धन जमा करना कितना आवश्यक है?

Acharya Prashant

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धन जमा करना कितना आवश्यक है?

प्रश्नकर्ता: जो मेरे संगी-साथी हैं उनसे बातचीत होती है तो वो लोग बताते हैं कि उन्होंने किस तरह से आगे के लिए रुपया-पैसा जोड़ लिया है। और वो ये भी बताते हैं कि उस रुपये-पैसे की आवश्यकता पड़ती ही है, आत्मसम्मान को बचाने के लिए, आगे आने वाले खर्चों को निपटाने के लिए। मैंने कभी कोई बहुत बचत करी नहीं, तो इस तरह की बातें सुनता हूँ तो थोड़ा विचलित हो जाता हूँ। कृपया मेरा मार्गदर्शन करें।

आचार्य प्रशांत: जो तुम्हारे संगी-साथी कह रहे हैं वो गलत तो नहीं कह रहे हैं बिलकुल। पर वो जो कुछ कह रहे हैं वो एक सिद्धांत, एक मान्यता पर आधारित है। अगर उनकी मान्यता ठीक है, तो जो वो कर रहे हैं फिर वो भी ठीक है। उसमें कुछ गलत या बुरा नहीं है।

समझना। मैं एक जुआरी हूँ, मान लो। और मैंने तय ही कर रखा है कि मैं अगले पाँच साल जुआ ज़रूर खेलूँगा। तो फिर मेरे लिए आवश्यक हो जाता है कि मैं अपनी योजना के अनुसार, अपनी मान्यता के अनुसार जुआ खेलने के अड्डे का भी प्रबंध करके रखूँ। वैसे दोस्त-यार भी बना कर, बचा कर रखूँ। और धन की भी व्यवस्था करके रखूँ क्योंकि जुआ खेलने के लिए पैसा भी चाहिए।

इसी तरीके से मैं बीमार हूँ और मुझे पता ही है कि मैं बीमार ही रहने वाला हूँ। मेरे घुटनों में समस्या है, बहुत ज़्यादा, तो मैं अगले दस-बीस साल रहने के लिए जो घर खरीदूँगा, मैं कोशिश करूँगा कि वो हद से हद पहली मंजिल पर हो या फिर जमीन पर ही हो। मेरी मान्यता क्या है? मेरी मान्यता ये है कि आज मैं बीमार हूँ, आज मेरे घुटनों में दर्द है और अगले बीस साल भी मैं बीमार ही रहने वाला हूँ। मेरे घुटनों की आज ये हालत है कि ये तीसरी-चौथी मंजिल भी नहीं चढ़ सकते और अगले दस साल भी इनकी यही हालत रहेगी। या यह भी हो सकता है कि इनकी हालत और ज़्यादा ख़राब हो जाए, तो मैं बिलकुल ठीक कर रहा हूँ।

भूलो नहीं कि आदमी भविष्य की कल्पना अपनी वर्तमान परिस्थिति के अनुसार कर लेता है। और जब आप अपने वर्तमान के अनुसार ही भविष्य को रच लेते हो, तो आपने अपने भविष्य को जकड़ दिया। अब आपने अपने-आपसे यह हक और यह सम्भावना छीन ली कि आप भविष्य में बेहतर भी तो हो सकते हो।

मैं आज बड़ा कमज़ोर हूँ और बड़ा अहंकारी हूँ, मुझे बड़ा बुरा लग जाता है कि अगर कोई मुझसे दो ऐसी बातें कह दे जो चोट पहुँचाती हो। और मैंने तय कर रखा है कि अपनी इस आंतरिक कमज़ोरी को मुझे यथावत रखना है, तो अब मैं क्या करूँगा? मैं कहूँगा अब आगे मुझे कोई चोट न पहुँचा पाये इस अनुसार मुझे धन का संचय करना है, ऐसी मुझे अपनी प्रतिष्ठा बना लेनी है, ऐसा मुझे घर-द्वार खड़ा कर लेना है।

ये सब कुछ जो मैं भविष्य में कर रहा हूँ वो मेरी मुक्ति की अभिव्यक्ति है या मेरी वर्तमान कमजोरियों का ही स्थायित्व है? अपने आसपास जो तुम लोगों को भविष्य की खातिर करते देख रहे हो उसकी प्रेरणा उन्हें उनकी कमजोरियों से मिल रही है या सत्य और मुक्ति से मिल रही है, ठीक-ठीक बताना। जल्दी बोलो।

प्र: कमजोरियों से।

आचार्य: शर्मा जी ने अपनी शादी में जमकर दहेज लिया। क्या किया? जमकर दहेज लिया। शादी के दो साल बाद उनको बिटिया हुई। जिस दिन वो पैदा हुई उस दिन से उन्होंने उसके नाम पर पैसा जोड़ना शुरू कर दिया। कहानी खुल गयी न?

