प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। आचार्य जी, बचपन से ही एक सवाल है जो काफ़ी अजीब लगता है कि अभी दिवाली आने वाली है और जैसे प्रचलित कहानी है कि दिवाली के दिन राम घर वापस आए थे। पर दिवाली के दिन राम का तो कहीं भी नाम नहीं होता है, सारा चीज़ लक्ष्मी जी और भोगवाद की ही बात होती है।
आचार्य: राम का नाम हो भी सकता है, राम ब्रांड (छाप) पटाखा हो सकता है, सीता ब्रांड साड़ी हो सकती है, कैकई की मिठाई हो सकती है, मंथरा की बर्फ़ी हो सकती है, कुछ भी हो सकता है। उससे नाम आ भी जाए तो क्या फ़र्क पड़ेगा? जन्माष्ठमी में श्रीकृष्ण का होता है नाम; झाँकियाँ निकलती हैं न जन्माष्टमी में कृष्ण की? नवदुर्गा में देवी का होता है नाम, पंडाल सजते हैं न देवी के? नाम हो भी तो क्या अंतर पड़ेगा? हम नाम लें, चाहे न लें, दिवाली में रामत्व नहीं होता और जन्माष्ठमी में कृष्णत्व नहीं होता, या होता है?
आप अगर वाकई आक्षेप कर देंगे कि देखो, दिवाली आ रही है और इसमें राम तो है ही नहीं, तो लोग कहेंगे कि हाँ, ये बात तो सही है, दिवाली में राम का तो कुछ है नहीं, लक्ष्मी जी की पूजा हो रही है और खरीददारी हो रही है। ये सब हो रहा है, राम कहीं नहीं है। तो ऐसा करते हैं, दिवाली का नाम रामावली कर देते हैं। लो आ गया नाम, क्या अंतर पड़ेगा, लोग तो जैसे हैं वैसे ही है न, उन्हें तो भोगना है। राम हैं त्याग की प्रतिमूर्ति और उन्हें दिवाली पर भी भोगना है, तो दिवाली पर भी खूब भोगेंगे। और हिंदुओं के लिए दिवाली से ज़्यादा बड़ा भोग का कोई दूसरा त्यौहार नहीं होता। इससे ज़्यादा बड़ा अन्याय हम श्रीराम के साथ कर नहीं सकते थे कि उनके जैसे त्यागवान पुरुष के पर्व को हमने भोग का पर्व बना दिया।
साधारण दिनों में तो हम फिर भी कोई त्याग कर दें भूले-भटके, दिवाली पर तो हम कतई कोई त्याग न करें। साधारण दिनों में तो फिर भी हमारे जीवन में हो सकता है राम एक प्रतिशत मौजूद हों, लेकिन दिवाली में तो राम हमारे जीवन में एक प्रतिशत भी नहीं रह जाते, हम इतना भोगते हैं। अभी से दुकानों में धूम है, ज़बरदस्त धूम लगी हुई है, ‘अरे! ठण्ड आ रही है, देखो, नवम्बर आ गया, दिसम्बर आ गया। आओ, एसी (वातानुकूलन यंत्र) खरीद लो। ठण्ड आ रही है, एसी खरीद लो। पौने-सात प्रतिशत की छूट पर एसी देंगे। दिवाली पर एसी घर लाइए, क्योंकि अब जाड़े आ रहे हैं।’ गंजे कंघियाँ खरीद रहे हैं, बच्चे सेफ़्टी रेज़र (उस्तरा) खरीद रहे हैं! दिवाली है भई! राम का पर्व है, खरीदो! दुकानों में माल रखने को जगह नहीं।
वो वहाँ गए, बोले, 'कितने की खरीददारी कर ली?’ बोले, ‘सोलह हज़ार की!’ ‘अरे सर! बीस-हज़ार की खरीददारी करने पर पचपन रुपए की छूट है!’ तो वो गया, साढ़े-चार हज़ार की खरीददारी कर लाया। तो बोला, ‘अरे सर, आपका बिल तो बीस-हज़ार पाँच-सौ का हो गया। अब पाँच-सौ आपने और ले ही लिया, ये पाँच-सौ तो आपका बेकार जा रहा है।’ उनकी बुद्धि चमक गई बिलकुल, ‘पाँच-सौ बेकार जा रहा है!’ ‘आप ऐसा करिए, दो-हज़ार और ले लीजिए।’ बोले, ‘उससे क्या होगा?’ बोले, ‘चड्डी मुफ़्त देंगे। वैसे सवा-सौ की आती है, आपको एक-सौ-अट्ठारह की देंगे, मुफ़्त! सात रुपए की बचत!’ बोले, ‘अच्छा!’ तो वो गए, दो-हज़ार की और खरीददारी कर लाए कान में चड्डी लटका कर। बोले, ‘अरे! सर, थोड़ा और ख़रीदिएगा।’
