आचार्य प्रशांत: एक बात साफ़ समझ लीजिए — अगर आप अपने-आपको धार्मिक कहते हैं और पशुओं, जीव-जन्तुओं के साथ आपका हिंसा का, क्रूरता का नाता है तो आप कहीं से, किसी दृष्टि से, किसी कोण से धार्मिक नहीं हैं।
अभी दो-चार दिन पहले मैं याद कर रहा था ‘माँ कह एक कहानी’। किसी को याद आई?
“माँ कह एक कहानी, "बेटा समझ लिया क्या तूने मुझको अपनी नानी?" कहती है मुझसे ये चीटीं, तू मेरी नानी की बेटी। कह माँ कह लेटी ही लेटी, राजा था या रानी, माँ कह एक कहानी।”
राहुल को यशोधरा कहानी सुना रहीं हैं।
“सुन उपवन में बड़े सवेरे, तात भ्रमण करते थे तेरे।” सुबह-सुबह बागीचे में सिद्धार्थ गौतम, बुद्ध होने से पहले, भ्रमण किया करते थे। और तभी वो क्या पाते हैं कि एक पक्षी शिकारी के बाण से आहत हो कर के उनके सामने आकर के गिरता है। वो उसको उठा लेते हैं। जब वो उठा लेते हैं तो वो जो शिकारी है, आखेटक, वो उनके पास आता है, कहता है, “मैंने मारा है, मेरी संपत्ति है, वापस करो।” तो वो कहते हैं, “नहीं, नहीं दूँगा, वापस नहीं दूँगा।” तब शिकारी कहता है, “पर ये बात तो नियम के, कानून के ख़िलाफ़ जाती है। चीज़ मेरी है, आपने कैसे उठा ली?” वो बोलते हैं, “जाती होगी नियम और कानून के ख़िलाफ़, मैं नहीं दूँगा वापस।”
तो बात बढ़ती है, बात न्यायालय तक पहुँचती है। और न्यायालय फैसला देता है कि भक्षक से रक्षक हमेशा बड़ा होता है। फ़र्क नहीं पड़ता कि वो तुम्हारा कबूतर था लेकिन तुम उसका भक्षण करने जा रहे थे, इन्होंने रक्षा करी है। तो न्याय को एक तरफ रखो। “न्याय दया का दानी, माँ कह एक कहानी।” ‘न्याय दया का दानी’, न्याय छोटा है, दया बड़ी है। ये धर्म है।
किसी को हक़ नहीं है किसी जानवर को काट देने का। और अगर कोई जानवर कट रहा है तो ये किसी का व्यक्तिगत मसला भी नहीं है। एक जीव पर किसी और का अधिकार नहीं हो सकता। एक आदमी पर दूसरे आदमी का अधिकार हो सकता है? क्या एक आदमी दूसरे आदमी की सम्पत्ति कहला सकता है? उसी तरीके से एक पशु भी दूसरे पशु की संपत्ति नहीं कहला सकता।
हमारी सभ्यता, संस्कृति अभी अविकसित हैं, अधूरे हैं इसलिए हम इस तरह के शब्दों का प्रयोग कर लेते हैं, कि पशुधन वगैरह। जब किसी की संपत्ति नापी जाती है तो उसमें कहते हैं पशुधन इतना। दुनियाभर में यही चलता है। पर ये बात बस यही दिखाती है कि अभी हम पूरे तरीके से इंसान हुए नहीं हैं। अभी भी हम एक जीव को दूसरे जीव की संपत्ति मान रहे हैं।
कोई जीव किसी दूसरे जीव की संपत्ति नहीं होता। कुछ सालों पहले तक, कुछ शताब्दियों पहले तक दुनिया के कुछ हिस्सों में औरतों को पुरुषों की संपत्ति ही माना जाता था। आज आप उन बातों को देखते हैं तो कहते हैं, "अरे, अरे, अरे! कैसा नीचता का विचार था ये।" कहते हैं न? और पहले माना जाता था कि औरत आदमी की संपत्ति है भई, उसका वो जो चाहे करे। कुछ जगहों पर यहाँ तक नियम थे कि अगर कोई आदमी अपनी औरत को मार दे तो उसे सज़ा नहीं हो सकती क्योंकि उसकी चीज़ थी, उसके जो मन में आया उसने करा। “भई, मेरी कुर्सी है, मैंने तोड़ दी उसकी टांग।” ये सब भी चलता था। उसी तरीके से अभी ये सब मान्यता चलती है कि फलाने का जानवर है। कोई किसी का नहीं होता।
अगर आदमी के मन ने तरक्की की, अगर संस्कृति का विकास हुआ तो आप देखिएगा एक दिन ऐसा आएगा जब जानवरों को भी तमाम वो सब अधिकार मिलेंगे जो इंसानों को हैं, कम-से-कम राइट टु लाइफ तो उन्हें ज़रूर मिलेगा। जीने का अधिकार तो उन्हें ज़रूर मिलेगा। उन्हें किसी की संपत्ति के तौर पर नहीं गिना जाएगा। आप ये नहीं कह पाएँगे, “अरे, इस कसाई के इतने बकरे हैं, उसके बकरे हैं, वो काट रहा है तो काट ले।” ये उसका व्यक्तिगत मसला नहीं है।
एक आदमी छः बच्चों को काट रहा हो, भले ही वो उसके बच्चे अपने हों, तो क्या आप उसे काटने देंगे? क्या आप ये कहेंगे कि “उसके अपने बच्चे हैं, उन्हें काट रहा है तो काट ले, उसका निजी, व्यक्तिगत मामला है।” नहीं कहेंगे न। वैसे ही देखिएगा एक दिन ऐसा आएगा जब किसी को अनुमति नहीं होगी किसी पशु को काट देने की, हिंसा पहुँचाने की, कैद कर लेने की, अपना भोजन बना लेने की। उसी दिन के लिए हम संघर्ष कर रहे हैं। संस्था के भी प्रमुख उद्देश्यों में वो एक केंद्रीय उद्देश्य है कि वो दिन आए, जल्दी आए।
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