ये जो तुम भविष्य के लिए करते हो, वो तुम्हारे वर्तमान की काली करतूतों का ही तो प्रक्षेपण है न? मैंने अभी-अभी तो इतना दहेज खाया है, तो अब यह लड़की पैदा हुई है तो इसके लिए मुझे भी तो दहेज देना पड़ेगा। मैं बदलूँगा नहीं। मैं आज भी वो मर्द हूँ जो दहेज में यकीन रखता है, और आज से बीस साल बाद भी मैं वही मर्द रहूँगा जो दहेज में यकीन रखता है। मैंने दहेज लिया भी है और अपनी बेटी को दहेज दूँगा भी। मैंने इस सम्भावना का भी गला घोट दिया कि बीस साल मे मैं सुधर सकता हूँ। मैंने आज से ही तय कर रखा है कि बीस साल में भी मैं सुधरूँगा नहीं। तो मैं आज से ही धन का संचय शुरू कर देता हूँ।

तुम सुधर जाओ तो तुम्हें धन के संचय की ज़रूरत रहेगी? मैं पूछ रहा हूँ तुमसे।

लोग जिस वास्ते पैसा जमा करते हैं, वो सच्चाई का वास्ता है? बोलो। मैं छोटी-मोटी बचत की बात नहीं कर रहा हूँ। छोटी-मोटी बचत तो ठीक है। पता चला कि तुमने खाना मँगाया है और वो आकर कह रहा है कि ढाई-सौ रुपये और तुम कह रहे हो बचत तो हम करते नहीं। मैं उसकी बात नहीं कर रहा कि महीने के अंत में बिजली का बिल आया और तुम कह रहे हो “देखो साहब गुरुवर ने बताया है कि पैसा रखना अपराध है, तो यह बिल तो हमें दिखाओ मत।” मैं उसकी बात नहीं कर रहा। ये जो तुम मोटी राशियाँ जमा करते हो मैं तुमसे इनका उद्देश्य जानना चाहता हूँ।

ये मोटी राशियाँ तुम अपनी मुक्ति के लिए जमा करते हो या अपनी वृत्ति के लिए जमा करते हो? ईमानदारी से बताना।

अगर तुमने तय ही कर रखा हो कि जैसी वृत्तियाँ आज तुम्हारी हैं तुम इनको बदलने नहीं दोगें, तुम खुद को सुधरने नहीं दोगे तो निश्चित रूप से पैसा जमा करो। लेकिन अगर तुम अपने प्रति ज़रा भी प्रेमपूर्ण हो, तुम अपने-आपको थोड़ा भी ये हक देना चाहते हो कि, "आज मैं भले ही बेहोश हूँ, अँधेरे में हूँ पर कल तो बेहतर हो सकता हूँ न?" तो तुम क्यों कल के लिए आज से ही बंधनों का इंतेजाम कर रहे हो?

जिस लड़की की खातिर तुमने आज से दहेज जोड़ना शुरू कर दिया तुम कभी वास्तव में उसके बाप हो पाओगे? तुम कभी वास्तव में उसको पिता का प्रेम दे पाओगे? ये पैसा जोड़-जोड़ कर तुमने भविष्य की खातिर भविष्य का ही गला घोंटा न? कहने को तो तुम यह कह रहे हो कि, "अपनी बेटी के लिए देखो मैं हर महीने इतनी बचत करता हूँ।" पर उसी बेटी के प्रति गुनाह कर रहे हो कि नहीं?

इसी तरीके से यह जो बचत की जाती है भविष्य की खातिर, यह भविष्य के खिलाफ गुनाह होती है। चूँकि तुम सही जिंदगी नहीं जी रहे इसीलिए तुम सही जिंदगी की भरपाई बचत और पैसों से करना चाहते हो। यही बात है न? सही जिंदगी जी रहे होते तो इतना पैसा तुम्हें चाहिए नहीं होता।

मैं पैसे की महत्ता से इनकार नहीं कर रहा हूँ। मैं नहीं कह रहा हूँ कि फटे-हाल हो जाओ, सड़क पर आ जाओ। (प्रश्नकर्ता को सम्बोधित करते हुए) मैं उस कोटी की बचत की बात कर रहा हूँ, जो बचत तुम्हें हैरान कर रही है। वो छोटी-मोटी बचत नहीं है तुम जानते हो। छोटी-मोटी बचत तो तुम्हारे पास भी है। मैं उस बचत की बात कर रहा हूँ जिसमें कई शून्य लगे होते हैं।

वो बचत तुम इसलिए तो करते नहीं कि वो बचत हो जाएगी तो राम हाँसिल हो जायेगा। या उस बचत से राम हाँसिल होता है?

