प्रश्नकर्ता: सर, जब बचपन से ही डर ठूस-ठूसकर भर दिया गया है तो अब क्यों ‘फियरलेसनेस’ करवा रहे हैं?
आचार्य प्रशांत: “फाटे दूध को, मथे न माखन होय”!
"गाड़ी छूट गई है, ज़िन्दगी खत्म हो गई है, अब कुछ बचा नहीं। अब तो घर जाओ, खेल खत्म, अगले खेल में देखा जाएगा।" होती है कई लोगों की मान्यता पुनर्जन्म की। "अब कुछ नहीं हो सकता, ज़िन्दगी खत्म हो गई है।"
बात तुमने मूल रूप में ठीक बोली है, तथ्य तुमने ठीक पकड़े कि बचपन से ही मन में डर बैठाया जाता है। तुम छह महीने के थे, तब भी डर का प्रयोग किया गया। तुम दो साल के थे, तब भी तुम पर डर आज़माया गया। कुछ खा लो, आँख दिखाकर कहा गया। तुम पाँच साल के थे, और ठीक से लिख नहीं पा रहे थे, तब भी डर का प्रयोग हुआ। तुम्हें परीक्षाएँ देनी थीं, तब भी मन में डर ही था कि, "अगर इतने नहीं आए तो मैं किसी काबिल नहीं रह जाऊँगा!" पढ़ाई में भी डर, नौकरी में भी डर। तो बात तुम्हारी सुनने में ठीक लगती है।
लेकिन एक बात बताओ, छह महीने का बच्चा, दो साल का बच्चा, दस साल, पंद्रह साल, हाँ ठीक है, अभी नासमझ है, बाहर से उसे जो कुछ भी दिया जाता है उसे स्वीकार करना ही पड़ता है। तुम हो अभी क्या छह महीने के या दो साल के या दस साल के? आज क्या मजबूरी है? हाँ, तुम्हारे अतीत में ऐसा बहुत कुछ है जो ज़बरदस्ती का है, जो नासमझी है, जहाँ तुम्हारा कोई बस नहीं चला।
यहाँ से चालीस-चालीस कोस दूर तक जब रात में बच्चा रोता है तो माँ कहती है, "बेटा, सो जा, नहीं तो गब्बर आ जाएगा"। आज भी गब्बर आ रहा है क्या? आज भी सोने के लिए गब्बर की लोरी सुनते हो? अब आज तो न वो बच्चा है, न वो डराने वाली आवाज़ है, न गब्बर का खौफ़ है, आज क्यों डरे हुए हो? बच्चे के सामने कोई विकल्प नहीं था। वो आश्रित था और नासमझ था। तुम क्यों आश्रित और नासमझ, दोनों बने हुए हो? आज परिपक्व हो, खूब उम्र हो गई है तुम्हारी, पढ़े लिखे हो, आज डर का क्या कारण हो सकता है? क्यों उसको पालकर बैठे हो?
याद रखना, ये बात हम आठ-दस साल के बच्चे से तो बोलने भी नहीं जाते कि डर को पीछे छोड़ और ये कर और वो कर, क्योंकि उसकी ज़िन्दगी में डर का आना पक्का है। एक तरह की अनिवार्यता है। उसकी ज़िन्दगी में डर का उपयोग भी है क्योंकि बहुत सारी बातें वो समझेगा भी नहीं, वहाँ पर कई बार आवश्यक हो जाएगा कि सिर्फ डर का ही इस्तेमाल कर के उसकी भलाई के लिए ही उसको रोका जाए। आप उसे नहीं समझा पाओगे।
बच्चा अगर बहुत छोटा है और नहीं समझता कि इलेक्ट्रिक करंट क्या होता है, और वो बिलकुल तैयार है कि सॉकेट में ऊँगली डाल ही देनी है, तो आप को यही कहना होगा कि, "अगर ऊँगली डाली तो बिल्ली उठा ले जाएगी तुमको या बाबा आएगा और झोली में डालकर कहीं…" तुम उसे कैसे समझाओगे कि इलेक्ट्रिक करंट क्या होता है, और जो तुम्हारी बॉडी है ये कंडक्टर है, और क्या प्रभाव होगा तुम्हारे नर्वस सिस्टम पर विद्युतीय प्रवाह का? कैसे समझाओगे?
