होली का वास्तविक अर्थ क्या है?

Acharya Prashant

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होली का वास्तविक अर्थ क्या है?
होली का मतलब है कि चाहे कोई भी कीमत चुकानी पड़े और झूठ कितना भी ताकतवर हो, उसका साथ नहीं देना है। हिरण्यकश्यप सिर्फ राजा ही नहीं था, प्रह्लाद का पिता भी था। प्रह्लाद ने कहा – "आप चाहे राजा हों या मेरे पिता, मैं आपका साथ नहीं दूँगा।" समाज, सत्ता, परिवार, प्रकृति, परिस्थिति कुछ भी कहे, मुझे वही करना है जो सही है; यही होली का सार है। यह त्यौहार हमें बताने के लिए रचा गया है कि अहंकार कितना भी चालाक हो जाए, परम-सत्ता से नीचे ही रहेगा। यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, होली पर लोग चिकन (मुर्गा) और शराब का सेवन करते हैं, इस पर कुछ कहें क्योंकि मैं समझा-समझा कर थक गया हूँ, मेरी तो नहीं सुनते।

आचार्य प्रशांत: होली का मतलब होता है: होलिका के दहन पर मनाया जाने वाला पर्व, है न? होलिका के दहन पर और ज़्यादातर लोग होली ऐसे मनाते हैं जैसे होलिका को सम्मानित कर रहे हों।

जो कुछ होली के नाम पर होता है उसमें प्रह्लाद तो कहीं नहीं है, उसमें होलिका-ही-होलिका है। लोगों ने ये जो नाम है होली, लगता है इसका कुछ गलत अर्थ कर लिया। उन्हें लगा होली का मतलब है कि आज होलिका माता को याद करना है और उनको प्रेम से श्रद्धांजलि अर्पित करनी है, बेचारी ने अपनी शहादत दी थी आज।

होली का मतलब समझते हैं हम, क्या है? होली का मतलब है कि कोई भी कीमत देनी पड़ जाए और कितना भी ताकतवर हो झूठ, उसका साथ नहीं देना है। हिरण्यकश्यप सिर्फ़ राजा ही नहीं था, प्रह्लाद का बाप भी था। और उस छोटू ने कहा कि तुम चाहे राजा हो चाहे बाप हो मेरे, तुम्हारा साथ तो नहीं दूँगा। और वो कोई साधारण राजा नहीं था, वो वरदान प्राप्त राजा था, अगर पौराणिक कथा पर विश्वास करें तो।

कथा कहती है कि उसने वरदान ले लिया था कि दिन में नहीं मरेगा, रात में नहीं मरेगा, अस्त्र से नहीं मरेगा, शस्त्र से नहीं मरेगा, वगैरह-वगैरह; आदमी से नहीं मरेगा, पशु से नहीं मरेगा। बड़ा ख़तरनाक राजा था। समझ रहे हैं बात को? इतना ख़तरनाक था कि उसने पूरे राज्य में पाबंदी कर दी थी कि, "भई अब कोई किसी सत्य का या ईश्वर वगैरह का नाम नहीं लेगा, मेरी पूजा करो, मेरी। क्योंकि सत्य अमर होता है न और अनंत, जिसका कोई अंत नहीं हो सकता, मेरा भी अंत नहीं हो सकता क्योंकि मर तो अब मैं सकता ही नहीं। जो न जल में मर सकता न थल में मर सकता, न दिन में मर सकता न रात में मर सकता वो तो अमर ही हो गया। तो मैं ही अमर हूँ, तो मैं ही सत्य हूँ, तो मेरी ही पूजा करो।"

और वो छुटके ने बोला कि नहीं, नहीं चलेगा। जैसा वो राजा ख़तरनाक था वैसे ही वो बाप ख़तरनाक था क्योंकि उसकी ज़बरदस्त एक बहन थी। और बहन के पास कहते हैं कि एक शक्ति थी। कहीं कहा जाता है कि एक दुशाला जैसा था जो अग्नि-रोधी था, फायरप्रूफ, कि वो उसको पहन लेती थी तो वो आग से भी गुज़र सकती थी, उसको आग नहीं लगती। और पूरा राज्य मान रहा है राजा साहब की बात, छोटे ने मानने से मना कर दिया। बोला, "मैं तो नहीं मानता!" तो राजा ने कहा कि "अब अपने हाथों से इसको क्या मारूँ, बुरा लगेगा।"

