कॉलेज के दिन || आचार्य प्रशांत, आई.आई.टी दिल्ली वेदांत सत्र (2022)

Acharya Prashant

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कॉलेज के दिन || आचार्य प्रशांत, आई.आई.टी दिल्ली वेदांत सत्र (2022)

आचार्य प्रशांत: एक बार मुझसे पूछा था कि उपनिषद कहाँ से आते हैं। ‘न’ से उठता है उपनिषद्। न से। तो वेदान्त ‘न’ है। ‘न’। नकार — नहीं, नहीं। किसके खिलाफ़ नहीं? ‘ये जो मेरी हालत है, ऐसे नहीं जीना है।’ इसको वेदान्त कहते हैं। और अगर मेरी हालत ऐसी है और मैं ईमानदारी से कह रहा हूँ कि मुझे ऐसे नहीं जीना है तो फिर मैं गहराई से खोज करूँगा कि मेरी हालत ऐसी क्यों है। मैं बहाने नहीं बनाऊँगा, मैं झूठ-मूठ का दूसरों पर दोषारोपण नहीं करूँगा। मैं नहीं कहूँगा, ‘परिस्थितियों ज़िम्मेदार है। मुझे समझ में आएगा कि अपनी हालत का ज़िम्मेदार व्यक्ति अन्ततः स्वयं ही होता है।

‘तो क्या है मेरे भीतर जो मुझे लगातार दुख में रखता है?’ वेदान्त ये सवाल पूछता है। यही जिज्ञासा है, ‘मैं कौन हूँ? मैं जो इतनी विचित्र, इतनी सड़ी हालत में अक्सर पाया जाता हूँ, मैं हूँ कौन? मैं कहाँ से आ गया? मैं हूँ कौन?’ और वेदान्त इस हाथ की बात नहीं कर रहा है (हाथ की ओर संकेत), इन बालों की, इस नाक की बात नहीं कर रहा है। वेदान्त उसकी बात कर रहा है भीतर जो दुख में रहता है। आपका हाथ नहीं दुख में रहता। कोई और है भीतर जो दुखी रहता है, जो इच्छाएँ करता है, जो आशा बाँधता है। जब आशाएँ पूरी नहीं होती तो हताश होता है और हताशा के बाद पुनः हो वो आशा बाँधता है। वो कौन है? वो कहाँ से आता है? और अगर वो इतने इतनी इच्छाएँ, आशाएँ करता है तो उसको वास्तव में चाहिए क्या? कभी इस दिशा भागता है, कभी उसे दिशा भागता है। कभी उसको लगता है इधर चला जाऊँ तो खुशी मिलेगी, उधर चला जाऊँ तो सुख मिलेगा। जिधर भी जाता है कई बार सुख पा भी जाता है लेकिन जब सुख मिलता भी है तो ऐसा जैसे सुबह का तारा अभी है, अब गया।

ये कौन है भीतर जो जीवनभर सुख माँगता रहता है पर सुख कभी पता नहीं। और फिर ऐसी बेईमानी कर जाता है हार-हारकर, निराश होकर कि दुख को ही सुख का नाम देना शुरू कर देता है? कह देता है, ‘मैं तो सुखी हूँ, मैं तो ठीक हूँ। क्यों? क्योंकि पचास बार सुख की कोशिश की, सुख मिला नहीं और जितनी बार सुख की कोशिश की दुख में और ज़्यादा बँधते गये और अब बन्धन इतने सख्त हो गये हैं कि भीतर कोई उम्मीद बच्ची नहीं है कि इन बन्धनों को कभी तोड़ भी पाऊँगा। तो चलो-चलो छोटी सी एक बेईमानी खेलते हैं। क्या? बन्धनों को मुक्ति बोल देते हैं, दुख को सुख बोल देते हैं। ये कौन है भीतर जो दुखी भी है और बेईमान भी? वेदान्त इस तलाश का नाम है।

वेदान्त बाहरी चीज़ों की बात नहीं करता, वेदान्त नहीं आपको बताता, ‘फ़लाने मंदिर, जाओ फ़लाने देवता की उपासना करो। इस तरह की कहानियों में यकीन करो, सोचो कि ऊपर कोई भगवान बैठा है उसने दुनिया बनायी,’ ये सब बातें। ये बच्चों वाली बातें वेदान्त में कोई जगह नहीं रखतीं वेदान्त बड़ों के लिए है।

प्रश्नकर्ता: (आचार्य जी के कॉलेज के दिनों पर प्रश्न पूछते हुए) तो उस समय भी रैगिंग का रहता था?

