क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते । क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप ॥३॥
“अरे अर्जुन! कायरता को प्राप्त ना होओ, यह तुम्हारे योग्य नहीं है। हे शत्रुतापन अर्जुन! हृदय की इस तुच्छ दुर्बलता को छोड़कर चलो खड़े हो जाओ।“
~श्रीमद्भगवद्गीता, श्लोक ३, अध्याय २, सांख्य योग
आचार्य प्रशांत: अब अर्जुन जो बैठ गए थे, पिछला अध्याय ख़त्म ही इसी के ऊपर हुआ था। क्या करा था अर्जुन ने? धनुष वहीं छोड़ा और पीछे जाकर के बैठ गए थे, दूरी बनाकर, कि जितनी दूर हो जाएँ कृष्ण के प्रभाव से उतना अच्छा। कृष्ण कह रहे हैं ‘छोड़ो यह सब, तुम्हें मोह हो गया है। क्या कायरता दिखा रहे हो? चलो खड़े हो जाओ!’ अब अर्जुन इधर-उधर का कोई तर्क नहीं दे पा रहे हैं।
तो बोलते हैं, आप कल्पना कर सकते हैं बड़ी बेचारगी के स्वर में बोला होगा —
अर्जुन उवाच । कथं भीष्ममहं संख्ये द्रोणं च मधुसूदन । इषुभिः प्रति योत्स्यामि पूजार्हावरिसूदन ॥४॥
“हे शत्रुनाशक कृष्ण! मैं युद्ध में पूजनीय भीष्मदेव और द्रोणाचार्य के प्रति बाणों से कैसे युद्ध करूँगा?”
~श्रीमद्भगवद्गीता, श्लोक ४, अध्याय २, सांख्य योग
असली बात पर आ गए, सीधी बात। कैसे? "कैसे करूँगा बताइए?" जो असली बात है वह यही है। ‘मैं कल्पना ही नहीं कर पा रहा हूँ कि इन लोगों को छोड़ूँगा कैसे, यही तो सब कुछ हैं। एक ने मुझे शरीर दिया है, एक ने मुझे मन दिया है। एक पिता हैं, एक गुरु हैं। इनको मार कैसे दूँगा?’
देखिए, अर्जुन की जो स्थिति है वो हर जीव की स्थिति है। प्रकृति आपको शरीर दे कर भेजती है और जिसने शरीर दिया है उसके प्रति कुछ तो निष्ठा व्यक्ति में आ ही जाती है। उससे कुछ मिला है और जो चीज़ मिली है, बड़ी प्रकट है, बड़ी स्थूल है, छू कर देख सकते हो कि मिली है। और दूसरी ओर, उसी शरीर से उत्पन्न चेतना है, जो उठी तो शरीर से है पर जाना कहीं और चाहती है। अब कौन सा धर्म निभाएँ?
जिस शरीर से आए हैं उसके प्रति कर्तव्य का मान रखें या जो अपना धर्म, अपनी नियति पता चल रही है, उसकी तरफ़ दृष्टि और दिशा रखें? हर व्यक्ति इन्हीं मसलों में फँसा हुआ है। इसी स्थिति को संतो ने अकसर एक स्त्री की स्थिति के माध्यम से अभिव्यक्त करा है जो कि अपने मायके में है। वहाँ पिता हैं, माँ हैं जिन्होंने जन्म दिया है। और मायके से बड़ा मोह है, बड़ा लगाव है। वहीं पैदा हुई, वहीं खायी, खेली, बड़ी हुई। लेकिन अब जी लग गया है किसी और से, वह जो पुरुष है। पुरुष किसका वाचक है? जो ऊँचाई है, जहाँ सब को पहुँचना है, मन उससे लग गया है।
अब एक ओर प्रेम है, एक ओर मोह है। प्रेम है पुरुष से और मोह है अपने भौतिक जनक से। जाएँ तो जाएँ कहाँ? मायका छोड़ा नहीं जाता और प्रेम हमें नहीं छोड़ता, तो करें क्या? तो हम सब जो हैं उसी स्त्री की भाँति हैं, अर्जुन भी उसी स्त्री की भाँति हैं। यहाँ पर मायके के प्रतिनिधि कौन हैं? भीष्म, द्रोण, सारे जो कौरव बंधु हैं, यह सब मायके की ओर के हैं, क्योंकि इनके साथ अर्जुन का कौनसा नाता है? रक्त का नाता है। और दूसरी ओर धर्म की पुकार है। दूसरी ओर कृष्ण हैं, कृष्ण पुरुष के प्रतीक हैं। अब अर्जुन फँस रहे हैं जैसे हममें से हर कोई फँसा हुआ है। अपनी पार्थिवता को महत्व दें या अपनी दैवीयता को? और नाम है उनका पार्थ!
