धोखा खाने का डर क्यों रहता है?

Acharya Prashant

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धोखा खाने का डर क्यों रहता है?

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, धोखे का डर रहता है। उसको कैसे दूर करें?

आचार्य प्रशांत: तो धोखे का थोड़े ही तुम्हें डर रहता है, तुम्हें तो डर ये रहता है कुछ खो ना जाए। धोखे से तुम्हें एक लाख रुपए मिल जाएँ तो डर लगेगा?

धोखे का थोड़े ही डर है। डर ये है कि धोखे से कहीं कुछ नुकसान न हो जाए। बहुत लोगों को धोखे से बहुत फायदा भी हो जाता है, सोच रहे थे कुछ और, हो कुछ और गया। देखो कितने फ़ायदे हुए हैं धोखे से।

तो क्यों है डर नुकसान का?

प्र: पैसे का, रिश्ते का। मुख्य परेशानी डर है।

आचार्य: फिर क्या होगा? जब चीज़ें खो जाएँगी तब क्या होगा? जिन चीज़ों के खोने का भय है वो खो जाएँगी तो क्या होगा?

प्र: दुःख।

आचार्य: ठीक है, दुःख होगा तो क्या होगा?

प्र१: आपने कहा था कि जो चीज़ संसार से मिली है वो छिन जाए तो वो वैसे भी तुम्हारा था ही नहीं।

प्र२: दुःख तो तब भी होना था तो दुःख अभी क्यों कर रहे हो? खोएगा या नहीं खोएगा वो तो एक सम्भावना है। अभी तो आप डर कर दुःखी हो ही रहे हो।

आचार्य: ये एक ओढ़ी हुई मजबूरी है कि कुछ खो गया तो दुःख होना ही होना है।

तुम्हारा सब कुछ भी चला जाए तो भी तुम झेल तो लेते ही हो। बल्कि जब चीज़ें तुम्हारे पास से खोती हैं, तब दुःख हो न हो, उनके खोने की कल्पना कर करके तुम खूब दुःख अनुभव कर लेते हो।

आज से पहले कुछ खोया नहीं है क्या? तो खोई हुई चीज़ के साथ तुम भी खो गए?

और जिस भी चीज़ को तुमने पकड़ रखा है वो खोएगी कभी नहीं क्या?

जब तुम्हारी पहली वस्तु को ही खो जाना है, क्या है तुम्हारी पहली वस्तु?

देह।

जब उसको ही खो जाना है तो देह के माध्यम से तुमने और जो वस्तुएँ पकड़ी वो नहीं खोएँगी क्या? तो क्यों बवाल मचाते हो?

प्र: सोचना है।

आचार्य: सोचना है तो पूरा सोचो, जान लगा कर सोचो।

आधा-अधूरा नहीं न कि “हाए! हाए!” कि जैसे किसी की गर्दन कट रही हो, उसे गर्दन का कुछ पता नहीं, कह रहा है, “अरे! अरे! दाढ़ी मेरी नहीं छिननी चाहिए।”

दाढ़ी पहले आई थी या मुंडी?

जब मुंडी ही नहीं बचेगी तब तुम दाढ़ी से क्या लगन लगा रहे हो?

ये सब रिश्ते-नाते दाढ़ी के बाल हैं, देह से उपजे हैं।

जब देह ही नहीं बचेगी तब दाढ़ी के बाल क्या बचेंगे?

और तुम्हें तो दाढ़ी के बाल ही नहीं दाढ़ी के बाल के रंग से भी आसक्ति रहती है, कहते हो, “मेंहदी लगाई थी!”

गर्दन कट रही है। भैंसे वाला खड़ा है अपना गंडासा ले करके। भैंसे वाले को जानते हो न, मेरा दोस्त, कौन?

प्र: यमराज।

आचार्य: और यहाँ बात ये हो रही है कि दाढ़ी कि जूँ ना छूट जाएँ।

जब किसी चीज़ के साथ बहुत दिल लगाते हो उस वक्त सतर्क रहा करो। दिल लगाना आसान है उसके बाद सजग होना मुश्किल है। ये जो जल्दी से तादात्म्य बना लेते हो न कि, "ये मेरी चीज़, ये मेरा रिश्ता, ये मेरी इज्ज़त, ये मेरा रुपया", एकदम बल्ब जल जाया करे, बिजली कौंध जाया करे कि, "रिश्ता जो बना रहा हूँ मैं अब यही दुःख का कारण बनने वाला है!"

भीतर एक व्यवस्था रहे सर्किट-ब्रेकर की, कि सर्किट में जहाँ एक सीमा से ज़्यादा करेंट प्रभाहित होगा तहाँ सर्किट ब्रेक (टूट) हो जाएगा।

उसी को कहते हैं 'फ्यूज़ '।

सर्किट पिघल जाएगा, मेल्ट कर जाएगा, फ्यूज़ कर जाएगा।

दिमाग में थोड़ी बहुत गतिविधि चलती रहती है, जहाँ उस सीमा से ज़्यादा गतिविधि चले तहाँ सर्किट टूट जाए कि लो अब कुछ नहीं चलेगा।

तो साधना यही है; भीतर सर्किट-ब्रेकर लगा देना। गड़बड़ हुई नहीं, सर्किट डाउन! लो अब कुछ नहीं चलेगा यहाँ।

तो तुमने गड़बड़ी को ही विधि बना लिया, अब तुम नहीं हार सकते। माया के ख़िलाफ तुमने माया को ही विधि बना लिया, अब तुम्हें कोई और विधि चाहिए ही नहीं।

“मुझे परेशान नहीं होना है”, इस लक्ष्य के लिए तुमने क्या विधि बनाई?

कि जैसे ही परेशानी आएगी; सर्किट डाउन!

लो अब परेशान तुम हो ही नहीं सकते।

माया का आना ही माया के ख़िलाफ अलार्म बन गया।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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