धंधा रुकने न पाए || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव आइ.आइ.एस.सी (IISc) बेंगलुरु (2022)

Acharya Prashant

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धंधा रुकने न पाए || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव आइ.आइ.एस.सी (IISc) बेंगलुरु (2022)

प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी, मेरे काफ़ी दोस्त हैं जो काफ़ी धर्मगुरुओं को फॉलो (अनुसरण) करते हैं, उनके साथ मैं बहुत बातें करता रहता हूँ, आपसे भी सुनकर शेयर (साझा) करता रहता हूँ। बस अभी दो दिन पहले ही हमारा एक सेशन (सत्र) था जहाँ पर हम लोग वर्क (काम) के बारे में बात कर रहे थे, तो उन्होंने कुछ स्टोरी सुनायी मुझे, जिसमें एक साधक जाता है गुरु के पास; उसका गुरु एक कसाई है, जो मॉंस काटता है।

और काफ़ी लोग यही बोलते हैं कि अगर तुम एक प्रॉस्टिट्यूट (वेश्या) हो तब भी तुम एनलाइटेन्ड हो सकते हो। तो मैं उनको समझा नहीं पाया कि वर्क कितना बड़ा पार्ट ऑफ़ लाइफ़ है। तो मुझे को यही जानना था कि क्या ऐसा हो सकता है कि आप काम करो और साथ में थोड़ा मेडिटेशन कर लो उससे कुछ हो जाएगा?

और इसको अगर धार्मिक दृष्टि से देखें तब मैं काफ़ी जगह देखता हूँ, जहाँ पर लोग बोलते हैं कि काम कुछ भी करते रहो और बस दो मिनट चले जाओ मन्दिर के लिए और फिर सब बराबर हो जाएगा, सब भगवान देखते है, राम नाम सबसे बड़ा है! तो एक तरफ़ वो चलता रहता है। तो सही वर्क का चुनाव कैसे करें? मतलब वर्क को कैसे यूज़ (प्रयोग) करें मुक्ति की तरफ़?

आचार्य प्रशांत: देखो, जब फँसे होते हो तभी आज़ादी की ओर बढ़ते हो, तो जो आज़ादी की ओर बढ़ेगा वो तो निश्चित ही पहले कहीं फँसा हुआ होगा ही न? जो आज़ाद है उसको मुक्ति क्यों चाहिए या चाहिए उसे भी? तो सवाल ये नहीं है कि कसाई या वेश्या को मुक्ति मिल सकती है या नहीं, सवाल ये है कि एक बार मन में मुक्ति की चाहत जाग गयी, क्या तब भी कसाई, कसाई रह पाएगा और वेश्या, वेश्या रह पाएगी।

वो चाह जब तक नहीं थी तब तक तो कोई कुछ भी कर सकता है, पागल आदमी का क्या भरोसा कुछ भी करेगा! लेकिन एक बार ये समझ में आ गया कि बन्धन में हैं और वेश्या को दिख गया कि मेरा बन्धन ही यही है कि मैं देह का सौदा करती हूँ देह को चलाने के लिए और ज़िन्दगी में कुछ कर ही नहीं रही मैं, तो क्या तब भी वो वही सौदा कर पाएगी अगले रोज़?

कसाई को दिख गया कि अपना पेट चलाने के लिए मैं न जाने कितनों की रोज़ हत्या कर रहा हूँ, क्या अगले दिन भी हत्या कर पाएगा? तो जाग्रति से पूर्व आप क्या करते थे, उसकी कोई बात नहीं है — आप कुछ भी कर सकते हो, आप हत्यारे हो सकते हो, लुटेरे हो सकते हो, अंगुलीमाल हो सकते हो, वाल्मीकि हो सकते हो, कोई भी हो सकते हो।

प्रश्न ये है कि क्या जाग्रति के बाद भी डाकू वाल्मीकि, डाकू वाल्मीकि ही रहा? जल्दी बताओ! जाग्रति से पहले अंगुलीमाल जो था, जाग्रति के बाद भी वही रहा? बुद्ध से मिलने के बाद भी यही किया कि उँगलियाँ काट-काटकर माला पहनूँगा, यही काम किया? तो जाग्रति से पहले वेश्या जो कर रही है वो एक बात है, जाग्रति के बाद नहीं करेगी न! फिर नहीं करती।

ये सब जो कहानियाँ बता रहे हो कि जो भी काम-धन्धा कर रहे हो उसके साथ में ध्यान कर लो, इससे हो जाएगा — हाँ, हो तो जाएगा, गुरु जी का हो जाएगा और किसी का नहीं होता, गुरु जी का मस्त चलता है! ये पूरी चीज़ कि जो है वही चलने दो, उसी में काम हो जाता है, ऐसा नहीं होता, नहीं होता, नहीं होता!