सारा जीवन इन्हीं दो ताक़तों के आपसी संघर्ष की कहानी होता है। पहली ताक़त है तुम्हारी देह की और दूसरी ताक़त है तुम्हारी नियति की। तुम्हारी जो चेतना है वह इन दोनों ताक़तों के बीच में फँसी रहती है, चेतना के एक छोर पर शरीर है दूसरे छोर पर आत्मा है। दोनों ही छोरों पर शांति है। पूरी तरह आप शरीर हो जाओ तो शांत हो जाते हो, जैसे मिट्टी शांत होती है। मिट्टी को कभी तड़पते देखा है? मिट्टी को कभी व्यथित देखा है? वहाँ चेतना शून्य हो गई है, बस पदार्थ बचा है, मिट्टी। वहाँ भी शांति है पर वो मृत्यु की शांति है, जैसे जब शरीर राख हो जाता है। राख शांत होती है न? मरने के बाद किसी को उद्दिग्न देखा है? तो शांति पाने का एक तरीका तो यह है कि पूरी तरह से पार्थिव ही हो जाओ, मिट्टी हो जाओ। कह दो कि ‘हमें कुछ सोचना समझना नहीं है, हम चेतना शून्य हो गए। हमने अपनी चेतना को मिट्टी कर डाला, कुछ नहीं बचा।‘
और दूसरा तरीका यह है कि दूसरे छोर पर पहुँच जाओ – अहम् शून्य हो जाओ, कृष्ण में विलीन हो जाओ। इन दोनों ही छोरों पर शांति है। यह जो मिट्टी हो जाने वाला छोर है वह हमें आकर्षक तो लगता है पर हमें उपलब्ध नहीं है। मिट्टी वाला छोर आकर्षक भी है, आसान भी है, पर मिलेगा नहीं क्योंकि आपकी विवशता है कि आप कितना भी चाहें आप चेतना शून्य हो नहीं सकते, प्रयास करके देख लीजिएगा।
शराबियों को भी शराब पीकर के नशे का स्वाँग करना पड़ता है क्योंकि जिस आशा के साथ उन्होंने शराब पी थी वह कभी पूरी होती नहीं है। नशा व्यक्ति करता है होश भुला देने को लेकिन होश ऐसी ढीठ चीज़ है कि पीछा नहीं छोड़ता। तुम कितना भी नशा कर लो होश तब भी बचा रह जाता है। उसके बाद शराबी लोग नाटक करते हैं कि ‘हमारा तो होश बिलकुल ग़ुम गया, हम एकदम नशे में हैं’। तुम एकदम नशे में होते तो तुम्हें पता कैसे चलता कि तुम नशे में हो?
