प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, पिछले सत्रों में आपने जो विधि बताई थी, उससे काफ़ी वासनायें इंद्रियों के द्वार पर खड़ी रहती हैं, मैं भाव करता हूँ लेकिन छूट-छूट जाता है, और फिर एक डर लगता है कि जैसे पहले हम इनसे पकड़ जाते थे, फिर पकड़ जाएँगे। तो वो डर क्यों है ये बताने की कृपा करें।
आचार्य प्रशांत: डर है तो दोनों बातें हैं- संभावना अभी बची होगी वृत्तियों-वासनाओं में फँस जाने की, तो डर उठता है और साथ ही साथ डर का उठना यह भी बताता है कि इच्छा नहीं है फँसने की, तो शुभ ही है यह डर कहीं यह स्थिति आ जाती कि अभी फँसने की, फिसलने की संभावना तो होती और डर नहीं होता तो गड़बड़ ही हो जाती न?
बहुत तरह के डर होते हैं निर्भर करता है किस केंद्र से आ रहे हैं एक डर वह भी होता है जो आपको ध्यान की तरफ ले जाता है जो डर ध्यान की तरफ ले जाए उसको कहते हैं सावधानी वास्तव में सावधान शब्द ध्यान का ही सूचक है। ये सब बातें सुनने में बहुत अच्छी लगती हैं कि जीवन में कोई डर नहीं होना चाहिए पर ये बातें आख़िरी हैं, बिल्कुल शिखर की हैं, मंज़िल की हैं, आत्यंतिक हैं और यह तभी कही जानी चाहिए जब सब प्रकार की वासनाओं से मुक्ति हो गई हो कि न वासनाएँ बची हैं और अब न ही डर बचा।
पर वासनाएँ हमें सताती नहीं बल्कि मज़ें देती हैं, डर परेशान करता है। वासना किसी को बुरी नहीं लगती, डर सबको बुरा लगता है। तो हम एक ऐसी स्थिति चाहते हैं जिसमें वासना तो रहे, डर न रहे। समझो बात को! डर सिर्फ तभी जाना चाहिए जब वृत्तियों का पूर्ण शमन हो जाए, डर सिर्फ तभी जाना चाहिए जब डर का जो मूल कारण है, वह भी चला गया हो। उससे पहले अगर डर चला गया तो यह शुभ नहीं महाअशुभ बात है।
लेकिन जैसा कि मैंने कहा हम चाहते हैं कि वासनाएँ तो बची रहें, वृत्तियाँ सारी कायम रहे, डर हट जाए। इसीलिए तुम पाओगे कि अध्यात्म में डर को लेकर के बड़ी नारेबाज़ी होती है। लोग यह नहीं कहते कि ईश्वर मुझे मेरे दोषों और दुर्गुणों से छुटकारा दो या कहते भी हैं तो ज़रा कम कहते हैं। ज़्यादातर नारे किस बात पर लगते हैं कि- हमें डरना नहीं है, हमें निर्भीक होना है। गौर से देखना, हमारी मंशा साफ़ हो जाने की नहीं है, हमारी मंशा है कि हम गंदे ही रहे आएँ और गंदगी से संबंधित जो हमें डर लगता है, वो डर भी न लगे। यह तो अशुभ नहीं दूना अशुभ हो गया न?
पहली बात तो जितना मल था भीतर, वो भरा ही हुआ है और दूसरी बात उस मल के प्रति जो सतर्कता, जो सावधानी उठती थी डर के रूप में वो सतर्कता, वो अलार्म, वो सावधानी उठनी भी बंद हो गई है। पर यही हम चाहते हैं इसलिए निर्भयता, निडरता, फीयरलेसनेस अध्यात्म के बाज़ार में खूब बिकने वाली चीज़ है और मैं कह रहा हूँ "डर नहीं हटना चाहिए, डर बचा रहना चाहिए। जितने तुम में दोष हों, डर तुम्हें उतना ही लगना चाहिए यह अति आवश्यक है।"
लेकिन माया का चक्र कुछ ऐसा है कि दो तरीके से निडर हुआ जा सकता है- निडर होने का जो सीधा, सरल, शुद्ध तरीका है, वह तो यही है कि भीतर से दोष मिट जाएँ, अहं की रुग्णता मिट जाए, विकार साफ़ हो जाएँ तो डर भी जाता रहेगा। ठीक? यह तो सीधा, सच्चा तरीका है।
डर हटाने का एक तरीका और है, वह तरीका यह है कि अंधेरा इतना घना हो जाए, विकार तुम्हें इतनी पूर्णता से जकड़ लें, दोष तुम पर इस क़दर हावी हो जाएँ कि तुम्हें यह सूचना मिलनी भी बंद हो जाए कि कुछ अनिष्ट हो रहा है। डर तो तभी उठेगा न जब तुम्हें पहले यह सूचना मिले कि कुछ गलत, कुछ अनिष्ट हो रहा है, तब डरोगे न? अगर तुम अपनी हालत ऐसी कर लो कि तुम्हें सूचना आनी हीं बंद हो जाए और सूचना अगर आती भी हो तो तुम उस सूचना के प्रति अनाग्रही हो जाओ, तुम उस सूचना को पूरी तरह अस्वीकार करना शुरू कर दो, तो भी डर मिट जाएगा।