आचार्य: अब नहीं होती, तब होती थी।

प्र १: अच्छा, तब होती थी। क्या कुछ घटना अगर आप साझा करना चाहें?

आचार्य: शॉक (सदमे) की तरह आती है, जब एक स्टूडेंट अन्दर आता है। आपके सेल्फ़ पर अटैक होता है, जब आपसे कोई क्वेश्चन सॉल्व नहीं होता है। रैगिंग में आपके सेल्फ़ पर तब अटैक होता है, जब आपने ज़रा भी एक्सपेक्ट नहीं कर रखा होता है। ज़्यादातर लोगों पर तो उसका बुरा ही असर पड़ता है। कुछ उसके फ़ायदे भी हो जाया करते थे। आप अपनी शेल से, इन्हिबीशन से ज़्यादा तेज़ी से बाहर आते हैं।

बहुत सारी जो फॉलो मोरल वैल्यूज़ होती है, जो आप घर से लेकर आते हो, वो वैल्यूज़ जल्दी कोलॅप्स कर जाती है; लेकिन ठीक है। विद सो मच टू इन्जॉय इन द कैम्पस एँड सो मेनी एक्टिविटीज़ टू टेक बेनेफिट फ़्रॉम। आइ डोन्ट थिंक रैगिंग ऐड्स एनी वैल्यू ऑर सॉल्व एनी इम्पॉर्टेंट पर्पज़ (जब कैंपस में मौज-मस्ती के इतने साधन हैं और इतनी तरह की गतिविधियाँ हैं जिनका आप फ़ायदा उठा सकते हैं। मुझे नहीं लगता कि रैगिंग ज़रूरी या उसकी कोई विशेष प्रासंगिकता है।)

प्र १: वो जो स्पिरिट है या वो जो एक इम्पॉर्टेंस रहती है चीज़ों को लेकर के, अदर दैन योर अकैडमिक्स, टू बी रियली एबल टू गो इंटू दीज़ थिंग्स (पढ़ाई-लिखाई के अतिरिक्त ये सारी चीज़ें कर पाना) वो रहता था यहाँ पर?

आचार्य: देखो, बहुत वैरी करता है। ऐसे भी लोग थे जिन्होंने अकैडमिक्स के अलावा किसी चीज़ को इम्पॉर्टेंस नहीं दी। नाइन पॉइंट, नाइन पॉइंटर, टेन पॉइंटच ऐसे भी थे और ऐसे भी लोग थे जिन्होंने हर चीज़ को इम्पॉर्टेंस दी एकेडमिक्स के अलावा। गड़बड़ वो लोग थे, जो एक तिसरा काम भी करते थे। तीसरा काम था टाइम वेस्टेज़। वो चार साल यहाँ रहकर के न तो पढ़कर निकलते थे, न और कुछ सीखकर।

प्र १: जब हम बीस-बाइस साल के जवान छात्र होते हैं तब हमको समय बर्बाद होता आभासित नहीं होता। कैसे खुद को बार-बार याद दिलाएँ कि समय बर्बाद जा रहा है?

आचार्य: इंसान वो स्पीशीज़ है जिसे गाइडेंस चाहिए, तो अगर वो गाइडेंस आपको नहीं मिल रही है तो समस्या तो होगी न, फिर आप..

प्र १: इसमें जैसे काफ़ी बड़ा रोल तो कैंपस खुद ही प्ले कर रहा है कि इस तरीके से इवेंट्स ऑर्गेनाइज़ हो रहे है, ऑपोर्चुनिटीज़ दे रहा है उसके बावजूद भी?