तुम्हारा होश ही तो है जो जान रहा है कि तुम नशे में हो, पूरे बेहोश हो गए होते तो जानने के लिए कौन बचता? बेहोशी में तो कुछ जाना नहीं जाता। लोग नशा करते हैं, लोग कई अन्य तरह के साधन करते हैं, कुछ लोग आत्महत्या कर लेते हैं। कोई नशे के माध्यम से अपना होश दबाना चाहता है, कोई मनोरंजन के माध्यम से, कोई दुनिया के अन्य रंगीन तरीकों के माध्यम से, और कुछ लोग इस सीमा तक चले जाते हैं कि वह कहते हैं कि आत्महत्या कर लें, होश तो मिटे।
होश हमें क्यों मिटाना है? होश हमें इसलिए मिटाना है क्योंकि शांति सिर्फ़ दोनों छोरों पर है। बीच में घोर अशांति है। अशांति स्वभाव नहीं हमारा। उसी अशांति से पीछा छुड़ाने के लिए हम जीवन-भर नाना प्रकार के यत्न करते हैं। अर्जुन ने पहला यत्न करा है बेहोशी की दिशा में। अर्जुन परेशान हैं, जल रहे हैं। अर्जुन ने अपनी दशा का जो विवरण दिया है, देखा है न कैसा है, दया-सी आ जाए। इतना बलिष्ठ योद्धा और क्या कह रहा है? पूरा शरीर काँप रहा है, रोएँ खड़े हो रहे हैं, इन्द्रियाँ दुर्बल हो रही हैं, कुछ दिखाई-सुनाई नहीं दे रहा ठीक से, कुछ समझ नहीं आ रहा, धनुष हाथ से छूट रहा है, शंख नहीं फूँका जा रहा। अब यह हालत कोई बहुत सुहा तो नहीं रही होगी, बुरी ही लग रही होगी।
यह हालत हम सबकी है, सब ऐसी ही हालत में रहते हैं न? अर्जुन की हालत अभी पूरी तरीके से नाटकीय रूप से अभिव्यक्त है। हमारी हालत और हमारी अभिव्यक्ति में इतनी नाटकीयता नहीं रहती, लेकिन हमारी हालत भी लगभग रहती ऐसी ही है। तो अपनी इस गति से, इस दशा से निपटने के लिए अर्जुन जो पहला यत्न करते हैं, वह वेसा ही होता है जैसा हम सबका होता है — चलो बेहोश हो जाओ। और बेहोशी के लिए क्या कर रहे हैं? इधर-उधर की बातें करते हैं, झूठ बोलते हैं। अभी भी बोला है, आगे भी बोलेंगे, इसीलिए दो-तीन अवसरों पर गीता में कृष्ण को उन्हें डाँटना पड़ता है। कृष्ण उन्हें पाखंडी तक बोल देते हैं क्योंकि अर्जुन वही कर रहे हैं जो हम सबकी प्रकृति है।
फँस गए हो तो बाहर निकलने का जो सबसे सस्ता और आसान तरीका दिख रहा है वह पकड़ लो। सबसे आसान तरीका क्या है? पलायन। पलायन माने क्या होता है? पलायन माने यही होता है कि चेतना को मिट्टी कर दो। अपना सोचना-समझना अब सब व्यर्थ कर दो, धर्म से जितनी दूर जा सकते हो भाग जाओ। यह हर व्यक्ति को पहला विकल्प दिखाई देता है, किसी भी किंकर्तव्यविमूढ़ता की दशा में। आप जब भी अपने-आपको कहीं फँसा पाएँगे, कोई धर्म संकट होगा, देखिएगा कि जो पहली चीज़ आपको आकर्षित करेगी वह यही है — पलायन।
पलायन हमेशा धर्म-विरुद्ध होता है। धर्म के विरुद्ध ही पलायन किया जाता है, पलायन का अर्थ ही यही है। पलायन माने भागना। किस दिशा में भागना? धर्म के विरुद्ध भागना, उसी को पलायन कहते हैं। और अधिकांश लोग सफल भी हो जाते हैं पलायन में, क्योंकि सामने कोई होता नहीं कृष्ण जैसा। उन्हें भागना था, वो भाग गए। कोई मिला ही नहीं रोकने वाला और प्रकृति ने तो प्रबंध पूरा कर ही रखा है कि तुम्हारा भागना सुभीते (आसानी) से हो जाए। कोई नहीं रोकेगा; दरवाज़ा है, कुंडी खोलनी है, भाग जाना है, कौन रोकने वाला है?
