डर, बीमारी जो आदत बन जाती है || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2014)

Acharya Prashant

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डर, बीमारी जो आदत बन जाती है || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2014)

प्रश्नकर्ता: सर, हिचकिचाहट पर सवाल है। जब कभी अच्छे सवाल होते हैं, कुछ कहना होता है, तो ये सोचता हूँ कि दूसरे लोग क्या सोचेंगे।

आचार्य प्रशांत: तुम कितनी बार मिल चुके हो मुझसे?

प्र: चार बार।

आचार्य: इतनी बार मिल चुके हो मुझसे तो हमारा मिलना कुछ तो रंग लाएगा न।

प्र: सर, कुछ फर्क नहीं लग रहा है।

आचार्य: फर्क जितना तुम्हें लग रहा है उससे ज़्यादा पड़ा है।

तुमने उठते ही सवाल क्या पूछा है? "मुझे क्या है…?”

प्र: हिचकिचाहट।

आचार्य: यहाँ इतने सारे बैठे हुए हैं, पर पहला कौन था जो बैखोफ खड़ा हो गया?

श्रोतागण: संजीव (प्रश्नकर्ता)।

आचार्य: और संजीव सवाल क्या पूछ रहा है?

(श्रोतागण मुस्कुराते हैं)

आचार्य: संजीव, बीमारी बची ही नहीं है।

प्र: सर, लेकिन अब भी ये सोचता हूँ कि दूसरे क्या सोचेंगे।

आचार्य: अब तो राज़ खुल ही गया है तुम्हारे सामने।

हम कब रुकते हैं? ये जो हिचकिचाहट है, ये कब हम पर हावी होती है? पूरी बात तुम्हें स्पष्ट हो चुकी है पहले ही। जल्दी से बताओ, कब रुक जाते हैं हम? संजीव को क्या विचार आ रहा है?

प्र: सामने वाले का।

आचार्य: अगर सामने वाला तुम्हें जीवन में कभी दोबारा मिलना ही न हो, उससे तुम्हारा कोई लेना-देना ही न हो, तब भी क्या विचार उतनी ही ताकत से आएगा कि ये क्या सोचेगा?

प्र: नहीं।

आचार्य: तो अभी संजीव ने एक दूसरी बात भी कही कि मुझे इनके साथ पाँच दिन रहना है। अब हफ्ते में पाँच दिन रहना है तो संजीव को उनसे कुछ चाहिए। क्या चाहिए?

प्र: साथ चाहिए।

आचार्य: बिलकुल ठीक कहा। संजीव को उनका साथ चाहिए, स्वीकृति चाहिए। संजीव चाहते हैं कि वो स्वीकार्य रहें।

निर्भर हो गए न! असल में तुम्हें उनकी मान्यता की ज़रूरत है। मान्यता समझते हो? आपको पहचान चाहिए। तुम्हें उनसे एक तरह का प्रमाणपत्र चाहिए तो तुम निर्भर हो कि, "इनको ही तो प्रमाणपत्र देना है, इनको मैं नाराज़ कैसे कर दूँ?" और सही बात है, कोई भी अपने मालिकों को नाराज़ नहीं कर सकता। अपने मालिकों को नाराज़ करना तो बड़ा मुश्किल है।

तुमने मालिक बनाए क्यों? उन्होंने कहा था आकर कि, "हमें मालिक बनाओ"? मालिक बनाया क्यों किसी को? पहले किसी को मालिक बनाओगे, उसपर आश्रित हो जाओगे, चाहोगे कि उससे कुछ मिल जाए – "उससे मुझे इज्ज़त मिल जाए, उससे मुझे अनुमोदन मिल जाए"। ये सब चाहोगे। और जब ये सब चाहोगे तो तुम्हें उसके सामने झुक कर रहना ही पड़ेगा न। बात बहुत सीधी नहीं है क्या? तुमने जिस किसी से कुछ चाहा, तुम्हें उसी के सामने झुकना पड़ेगा। वहीं तुम्हारी ज़बान लड़खड़ा जाएगी, वहीं तुम्हारे कदम डगमगाने लगेंगे।