तो वहाँ पर डर की थोड़ी उपयोगिता हो जाती है, पर आज ऐसा कुछ नहीं है जो तुम जान नहीं सकते, समझ नहीं सकते। तुम अगर आज भी डरे हुए हो तो फिर डर में तुमने कोई स्वार्थ खोज लिया है। बच्चे का डरना मैं एक बार समझ सकता हूँ, तुम्हारा डरना नहीं समझ सकता।
हमें ढूँढना पड़ेगा कि हमने डर को क्यों पाल लिया। हमारे पास अपनी आँखें हैं, समझ है, दुनिया को देख सकते हैं, पढ़ते हैं, टेक्नोलॉजी भी जानते हैं, हमें कैसा डर? किस बात का डर?
डर में एक गहरा स्वार्थ छुपा हुआ है। जानते हो स्वार्थ क्या है? डर दीवार की तरह होता है। डर कहता है, "मेरे भीतर रहो, बाहर खतरा है"। जैसे दीवारें होती हैं न, इनके भीतर रहो, बाहर खतरा है। बड़ा खतरा है, हत्यारे घूम रहे हैं! बेरोज़गारी घूम रही है! भीतर रहो, सुरक्षित रहोगे! और इस भीतर रहने में हमने अपनी सुविधा ढूँढ ली है।
डर तुम्हें सुविधा देता है अपने अतीत को ही आगे बढ़ाते रहने की।
"ये कमरा है, इसमें मैं बचपन से रहा हूँ। मैं इसको जानता हूँ। और इन दीवारों के बाहर खौफ़ फैला हुआ है। मैं नहीं जाता बाहर। मुझे इसी में रहने दो न। मुझे बाहर जाना ही नहीं है।"
हमारा जो आलस है, उसको सहारा देता है डर। हमारे ढर्रों को चलते रहने की सुविधा देता है डर। जो आदमी निडर हो गया, उसके लिए दीवारें शेष रहेंगी नहीं। दीवारें हैं तो बंधन लेकिन हमने उनसे जोड़ लिए हैं अपने स्वार्थ। क्या स्वार्थ हैं दीवारों से? सुरक्षा की अनुभूति होती है। डर के भीतर बने रहो, सुरक्षित महसूस करते हो।
"जैसे भी हैं ठीक हैं यहाँ पर"।
वो बात बच्चे के लिए समझ में आती है कि अभी उसमें काबिलियत ही नहीं है कि वो बाहर निकले और दुनिया को देखे, अपने दायरों को तोड़ पाए। तुम्हारे लिए वो बात वाज़िब बिलकुल भी नहीं है।
दीवारों से तुम्हें और भी कुछ मिलता है। दीवारें बाँटती हैं। दीवारें कहती हैं, "कुछ लोग हैं जो हमारे भीतर हैं इस कैद के, इस कमरे के, और कुछ हैं जो इसके बाहर हैं"। अंदर कौन हैं? जिनको मैं लगातार जानता ही आया हूँ। बाहर कौन हैं? जो अनजाने हैं। भीतर कौन हैं? मेरे घर-परिवार वाले, वो सब लोग जिनसे अतीत में मेरा संपर्क रहा है। ये मेरे जाने पहचाने लोग हैं, इनके साथ सुविधा है। और बाहर कौन है? वो लोग जो नए हैं, जिनको कभी जाना नहीं, जिनसे दूर ही रहा।
हिन्दू हूँ अगर मैं, तो इस कमरे के भीतर, इन दीवारों के भीतर सिर्फ हिन्दू भरे हुए हैं। बाकी सब बाहर। और मैंने अपने-आपको विश्वास दिला दिया है कि वो बहुत खतरनाक लोग हैं। खौफ़ है! जो भी कुछ मेरी पहचानें हैं, वो तो सब इन दीवारों के भीतर ही हैं। और जिनसे मेरी पहचान नहीं, जो मेरी पहचान से बाहर के हैं, वो सब इन दीवारों के बाहर हैं।
मेरे अहंकार को पोषण देता है 'डर'—आज तुम्हारे लिए डर का यही महत्व है, और इसी कारण तुम डर को छोड़ना नहीं चाहते। वरना कोई वजह नहीं कि तुम डर को न छोड़ दो। तुम सब काबिल लोग हो और डर लेकर तुम पैदा नहीं हुए थे कि तुम कहो कि, "नहीं सर, डर को कौन छोड़ पाया!” सब काबिल लोग हो, सब छोड़ सकते हो। निर्भयता स्वभाव ही है तुम्हारा। पर छोड़ोगे कैसे? क्योंकि उसी डर से तो तुम्हारे अहंकार को ख़ुराक मिल रही है।