आचार्य: उसके बावजूद भी ऐसे लोग होते हैं जो इनमें पार्टिसिपेट नहीं करते। अभी भी लोग होंगे जो शाम का समय है, लेकिन सो रहे होंगे रूम्स में। तो फिर उनको अच्छी कम्पनी चाहिए, अच्छी किताबें चाहिए।

प्र १: जो आपकी फीस होती थी, तो उसके लिए भी आप जो है कॉलेज के साथ, कैंपस के साथ, जो पूरा पढ़ाई का दबाव देता है, एक्टिविटीज़ रहती है, उसके साथ-साथ आप शायद बाहर भी कहीं पढ़ाने जाते थे।

आचार्य: अब आपको अपने खर्चे निकालने हैं कैंपस के, कैंपस में आप दो-चार दिन तो रहते नहीं, कैंपस में आप बहुत लम्बे समय तक रहते हो और उसमें आपके खर्चे भी इसलिए लम्बे होते हैं। आपको खर्चे निकालने हैं। आप घर से लो, इससे कहीं बेहतर है कि आपके पास जो स्किल्स है, नॉलेज है उसका इस्तेमाल करके कुछ अर्निंग कर लीजिए। हाँ, उसमें फिर जान लगेगी, तो उसमें समय लगेगा। ये सब तो समस्याएँ आती है; लेकिन अगर आप ऐसा करते हैं, तो आप भीतर से कुछ बन जाएँगे। आप तो जवान हो चुके हैं, एडल्ट हो चुके हैं, उसके बाद भी आप घर से पैसे वगैरह ले, ये कोई शोभा वाली बात नहीं है।

एक याद है कि मैं गोलकीपर था। गोलकीपर भी इसलिए था, मैं पीछे था, डिफेंस में था। हमारा गोलकीपर गायब हो गया। तो उन्होंने डिफेंडर को उठाकर, गोली बना दिया। एक्सीडेंटल गोलकीपर। (श्रोतागण हँसते हैं) तो जो पूरी किट होती है गोलकीपर की, वो पहनने का मेरा कोई एक्सपीरियंस नहीं था। तो मुझे पहनाया गया और जो हॉकी की बॉल होती है, काफ़ी भारी होती है। तो वो पहना की प्रैक्टिस की गयी, बॉल से मारा-वारा गया ताकि डर निकल जाए, तो उससे हो गया थोड़ा सा एडजस्टमेंट।

यही गोल है, इसी गोल के सामने खड़ा हुआ था (मैदान की ओर संकेत करते हुए)। सामने से उनके फॉरवर्ड ने, तेज़-तर्रार फॉरवर्ड था। उसने बिल्कुल शार्प क्लीन हिट ली और उसने हिट ली, तो ठीक उसी समय मेरे सामने हमारा एक डिफेंडर आ गया। मुझे बॉल दिखी ही नहीं। मुझे बॉल दिखी ही नहीं और वो सामने आ गया है। और ठीक फिर उसने हिट ले ली, तो हट गया सामने से। सीधे आयी और मेरी छाती पर लग गयी, लेकिन मैंने तो पूरा प्रोटेक्टिव गियर किया हुआ था तो मुझे कुछ हुआ नहीं; लेकिन गोल बच गया। जब गोल बच गया, तो बहुत लोगों को लगा कि मैंने जान-बूझकर के गोल बचाने के लिए बॉल छाती पर ली है। तो लोग बहुत खुश हो गये। तो ले गये फिर, ट्रीट-विट हुई और बार-बार मैं ये पूछ रहा था कि पहले बताओ, वो डिफेंडर कहाँ है? (श्रोतागण हँसते हैं)