पहले तो उसको बहुत लालच दिए और बहुत डराया धमकाया भी। वो काहे को माने? बोला, "मैं नहीं मानता। आप होंगे मेरे बाप, चाहे आप होंगे राजा, चाहे आप होंगे वरदान प्राप्त, मैं नहीं मानता तो नहीं मानता। मेरे लिए सच ही सच है, सच ही बाप है; कोई बाप सच से बड़ा नहीं होता।" तो वो देवी जी आईं हैं, देवी जी को कहा गया है कि इसको न चुपचाप गोद में बैठा करके आग से गुज़र जाओ। तुम्हें तो कुछ नहीं होगा, ये मर जाएगा।

कुछ ऐसी व्यवस्था की गई होगी कि लगे कि दुर्घटना हो गई है। नहीं तो उसको मारना ही था तो ख़ुद ही मार देता, बहन को काहे को बीच में लाता। तो बहन को बीच में शायद इसीलिए लाया होगा कि लगे कि भई बुआ के साथ घूम रहा था बेचारा, दुर्घटना में मारा गया। अब बुआजी उसको लेकर आग से निकलीं तो कहने वाले कहते हैं कि कुछ ऐसी हवा चली कि बुआ जी ने जो पहन रखा था वो उड़ करके प्रह्लाद पर चला गया। तो प्रह्लाद तो बच गया और बुआ जी को इतने जख्म आए होंगे, इतना जल गई होंगी कि बुआजी फिर साफ हो गईं। छोटू अपना कूद-फाँद कर भाग आया होगा, बच गया।

ये तुम देख रहे हो पूरी कहानी कहाँ को जा रही है? ये पूरी कहानी जा रही है कि समाज कुछ कहता हो, प्रकृति कुछ कहती हो, परिस्थिति कुछ कहती हो, सत्ता कुछ कहती हो मुझे करना वही है जो सही है। ये है होली। बात समझ में आ रही है?

प्रकृति कुछ कहती हो, परिवार कुछ कहता हो, परिस्थिति कुछ कहती हो, मुझे करना वही है जो सही है, ये है होली का कुल अर्थ।

एक-दो बात इसमें और जोड़ सकते हैं, वो मैं बोल दूँगा। इसमें चिकन और दारू कहाँ से आ गए? मुझे समझाओ। कहाँ से आ गए? और इसमें ये हुल्लड़ कहाँ से आ गया, कीचड़ फेंकना और बकलोली करना और भाभी को रंगना, ये कहाँ से आया? समझाओ। लोगों को भाभियों से बहुत प्यार हो जाता है होली के दिन। आधे शहर की औरतें उस दिन भाभी हो जाती हैं।

अब राजा को आया गुस्सा। बोल रहा है, "तू बहुत फायरप्रूफ हो रहा है न, तो एक लोहे का खंभा बिल्कुल गर्म करा दिया। बोला, तुझे तो आग से कुछ होता नहीं तो ये खंभा है जा लिपट जा इससे। भई तू तो अभी-अभी आग से गुज़र कर आया है तुझे कुछ हुआ नहीं, बुआ बेचारी मर गई। तो ये खंभा भी मैंने गर्म करा दिया, जाकर लिपट जा।"

अब छोटू को डर तो लगा होगा, जो भी हुआ होगा, पर प्रह्लाद बोला, "ठीक है, पर आप को तो नहीं मान लूँगा भगवान। दुनिया को आप बुद्धू बना सकते हो, मुझे तो पता है न आप कौन हो; नहीं मानूँगा।" तो वो गया और खंभे से लिपट गया।

और फिर कहानी में इस तरह से है कि उसी खंभे से फिर एक जीव प्रकट हुआ जो आधा शेर था, आधा इंसान था। और समय क्या हो रहा था उस वक्त? सूर्यास्त का हो रहा था, जब न दिन था न रात थी, और उसने पकड़ लिया हिरण्यकश्यप को और अपनी गोद में लिटा लिया। तो माने आप न तो हवा में हो, न आप ज़मीन पर हो। और था कि न अस्त्र से मरोगे न शस्त्र से, माने हाथ में पकड़ी हुई चीज से भी नहीं मरोगे और जो उड़ती हुई चीज आती है, प्रोजेक्टाइल, उससे भी नहीं मरोगे। तो उसने कहा ठीक है, कुछ हाथ में पकड़ नहीं रखा है, उसने मारा अपने नाखूनों से।

बहुत चालाक हो रहा था हिरण्यकश्यप, है न? बड़ी तपस्या की लेकिन वरदान क्या माँगा? कि, "मैं मरूँ नहीं, मैं ही राजा बन जाऊँ, मैं ही भगवान बन जाऊँ।" आप देख रहे हो? तपस्या करना भी एक संसाधन होता है पर उसका इस्तेमाल किस तरफ कर रहे हो? तपस्या में मेहनत लगती है, अनुशासन लगता है। और हम बहुत सारे अनुशासित लोगों को देखते हैं पर किसलिए इतने अनुशासित हो तुम? पाना क्या चाहते हो?