ये सब राम के नाम पर हो रहा है — चड्डी, मोजा, जाड़ों में एसी , गंजे की कंघी। जिनके दाँत नहीं हैं, वो सालभर के लिए टूथपेस्ट खरीद कर लाए हैं — ये राम के नाम पर हो रहा है! और ये सब मैं बोल देता हूँ, पिछले साल भी यही बोला था, बोले, ‘इनसे तो हमारी खुशियाँ देखी नहीं जाती। अपना तो इनका घर है नहीं, हमारा घर भरने नहीं देते।’ तुम भर लो, इतना पैसा काहे खर्च करते हो, जाकर भूसे से भर लो, सस्ते में भर जाएगा! और भूसे में भी कुछ पैसा लगता हो तो घर के आस-पास नाली तो होगी ही — हिन्दुस्तान में हो, इतना तो तुमने ज़रूर अर्जित किया होगा कि घर के आस-पास कोई खुली नाली हो, बिलकुल खुशबूदार — उसमें से माल निकाल कर भर लो, एक रुपया नहीं लगेगा। बल्कि कोई तुम्हें पैसा दे जाएगा, नगर-निगम का काम तुमने निपटा दिया, खूब भरे तुम्हारा घर, ‘वत्स, तथास्तु!’ ये सब राम के नाम पर चल रहा ह, घर भर रहे हैं।
जो जीवन भर अपना घर लुटाते ही रहे, उनके पर्वों पर घर भरे जा रहे हैं। जिन्हें भोगने से एक प्रतिशत मतलब नहीं था, जो सोना-चाँदी सब छोड़कर चले गए, उनके पर्व पर सोने-चाँदी, हीरे-जवाहरात की धूम है। ‘आओ-आओ, ज्वेलरी (आभूषण) पर डिस्काउंट (छूट) पाओ!’ चौदह साल तक श्रीराम कितने गहने पहनकर घूम रहे थे, बताना भई? लोगों के फिर आते हैं, ‘ये देखो, अरे! तो हमारे राम घर आ रहे हैं, क्या हम खुशी नहीं मना सकते?’ खुशी राम के घर आने पर राम के तरीके से मनाओगे या रावण के तरीके से? सोना किसने इकट्ठा कर रखा था? राम ने या रावण ने? तो राम के घर आने पर अगर तुम सोना इकट्ठा करते हो, तो ये तरीका राम का है कि रावण का? ये मुझे तर्क नहीं समझ में आया, राम के घर आने पर तुम रावण के तरीके से खुशी मनाओगे? राम का तरीका तो त्याग का है और तुम्हारा तरीका है, ‘अखरोट लाना, काजू कहाँ हैं? बादाम, बादाम!’ राम जंगल में बादाम खा रहे थे?
और राम जो कर रहे थे, वो करने की तुम्हारी हिम्मत नहीं है। राम तो जो उस समय का महाशक्तिशाली असुर था उससे भिड़ गए थे, तुम अपने घर में चम्पू चूहे से न भिड़ पाओ। तुम्हारे घर में एक चूहा बैठा हुआ है और रोज़ तुमको वो आँख दिखाता है — सबके घरों में ज़रूर ऐसे चूहे-चुहिया होते हैं — और तुम्हारी हिम्मत नहीं हो रही उससे भिड़ने की, किस मुँह से राम का नाम लेते हो? राम भिड़े हैं रावण से, तुम चम्पू चूहे से नहीं भिड़ सकते और दिवाली के नाम पर कह रहे हो, चॉकलेट* चाहिए, चम्पू-चूहा चॉकलेट! ‘बढ़िया है! चम्पू के चाचा ने चूहे को *चॉकलेट *की चटनी चटाई और हमने दिवाली मनाई!’ एक कान में जाँघिया, एक कान में मोजा!, सेल -*सेल!*सेल! साइज़ (माप) नहीं मैच कर रहा था चड्डी का, कोई बात नहीं, मोजे का कर रहा था न! चड्डी की जगह मोजा पहन लेना! एक से बात न बने तो दो पहन लेना, सेल में तो मिला न? राम का त्यौहार है, ज़रा धूम से मने!
सीमा तक गए थे और सीमा के बाद किसीको साथ आने नहीं दिया। जब चले थे तो लोगों ने कहा कि कम-से-कम सीमा तक तो रथ में चले जाइए, वन तो बाद में शुरू होता है। बोले, ‘अब छोड़ दिया तो छोड़ दिया। जब राजसी वस्त्र त्याग दिए, गैरिक वस्त्र (गेरुआ कपड़ा) धारण कर लिए, तो अब रथ का क्या करना।’ और यहाँ सबसे ज़्यादा गाड़ियों की, रथों की सेल होती है दिवाली पर! वो रथ छोड़ करके गए थे और यहाँ रथ खरीदे जा रहे हैं, जय राम जी की! मुझे आपके गाड़ी पर चलने में कोई आपत्ति नहीं है, कृपा करके मेरी बात को समझें। मैं कह रहा हूँ, ‘तुम ये सब राम के नाम पर कर रहे हो, थोड़ा होश में आओ। तुम्हें अपनी जितनी वासनाएँ-कामनाएँ पूरी करनी हैं, करते रहो, राम के नाम पर क्यों कर रहे हो? धर्म के नाम पर क्यों कर रहे हो? त्यौहार के नाम पर क्यों कर रहे हो? त्यौहार का असली अर्थ तो समझो।’ उन्होंने वस्त्र त्याग दिए थे, तुम वस्त्र-ही-वस्त्र खरीदने पहुँच जाते हो, ‘दिवाली है!’