(पुरानी कैंटीन को देखते हुए) तब न आपको टोकन लेना होता था, आपने ऑर्डर दिया टोकन लेना होता था, उसी टोकन से ऑर्डर देता था। लौंडे टोकन लेकर टोकन नम्बर भूल जाते थे। अब टोकन है सोलह, वहाँ से पुकार रहा है (दुकानदार की आवाज़ की नक़ल करते हुए), ‘नम्बर सोलह, नम्बर सोलह।’ और नम्बर सोलह वहीं बैठा हुआ और भूल गया वो नम्बर सोलह है। ‘नम्बर सोलह-नम्बर सोलह’ चिल्ला रहा है, पागल हो गया बिलकुल। थोड़ी देर में नम्बर सोलह को पता लगता है कि वही नम्बर सोलह है, तो क्या करता था? धीरे से वहाँ से निकल लेता था; पैसे छोड़कर, ऑर्डर छोड़कर। वो वेटर उसके दस चक्कर, बावला होकर दस चक्कर काट रहा हैं, ‘नम्बर सोलह, नम्बर सोलह’ बोलकर। तो वहाँ से निकालना और ये रोज हो रहा होता।

और यहाँ पर जब मैं आया था, तब पचास पैसे का समोसा और दो रूपये का डोसा मिलता था।

प्रश्नकर्ता: (आश्चर्य चकित होते हुए) पचास पैसे का समोसा और दो रूपये का डोसा!

आचार्य: पूरा दिन भूखे रहने के बाद शाम को आते थे, इतना बड़ा सा डोसा होता था दो रूपये का।

प्र १: आपका हॉस्टल कहाँ पर है यहाँ पर? (आचार्य जी हाथ से इशारा करते हैं) सीधा? वी आर जस्ट गोइंग टुवर्ड्स दैट।? (क्या हम लोग उधर ही जा रहे हैं?)

आचार्य: (हॉस्टल की तरफ़ इशारा करके कहते हुए) ये सामने वाला है, पहले डी-4 ऊपर और फिर सी-4। बीच में, मैं नीचे आ गया था, A-61 में; थोड़े टाइम के लिए B-37 में भी था।

श्रोता: एक साथी- काफ़ी विंग्स बनी हैं, उधर भी बन गयी है, उधर भी बन गयी है।

(एक महिला श्रोता सामने से आकर आचार्य जी से वार्ता करती हैं) महिला: कैसे हैं आप? मेरे धन्य भाग जो आपको मैं ऐसे जाते-जाते देख पायी। मैं वीगन हुई हूँ आपकी वजह से। धन्यवाद, आप ऐसे ही इंस्पिरेशन देते रहे हमको। थैंक यू।

(आचार्य जी अपने पुराने छात्रावास में) आचार्य: यहाँ फोन आया करता था, यहाँ पर फोन लगा हुआ करता था। यहाँ पर म्यूज़िक सिस्टम था। ये सिस्टम से अनाउंसमेंट होती थी आपके विंग में, आप यहाँ पर भागते हुए आते थे और यहाँ घर से फोन आता था। यहाँ आकर सब टीवी देखते थे और ये सब होता था। यहाँ पर नोटिस बोर्ड था, दो नोटिस बोर्ड होते थे। ये मेस है। ये टीटी रूम है। नहीं, अब ये टीटी रूम नहीं है। पहले ये टीटी रूम हुआ करता था। अभी थोड़ी देर में यहाँ खाना लग जाएगा। ये कवर्ड था पूरा, जैसे ये है न? वैसे ही ये अन्त तक ढँका हुआ था। पता नहीं क्यों तोड़ा। कुछ समय के लिए मैं इसमें यहाँ, इस रूम में रहा करता था। इसमें रहा हूँ कुछ दिन। यहाँ मैंने सिविल सर्विसेस की तैयारी करी थी, इसी रूम में। यहाँ पर होती थी पावर लिफ्टिंग। यहाँ मैं फ़र्स्ट सेमेस्टर में रहा था। (अपने हॉस्टल रूम में जाते हुए) मैं एक मिनट के लिए आ सकता हूँ? (कमरे में रहने वाले छात्र खुशी से सहमति जताते हैं) ये मेरी साइड थी, तब यहाँ बीच में दीवार हुआ करती थी। ये मेरी अलमारी है। ये मेरा बिस्तर है। अभी यहाँ कौनसा इयर रहता है?

