देह तो मल मूत्र का घर है || आचार्य प्रशांत (2019)

Acharya Prashant

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देह तो मल मूत्र का घर है || आचार्य प्रशांत (2019)

आचार्य प्रशांत: इतनी पतली सी चमड़ी की चादर है, उस चादर के पीछे छुपा हुआ है मल-मूत्र, इसलिए दिख नहीं रहा है। क्या चाटे जाऍं उस चमड़ी को! चाटते वक्त ख़याल नहीं आएगा कि चमड़ी के ठीक पीछे क्या है? जिसको ये विचार आने लग गया वो कैसे अब देहभाव में जी लेगा, बताओ?

बड़ी बेईमानी चाहिए अपनेआप को देह कहने के लिए, और किसी को तुम्हारी देह का पता हो न हो, तुम्हें तो पता ही है। औरों से तो हम बहुत सारी चीज़ें छुपा जाते हैं। औरों के सामने आते हैं तो अपना आँख का कीचड़ पोंछकर आते हैं, नाखून-वाखून काट लेंगे, गन्दगी साफ़ कर लेंगे, भरी सभा में पाद भी मारेंगे तो ज़रा छुपकर मारेंगे कि किसी को पता न चले! पर तुम्हें तो पता ही है न कि अभी-अभी तुमने कितनी बदबू फैलायी? तुम्हें तो अपनी देह की औक़ात और असलियत पता है न? औरों से छुपा लो, तुम्हे नहीं पता है क्या? उसके बाद भी यही, ‘मैं तो देह हूँ! मैं तो देह हूँ!’

बड़ी बेईमानी की बात है न? दूसरों को रिझाने जा रहे हो देह दिखाकर और जिसको रिझाने जा रहे हो, उससे मिलने से ठीक पहले, गर-गर गर-गर गर-गर!, माउथ फ्रेशनर किया है! तुम जानते हो न कि तुम्हारे मुँह से कितनी बदबू उठती है! सभी के मुँह से उठती है। और फिर भी तुम मुँह में नकली खुशबू बसा रहे हो। ये तुम दूसरे को धोखा दे रहे हो या अपने आप को दे रहे हो?

और फिर ऐसे ही रिश्ते टूटते हैं, बड़ी निराशा आती है। झटका लग जाता है। शुरू-शुरू में तो दाँत चमकाकर, और कुल्ला-मंजन करके, और लिस्टरीन (माउथ फ्रेशनर) डालकर पहुँचते थे, फिर जब रिश्ता जम गया तो एक दिन ऐसे ही पहुँच गये, अनियन डोसा खाकर! और बोले, ‘प्रियतमा, चुंबन!’ ये प्रियतमा अगर उस क्षण के बाद भी देहभाव में जिये तो ये नर्क की अधिकारी है! इसका पूरा हक़ है कि इसको नर्क ही मिले। जिसे जगना होगा, जिसे चेतना होगा, वो उस क्षण में जग जाएगी। कहेगी, ‘ये है असलियत! पान खाये सईयाॅं हमार!’

कहते हैं सिद्धार्थ राजकुमार के साथ हुआ था ऐसा। उनके पिता को कुछ ऋषियों ने आगाह किया था कि आपका बेटा सन्यासी निकल सकता है। कुछ देखे होंगे उसके लक्षण; तो पिता ने बड़ा बन्दोबस्त किया। उसको कभी दुख महसूस न होने दें, उसके लिए भोग-विलास के सब साधन इकट्ठे कर दिये, और राज्य की जो सुन्दर-से-सुन्दर लड़कियाँ थीं उनको बुलाते, और कहते ‘ये, मेरे बेटे के साथ रहो, दोस्ती करो।’ राग-रंग हो, नाच-गाना हो।

कहानी है, मैं जानता नहीं। कहानी है कि एक रात ऐसे ही देर तक चला नाच-गाना, मदिरा इत्यादि भी रही होगी, तो वो जितनी लड़कियाँ आयी थीं उन्होंने पी, शायद सिद्धार्थ ने भी पी होगी। सब अपना बेहोश पड़े हैं। बहुत देर रात, क़रीब-क़रीब भोर, अचानक सिद्धार्थ की नींद खुली, होश आया और वो सब रूपसी सुन्दरियाँ, अव्वल नम्बर की, उनको बुलाया गया था, अब वो सब बेहोश ढुलकी पड़ी थीं। और मैं कल्पना कर रहा हूँ कि सिद्धार्थ ने बिलकुल फटी-फटी आँखों से देखा होगा उनको कि कहाँ गया इनका रूप!

किसी का पूरा काजल और जो कुछ भी मुँह पर मल रखा है चॉक-खड़िया, वो सब धुला हुआ है, किसी के मुँह से लार बह रही है, किसी के सुन्दर कपड़े वगैरा अस्त-व्यस्त हो गये हैं तो वो और बदसूरत लग रही है उत्तेजक लगने की जगह, कोई मुँह फाड़े पड़ी हुई है बेहोशी में, कोई खर्राटे मार रही है, किसी ने इतनी पी ली है कि उसने उल्टी कर दी है और अपनी ही उल्टी में लथपथ पड़ी है, वमन करके!