आप बदल गये हो आपका धन्धा सेम (वही) कैसे रह जाएगा भाई? जब आप भी वो व्यक्ति नहीं रहे, भीतर से कर्ता बदल गया तो कर्म कैसे नहीं बदलेगा? ये तो हो सकता है कि बाहर से आप कर्म बदल दो भीतर से कर्ता न बदला हो, ये तो सम्भव है कि पहले आप मन्दिर नहीं जाते थे क्योंकि लालची थे, तो दुकान की ओर भागते थे, फिर किसी ने बता दिया कि मन्दिर जाओ, वहाँ लालच पूरा होता है, तो आप दुकान की जगह मन्दिर जाने लगे — कर्म बदल गया, पहले दुकान को भागते थे, अब मन्दिर को भाग रहे हो, लेकिन भीतर कर्ता वही है, कौन? लालची। पहले लालच के कारण जाता था दुकान, अब लालच के कारण जाता है मन्दिर।

तो ये तो सम्भव है कि कर्म बदल गया कर्ता नहीं बदला, लेकिन ये नहीं सम्भव है कि कर्ता बदल जाए और कर्म न बदले। जो जाग्रत हो गया वो भीतर से बदल गया न? तो उसके कर्म तो बदलेंगे ही — वेश्या, वेश्या कैसे रह जाएगी? कैसे कर लोगे? आपका मन बदल जाता है उसके बाद आप पुरानी हरकतें कर सकते हो? तो फिर?

ये कौन गुरूजी बता रहे हैं? ये सब सिर्फ़ इसलिए है ताकि तकलीफ़ न हो, आदमी की ज़िन्दगी जैसी चल रही है, आम साधारण मध्यमवर्गीय डरी-डरी ज़िन्दगी संकुचित, वैसी चलती रहे और बन्दे को थोड़ा सा एक सांत्वना भी बनी रहे कि नहीं मैं भी आध्यात्मिक आदमी हूँ, मैं कुछ कर रहा हूँ, मेरा भी है, ठीक है। वो थोड़ा सा एक बहाना बना रहता है, उससे बहुत आत्मग्लानि नहीं होती, आदमी अपनी नज़रों में फिर बहुत गिरता नहीं है, तो एक अभिमान बना रहता है कि देखो ऐसा कुछ नहीं है कि हमारी ज़िन्दगी में सिर्फ़ काम-धन्धा और पैसा है, हम भी आध्यात्मिक हैं, हम हफ़्ते में आधे घंटे बैठकर के फ़लानी क्रिया करते हैं, तो हम भी हैं। ये सिर्फ़ दिल को दिलासा देने की बातें हैं, इनसे कुछ नहीं होता।

आप बदल रहे हो आपका काम नहीं बदल रहा है, तो कौनसा बदलाव? झूठा बदलाव! एक कहानी है महात्मा बुद्ध की — उनका एक भिक्षु था तो एक बार आया उनसे अनुमति लेने कि (वेश्या की बात कर रहे हो न), वेश्या एक बुला रही है कि मेरे साथ रह लो कुछ महीने। तो बढ़िया वाला भिक्षु था, बुद्ध को विश्वास था उसके शिष्यत्व पर, भिक्षुत्व पर। बोले, ‘ठीक है, रहो!’ लोगों ने आपत्ति वगैरह भी की होगी — उन्होंने कहा, ‘कोई बात नहीं, तुम जाओ रहो उसके साथ।’ तो वो चला गया रहने लगा, वेश्या थी वो अपने काम में पारंगत थी उसने हर तरीक़े से लुभाने वगैरह की कोशिश भी करी। वो काहे को हिले-डिगे, वो भी भिक्षु पक्का है। वेश्या चाहती थी भिक्षु बदल जाए, भिक्षु की संगति में वेश्या बदल गयी। तीन महीने बाद भिक्षु लौटकर आया वेश्या उसके पीछे-पीछे आ रही है, बोल रही है, ‘मैं भी भिक्षुणी बनूँगी।’

जब बदल जाओगे तो वेश्या रह जाओगे क्या? वेश्या बदल गयी, वो बुद्ध के पास आ गयी। ये थोड़े ही हुआ कि वह बदल गयी और बोली, ‘अब मैं बुद्धत्व प्राप्त वेश्या हूँ, अब मैं जाग्रत वेश्या हूँ, बोध वेश्या!’ ऐसा होता है?