छात्र: हॉस्टल के सेकंड इयर के छात्र रहते है। (छात्र आचार्य जी को पिछले कुछ समय से आचार्य जी को यूट्यूब पर सुन रहे थे। इनको क्या पता था कि आचार्य जी एक दिन इनके दरवाज़े पर दस्तक देंगे!)

(वही पुरानी कैंटीन, रात नौ बजे) आचार्य: वो है न, “एक दिन ऐसा आएगा, सोना लम्बे पाँव पसार।” एक दिन तो ऐसा आएगा ही, जब लम्बे पाँव पसारकर के सो ही जाओगे। उससे पहले क्यों सो रहे हो? सिर्फ़ रिग्रेट करोगे, एक-एक मोमेंट (पल) जो खराब करा है। एक-एक मोमेंट , सिर्फ़ पछताओगे जो लाइफ में खराब करा है। एक भी मोमेंट डल, डिप्रेशन, कंप्लेन , ये-वो — एक भी मोमेंट मत जाने दो। ‘एक्स्ट्रैक्ट द मैक्सिमम’ (ज़्यादा-से-ज़्यादा निचोड़ लो), कहते हैं न, ‘ड्रिंक इट टू द हिल्ट।’

एक छात्रा: आपकी सुनकर मैंने बॉक्सिंग स्टार्ट कर दी है। शाम को बॉक्सिंग सीखने जाती हूँ। उसके अलावा पहले बैडमिंटन खेलती थी।

आचार्य: जितना कर सकते हो करो। टाइम बचाकर क्या करोगे? टाइम बचाकर क्या करोगे? (unclear 14:20-14:25 आचार्य जी खेलों का नाम बताते हैं) पिकअप फ़ोर थिंग्स , एक सुबह, तीन शाम को; या दो सुबह, दो शाम को। एक-के-बाद-एक चीज़ चलती रहनी चाहिए। अभी आप बहुत सारी चीज़े एक साथ सीख सकते हैं। फिर न समय रहेगा, न ऐंथू (उत्साह) रहेगा, न बॉडी रहेगी, अभी कर सकते हो, कर लो। दो-तीन स्पोर्ट्स में एक्सीलेंट हो जाओ। और एक-दो दूसरे अपनी हॉबीज, पैशन जो भी है कल्टीवेट कर लो। तुम इंसान ही दूसरे हो जाते हो, तुम बन्दे ही वो नहीं हो। अ बेटर बॉक्सर इज़ लाइकली टू बी अ बेटर कॉन्ट्रीब्यूटर टू अ कॉज़। बट दैट दज़ नॉट मीन दैट यू कीप द कॉज़ असाइड एंड कीप बिकमिंग अ बेटर बॉक्सर।

ये बात पक्की है कि एक बन्दा है जिसने जिंदगी में पाँच-छः चीज़ों में एक्सेल करा हुआ या दो-तीन चीज़ों में भी और एक बन्दा ऐसा है जिसने किसी चीज़ मे एक्सेल (बेहतरीन) नहीं करा है। कोई अगर कॉज़ (कारण) है, तो इन दोनों में से, जो पहला बन्दा है, वो ज़्यादा कंट्रीब्यूट कर पाएगा।

(एक अन्य छात्र से बात करते हुए) तुम पेपर के लिए आए हो? क्लासेस अभी भी ऑनलाइन हैं? अभी लेक्चर क्लासरूम में नहीं होता? (छात्र न कहता है)

