे भी मन का पूर्ण शमन हो गया तो विश्वास मत कर लेना।

"काल कोटि माया बसे, यह ले पिंजर साँस"।

ये मुर्दा ऐसा है कि साँस लेता है। ये माया ऐसी है कि हज़ारों मृत्यु के बाद भी साँस लेती रहती है। ये पिंजर साँस लेगा। तुम्हें लगेगा कि मन को, माया को मार डाला। तुम बुद्धत्व का आखिरी चरण भी पार गये; बिलकुल भी नहीं, तुम धोखे में हो। ठीक तुम्हें जब लग रहा है कि तुम खेल जीत चुके हो। तभी कोई पीछे से आ रहा है, धावा मारने।

लगातार जागरूक रहना और फिर जागरूकता का ये उपदेश तो उस शिष्य को दिया जा रहा है जो दीक्षित हो चुका। तुम तो अभी दीक्षित भी नहीं हुए हो। जब सोचोगे दीक्षान्त वचन ऐसे हैं तो तुम्हें क्या सीख देंगे गुरु? तुम्हें तो ये कहेंगे, ‘बेटा, जैसे साँस निरन्तर है वैसे ध्यान भी निरन्तर बना रहे। जहाँ भूले वहाँ चूके। ध्यान टूटा नहीं कि तुम फिसले, चारों खाने चित। और फिर बाद में कहते रहना कि अरे अरे अरे! बड़ा मैला लग गया। चदरिया मैली हो गयी, “अब जाकर बाबुल से नज़रें मिलाऊँ कैसे, लगा चुनरी में दाग दिखाऊँ कैसे?” किसने कहा था चुनरी में दाग लगा लो? किसने कहा था नशे में डूब जाओ?

आ रही है बात समझ में?

इसीलिए बहुत ताज्जुब मत माना करो जब तुम्हारे सामने कभी उल्लेख आयें कि सन्त-महात्माओं में भी विकार उपस्थित थे, कि परशुराम ने क्रोधित होकर इतनी हत्याएँ कर डाली कि दुर्वासा ऋषि बात-बात में श्राप दे देते थे। या कि समकालीन सन्त जनों के बारे में तुम्हें कुछ ऐसी बातें पता चले जो अमर्यादित या अनैतिक है। क्योंकि कोई भी जाग्रति, शरीर रहते, आखिरी नहीं होती। जब तक शरीर है तब तक विकारों की सम्भावना बनी रहती है। सजग रहना, जागरूक रहना।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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