वो बचत तो तुम इसलिए करते हो कि जिस दिन मेरे शेर की शादी होगी उस दिन पूरे शहर को पता चलना चाहिए। यही बात है न? या तुम्हें अच्छे से पता है कि तुम्हारा जो शेर है ये खुजली वाला कुत्ता है। तुम्हें पता है कि अपने-आप इसका कुछ होने का नहीं है। तो तुम अभी से करोड़ों जोड़ रहे हो कि कुछ करके इसको ऑस्ट्रेलिया के किसी विश्वविद्यालय में दंद-फंद से प्रवेश दिला दूँगा। है वो चार ही साल का पर उसका लक्षण देख कर तुम्हें पूरा भरोसा आ गया है कि जब ये कक्षा दो से कक्षा तीन में अपने-आप नहीं जा पाता तो ये एम.बी.ए क्या खाक करेगा। तो तुम अभी से जोड़ रहे हो कि कम से कम दो-चार करोड़ तो होना चाहिए। तभी तो इसको ऑस्ट्रेलिया भेजेंगे।

प्र: आचार्य जी, अगर स्वास्थ्य के लिए बचत करें कि कैंसर न हो जाए।

आचार्य: तुम जिंदगी ही पहले ऐसी जियो कि तुम्हें पक्का यकीन रहे कि, "कैंसर मुझे नहीं होगा तो और किसको होगा!" और फिर तुम कहो कि, "अब बचत तो बहुत ज़रूरी है न!"

(आचार्य जी उदाहरण देते हुए) मुझे चिकित्सक ने अभी पिछले कुछ महीनों में बोला है कि साहब आपका लीवर थोड़ा दाँए-बाँए हो रहा है। ये-ये सब चीजें हैं जो आप अब न करें, बचें। अब पहले तो मैं वही सारे काम करूँ, चुन-चुन कर वही सब कुछ करूँ जो मुझे निषिद्ध है। और उसके बाद साथ में क्या जोडूँ, यहाँ (बगल में) गठरी रखूँ। कि अब ये तो पक्का ही है कि पाँच-सात साल के अंदर-अंदर लिवर ट्रांसप्लांट (प्रत्यारोपण) चाहिए। और अभी से मैंने रेट (मूल्य) पता कर लिए हैं तो उतना इकट्ठा भी तो होना चाहिए न।

तुम पहले यह बताओ कि उतना तुम्हें चाहिए इसीलिए न क्योंकि अभी तुममें तमाम तरह के ऐब हैं? अभी तुम हर तरीके से अपनी वृत्तियों को ही प्रोत्साहन दे रहे हो। तुम्हारा चित्त पर कुछ बस नहीं है, तुम्हारी जीवनचर्या घटिया है, तुम तमाम तरीके की गंदी आदतों के गुलाम हो।

अब ये करके तुम पैसा जोड़ रहे हो, कि जैसे कि कोई अपराधी खूब बचत करे। कोई पूछे क्यों कर रहे हो? तो बोले, "इतनी तो जमानत लगेगी न। क्योंकि जेल जाना हमारा पक्का है। जैसी हमारी जिंदगी है जेल तो जाएँगे, तो कम-से-कम ज़मानत लायक तो जोड़ कर रखें।"

जमानत लायक जोड़ कर रखना ज़रूरी है या बेहतर यह है कि जिंदगी बदल लो कि जेल न जाना पड़े? जबाव दो। पर नहीं, अहंकारी मन बदलने को तैयार नहीं होगा। न बदलने के लिए उसे जो कीमत अदा करनी पड़े, वो देने को तैयार है।

प्र: चाहे वो मृत्यु ही क्यों न हो।

आचार्य: अरे मृत्यु इतनी आसानी से नहीं, इतनी दूर मत जाओ।

प्र: आचार्य जी, आप उनके विपक्ष में तो नहीं कह रहे, जो अपने माँ-बाप के लिए जोड़ रहे हों?

आचार्य: बेटा मैं उसको भी लेकर के थोड़ा...

प्र: अगर मैं अपने नज़रिए से देखूँ तो कुछ लोग हैं जो अपने माँ-बाप के लिए ऐसा करते हैं।

आचार्य: कुछ क्यों नहीं कर सकते? या तो खुद बीमा करा लो या सरकारी योजनाओं का लाभ उठा लो।

प्र: जी उसके लिए माँ-बाप को बोला है।

आचार्य: तो बस हो गया। तो ये दुहाई देना भी कि हम अपने लिए थोड़ी कुछ करते हैं दूसरों के लिए करते हैं, वो भी अब बहुत सार्थक तर्क नहीं रहा। और देखो मुझे क्रूर या असंवेदनशील मत समझना। पर मैं इस बात का ज़रा पक्षधर हूँ कि अगर जीवन में कोई बड़ा ही उद्देश्य न बचा हो, तो जब बुलावा आए तो चले जाना चाहिए।

ये जो आमतौर पर लोग अपनी ज़िंदगी के आखिरी पाचँ-दस साल जीते हैं, ये वो जीते ही नहीं है। ये वो अस्पतालों के लिए जीते हैं। आप अगर पिच्यास्सी साल जी रहे हो तो उसमें आखिरी पाँच-दस साल तो समझ लो आप सिर्फ इसलिए जिये हो कि जीवन भर आपने जो कमाई करी वो आप अस्पताल को दान कर सको। और दान करके भी कुछ पा नहीं रहे हो, बस अस्पताल का बिस्तर गरम कर रहे हो आधी बेहोशी में। ऐसे जीवन से लाभ क्या?

