दर्द में भी मुस्कुराना सीखिए || आचार्य प्रशांत (2021)

Acharya Prashant

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दर्द में भी मुस्कुराना सीखिए || आचार्य प्रशांत (2021)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, चालीस वर्षीय महिला हैं, डॉक्टर हैं पेशे से। लिखती हैं, 'प्रणाम, आचार्य जी। मैं छोटे शहर की निम्न-मध्यवर्गीय, रूढ़ीवादी परिवार की सबसे बड़ी लड़की हूँ। बचपन से ही ग़रीबी, डिप्रेशन (अवसाद), डोमेस्टिक वायलेंस (घरेलू हिंसा) बहुत कुछ झेला, फिर सोचा कि इस जीवन को बदलना है; अत्यन्त संघर्ष किया, आज बेहतर स्थिति में हूँ। लेकिन इतना कुछ देखा है कि अन्दर से पूरी हिल चुकी हूँ। मैंने स्त्री शरीर में होते हुए भी पुरुष केन्द्र से जीवन जिया है, लेकिन आज अन्दर से हिल चुकी हूँ, घावों से घिर चुकी हूँ। कुछ कहें?'

आचार्य प्रशांत: देखिये, शरीर को तो घाव लगने ही हैं। कोई बाहर वाला नहीं देगा अगर शरीर को घाव तो शरीर ही स्वयं शरीर को घाव दे देता है। शरीर के भीतर ही शरीर को नष्ट करने वाली वृत्तियाँ मौजूद रहती हैं जन्म से ही। आप पूरा ख़याल रखिये शरीर का, आप शरीर पर किसी तरह की धूल-धक्कड़ भी न पड़ने दीजिये तो भी एक दिन आता है जब शरीर ढल जाता है। शरीर तो स्वयं ही अपनेआप को नष्ट करता है।

तो ये कोई बड़ी बात नहीं है कि किसी को बीस की उम्र में जीवन से बहुत घाव मिल गये, किसी को चालीस, किसी को अस्सी। मानसिक तौर पर चाहे शारीरिक तौर पर आप ने जो भी पाया है और जो भी कमाया है वो सब नष्ट-ध्वस्त तो होता ही होता है। सही उद्देश्य के लिए घाव सहिए और आगे बढ़ते जाइए। घावों से बचने का मेरे पास कोई उपाय होता तो मैंने सबसे पहले अपने ऊपर लगा लिया होता।

अगर घाव न खाना आपका उद्देश्य है तो आप ग़लत व्यक्ति से सवाल पूछ रही हैं। कम-से-कम मैं तो नहीं जानता कि बिना चोट, बिना घाव, बिना दर्द का जीवन कैसा होता है। हाँ, मैं इतना ज़रूर जानता हूँ कि चोट के साथ, घाव और दर्द के साथ भी लगातार डटे कैसे रहते हैं। जब आपके शरीर की एक-एक कोशिका और मन की एक-एक लहर कराह करके विद्रोह कर रही हो तब भी क़दम घसीटते हुए सही लेकिन अपने कर्तव्य का पालन कैसे करना है इस पर ज़रूर मैं थोड़ा बहुत कुछ बोल सकता हूँ।

घावों से बचने का कोई तरीक़ा हो तो मुझे भी बता दीजियेगा, अनुग्रहित रहूँगा। मेरी दृष्टि में तो जीवन स्वयं एक घाव ही है। कौन बच सकता है। ऑटोइम्यून (स्व-प्रतिरक्षित) एक डिसॉर्डर (विसंगति) है मुझे। मेरा शरीर ही मेरे शरीर के खिलाफ़ सक्रिय है। जहाँ कोई ज़रूरत नहीं घाव की, मेरे शरीर में वहाँ घाव पैदा हो जाते हैं, अन्दर भी बाहर भी। ऑटोइम्यून डिसऑर्डर माने शरीर ही शरीर का दुश्मन है। जिस चीज़ से मैंने बात शुरू करी थी कि कोई बाहर वाला थोड़े ही चाहिए घाव देने के लिए, शरीर ही काफ़ी है, शरीर को घाव देने के लिए; जीवन ही काफ़ी है, जीवन को घाव देने के लिए।

