डरे हुए मन की रोमांचक योजनाएँ || आचार्य प्रशांत (2019)

Acharya Prashant

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डरे हुए मन की रोमांचक योजनाएँ || आचार्य प्रशांत (2019)

प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। आपको यूट्यूब पर लगभग तीन महीनों से सुन रहा हूँ। आप जिस गहराई से सत्संग करते हैं, उसको मेरा प्रणाम है। मैंने अपने जीवन में ये देखा है कि लगातार भय और व्याकुलता से घिरा रहता हूँ, जबकि आर्थिक और सामाजिक रूप से मैं बहुत अच्छी स्थिति में हूँ। मुझे भय इसी बात का रहता है कि कहीं ऐसा न हो कि मैं एक आध्यात्मिक जीवन न जी पाऊँ या किसी ग़लत मार्ग पर चल पड़ूँ। मैंने भविष्य में अपने लिए बहुत रोमांचक और बहुत ही असाधारण योजनाएँ बना रखे हैं। मैं आज आपसे ये पूछना चाहता हूँ कि मैं पूर्णतः निडर होकर अपने इन योजनाओं को कैसे पूरा कर सकता हूँ।

आचार्य प्रशांत: और अगर वो योजनाएँ आयें ही डर से हों तो? डर से उठने वाली योजनाओं को निडरता-पूर्वक कैसे अमल में लाओगे? यही तो मूल गलती होती है न — कर्म को देखो, कर्म की बात करो, कर्म का विश्लेषण करो, कर्ता को छुपा जाओ; योजना की बात कर लो, योजनाकार को पर्दे में रखो।

बताइएगा साहब, ज़्यादातर आपकी योजनाएँ बनती ही क्यों हैं? 'मैंने योजना बनायी है कि अगले पन्द्रह साल में कम-से-कम पन्द्रह करोड़ तो जमा कर ही लूँगा।' — ये क्यों बनी है? क्योंकि आपके भीतर जगत के प्रति महान प्रेम है? हाँ? अब आप कह रहे हैं, 'मैंने डर के कारण ये जो योजना बनायी है, इस योजना पर निडरता-पूर्वक चलना चाहता हूँ।' ज़रूर! इसी को कहते हैं न, 'लो कल्लो बात।'

कभी गौर करा है, हमारे अधिकांश आयोजित काम होते ही क्यों हैं? क्यों होते हैं? 'आई एम प्लानिंग टु गेट मैरिड ऐट ट्वेंटी-एट।' (मैं अट्ठाईस की उम्र में शादी की सोच रहा हूँ) काहे भाई? समाधि लगेगी? लगेगी तो अभी काहे नहीं लगा लेते, अट्ठाईस तक काहे इंतज़ार करोगे? 'नो, बाय दैट टाइम आई विल हैव जॉब एंड फ्लैट एंड सिक्योरिटी ' (नहीं, तब मेरे पास एक नौकरी, अपना मकान और सुरक्षा होगी)। अच्छा, तो जिसको लेकर आ रहे हो वो आएगी नहीं बिना फ्लैट और जॉब और सिक्योरिटी के। बड़े निडर हो! दिख नहीं रहा कि काँपे हुए हो कि अगर फ्लैट नहीं कमाया और सिक्योरिटी नहीं कमायी तो बीवी ही नहीं आएगी? लेकिन बड़े एक्सेंट और बड़े लहज़े के साथ और बड़े आत्मविश्वास-पूर्वक बता रहे हो कि, 'यू नो, दीज़ आर माय प्लांस ' (ये मेरी योजनाएँ हैं)। मूरख! (श्रोतागण हँसते हैं)

नहीं, ऐसों को मैं मूर्ख नहीं बोलता; मूरख! सद्भावना दिखा कर मूरखवा नहीं बोला, क्योंकि मिट्टी की भाषा से ऐसों को बदबू आती है, मैं उन्हें वो बदबू सुंघाना चाहता हूँ।

गौर तो करिए न, योजनाएँ हमारी कहाँ से आती हैं? योजनाएँ भविष्य के डर से आती हैं। और भविष्य के बारे में सोच कब रहे हैं आप? अभी। भविष्य को लेकर डरे हुए हैं, मतलब कब डरे हुए हैं? अभी। तो माने सारी योजनाएँ ही कहाँ से आ रही हैं?