और इस बात को मैं जीवन का विरोधी होकर के या मृत्यु का समर्थक होकर के नहीं बोल रहा हूँ। इस बात को मैं बहुत प्रेम में बोल रहा हूँ।

अच्छी जिंदगी जियो। जीवन का जो उद्देश्य है उसे जल्दी-से-जल्दी पूरा करके रखो। ताकि जीवन से फिर चिपकना न पड़े। ये तो शरीर है इसको तो बुलावा आता ही है।

कोहम था मेरा पाला हुआ कुत्ता। मेरे सामने आया था इतना बड़ा (हथेली के आकार का)। बोधस्थल पर इतनी बार मैंने उसका मल साफ करा। अभी बीमार हुआ था, छ: महीना-आठ महीना उसकी दवा भी चली। अभी सत्र शुरू होने से एक घंटा पहले वो चला गया। कितना रोकोगे किसको रोकोगे? और मैं ये तब कह रहा हूँ, जब कोहम की जितनी दवा हो सकती थी वो की गयी। एक स्वयंसेवक उसको बिलकुल नियमित रूप से लेकर जाता था, डॉक्टर को दिखाया था, दवा पानी जो सब। तो ऐसा भी नहीं कि उसको छोड़ दिया गया था कि अब जब मृत्यु आई है, तू चला ही जा। दवा पानी करवाई गई।

लेकिन एक समय के बाद जीवन को ऐसे मुट्ठी बाँध कर पकड़े रहना शोभा नहीं देता। जैन मुनि इस मामले में बड़ा ऊँचा आदर्श प्रस्तुत करते हैं। उनको जब यह दिखाई ही दे जाता है कि अब यह शरीर चलने वाला नहीं तो खाना-पीना छोड़ देते हैं। वो कहते हैं घिसट-घिसट कर क्या जीना। अब विदाई का वक्त आ गया है, हम गरिमा के साथ विदाई लेंगे।

और तुम्हारी बहुत राशि तुम व्यय करते हो इन आखिरी कुछ सालों के लिए। इन आखिरी कुछ सालों में बताना ज़रा रखा क्या है? इतना सारा पैसा फूँक करके भी तुम ज़्यादातर समय तो अस्पताल के बिस्तर पर बेहोश ही पड़े रहते हो न? तुम उस बेहोशी के लिए अस्पताल को न जाने कितना पैसा खिलाने को तैयार हो। क्यों? इससे अच्छा है जब तक काया है, जब तक चित्त चैतन्य है जीवन का सदुपयोग कर लो, है न? सही जीवन जी लो।

पर तब सही जीवन इसलिए नहीं जी पाते क्योंकि तब बुढ़ापे के लिए बचत कर रहे होते हो। ये क्या गोरख धंधा है! जवानी तुम ठीक से इसलिए नहीं जीते क्योंकि जवानी में तुम आगे के लिए बचत कर रहे हो। और आगे तुम ठीक से इसलिए नही जी सकते क्योंकि अब समय बीत गया है। पागलपन है कि नहीं है?

विवेक आवश्यक है। कुछ धन अपने पास रखो। यह न हो कि धन की इतनी कमी है कि रोज़मर्रा की गतिविधियों, क्रियाकलाप में भी धन ही तुम्हारे सर पर नाच रहा है। जिस चीज़ की बहुत कमी हो जाए न, वो भी मन पर छा जाती है। पैसा तुम्हारे पास एकदम ही नहीं होगा तो दिन-रात पैसा ही पैसा सोचोगे। वो नौबत भी मत आने दो। इतना पैसा रखो कि ‘मैं भी भूखा न रहूँ साधू न भूखा जाए।’ निश्चिंत होकर सोओ कि इतना तो है कि हम भी भूखे नहीं है, कुटुम्ब भी भूखा नहीं है। और भी कोई आयेगा अड़ोसी-पड़ोसी तो उसको भी खिला देंगे।

लेकिन पैसा तुम्हारे अहंकार को पोषित करने का साधन नहीं बन जाना चाहिए। कि पैसा इसलिए इकट्ठा कर रहे हैं क्योंकि कोठी बनवानी है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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