मनुष्य को जो सबसे घातक शक्ति मिली हुई है, वह है — स्वेच्छा। कौन आपकी स्वेच्छा बाधित करने वाला है? इसीलिए अनुग्रह, अनुकंपा, कृपा का दूसरा नाम जानते हैं क्या है? थोड़ा खतरनाक है। आपकी स्वेच्छा का बाधित होना, इच्छापूर्ति का ना हो पाना ही अनुकंपा है; क्योंकि इच्छा तो सबकी वैसी ही होती है जैसे अर्जुन की है। कुछ इधर-उधर की दो-चार गोलमोल बातें करो और भाग निकलो। अनुग्रह का मतलब ही है कि कोई मिल जाएगा जो कान पकड़ लेगा और कहेगा कि "किसको धता बताते हो? ये कुतर्क अपने जैसों के लिए रखना, हमारे सामने नहीं चलेंगे।"
अनुकंपा के लिए आप शब्द कह सकते हैं — अनिच्छा, जो आपकी इच्छा विरुद्ध होती है। स्वेच्छा घातक शब्द है। स्वेच्छा सिर्फ़ उन्हीं के लिए शुभ शब्द है जो कृष्णमय हो गए हैं, अन्यथा स्वेच्छा अतिघातक है।
अब आप समझिएगा कि आज का युग इतनी विभीषिका का क्यों है; आज पृथ्वी जितनी बुरी हालत में है, इतनी अपने इतिहास में कभी क्यों नहीं हुई? क्योंकि दो घटनाएँ साथ-साथ में घट रही हैं — पहला, कृष्ण को बिलकुल कोने पर, हाशिए पर धकेल दिया गया है आदमी के विचार द्वारा। और दूसरी बात, स्वेच्छा को बहुत महत्त्व दे दिया गया है। यह दोनों बातें ऐसी हैं जैसे कोढ़ में खाज। किसी को कोढ़ हो और उसी में खाज भी हो, यह दोनों बातें ऐसी हैं। आ रही है बात समझ में?
पहली बात तो कृष्ण को क्या बना दिया? कोई ऐतिहासिक चरित्र और ऐतिहासिक चरित्र बना करके सौ तरीके के चरित्र दोष भी निकाल दिए। उनको सत्य के प्रतीक से नीचे उतार कर एक ऐतिहासिक व्यक्तित्व बना दिया। ऐतिहासिक व्यक्तित्व तो कोई भी हो, उसमें सौ तरह की खोट होंगी ही और जहाँ खोट मिल गई बताने के लिए, वहाँ कह दिया है, "इनमें तो खोट है। इनकी क्यों सुनें? इनकी गीता का क्या अनुगमन करना!" तो किसका अनुगमन करना है? “स्वेच्छा का!”
यह दोनों चीज़ें साथ-साथ हुईं। स्वेच्छा तो पहले से ही तैयार बैठी थी कृष्ण विरुद्ध जाने को, अब उसके लिए सब कुछ बहुत आसान कर दिया गया है। फिर आज हमारी जो हालत है वो है। अप्रैल का महीना चल रहा है, ऐसे ही थोड़े ही तापमान इतनी ऊँचाइयाँ पकड़े हुए है। ऐसे ही थोड़े ही आप सड़कों पर निकलिए तो कुछ-कुछ दूर पर प्यास से मरे हुए पक्षी मिल जाते हैं। तापमान इतना ज़्यादा है, पीने को पानी नहीं, ऊपर से पेड़ सारे काट दिए, ऊपर से कॉन्क्रीट के जंगल खड़े कर दिए जिनसे तापमान और ज़्यादा बढ़ जाता है।
मैं एक वीडियो देख रहा था कि हर पाँच-सात-सौ मीटर पर एक मरा हुआ पक्षी मिल रहा है। अप्रैल के माह में इतना तापमान लगभग सौ सालों में नहीं हुआ है। यह कोई प्राकृतिक संयोग नहीं है, यह मनुष्य की करतूत है। स्वेच्छा जितनी बढ़ेगी, पेड़ उतने घटेंगे; स्वेच्छा जितनी बढ़ेगी, पशु-पक्षियों की प्रजातियाँ उतनी घटेंगी; स्वेच्छा जितनी बढ़ेगी माँसाहार उतना ज़्यादा बढ़ेगा। और स्वेच्छा जितनी बढ़ेगी मनुष्य की दुर्दशा उतनी गहराएगी। और हर मनुष्य सबसे पहले तो स्वेच्छा का ही अनुगमन करना चाहता है।