त्यौहार अध्यात्म के रिमाइंडर (अनुस्मारक) की तरह होते हैं साल में। त्यौहार अध्यात्म की अलार्म क्लॉक (प्रबोधन घड़ी) होते हैं। जैसे हमें याद नहीं रहता तो बहुत चीज़ों के रिमाइंडर (अनुस्मारक/ याद दिलाने वाला) आते हैं न हमको, वैसे ही त्यौहार रिमाइंडर काहे के होते हैं? अध्यात्म के। कोई गहरी आध्यात्मिक बात, आध्यात्मिक सिद्धांत है, वो आप भूल रहे हो, तो इसके लिए त्यौहार आ जाता है ताकि आपको याद आ जाए। दिवाली में आपको स्वागत करना है उस राम का जो त्याग का प्रतिनिधि है। उसके स्वागत में दीये जलेंगे। किसके स्वागत में? त्याग के स्वागत में दीये जलेंगे।
जो कुछ अनावश्यक है उसका त्याग करिए, ये दिवाली है। इस भावना के साथ अगर आप दिवाली मना सकें तो आपकी दिवाली राममय होगी। भोग की भावना के साथ आप दिवाली मनाएँगे तो दिवाली फिर आपकी रावण की ही है। फिर तो आपको कोई राम चाहिए आपको सबक सिखाने के लिए, जैसे रावण को सबक सिखाया गया था। जो कुछ भी धर्म के विरुद्ध है उसका त्याग करिए, जो भी कुछ स्वस्थ मन के विरूद्ध है उसका त्याग करिए, ये करिए इस दिवाली पर। जीवन में जो कुछ भी अनावश्यक है — भले ही वो कितना भी ललचाता हो, चाहे डराता हो — उसका त्याग करिए। ये है भाव दिवाली का। घर नहीं भरना है, मन खाली करना है, ये है दिवाली को मनाने का सही तरीका। समझ में आ रही है बात कुछ?
और जितना ज़्यादा आप मन को अनावश्यक से खाली करते जाएँगे, उतना ज़्यादा भीतर दीये जलते जाएँगे। फिर वो जो भीतर दीये जले हैं, जो भीतर प्रकाश फूटा है, उसको आप बाहर भी अभिव्यक्त करें, फिर आप बाहर भी दीये जलाएँ। पर भीतर तो कोई प्रकाश उठा नहीं, क्योंकि प्रकाश डिस्काउंट और सेल के कचरे तले दबा हुआ है। भीतर अंधेरा ही रह गया और बाहर आप उजाला करें तो ये बस पाखण्ड है।
भीतर हम सबके प्रकाश होता है, आत्मा प्रकाश स्वरुप है। लेकिन वो जो भीतर का प्रकाश है, वो छुपा रहता है कचरे के बोझ तले। भीतर बहुत प्रकाश है, पर हम उसके ऊपर बहुत सारा कचरा लाद देते हैं अनावश्यक वस्तुओं का। अनावश्यक वस्तु, विचार, व्यक्ति — ये सब मन में भरे रहते हैं। उसके नीचे हमारा जो प्रकाश है, वो बिलकुल लुप्त सा रहता है। आप वो सब कचरा साफ़ करिए दिवाली पर; दिवाली पर कचरा साफ़ करने का यही अर्थ होता है। वो सब कचरा साफ़ करिए ताकि भीतर का प्रकाश अपनेआप प्रकट हो जाए। अगर कचरा नहीं हटाया और दिया जलाया, तो क्या फ़ायदा?
अतिरिक्त प्रकाश आपको चाहिए नहीं, भीतर प्रकाश पहले मौजूद है, बस उसके ऊपर से गंदगी हटानी है। जीवन से गंदगी हटाइए, ये दिवाली का संदेश है। और जब भीतर आप पाएँ कि अब प्रकाश उठा, आलौकित हुए, तो फिर बाहर दीया भी जला दीजिए। बाहर का दीया संकेत भर होगा ये बताने का कि देखो, भीतर अब दीया जल गया है। पहले भीतर जले दीया। समझ में आ रही है कुछ बात? अभी कुछ दिन हैं दीपावली में, अभी से प्रण कर लीजिए कि क्या है जो आपके मन में, जीवन में नहीं होना चाहिए, पर है। उसको हटाना है, इसीमें दिवाली की सार्थकता है। हर दिवाली अपने जीवन से कुछ व्यर्थ, विषाक्त, दूषित, अनावश्यक चीज़ों को हटाते चलिए, आपकी दिवाली सार्थक रहेगी, आपका मन जगमग रहेगा।