"मैं क्या हूँ?”—ये तुम्हारे डरों द्वारा ही निर्धारित हो रहा है। बड़ा मुश्किल हो जाएगा तुम्हारे लिए ये कह पाना कि, "मैं किसी एक देश का हूँ", अगर दूसरे देशों का डर ही मिट जाए। बड़ा मुश्किल हो जाएगा तुम्हारे लिए ये कहना कि, "मैं कुछ भी हूँ", अगर उससे बहार जो कुछ है उसका डर खत्म हो जाए।
डर का अर्थ है परायापन। जहाँ परायापन है, वहीं डर है। परायेपन का एक बड़ा लाभ ये है कि उससे अपनापन पुष्ट होता है। अपने तभी तो हैं न जब कुछ पराये बनें। और यही पराये डराते हैं।
बात देख पा रहे हो? किसी को अपना कह पाने के लिए अति आवश्यक है कि दूसरों को पराया कहो, वरना 'अपना' कैसे कह पाओगे? किसी को भी अपना तभी कह सकते हो जब साथ में परायों का निर्माण करो। और जहाँ पराये हैं, वहीं डर है। वही पराये इन दीवारों के बाहर खड़े हैं। और जहाँ तुमने 'अपने' बनाए नहीं—"मेरे” "मैं” यही सब अहंकार है। और इसी पर हम जी रहे हैं। यही वो स्वार्थ है जिसके कारण हम डर को पकड़कर बैठे हुए हैं, नहीं तो कब का छोड़ देते।
ध्यान देना, मैं कह रहा हूँ, बच्चे के लिए ये उत्तर वैध्य नहीं है, पर हमारे लिए है, क्योंकि हम में से कोई बच्चा नहीं है। हमने जानते-बूझते पकड़ रखा है डर को। आज चाहोगे, आज छोड़ सकते हो। आज चाहोगे, अभी छोड़ सकते हो। अभी इसी समय, कोई दिक्कत नहीं है।
एक विचार भर है डर।
"दुनिया में कुछ ऐसा है जो खतरनाक है"—इसी विचार का नाम 'डर' है।
"मुझे खतरा है"—इसी विचार का नाम 'डर' है।
"मैं जो हूँ, इन दीवारों के भीतर हूँ। यहीं मेरा सब कुछ केन्द्रित है, सीमित है। और बाहर जो खौफनाक दुनिया है, वो मुझसे कुछ छीनने पर अमादा है।" इसी का नाम 'डर' है।
जिस दुनिया को तुम जानते नहीं, उसको तुम कैसे कह सकते हो कि तुमसे कुछ छीन लेना चाहती है? भविष्य को लेकर डरे रहते हो, पूरी दुनिया भविष्य को लेकर आशंकित रहती है। और भविष्य किसी ने देखा क्या? पर डर सबको उसका है जिसको तुम जानते नहीं।
जिन लोगों को, जिन समुदायों को तुम बिलकुल नहीं जानते, बड़ी मज़ेदार बात है, कि तुम सबसे ज़्यादा उन्हीं से डरते हो। जिसको तुम जान गए, जिसके संपर्क में आ गए, पूरे कांटेक्ट (सन्दर्भ) में, उससे डरने का कोई कारण ही नहीं रह जाता। डर हमेशा, दोहरा रहा हूँ, पराये का होता है। डर हमेशा अनजाने का होता है। डर हमेशा अजनबी का होता है। और अजनबी कोई है नहीं, तुमने बना रखा है ये दीवारें खड़ी करके।
इस अजनबी को पैदा करने वाले हम ही हैं। पहले तो हम दीवारें खड़ी करते हैं, फिर कहते हैं दीवारों के बाहर राक्षस घूम रहे हैं। ऐसी दीवारें खड़ी करी हैं हमने जिसमें न दरवाज़ें हैं न खिड़कियाँ हैं। बाहर झाँक पाने का कोई ज़रिया ही नहीं छोड़ा। "दुनिया है क्या?” ये आँख खोल पाने का कोई साधन हमने छोड़ा नहीं है। और अगर कभी धोखे से ही हमें कोई मिल जाए छोटा-सा झरोखा, जिससे हम बाहर झाँकने लग जाएँ, तो कमरे के भीतर जो हैं, कैद के भीतर जो हैं, वो पकड़कर वापस खीचतें हैं।
"बाहर झाँकना मत, झाँकने भर-से ही नुकसान हो जाएगा"। तुम्हें झाँकने भी नहीं दिया जाता, देखने भी नहीं दिया जाता। "बस डरे रहो, सहमें रहो, और इस दुनिया के भीतर बैठे रहो!"