सिद्धार्थ ने ये सब देखा। कहा, ठीक, अगर ये है रूप की असलियत तो नहीं चाहिए रूप। रूप भी तभी सुहाता है जब बड़ी तैयारी करके आता है। जो रूप आपको बड़ा आकर्षित और उत्तेजित करता है वो पहले घंटों तैयारी करता है उत्तेजित बनने के लिए। वो तैयारी कैसे हो रही है अगर आप ये देख लें तो उस रूप से आपका जी हट जाएगा।

बाल नोंचे जा रहे हैं, खाल नोंची जा रही है, घिसा जा रहा है! सब पुरुषों के लिए निश्चित होना चाहिए कि स्त्रियों के ब्यूटी पार्लर मैं कम-से-कम तीन महीने काम करें। ये व्यवस्था बननी चाहिए। जाकर देखो तो कि जिस रूप-यौवन के पीछे तुम इतने पागल रहते हो उसकी हकीक़त क्या है। जितने फल और सब्जियाँ रसोई में नहीं पाये जाते उससे ज़्यादा मुँह पर मले जा रहे हैं! दुनिया भर के रसायन देह पर घिसे जा रहे हैं, भौहें नोंची जा रही हैं, बाल नोंचे जा रहे हैं, बाल रंगे जा रहे हैं, मोम रगड़ा जा रहा है, और चीख-पुकार भी मची हुई है ‘हाय-हाय! हाय-हाय!’ आँसू भी निकल रहे हैं पर ये कार्यक्रम होना ज़रूरी है ताकि देह आकर्षक प्रतीत हो सके।

जिसने इस व्यापार को देख लिया, मुझे बताओ अब वो देह को क़ीमत कैसे देगा? जब शरीर का कोई हिस्सा बड़ी माँग करने लगे, किसी भी तरीक़े से, पेट माँग करता है कि मुझे भोजन दो, कहीं दर्द हो गया तो वो जगह माँग करती है कि मुझे आराम दो, दवा दो, कामोत्तेजना चढ़ने लगी तो जननांग माँग करते हैं कि हम पर ध्यान दो। तो उसको देखा करिए और कहा करिए, ‘कैसा लगेगा तू जब धू-धू करके जलेगा? क्योंकि वही हैसियत है तेरी! बहुत उछल रहा है न!’ और देखिए उसको राख होते हुए, वो राख होने जा रहा है, वो राख हो ही रहा है, बात समय की है! औक़ात राख की, बात लाख की! ये है अफ़साना-ए-जिस्म! लाख से नीचे की बात नहीं करता और हैसियत है राख की!

जैसे मैं कह रहा था कि ब्यूटी पार्लर में काम करना अनिवार्य होना चाहिए वैसे ही श्मशान में भी ड्यूटी बजाना अनिवार्य होना चाहिए। ताकि जो बातें दबी-छुपी हैं, वो थोड़ा सामने आयें। फिर हल्का जिऍंगे। सबको महीने दो महीने में एक-आध बार मरघट का चक्कर लगाना चाहिए। भाई घर है अपना! जाओगे नहीं देखने? क्या हाल-चाल हैं, संगी-साथी कैसे हैं, कोई दिक्क़त तो नहीं? कुत्ते तो नहीं आकर मूत जाते? मूत जाते हैं! वही घर है, बड़े इज़्ज़तदार बनते हो!

हम असल में पूरी तरह शरीर भी नहीं बने हुए हैं, हम त्वचा बने हुए हैं! शरीर में तो जो कुछ है अगर अभी आपके सामने रख दिया जाए तो उठकर भागेंगे। जब हम कहते हैं कि हममें देहभाव सघन है तो वास्तव में वो त्वचा भाव और केश भाव होता है। खाल और बाल! हमारा इनसे तादात्म्य होता है।

अभी आपकी आँत निकालकर आपके सामने रख दी जाए फिर? और ऑंतों के भीतर क्या है आप जानते हैं। मौसम महक उठेगा बिलकुल! अपने ही भीतर हम जो लेकर घूम रहे हैं, अपने माने इस देह के भीतर जो लेकर घूम रहे हैं, वो सामग्री कुछ बहुत सुन्दर, सुगन्धित तो नहीं है। कि है? है क्या?

जो इन छोटी-छोटी बातों पर विचार करने लगता है कि मैं क्या शरीर बनकर घूम रहा हूँ! शरीर बाहर से खाल है, अन्दर से मल-मूत्र है, मुझे मल बनकर घूमना है क्या! देह बनकर घूम रहा हूँ, अब देह में वैसे तो मेरा कुछ भी नाम हो सकता है..अमित। पर अगर मैंने कह दिया कि देह हूँ तो वास्तव में मेरा नाम हो गया अमित मल! आइए रोशन मल साहब! आइए अमित मल साहब! सुन्दर-से-सुन्दर भोजन खाते हो और उसका मल बना देते हो! ये है इस शरीर की फ़ितरत। तुम शरीर कहना चाहते हो अपनेआप को?

विचार यही कर लो, मृत्यु के क्षण में यदि तुम्हें पता चले कि पूरा जीवन बर्बाद जिया है, कैसा लगेगा? ये तो खैरियत की बात है कि ऐसा पता ही नहीं चलता। ज़्यादातर लोगों को मौत के क्षण में भी ये राज़ नहीं खुलता कि उनकी पूरी ज़िन्दगी व्यर्थ गयी है, तो आसानी से मर लेते हैं! पर मरने वाले हो और उसी वक्त तुम्हें पता चले कि ये जितने साल, जितने दशक तुम जिये, यूँही जिये! कैसा लगेगा? इसी देह के भरोसे जिये और अब यही जा रही है, झड़ रही है! उस क्षण के खौफ़ से अगर बचना चाहते हो तो अभी भी जग जाओ। अभी भी समय है। तुम्हारी ज़िन्दगी में दो ही दिन हों तो भी अभी भी बहुत समय है। जग जाओ!

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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