दो साल तक लोहे का भी इस्तेमाल न करो तो जंग लग जाता है। होपफुली दोबारा ऑनलाइन की ज़रूरत न पड़े। इन लोगों के बैच का तो, जो ओवरऑल डेवलपमेंट है, वो भी कितना हर्ट हुआ होगा। दो साल से कोई फ़ैसिलिटी नहीं, अपने पीअर्स से कोई इंटरेक्शन (बात-चीत) नहीं, कुछ भी नहीं, घर में बैठे हुए है। ये जो कैंपस है न, उसकी कीमत पता चलती यहाँ से निकलने के बाद। जब तक मिल रहा है, तो रात-रात भर उसका पूरा इस्तेमाल कर लो, खाना, पीना, सोना सब कम कर दो। मेक बेस्ट यूज़ ऑफ़ ऑल दीस थिंग्स (इन सभी चीज़ों का बेहतर इस्तेमाल कर लो), मिलेंगी नहीं बाद में।

छात्र १: मैं आपको जानता नहीं था, मेरे पिताजी ने आपका एक वीडियो साझा किया, मैं अब यूट्यूब पर आपको रोज़ सुनता हूँ।

आचार्य: ऐसा होता नहीं है आम तौर पर। (सब हँसते हुए)

छात्र १: वो अपने रूम में आपकी टीवी पर लगा कर देखते रहते है। मैं सर आपके वीडिओज़ से मैं इतना इफेक्ट हुआ कि सर, सर मेरेको अब क्वेश्चन है, जिससे मैं तनाव में रहता हूँ। मेरे पिताजी चाहते है मैं बीटेक करके गवर्नमेंट जॉब करूँ। जैसे वो है। मैं स्पोर्ट्स में जाना चाहता हूँ।

आचार्य: कौनसा स्पोर्ट्स?

छात्र १: सर, वॉलीबॉल।

आचार्य: फादर वॉलीबॉल के लिए रोक तो नहीं रहे न?

छात्र १: रोकते हैं।

आचार्य: नहीं, नहीं। तुम जब बोलते होंगे कि मुझे वॉलीबॉल में करियर बनाना है, फ़्यूचर की बात करते हो, तब रोकते होंगे?

छात्र १: हँस देते है उस पर।

आचार्य: हँस देते है, लेकिन जैसे आज तुमको खेलने आना है, तो आज थोड़े ही रोकते हैं?

छात्र १: आज नहीं रोकते।

आचार्य: बस आज तुम आज खेलते जाओ। फ़्यूचर की बात करो ही मत। आज तो खेलने से नहीं रोक रहे न? तुम खेलते जाओ। जैसे जैसे रिजल्ट्स आते जाएँगे, फादर खुद बोलेंगे ठीक है, वॉलीबॉल खेलो। पर तुम अभी से फ़्यूचर का बैटल (लड़ाई) क्यों लड़ रहे हो? कि मैं फ़्यूचर में वॉलीबॉल खेलूँगा या सरकारी नौकरी करूँगा, आज ये बैटल क्यों लड़ रहे हो? आज वो करो, जो आज कर सकते हो। आज तुम वॉलीबॉल खेल सकते हो, खेलो। मस्त खेलो। कौन रोक रहा है?

छात्र १: सर, जो लोग हैं, जो ये बोलते है कि नहीं कर पाएगा, उनसे कैसे हैंडल करना? वो चीज़ बहुत डिमोटिवेट करती है।

आचार्य: वो क्या कह रहे हैं, कब नहीं कर पाएगा? फ़्यूचर में नहीं कर पाएगा न?

छात्र १: सर, टूर्नामेंट हो गये दो-तीन, उसमें ट्रॉफी नहीं आयी, तो उसमें बोल देते है, ‘क्या टाइम पास करके आ जाता है!’

आचार्य: उन्होंने बोल दिया, ‘टाइम पास करके आ रहा है,’ तुम खेलते चलो। देखो, अभी से बैठकर के फ़्यूचर तय करना वैसे ही है, जैसे तीन साल के बच्चों से नहीं पूछा जाता है कई बार। तो कोई बोलता मैं पायलट बनूँगा, कोई बोलता है मैं डॉक्टर बनूँगा। उसने बोल भी दिया, तो उस बात की वैल्यू क्या है? तो अभी से बैठकर तुम क्या बोल रहे हो कि मुझे वॉलीबॉल प्लेयर बनना है, बनकर दिखाओ न?