और हम यही चाहते हैं कि हमारी वेश्यागिरी भी चलती रहे और साथ में हम ये भी दावा कर पायें कि हम बोध-वेश्या हैं। वाह रे बेईमानी! गज़ब! पाखंड का चरम! कमाई भी पूरी होती रहे और साथ में ये अभिमान भी रहे कि हम भी तो जाग्रत हैं, हम किसी से कम नहीं।

ये जहाँ से भी आपके दिमाग में आ रही हैं बातें कि पुरानी ज़िन्दगी जैसी चल रही है चलने दो, उसके बाद भी आन्तरिक जागरण हो सकता है, कृपा करके इस बात को बिलकुल मन से निकाल दें! जिसका अन्दर परिवर्तन होगा, उसका बाहर भी होगा। बाहर हो जाए भीतर न हो, ये तो फिर भी थोड़ा सम्भव है, हम दोहराकर कह रहे हैं — ये तो फिर भी सम्भव है कि बाहर की आप परिस्थितियाँ बदल दीजिए लेकिन भीतर फिर भी जस-के-तस रहे आइए, ये हो सकता है, लेकिन‌ ये नहीं हो पाएगा कि भीतर से बदल गये हो और बाहर जो चल रहा था वैसे ही चल रहा है, नहीं। और भीतर बदल रहे हो और बाहर जो चल रहा है उसको बदलने नहीं दे रहे, तो भीतर का बदलाव भी रुक जाएगा।

अब समस्या खड़ी हो गयी! हम उदाहरण ऐसे ही क्यों उठाते हैं वेश्या का, कसाई का? इससे हमारे बारे में कुछ पता चलता है न कि हम जानते हैं हमारे धन्धे कैसे है या तो ये बोल सकते हैं कि हमारा धन्धा वेश्या का है कि ज़िन्दगी बेच रखी है पैसे की ख़ातिर, यही तो वेश्या है या हमारा धन्धा कसाई का है कि पूरी दुनिया का शोषण कर रहे हैं, मार रहे हैं, खून बहा रहे हैं, अपने स्वार्थ की ख़ातिर।

नहीं तो यही दो उदाहरण हम काहे को लेकर समझाएँ? गुरुदेव भी जानते हैं, इसीलिए यही दोनों उदाहरण लेते है वो। वेश्या का लेंगे, कसाई का लेंगे, थोड़ा और उन्नत हो जाएँगे तो बलात्कारी का ले लेंगे, उन्हें भी पता है कि हमारे ऊपर कौन से विशेषण बिलकुल सुशोभित होते हैं। पूछते नहीं हो गुरुदेव को रोककर कि यही वाला काहे को लिया! ‘ये हममें ऐसा क्या दिख रहा है कि वेश्या का उदाहरण लिया?’

“जो तन का सौदा सिर्फ़ तन चलाने की ख़ातिर करे उसको वेश्या कहते हैं, ये आध्यात्मिक परिभाषा है और इस परिभाषा से दुनिया के निन्यानवे प्रतिशत लोग मात्र वेश्यावृत्ति करते हैं।”

तन है ताकि चेतना को उठा सको, तन इसलिए नहीं है कि तन का इस्तेमाल करो तन को ही चलाने के लिए कि दिन भर कहीं जाकर के मेहनत कर रहे हो — तन में बुद्धि भी आती है, तो आपमें से जो बुद्धिजीवी लोग हों उनके ऊपर भी ये बात लागू होती है — बुद्धि भी तो मस्तिष्क से ही उठती है न, वो भी तन की ही बात है।

“अगर आप अपने शरीर का इस्तेमाल सिर्फ़ इसलिए कर रहे हैं कि शरीर चलता रहे, शरीर को सुख-सुविधाएँ मिलती रहें, तो ये वेश्यावृत्ति है।”

शरीर किसलिए है?