कोई कृष्ण चाहिए जो उसकी स्वेच्छा की राह में बाधा बने, और कृष्ण उपलब्ध हैं। कृष्ण को पाना होता है, कृष्ण के निकट बैठना होता है, कृष्ण को सारथी बनाना होता है। नहीं तो निकट हो करके भी बहुत दूर हैं।
हम कह रहे थे न कि यहाँ इतनी लंबी-चौड़ी बात चलेगी घण्टों तक। और थोड़ी ही दूरी पर सब खड़े हुए हैं कौरवों के सैकड़ों योद्धा। एक की भी रुचि नहीं हुई कि कृष्ण क्या कह रहे हैं थोड़ा सुने क्या। एक की भी? हम आज सैकड़ों वर्षों बाद भी श्रीमद्भगवद्गीता का पाठ करते हैं। सोचिए वह कैसे अभागे रहे होंगे, और वह कैसे जादुई पाश में रहे होंगे, कि जिनके ठीक सामने गीता बरस रही होगी और वो अभागे दूर खड़े रहे। हमें तो बस पुस्तक रूप में उपलब्ध है। हम तब भी उस पुस्तक को लेकर सिर पर रखते हैं और ठीक जिनके सामने गीता पहली बार आविर्भूत हो रही थी, वो दूर अपनी गदाएँ और धनुष लिये खड़े हुए हैं, उनका दुर्भाग्य सोचिए।
कृष्ण उपलब्ध रहते हैं, हम दूर रहते हैं। हमारी स्वेच्छा हमें दूर रखती है। स्वेच्छा को कृष्ण नहीं चाहिए, स्वेच्छा को पाशविक सुख चाहिए। कैसे पाशविक सुख? अभी गर्मियाँ चल रही हैं, तो देखते हो सड़क पर कुत्ते क्या कर रहे होते हैं? गड्ढा खोदते हैं, उसमें सो जाते हैं। दो चीज़ें उन्हें मिलती हैं उसमें, पहला शीतलता, थोड़ी ठंडक है और दूसरा नींद। स्वेच्छा यही माँगती है, ज़रा ठंडा-ठंडा कमरा हो और सो जाएँ।
कृष्ण के पास जाने का अर्थ होता है — ताप से गुज़रना, शरीर में लोहा खाना। स्वेच्छा ही क्यों चाहिए? हमारी वृत्ति क्या हमसे करवाना चाहती है यह समझना हो, तो पशुओं को देख लिया करिए। हममें और पशुओं में वही चीज़ साझी है, जीव-वृत्ति। हमारी प्रवृत्ति हमसे ठीक वही करवाना चाहती है जैसा जीवन पशु जीते हैं। उसी की तरफ़ धकेलती रहती है वृत्ति हमें। हाँ, सभ्यता और संस्कृति का आवरण पहनाए हुए। तो काम हम सारे वही करते हैं जो पशु करते हैं, पर प्रदर्शित यूँ करते हैं जैसे कोई बहुत सभ्य काम कर रहे हों, जैसे संस्कृति का चलन हो उस तरह के काम करना। आवरण कुछ भी हो, बहाने कुछ भी हों, तर्क कुछ भी हों, नीचे-नीचे काम तो पाशविक वृत्ति ही कर रही होती है। आ रही है बात समझ में?
अर्जुन एक तरीके से कौरवों और पांडवों की सेना के मध्य नहीं खड़े हैं, अर्जुन खड़े हैं मनुष्य की पशुता और कृष्ण के मध्य। बीचों-बीच तो निःसंदेह खड़े हैं अर्जुन, पर ज़्यादा सही होगा यह कहना कि उनके एक तरफ़ खड़ी है मनुष्य की पाशविकता और दूसरी तरफ़ खड़े हुए हैं सिर्फ़ कृष्ण। अब अर्जुन को चुनाव करना है, ‘किसको चुनें?’ हम सब बीचों-बीच खड़े हैं, हम सबको चुनाव करना है, ‘किसको चुनें?’ बात आ रही है समझ में?