ये जो आश्रित होने का भाव है, यही तुम्हारा बंधन है। और तुम आश्रित हो जाओ, ये दूसरों ने तुमपर नहीं डाला है। ये बात तुमने पता नहीं खुद कहाँ से पैदा की है कि, "मैं तो आश्रित हूँ!" आश्रित होना कोई सत्य नहीं है। आश्रित होना एक धारणा है।

हज़ार स्रोत हैं जहाँ से ये बात आ सकती है कि तुम्हें दूसरों पर निर्भर रहना पड़ेगा। हम जानते हैं कि पचास दिशाएँ हैं जहाँ से ये बात मन में डाली जा सकती है। अब डाली गई तो डाली गई, ग्रहण किसने की? तुमने।

अच्छा, चलो कर ली तो कर ली, गलतियाँ हो जाती हैं, अब उसको पकड़कर क्यों बैठे हो? संभव है कि छोटे थे, नादान थे तो ये बात मन में अड्डा कर गई। और ये बात तब कुछ हद तक तथ्य भी थी क्योंकि जब तुम बहुत छोटे हो तब निर्भर होना ही पड़ता है, तब ये बात कुछ हद तक तथ्य भी थी, पर अब कहाँ है तथ्य? तब ये बात ठीक थी कि तुम अच्छे बच्चे तब होगे जब आस-पास वाले ये मुहर लगाएँगे तुम्हारे ऊपर कि तुम अच्छे बच्चे हो, और जो अच्छे बच्चे होते हैं उन्हें चॉकलेट मिलती है।

अब न वो बच्चा है, न वो चॉकलेट है और न ही उसे किसी मुहर की ज़रूरत है। तुम अभी भी क्यों सोचते हो कि, "मुझे औरों से मान्यता मिलती रहे"? अब तो तुम्हारे पास अपनी आँखें हैं, इतने समझदार हो। और बहुत समझदार हो, मुझे दिख रहा है।

बस वही है कि जब बीमारी ज़रा पुरानी हो जाती है, तो ठीक हो जाने के बाद भी मन को थोड़ा समय लगता है ये मानने में कि मैं ठीक हो चुका हूँ क्योंकि बीमारी की आदत लग चुकी होती है। बीमारी की जब बड़ी गहरी आदत लग जाए और तब जब तुम ठीक हो जाओ, तो असहज सा प्रतीत होता है। ऐसा लगता है, "अरे, ये क्या हो गया?”

कोई है यहाँ ऐसा जिसे बड़े लम्बे समय तक हाथ या पाँव पर प्लास्टर चढ़ा हो?

(कुछ श्रोता हाथ उठाते हैं)

जब प्लास्टर हटता है तो कुछ दिन तक कैसा लगता है?

श्रोतागण: खाली-खाली सा।

आचार्य: अजीब-अजीब सा नहीं लगता? प्लास्टर की ऐसी आदत पड़ जाती है कि अजीब-सा लगता है। सच तो ये है कि मन चुपके से प्लास्टर को वापस माँगता है, चुपके से। आदत लग गई है।

ठीक हो गए हो, कोई समस्या ही नहीं है। बस पुरानी यादें हैं। पुरानी अपनी ही छवि है कि मैं ऐसा हुआ करता था तो लग रहा है कि मुझे अभी भी वैसा ही होना चाहिए। अरे, क्यों होना चाहिए? कोई आवश्यकता नहीं है।

कपड़े छोटे हो गए और तुम्हें स्पष्ट दिख रहा है कि अब तुम्हें नहीं ठीक पड़ते, पर कपड़ा था, बहुत दिन तक पहना था, तो मन कोशिश करता है कि बहुत दिन तक चला ले। तुम वैसा ही कुछ कर रहे हो। कहीं कोई बाधा नहीं है, कहीं कोई संकोच नहीं है, तुम हिचकिचाहट के शिकार हो ही नहीं। ये मेरे सामने जो खड़ा हुआ है, ये एक स्वस्थ नौजवान है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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