एक से एक कुकर्म करें है लोगों ने बिना डरे। देखो अपने आसपास उन्हें यह निडरता कहाँ से मिली? निश्चितरूप से उन्हें यह निडरता सत्य या परमात्मा से तो नहीं मिल रही है। कोई किसी स्कूल में घुसता है 70 बच्चों पर अंधाधुंध फायरिंग करके उनको मार डालता है। कोई बाज़ार में निकलता है और वहाँ लोगों को, जिनसे वह परिचित भी नहीं है अपने ट्रक के तले अंधाधुंध रौंद देता है। डर तो नहीं लग रहा होगा इसको, इसमें निडरता कहाँ से आ गई? क्या इसको निडरता परमात्मा ने बख्शी है? न। यह सत्य द्वारा बक्शी हुइ निडरता नहीं है, यह वो निडरता है जिसमें तुमने, अपने अंधेरे को, अपने नशे को इतना बढ़ा लिया कि अब तुम्हें डर लगना भी बंद हो गया। यही वजह है कि बहुत सारे अपराध नशे में किए जाते हैं।
संतो के पास जाओगे, वो निडरता की बात करेंगे। पर वह जब भी निडरता की बात करेंगे वो कहेंगे कि "हम राम के पास है न इसलिए कोई भय नहीं।" लेकिन जो वर्तमान का अध्यात्म है, जो तत्कालीन शिक्षाएँ चल रही हैं अध्यात्म के क्षेत्र में, वो राम की तो बात करती नहीं, बस यह कहती हैं- निडर हो जाओ और हमें दिख रहे हैं बहुत लोग जो बेख़ौफ़ घूम रहे हैं जबकि उनका जीवन दोषों से परिपूर्ण है और ये बड़ी भयानक स्थिति है। जो आदमी एक अस्तित्वगत अपराधी है, जो आदमी आंतरिक रूप से पापी है, उसे डर भी ना लग रहा हो तो अब वह क्रिमिनल नहीं है अब वह 'हार्डएंड क्रिमिनल' है। अब वह अपराधी भर नहीं है, महाअपराधी है।
तो डर के प्रति यह रवैया छोड़िए कि बुरा ही है। डर नहीं बुरा है। डर उसकी सूचना है जो बुरा है। आपकी गाड़ी में तेल कम होता है, आपके डैशबोर्ड पर एक बत्ती जलने लगती है, फोड़ दीजिए बत्ती को, या उसके आगे काला टेप चिपका दीजिए क्योंकि जब वह बत्ती जलती है तो आपको तनाव हो जाता है तो आप कहिए कि इस बत्ती का जलना बहुत बुरा है। जलना बुरा है या टंकी का खाली होना बुरा है? यही कारण है कि लगभग सभी धर्मों ने यह कहा कि सत्य भयानक भी है, संहारक भी है, प्रलयकारक भी है, कहा ख़ुदा का ख़ौफ़ करो!
जो सत्य से नहीं डर रहा, वह यह सोच रहा है कि उसने डर से ही निजात पा ली। नहीं, उसने डर से निजात नहीं पा ली है। जो सत्य से डरता है, वह बाकी सब डरों से निजात पा जाता है। बाकी सब डर कौन से होते हैं? दुनिया के होते हैं। अब दुनिया के डर तो दुनिया जैसे ही होते हैं, कभी कम-कभी ज़्यादा। तो तुम्हारे जीवन में एक ऐसी स्थिति आ सकती है कि तुम्हें सत्य का कोई डर न हो और दुनिया भी तुम्हें डराती न हो।
लेकिन जिसको सत्य का डर नहीं है, उसको दुनिया से डरना ही पड़ेगा आज नहीं तो कल। बस फ़ेर यह है माया का कि दुनिया तो धूप-छांव का खेल है। दुनिया के सामने खड़े होकर के कभी-कभार तुमको ये लग सकता है कि घबराने की, चिंता करने की, डरने की कोई बात नहीं सब कुछ अपने नियंत्रण में है, हम दुनिया के राजा हैं, सब कुछ ठीक चल रहा है हमारे हिसाब से। ऐसे में तुमको लगता है कि सोने पर सुहागा हो गया। सत्य के सामने झुकना नहीं पड़ रहा है और दुनिया भी अपनी मुट्ठी में है। तो दोनों जगह अकड़ पूरी कायम है। सत्य के सामने भी झुके नहीं और दुनिया भी अपनी मुट्ठी में है कह लो रावण जैसी स्थिति है, कि राम से तो दुश्मनी कर रखी है और लंका के राजा भी हैं। राम के सामने झुके भी नहीं है और सोने की लंका भी मुट्ठी में है तो लगता