मिल जाने में आनंद है, उत्सव है। दीवार को ढहा देने का ही नाम 'प्रेम' है। और जहाँ 'प्रेम' है, वहाँ 'डर' नहीं होता। वो हमारी ज़िन्दगी में मौजूद नहीं तो ताज्जुब क्या है कि ज़िन्दगी डर से ही भरी हुई है?
डर को हमने पाला है। डर से हमने अपनी पहचान बना ली है।
"मैं क्या हूँ?”
"मैं ये हूँ।"
"ये कौन है?”
"जो इनसे जुड़ा हुआ है, और इनसे अलग है।"
"जिनसे जुड़ा हुआ हूँ, उनसे क्या है? आकर्षण पहचान।"
"और जिनसे अलग हूँ, उनसे क्या है? अजनबीपन, खौफ़, डर।"
ये दीवारें, ये पहचानें क्यों खड़ी कर रखी हैं? इनको गिरा दो, डर का कोई कारण नहीं बचेगा।
जो कुछ तुम्हें सीमित करे, एक छोटा-सा सूत्र दे रहा हूँ – जो कुछ तुम्हें सीमित करे, वही तुम्हारे डर का कारण है। जो भी तुम्हें सीमित करता है, जो भी तुम्हें बंधन में डालता है, वही तुम्हारे डर का कारण है।
बंधन बड़ा मीठा लग सकता है—रिश्तों के नाम पर आ सकता है, सुरक्षा के नाम पर आ सकता है, सुविधा के नाम पर आ सकता है—किसी भी नाम पर आ सकता है, मोह हो सकता है, पर उसी से डर पैदा होगा। तुम्हारे गहरे-से-गहरे डर में भी कोई असलियत नहीं है। वो सिर्फ खुद पाला हुआ एक विचार-भर है। कोई असलियत नहीं है उसमें।
जिन दीवारों की मैं बात कर रहा हूँ, ये ईंट-पत्थर की नहीं हैं, ये मानसिक हैं। तुमने पाल-भर रखी हैं।
अभी छोड़ो!
दोहरा रहा हूँ; अभी छोड़ो! अभी छूटेंगी।
और प्रमाण दूँ उसका? आज का ये पहला सवाल है। कितने ही लोग उत्सुक होंगे ये बात करने के लिए, पर उन्होंने अपने चारों ओर दीवार बनी रहने दी। और ऐसा नहीं है कि प्रश्नकर्ता माँस, हड्डी का नहीं बना हुआ है, ऐसा नहीं है कि डर इसको नहीं उठा होगा, पर इसने कहा, "ठीक है, जो करना है सो करना है। हम नहीं देते अहमियत दीवारों को।" और बात कर ली। कर ली न? और बोल दिया बड़ी सहजता से। क्या हुआ था जब बोल रहे थे, हाथ-पाँव काँपे थे? कुछ विशेष हुआ था? कुछ नहीं न? बहुत आसान, सधारण-सी घटना थी। पर हम में से बहुत सारे लोग सिर्फ इस विचार में रह जाते हैं कि, "कभी और करेंगे! दीवारें अभी खड़ी रहने दो, किसी और दिन गिराएँगे।"
जिसे गिरानी हैं, वो अभी गिराएगा। यही है मौका। और यहाँ भी एक बात ध्यान रखना, डर तुम परायों से ही रहे हो। जो तुमने बहुत सारे पराये खड़े कर रखे हैं न, दीवारों के बाहर, डर तुम्हें उनका ही है। इस ख़ास मौके पर जानते हो पराये कौन हैं? वो तुम्हीं लोगों में से हैं। तुम यहाँ अकेले बैठे हो तो तुमको मुझसे कोई बात करते हुए बिलकुल कोई झिझक होगी नहीं। मैं हूँ और तुम यहाँ बैठे हो, तुम खुलकर के जो कहना है कहोगे। पर अभी यहाँ एक बड़ी भीड़ है, और इस बड़ी भीड़ में तुम्हारे लिए हर कोई पराया है, तुम्हारी सीमित दीवार के बाहर का है, और तुम उससे डरे हुए हो।