हिरण्यकश्यप ने भी बड़ी तपस्या, बड़ा अनुशासन दिखाया लेकिन किसलिए? अपने अहंकार को और बढ़ाने के लिए। और फिर बड़ी चालाकी भी दिखाई वरदान माँगने में, देख रहे हो चालाकी, क्या कि ऐसे नहीं मरूँ, ऐसे नहीं मरूँ। वो सारी चालाकी एक नन्हे की सरलता के आगे परास्त हो गई।

इसमें चिकन और दारु कहाँ हैं? इस पूरी कथा का, इस पर्व का चिकन और शराब से क्या संबंध है मुझे समझाओ। बताओ! तुम एक नन्हे बच्चे की सरलता की सफलता का उत्सव मना रहे हो। तुम एक दुर्दांत सम्राट के अहंकार और चालाकी की पराजय का वैभव मना रहे हो, इसमें चिकन और दारू कहाँ से आ गए? बोलो। ये हम कर क्या रहे हैं धर्म के नाम पर? हम किस हिसाब से अपने-आपको हिंदू बोलते हैं? जो हिंदू हैं उनसे कह रहा हूँ। कैसे?

ये त्यौहार रचा गया है आपको बताने के लिए कि अहंकार कितना भी चालाक हो जाए, परम-सत्ता से तो नीचे ही रहेगा। तुम्हारी कोई भी चालाकी सच को नहीं जीत लेगी, ये त्यौहार इसलिए रचा गया है। ये त्यौहार वास्तव में सरलता की जीत का त्यौहार है; सरलता, मासूमियत, निर्दोषता।

कुछ नहीं था छोटू के पास लेकिन जीता। और जो-जो लगे हुए थे उसको मारने में सब साफ हो गए। ये त्यौहार बताता है तुमको कि कितने भी कमजोर हो तुम, कितने भी छोटे हो, गलत जगह सर नहीं झुका देना है। भले ही वो गलत जगह तुम्हारे अपने बाप की जगह क्यों न हो। बाप से मतलब समझ रहे हो? जिससे तुम्हारा प्राकृतिक संबंध है, जिससे तुम्हारा देह का, रक्त-संबंध है। प्रकृति के आगे सर नहीं झुका देना है। बाप का अर्थ यहाँ पर प्रकृति से है। प्रकृति के आगे सर नहीं झुका देना है, सर तो सच के आगे ही झुकेगा।

और एक खौफनाक चीज़ बताती है ये कहानी। कि जब तुम सच के साथ चलने लगते हो तो तुम्हारे नात-रिश्तेदार या करीबी लोग यही तुम्हारे सबसे बड़े दुश्मन हो जाते हैं। प्रह्लाद जैसे ही सच के साथ हुआ उसे मारने कोई दूर के लोग नहीं आए, उसकी अपनी बुआ और अपना बाप उसको मारने में लग गए। समझ में आ रही है बात?

इसमें चिकन और दारू कहाँ से आए, समझाओ। या कहानी में कहीं ये भी लिखा हुआ है कि प्रह्लाद इसलिए बच गया क्योंकि साइड में एक छोटी सी (दारू की बोतल) रखे हुए था तो डर नहीं लग रहा था उसको? बोल रहा है, (शराबी का अभिनय करते हुए) “होलिका मौसी, नहीं नहीं बुआ, अरे क्या हुआ? हमें तो कुछ नहीं हुआ, क्यों जल गई बुआ?” कुछ ऐसा था? तो होली का संबंध शराब से कैसे लग गया?

यहाँ तो जो सबसे बड़ा दुराचारी है उसकी मौत की बात है, उस मुर्गे ने क्या बिगाड़ा है तुम्हारा? कि मुर्गा हिरण्यकश्यप है? उसको काहे मारा? बोलो, मुर्गे को क्यों मारा? मुर्गे से दुश्मनी क्या है, बताओ?