है क्या बात है! क्या बात है! डरने की ज़रूरत क्या है? बल्कि ऐसे लोग उदाहरण बन कर खड़े हो जाते हैं कि हमको देखो! हम किसी के सामने नहीं झुकते, हम फिर भी लंकेश हैं और देखने वाले अगर सतर्क न हों तो वो यह निष्कर्ष भी निकाल सकते हैं कि यह व्यक्ति लंकेश है ही इसीलिए क्योंकि यह राम के आगे नहीं झुका। समझना बात को! तुम यह निष्कर्ष क्यों नहीं निकाल सकते कि रावण इतनी बड़ी सत्ता का मालिक इसीलिए है क्योंकि वो राम के आगे नहीं झुका और तुम यह निष्कर्ष निकालकर, अपनी जिंदगी भी राम के विरुद्ध किसी आधार पर खड़ी कर सकते हो। तुम कह सकते हो कि देखो! हमने देखा है, जो लोग राम के खिलाफ़ रहते हैं, वह बहुत बड़े राजा बन जाते हैं। ऐसे तर्क सुने हैं न खूब? सुने हैं कि नहीं? और तुम कहोगे यह हमको ही सुनी सुनाई बात नहीं बता रहे हम अपनी आँखों से देख कर आए हैं रावण की लंका सोने की है और रावण दस दिशाओं का राजा है और यह सब उसको हासिल ही इसीलिए हुआ है क्योंकि वह राम के खिलाफ़ खड़ा है। तो हमने क्या निष्कर्ष निकाला? कि जो राम के खिलाफ़ खड़ा होगा, उसे राम से तो झुकने की ज़रूरत है ही नहीं, वह दसों दिशाओं का स्वामी भी बन जाएगा। कितना आसान है न यह निष्कर्ष निकाल लेना और कितना आकर्षक लगता है यह निष्कर्ष? न यहाँ झुकना है, न वहाँ झुकना है, रावण न तो किसी इंसान के सामने झुका हुआ है और न ही राम के आगे झुका हुआ है। बड़ा अच्छा लगता है और हमें ऐसे रावण जैसे नमूने, उदाहरण, दृष्टांत बहुत मिल जाते हैं। हम उन्हीं की तलाश में होते हैं। जो चाहोगे वह मिल भी जाएगा बस!
और कालचक्र, घूमने में हो सकता है थोड़ा समय लगा दे, सुख-दुःख, धूप-छांव का खेल होते हैं और हो सकता है दोपहर जरा लंबी हो, तो तुमको लगे कि सूरज चमकता ही रहेगा और तुम धोखे में आ जाते हो। एक लंबी दोपहर को तुम अनंत समय समझ बैठते हो। तुम सोचते हो अब रात होनी ही नहीं है। दोपहर लंबी है, अनंत नहीं है।
जो राम के आगे नहीं झुका है, वह संसार में भी पिटेगा।
मुझसे लोग कहते हैं "कि आप बार-बार, बार-बार कहते रहते हैं कि जो 'एक' के सामने नहीं झुका, उसे सौ के सामने झुकना पड़ेगा।" जब आप कहते हैं तब तो बात बड़ी अच्छी लगती है कि जो सच्चाई के सामने नहीं झुका, उसे दुनिया में सौ जगह सर झुकाना पड़ेगा। जब आप यह बात बोलते हैं, तब तो बड़ी अच्छी लगती है। पर व्यवहारिक जीवन में तो हम ऐसा होता देखते नहीं, हम देख रहे हैं कि बहुत सारे लोग हैं जो झूठ का ही पक्ष ले रहे हैं और फिर भी अपने काम में, कारोबार में, चमक रहे हैं, अव्वल नंबर हैं ऐसा कैसे हो जाता है?
वो वही भूल कर रहे हैं, जिसका मैंने अभी ज़िक्र किया वो एक लंबी दोपहर को, अनंत प्रकाश का समय समझ रहे हैं। वो सोच रहे हैं कि सांझ कभी ढलेगी ही नहीं। वही रावण, लंका के किसी साधारण-से मैदान में धूल फांकता पड़ा हुआ है। कौन अनुचर? कौन भाई? कौन से गण? कौन से सेवक? तीरों से शरीर विधा हुआ है, आखिरी साँसे ले रहा है। वो सर जो कभी इतना ऊँचा हुआ करता था आज धराशाई है। यह स्थिति समझ रहे हो क्या है? जो राम के सामने नहीं झुका, वह अब दुनिया की धूल फांक रहा है। किसी मैदान की साधारण-सी धूल उसके चेहरे पर चिपकी हुई है। इसलिए डरो!
डरना अच्छा है, जब तक राम से डर रहे हो। बिल्कुल मत सोचना कि वृत्तियों को तुमने जो सहयोग दे रखा है उसका एक भी अवसर खाली जाएगा, नहीं फलित होगा, ना! परिणाम आएँगे। जितनी बार तुम गलत चुनाव करते हो, जितनी बार तुम सच्चाई के साथ बेअदबी करते हो, उतनी बार तुम अपने लिए ही दुःख तैयार कर लेते हो।