पैदा होने का मतलब ही है कि घाव सहोगे। कुछ नहीं करा हो तुमने और पाते हो कि भीतर किसी अंग में, कहीं हड्डी में, कहीं खाल में, घाव उभर आये। जीवन में तुमने भलाई ही चाही हो दूसरों की, पर पाते हो कि लोग नाराज़ हैं; नाराज़ ही नहीं हैं, भड़के हुए हैं, चोट देना चाहते हैं। ऑटोइम्यून डिसॉर्डर है जीवन। तुमने कुछ नहीं किया, अपनेआप ही कहीं से घाव उड़ता हुआ आ जाता है, लग जाता है। और तुम सोचते हो, मैंने किया क्या, मैंने तो कुछ किया नहीं। और मैंने जो किया अपनी दृष्टि से बड़े साहस से किया, बड़े प्रेम से भी किया। फिर भी ज़िन्दगी में चोट है, दर्द है — ये सब बहुत बुरा लगता हो तो मैं पूछूँगा ‘पैदा काहे को हुए?’ पैदा हुए हो तो झेलो, सब झेलते हैं, मैं भी झेल रहा हूँ, तुम भी झेलो। आनन्द इसमें नहीं है कि ये झेलम-झेलाई बन्द हो जाएगी। आनन्द इसमें है कि इसके साथ ही सुकून आ जाएगा, इसके रहते हुए भी तुम अपनी ऊर्जा, अपना समय, अपना ध्यान सही काम को देना सीख लोगे। तुम कहोगे होंगी चोट, होंगे घाव, होंगे व्यवधान; शरीर नाराज़ होगा, जीवन नाराज़ होगा, लोग नाराज़ होंगे। क्या कर सकते हैं? मानव शरीर लिया, प्रारब्ध है।

हमें तो वो करना हैं जो सही है। हमारी चेतना जो हमें ऊँचे-से-ऊँचा सुझाव दे सकती है, हमें उसका पालन करना हैं। अब शरीर रो रहा है, चिल्ला रहा, हम क्या करें। सम्बन्धों में कड़वाहट है, लोग नाराज़ हैं, हम क्या करें। एक दिन न ये शरीर रहेगा, न ये सम्बन्धी रहेंगे। तो इनको तो एक दिन वैसे ही हमसे विमुख हो जाना हैं। शरीर जल जाएगा और जो शरीर को जलाने आये थे वो राख को भी वहीं छोड़ के वापस लौट जाएँगे, ऐसी नाराज़गी होगी। तो क्या दिल जलाना, एक दिन तो दिल को जल ही जाना है। जो जल रहा होता है न, उसको देखकर बोलो— दिल जला! जब सबकुछ ही जला तो दिल भी जला। (हँसते हुए) दिक्क़त बस ये है कि दिल को तो जलना ही था अन्त में, ज़िन्दगीभर काहे दिल जला। तो जो कर सकते हैं अच्छे-से-अच्छा कर लीजिये, नुकसान की, चोट की, दर्द की बहुत परवाह मत कीजिए, ये सब लगा ही रहता है, जीवन ऑटोइम्यून डिसॉर्डर है।

बहुत आनन्द आता है, दर्द के बीच भी शान्त रहने में; खुशी नहीं है आनन्द, दर्द है आनन्द। और जिसको दर्द में आनन्द नहीं है वो आनन्द का 'अ' नहीं जानता। अध्यात्म की वर्णमाला अभी शुरू ही नहीं हुई उसके लिए, ‘अ’ नहीं जानता वो। मुझे नहीं मालूम कैसे आप लोगों को ऐसे लोग मिल जाते हैं जो बात करते हैं, 'खुशी, प्रसन्नता, हैप्पीनेस-हैप्पीनेस इत्यादि-इत्यादि।' मैं आपको धोखे में नहीं रखना चाहता, मैं तो दर्द की बात करता हूँ। क्योंकि मुझे बात सच्ची करनी है। मैं जानता हूँ, जीवन दुख है। आपकी भी शक्ल देखता हूँ, इसकी भी शक्ल देखता हूँ (एक श्रोता की ओर इशारा करते हुए), अपनी भी, इनकी आँखें देखता हूँ, इनका चेहरा (श्रोताओं की ओर देखते हुए)। हमारी आँखों में, हमारे चेहरे में दुख है। हाँ, कुछ धूर्त होते हैं वो छुपाये फिरते हैं।