कोई भी त्यौहार आए उसको विकृत कर ही देना है न? अभी महाशिवरात्रि बीती, तो उस पर भाँग, गाँजा और ये सब कुछ करा जा रहा है बम-बम भोले के साथ। शर्म नहीं आती? एक को मैंने पकड़ा था एक बार, बोलता है, "मैं तो भोले का भूत हूँ।" मैंने कहा, "भोले का तो तू नहीं है पहली बात, और भूत तुझे अब मैं बनाऊँगा।"

(श्रोतागण हँसते हैं)

त्यौहार बहुत सोच-समझकर, बहुत तरीके से ईजाद की हुईं विधि हैं। हर त्यौहार आपको कुछ याद दिलाने के लिए आता है। एक तरह की अनुगूँज है वो, रिमाइंडर। साधारण चीजें जो आप रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में भूले हुए रहते हैं, उन पर से धूल हटाने के लिए आते हैं त्यौहार, साल में दो बार, पाँच बार, दस बार। जीवन के मूलभूत सिद्धांत आपको फिर से स्मरण में आ जाएँ इसलिए हैं त्यौहार।

तो त्यौहारों का दिन तो चेतना के विशेष अनुशासन के साथ मनाना होगा न? या उस दिन और ज़्यादा लफंगई करनी है? और ज़्यादा अपने-आपको छूट दे देनी है बेवकूफियों की और बदतमीज़ियों की? कि आमतौर पर जितने जानवर नहीं कटते प्रतिदिन उससे कई गुने कट रहे हैं त्यौहार के दिन, ये कौन-सा त्यौहार है? चाहे होली हो, चाहे बकरीद हो, चाहे क्रिसमस हो; मैं पूछना चाह रहा हूँ ये त्यौहार कौन-से हैं जो निर्दोष जानवरों का खून बहाए बिना मनाए नहीं जा सकते?

और होली इत्यादि पर तो कभी परंपरा भी नहीं थी ये सब करने की। ये कहाँ से भारत में प्रभाव आ रहे हैं कि अब होली पर और दीवाली पर भी माँस खाना प्रचलित होता जा रहा है? कौन सिखा रहा है हमें ये सब?

क्योंकि अपने बचपन में मैंने इस तरह की बातें नहीं सुनी थी। ये नई बात सुनने को मिल रही है कि होली पर तो मुर्गा कटेगा-ही-कटेगा। ये पिछले दस-बीस साल में भारत की चेतना पर ये चीज़ चढ़ी है कि दारु पियो माँस खाओ, दारु पियो माँस खाओ। आपने अपने धर्म पर भी इस चीज़ को चढ़ा लिया कि दारू पियो माँस खाओ! साधारण जीवन पर तो चढ़ ही गया है, बमुश्किल पच्चीस-तीस प्रतिशत भारतीय अब शाकाहारी रह गए हैं। अभी बस कुछ ही दशक पहले आधे से ज़्यादा भारतीय शाकाहारी हुआ करते थे, दो तिहाई से ज़्यादा।

ये सब कहाँ से सीख लिया? किसका प्रभाव पड़ रहा है भारत की चेतना पर? और आप क्या सोच रहे हो कि दारू और माँस सिर्फ़ दारू और माँस हैं? नहीं, दारू और माँस सिर्फ़ दारू और माँस नहीं हैं, वो सब कुछ जिसे भारतीयता आप कह सकते थे, खत्म। वो सब कुछ जिसे आप सनातन कह सकते थे वो खत्म होने की ओर बढ़ रहा है।

हम सुबह तक जगे रहते हैं, कल छत पर थे तो सुबह पाँच-साढ़े पाँच बजे यहाँ मंदिरों से भजन की आवाज़ आने लगी तो (एक स्वयंसेवी की ओर इशारा करते हुए) ये बोलता है कि बस यह आखिरी पीढ़ी है जो भजन करती है। इसके बाद वाली पीढ़ी का भजन से अब कोई संबंध बचा नहीं है। सब कुछ खत्म हो रहा है।

आप भी कल सुबह उठिएगा पाँच बजे, छ: बजे, तो आपको भजन की आवाज़ें सुनाई देंगी। पर बिल्कुल ठीक कहा कि बस अब ये आखिरी पीढ़ी है। यहाँ पर ही आप देखिएगा तो बहुत सारे आश्रम अब वीरान हो रहे हैं। उनमें कौन रहना चाहता है? खत्म, साफ; अब तो दारू और मुर्गा है। होली के दिन भी है, छी! किसी भी दिन नहीं होना चाहिए, चेतना में इतनी सफाई हो कि हत्या का ये कार्यक्रम किसी भी दिन न हो। लेकिन तुमने एक धार्मिक दिन को भी खून बहाने का दिन बना लिया, इससे बुरा क्या हो सकता है?

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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