छात्र १: सर, स्टडीज और स्पोर्ट्स में हैंडल करना टफ़ हो जाता है।

आचार्य: तुम कितनी पढ़ाई करते हो यार, वॉलीबॉल के लिए टाइम नहीं है? कॉलेज में जितनी पढ़ाई होती है, उतनी तुम सोने के बाद भी कर सकते हो। साधारण सीजीपीए सात-आठ लाने के लिए कोई बन्दा अगर दिन में दो घंटे पढ़ता हो, तो भी नहीं आ जाएगी? खेलते चलो, मजे में खेलते चलो। और अपने आप को बेहतर करते चलो स्पोर्ट्स में, ठीक है। उससे खुद ही आगे पता चल जाएगा कि इसको कितना आगे पर्सु करना है। मुझे आज प्रैक्टिस करने जाना है, मैं आज जा रहा हूँ। दो साल बाद क्या होगा? मैं नहीं जानता, मुझे जानना भी नहीं है। मेरे को आज प्रैक्टिस करनी है, प्रैक्टिस करने दो।

(और छात्रों से बात करते हुए) तुमने थर्ड इयर बताया न? तुम्हारे सीनियर्स आइएएस की तैयारी अभी भी करते हैं? यूपीएससी की करते है तैयारी? मुझे लगा हमारा आखिरी बैच है जिसने करी थी। तेईस साल बाद भी हो रही है। मेरे समय में कम हो गया था काफ़ी। 1995 में जब मैं आया था, तब करते थे लोग। 1999 आते-आते काफ़ी कम हुए। मेरे बैच से सिर्फ़ दो सेलेक्शन हुए थे यूपीएससी में। एक मेरा और एक किसी और का। लगा था कि सब खत्म हो रहा है, अब नहीं जाएँगे लोग। जा रहे है अभी भी हैं!

कैंपस में ऐसा होता है अभी, कि रात में बैठ गये एक ही के रूम में आठ-दस बैठे बातचीत हो रही है, या सब काम ऑनलाइन चलता रहता है?

छात्र २: नहीं, नहीं, ये तो होता ही है।

आचार्य: ये बहुत ज़रूरी है। इसमे काफ़ी बातें व्यर्थ की होती है, लेकिन फिर भी वो हफ़्ते में एकाध दिन तो होना चाहिए।

छात्र २: एग्जाम के टाइम तो बहुत होता है। जैसे कि एक बन्दा बैठ के पाँच जनों को पढ़ा रहा है, पढ़ लो कल पेपर है।

आचार्य: कई बार उस बेचारे के अपने नम्बर कम आते हैं। जिनको पढ़ाया हो तो उसमें से एकाध के ज़्यादा आ जाते हैं।

छात्र ३: सर, स्कूल से कॉलेज में थोड़ा डिफ्रेंस लगता है। यहाँ पर फेक लोग थोड़े ज़्यादा लगते है; जो पढ़ते है, बताते नहीं है।

आचार्य: कैंपस इस स्टिल अ वेरी इनोसेंट प्लेस। अपनी इनोसेंस बचाए रखो, लेकिन इस बातकर लिए तैयार रहो, कि बाहर बहुत कनिंगनेस (कपटता) हो सकती है। अपनी इनोसेंस बचाकर रखो बस। खुद इनोसेंट (निष्कपट) रहो, लेकिन कनिंगनेस को पहचानने की भी आँख होनी चाहिए।’ इन फैक्ट, ये तो छोड़ दो कि बाहर जाना पड़ेगा। तुम यहाँ से अगर किसी आइआइएम में जाओगे, तो वहाँ भी बहुत मेनीपुलेशन (चालाकी) होता है। ये जगह तो फिर भी बहुत स्ट्रेट फॉरवर्ड है। और फिर भी बहुत सीधी है।

छात्र २: काफ़ी दिन अच्छी पढ़ाई हुई, उसके बाद में पढ़ाई करने का मन नहीं कर रहा, तो उसका कैसे रहता है? जैसे आज मेरे को असाइनमेंट करना था, मेरा करने का मन ही नहीं कर रहा था?