ताकि उसका प्रयोग संसाधन, उपकरण की तरह करके यहाँ से (मस्तिष्क की ओर इंगित करते हुए) मुक्त हो पाओ, चेतना को ऊँचाई दे पाओ। तो बेचारी कुछ मुट्ठीभर स्त्रियों पर ही वेश्यावृत्ति का आरोप लगाना ठीक नहीं है, यहाँ सब वेश्या-ही-वेश्या घूम रहे हैं, बड़े सम्माननीय बहुत हैं वेश्या सब, बिके हुए हैं! जो बिका हुआ है वो वही है।

प्र: आचार्य जी, एक और प्रश्न था कि जब हम लोग बोलते हैं कि सुख की तरफ़ जाना है, तो क्या हम लोग मुक्ति को भी एक सुख की तरह देख रहे हैं?

आचार्य: देखो, सुख-वुख की तरह देखकर के मुक्ति की तरफ़ कोई नहीं जाता, जो भी लोग आज तक सचमुच गये हैं मुक्ति की तरफ़, वो दुख से तड़पकर गये हैं, वो अपने दुख से संवेदनशील होकर गये हैं। हम अपने दुख के प्रति संवेदनशील इसलिए नहीं हैं, क्योंकि हम मनोरंजन के नशे में डूबे हुए हैं वो हमें दुख का अहसास नहीं होने देता, दुख का एहसास तब हो न जब ज़रा स्थिर हो जाओ! जो एनेस्थीज़िया (नशा) ले रखा है मनोरंजन का वो थोड़ा उतरे। दुनिया में क्यों इतना मनोरंजन-ही-मनोरंजन है? हर चीज़ मनोरंजन है! ताकि आपको मुक्ति की ओर बढ़ना न पड़े।

मनोरंजन रुक गया तो दुख मार डालेगा आपको! मनोरंजन वही नहीं है कि आप कॉमेडी शो देख रहे हो, ये जो आप ख़बरें देखते हो टीवी पर, ये भी तो मनोरंजन ही है न, वो कोई ख़बर थोड़े ही दिखा रहे हैं आपको; आपको मज़े दिला रहे हैं! सबकुछ मनोरंजन ही है। घर में आप गये हो, अपने बच्चे के साथ बैठ गये हो, क्या कर रहे हो? मनोरंजन ही तो कर रहे हो और क्या कर रहे हो उसके साथ?

मनोरंजन थोड़ा रुके तो दुख फिर आपको तोड़े। जब दुख तोड़ता है तो फिर आदमी भागता है मुक्ति की ओर। और आज के युग की विडम्बना ये है कि मनोरंजन-ही-मनोरंजन है, हम हँस-हँसकर मर रहे हैं! हर कोई आपको हँसाना चाहता है ताकि आपको आपके दुख से अनभिज्ञ रखा जा सके।

मज़े की बात समझिए, जिसको दुख नहीं है उसको हँसी ही नहीं आती है कॉमेडी पर। जो जितना दुखी है उसे कॉमेडी पर उतनी हँसी आती है क्योंकि वो कॉमेडी है भी एकदम दो कौड़ी की, उसमें कुछ ऐसा है ही नहीं कि आपको हँसी आ सके! लेकिन लोग ज़ोर-ज़ोर से हँसते हैं, जहाँ कुछ हँसने का नहीं है वहाँ भी हँसते हैं, कॉमेडियन भी हैरान है, ‘मैं इतना अच्छा हूँ! (श्रोता हॅंसते हुए) अभी तो मैंने जोक मारा भी नहीं ये हँस रहे हैं पहले से ही।”

वो इतने दुखी हैं कि हँसना उनकी मजबूरी है भाई! हँसेंगे नहीं तो सच्चाई सामने आ जाएगी। और ये झूठ के बाशिंदे हैं, सच्चाई झेल नहीं सकते, तो ज़बरदस्ती हॅंसेंगे! हँस रहे हैं, हँस रहे हैं। अब क्या करोगे? अब तो गड़बड़ हो गयी।

प्र: मनोरंजन करना कम करूँगा ज़रा, फिर देखूॅंगा कि क्या प्रॉब्लम्स (समस्याएँ) हैं।

आचार्य: अरे! पहले से ही बता रहा हूँ और गड़बड़ हो जाएगी!

प्र: धन्यवाद!

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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