आचार्य प्रशांत: डर के और भी फायदे होते हैं। एक मैंने गाना सुना था। गाने में लड़की-लड़का अकेले हैं, अंधेरी रात, बादल गरज रहे, वर्षा (हो रही)। और फिर वो गाते हैं: ‘बादल गरजा सिमट गए हम, बिजली कड़की लिपट गए हम, ये है कितना सुंदर मिलन!’ डरोगे नहीं तो लिपटोगे कैसे? हमारे संबंध ही लिपटा-लिपटी के हैं, डर पर आश्रित होते हैं। “हाय! मैं इतनी डर गई कि तुझसे लिपट गई!” देखते नहीं हो पिक्चरों में? वो दोनों जा रहे हैं, बिजली कड़की ज़ोर से और वो "हाय दईया!" करके उसको चिपक जाएगी। बहाना मिल जाता है नैतिकता, मर्यादा तोड़ने का। नैतिकता, मर्यादा वैसे भी व्यर्थ की चीज़ें हैं, पर तुम्हारे लिए व्यर्थ की नहीं हैं। तो तुम्हें कारण चाहिए फिर उनको तोड़ने का। और कारण क्या मिल गया? डर। “हम तो इतना डर गये थे कि लिपट ही गये।”
जितने व्यर्थ काम करने हों उन सबको करने के लिए डर एक अच्छा तर्क है। किसी को तुम पकड़ो और पूछो, “काहे को की ये बेवकूफी?” बोले “पता नहीं, मैं बहुत डर गया था। बदहवासी में हो गया।” अब तुम उसको दोष नहीं दे पाओगे क्योंकि उसने मार दिया है बाण कि, "हमसे तो बदहवासी में हो गया।" इन सब कारणों से डर बचा रह जाता है। बचा ही नहीं रह जाता, उपयोगी हो जाता है।
डर से ज़्यादा प्यारी कोई दूसरी चीज़ है, उसकी तरफ बढ़ो। डर तो हमारी तरकीब है उस चीज की तरफ न बढ़ने की। वास्तव में तुम उसी चीज़ से डर रहे हो जो सबसे प्यारी है। डर में रस है पर कहीं-कहीं ज्यादा रस ‘उस चीज’में है। फायदे का सौदा है।