आचार्य: मत करो।

छात्र २: नहीं चलेगा सर, मन जाएगा ही।

आचार्य: ये बात याद आएगी न, कल करना है, तो करोगे अच्छे से। अगर चार दिन पढ़ाई अच्छे से करी है, तो कोई बुराई नहीं है एक दिन अगर कह दो कि आज नहीं करनी है, मत करो। फिर गिल्ट (अपराध-बोध) लेकर मत रखो। फिर अपने आपको खुला बोल दो साफ़-साफ़, कि आज में पढ़ाई नहीं कर रहा हूँ। लाइसेंस दे दिया, नहीं कर रहा। रोज़-रोज़, फ़िफ़्टी-फ़िफ़्टी करने से अच्छा है तीन दिन हंड्रेड करो, एक दिन ज़ीरो करो।

छात्र २: आपके समय में लड़कियाँ तीन-दशमलव-चार प्रतिशत हुआ करती थीं एक बैच में, अब आरक्षण का ये आँकड़ा बढ़ गया है। इसपर आपकी क्या राय है?

आचार्य: इकनॉमिक बेसिस (आर्थिक आधार) तो समझ में आता है। अगर कोई लड़की इसलिए नहीं पढ़ पा रही है कि उसके पास पैसे नहीं हैं या ठीक-ठाक से कोचिंग नहीं मिल रही, तो उसको फिर भी सपोर्ट करना ठीक है। पर अब कोई वेल टू डु फैमिली (अच्छे-खासे परिवार) की लड़की है, जीवनभर उसको अच्छी एजुकेशन मिली है, घर में पैसा भी है। उसको रिज़र्वेशन का बेनेफिट क्यों मिलना चाहिए? तो रिज़र्वेशन पर नहीं, आइडेंटिफ़िकेशन पर बहस होनी चाहिए। पहले आइडेंटिफ़ाई करो कि कौन उस सपोर्ट को पाने का हकदार है। एक अच्छे से घर का कोई व्यक्ति है उसको भी रिज़र्वेशन दो, ये बात शोभा नहीं देती न? सवाल ये नहीं है कि लड़की को रिज़र्वेशन देना है कि नहीं, सवाल ये है कि इस (बैठे हुए श्रोताओं की ओर संकेत) लड़की को देना है या इस लड़की को देना है? अब ये अमीर भी हो, प्रिवलेज भी हो, फिर भी तुमने इसको रिज़र्वेशन दे दिया और उसको नहीं दिया रिज़र्वेशन , तो वो ग़लत हो जाता है।

लड़का हो या लड़की, आप किसी को सहायता देने से पहले ये तो देखोगे न कि वो सहायता का हकदार है या नहीं? सहायता देना बिलकुल अच्छी बात है।

छात्र ४: लेकिन सर अगर जैसे इकोनॉमिक बेसिस पर भी करेंगे, तो कई लोग होते है, जो गलत आमदनी दिखाते हैं उनका?

आचार्य: आप कितना भी अच्छा बना लो, उसमे कुछ गलतियाँ रहेंगी और कुछ लोग उस प्रोसेस को मैनिपुलेट कर लेंगे उसमें से। वो बात बिलकुल ठीक है। क्वेश्चन ये है, सौ में से पाँच लोगों ने मैनिपुलेट करा है या सौ में से पचपन लोगों ने। तो आप ऐसा प्रोसेस क्यों चला रहे है जिसमे सौ में से पचपन प्रतिशत मैनिपुलेशन है? उसको बेहतर करो। आप जिसको खाना देने जा रहे हो, कहीं ऐसा तो नहीं वो पहले ही तीन बार खा चुका है, फिर भी आप उसको दे रहे हो? और एक बेचारा, जो सचमुच भूखा है, उसको आप आइडेंटिफ़ाई नहीं कर पाए? वो भूखा सो गया। जो तीन बार खा चुका है, उसको आपने और दे दिया। ये तो ठीक नहीं है न? चलें? (वापस लौटने को पूछते हुए)

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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