श्रोता: डर से आ रही हैं।

आचार्य: ल्यो! गड़बड़ हो गई!

'मेरी योजना है कि अगले चार साल के बाद मैं निडर हो जाऊँगा।' माने पहली बात तो ये मान रहे हो कि चार साल तक भी डर रहेगा, वही डर जो आज है; और डर से इतना डरे हुए हो कि उस डर को आज हटाने की कल्पना भी नहीं कर पा रहे, कह रहे हो, 'कम-से-कम तो चार साल लगेगा-ही-लगेगा।' मैं ये नहीं कह रहा हूँ कि हर योजना अनिवार्य रूप से डर से ही आएगी; लेकिन चूँकि हम डरे हुए हैं इसीलिए हमारी तो सब योजनाएँ डर से ही आती हैं। अंतर समझ लीजिएगा। ज़रूरी नहीं है कि हर योजना जो कभी भी किसी ने भी बनायी हो डर के कारण ही बनायी हो, लेकिन अगर डरा हुआ आदमी कोई भी योजना बना रहा है तो उस योजना में डर का ही रंग होगा। ये बात स्पष्ट हो पा रही है?

एक निडर जीवन में योजनाओं के लिए जगह बहुत सीमित हो जाती है। पहली बात तो वो योजनाएँ कम बनाता है, दूसरी बात, जो बनाता है उनमें डर इत्यादि नहीं होता। उसकी योजनाएँ बस उतनी ही दूर तक जाती हैं जितनी हमारी भौतिक और देहगत विवशता है, कि चेन्नई जाना है तो भैया टिकट तो कटाना पड़ेगा न योजना बनाकर। इतना करेगा वो, इस हद तक योजना रहेगी, इससे ज़्यादा नहीं। हमारी योजनाएँ आमतौर पर बहुत दूर तक चली जाती हैं। 'दो बच्चे होंगे, दो फ्लैट होंगे। एक बच्चा ये बनेगा, दूसरी बच्ची ये बनेगी।'

ये सब मैं बहुत अनसुनी बातें कर रहा हूँ? रोज़ सुनते हैं न? ऐसा ही है न जीवन? पूछिए अपनेआप से, अगर भीतर डर न बैठा होता तो इस तरह की योजनाएँ बनाते क्या? फिर अगर योजना बनती भी तो उसका रंग दूसरा होता, उसकी सुगन्ध अलग होती। और जानते हैं डर से जो योजना उठती है उसके साथ सबसे ख़राब बात क्या है? वो निडरता के सारे विकल्प बन्द कर देती है। आप अभी तो डरे हुए हैं ही, आपने भविष्य के लिए डरी हुई योजना बना कर भविष्य भी चौपट कर दिया; आगे अगर और कोई सम्भावना होती, अलग जीवन जीने की, वो भी बन्द कर दी, पहले से ही तय कर दिया कि मैं तो ऐसा ही करूँगा।

अभी अपनी जो हालत है, अगर आप उसको सम्बोधित कर पाएँ, सुधार पाएँ, तो भविष्य को आप जिस तरह से देखते हैं वो बहुत बदल जाएगा। फिर भविष्य कोई ख़तरा नहीं लगेगा, फिर भविष्य कोई आकर्षक निमंत्रण भी नहीं लगेगा, फिर आपके पास भविष्य के बारे में सोचने का बहुत लोभ ही नहीं बचेगा। अभी तो भविष्य हमारी मजबूरी है; डरे हुए आदमी को बहुत सोचना पड़ता है आगे के बारे में, 'कल क्या होगा?' अगर आज से आप डर निकाल दें, तो भविष्य के बारे में आपको बहुत कम सोचना पड़ेगा। ये कितनी राहत की बात है, है न? 'कल क्या होगा? कल क्या होगा?'