दुख रहेगा, इसी दुख का उत्सव मनाऍं, ये आनन्द है। दुख आपको आपके कर्तव्य से, धर्म से, सत्कार्य से विमुख करना चाहता है, आप दुख की चाल को सफ़ल न होने दें। आप कहें, ‘दुख है कोई बात नहीं, हम वो करेंगे जो ठीक है।’ ,

दुख के न होने में आनन्द नहीं है, दुःख से न हारने में आनन्द है।

दुख से आप जीत नहीं सकते, जीता कोई नहीं आजतक, बस हारिएगा नहीं, इतने में जीत है।

आप सोचें, ‘हम दुख को नष्ट कर देंगे’, नहीं होगा, वो बना रहेगा। आप बस हारे न दुख से, इतने में जीत है आपकी।

दुख बना हुआ है, आप अपना काम कर रहे हैं, यही आनन्द है।

और घोर आनन्द के लिए आपको चाहिए? घोर दुख। इसलिए गहरा दुख सबके हिस्से की चीज़ नहीं होती। गहरा दुख सिर्फ़ उनको मिलता है, जो सही ज़िन्दगी जीने की कोशिश करते हैं। ये सब हल्के-फुल्के, लाइटवेट (कम वज़नी) लोग घूम रहे हैं, इनको क्या दुख मिलेगा, इनको तो हैप्पीनेस मिल जाती है, दो पैग मारकर ही। दुख मिलता है जिगर वालों को, दुख मिलता है किसी पुरुष को, किसी चेतना वाले को। छोटे लोगों की सज़ा ये होती है कि उनको सुख-दुख भी ऐसे ही छोटे-छोटे मिलते हैं। दुख क्या मिला — चवन्नी खो गयी। अरे चुन्नी, चल चवन्नी खोज। अब मुन्नी, चुन्नी और चुन्नी की अम्मा, सब मिलकर चवन्नी खोज रहे हैं, ये है आम ज़िन्दगी।

सीना फाड़ दे, ऐसे दुख के लिए आप ज़रा ज़िन्दगी में कोई सही और ऊँचा काम करके तो देखिये। आपको क्या लगता है, आप बड़ा अच्छा काम करेंगे तो आपको उसका बड़ा पुरस्कार मिलेगा? आनन्द वर्षा हो जाएगी? (नकार में हाथ हिलाते हुए) आप ज़िन्दगी में कुछ अच्छा करके तो देखिये, ऐसे-ऐसे उपद्रव मचेंगे ज़िन्दगी में, ऐसी तकलीफ़ें टूटेंगी जो आम आदमी के हिस्से आ ही नहीं सकती।

जो घाव आपको कभी न मिले हों वो घाव मिलेंगे जब आप सही काम करेंगे। जिनसे घाव खाने की कोई उम्मीद न हो वो भी ख़ंजर घोप देंगे, आप सही ज़िन्दगी जी कर तो देखिये। आपको ख़ंजर खाकर भी ज़िन्दा रहना हैं, ये आनन्द है। दिल के हज़ार टुकड़े हो जाऍंगे, आपको तब भी नहीं टूटना है, ये आनन्द है। दिल का क्या है? वो तो चीज़ ही हल्की है, दरकने को तैयार, फ़्रिजायल (नाज़ुक), हैंडल विद केयर (ध्यान से सम्भालें), फट से टूटती है, आ गयी दरार। टूटने दीजिए दिल को, आप अटूट रहिए, ये आनन्द है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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