और बहुत कम चीज़ें हैं जो उतनी तबीयत से हमारी गर्दन पकड़ती हैं और दम घोटती हैं जितना भविष्य का डर। सामने भी जो डर खड़ा हो न, वो छोटा होता है। क्यों छोटा होता है? क्योंकि सामने ही है, दिख रहा है कितना बड़ा है, और जितना बड़ा है आप उसे उससे ज़्यादा बड़ा नहीं देख सकते। भई सामने यही तो हो सकता है कि शेर खड़ा है, भविष्य में तो ये भी हो सकता है कि आपके सामने जुपिटर ग्रह का शेर खड़ा हो। वर्तमान में तो अधिक-से-अधिक पृथ्वी का ही शेर खड़ा होगा सामने, और जुपिटर के शेर के सामने तो चूहा है वो। जो वर्तमान के शेर से सम्मुख है, उसकी आफ़त बहुत छोटी है। पहली बात तो वो शेर साधारण आकार का है, दूसरी बात, अब सामने खड़ा है तो सोच कर क्या करोगे। या तो भागो या भिड़ जाओ, सोचने का तो अब कोई काम ही नहीं है। और दर्द सोचने में निहित है; न भागने में, न भिड़ने में। एक बार भिड़ गये, अब सोचने से तकलीफ़ किसको होगी! अब सोचने की मियाद ही पूरी हो गई। सोचने के लिए अब किसको मौका मिलेगा, अब तो भिड़ो!

वर्तमान के खतरे तकलीफ़ कम देते हैं। भविष्य में तो कुछ भी हो सकता है न! भविष्य की चिंताएँ आदमी को मार देती हैं बिल्कुल; जुपिटर का शेर। हममें से कोई ऐसा नहीं है जिसकी जिन्दगी में, बल्कि जिसके जेहन में जुपिटर के शेर न हों। है कोई ऐसा यहाँ पर जो काल्पनिक शेरों से नहीं लड़ रहा है? कहो! पृथ्वी के असली, हाड़-माँस के शेर से तो आप जीत भी सकते हैं, जुपिटर के शेर से कैसे जीतेंगे? उसकी तो कल्पना करते ही आपकी हार है; और फिर योजना बनायी जाती है कि हराना कैसे है उसको।

अपनी आध्यात्मिक प्रगति को मापने का ये एक अच्छा तरीका है, बताए देता हूँ — देखिए कि भविष्य आपके ख़यालों में कितना आता है। जैसे-जैसे आपका अध्यात्म गहराई पाएगा, वैसे-वैसे मन से भविष्य कम होता जाएगा, कम होता जाएगा; आकर्षक ही नहीं लगेगा भविष्य के बारे में सोचना! और एक आदमी जो अनाध्यात्मिक है, जिसको बहुत कम आत्मज्ञान है, उसको आप इसी बात से पहचान सकते हैं कि वो लगातार सोच रहा होगा भविष्य के बारे में या पीछे के बारे में; या तो गत या आगत।

'देखो सात साल पहले न जब हम पहली बार मिले थे' — जहाँ कोई ये बात शुरू करे, तहाँ समझ लीजिए कि जीवन में गहराई नहीं आयी इसके। एक-आध बार कोई ऐसी बात कर दे तो ठीक है, एक-आध बार तो कुछ भी ठीक है। पर किसी ने ढर्रा ही बना रखा हो, कि बात पीछे से ही शुरू होती है हमेशा; जैसे कोई फ़िल्म जो पौने तीन घंटा फ्लैशबैक में चलती हो। और दूसरी होती हैं फ्यूचरिस्टिक फ़िल्में, उनकी बात होती ही हमेशा चालीस साल आगे की है। 'जब न हम चाँद पर घर बनाएँगे तो विक्रम और रोवर को भी ढूँढ लाएँगे। बेचारे बड़े लोनली होंगे न आजकल!' (श्रोतागण हँसते हैं)

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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