प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, जीवन में हमें चोट लगने के बाद ही अपने गलत होने का आभास होता है। किंतु हमें यदि चोट लगने वाली है, ये पहले ही दिख जाए तो क्या चोट से बचा जा सकता है?
आचार्य प्रशांत: नहीं दिखता है तो नहीं दिखता। दिख रहा है या नहीं दिख रहा है, ये तो प्रकृति पर है। प्रश्न ये है कि तुम मान क्यों लेते हो कि मुझे दिख गया?
रात के वक्त गाड़ी चलती है, रास्ता पहाड़ी है, सड़क खराब है। मुझे गड्ढे नहीं दिख रहे, ये मैंने कोई अपराध नहीं कर दिया। पर मैं ये मान लूँ कि गड्ढे हैं ही नहीं तो ये तो अपराध है।
ज़ाहिर सी बात है कि रात में पहाड़ी रास्ते पर गाड़ी चला रहे हो तो हर गड्ढा तुम्हें दिख नहीं जाएगा। कुछ गड्ढे दिखेंगे। गाड़ी की रोशनी की भी सीमा है, तुम्हारी आँखों की भी सीमा है, तुम्हारे ध्यान की भी सीमा है। कुछ गड्ढे दिखेंगे, कुछ नहीं दिखेंगे।
गड्ढे नहीं दिखे, ये कोई अपराध नहीं हो गया। लेकिन तुमने मान लिया कि जो गड्ढा है वो तो मुझे दिखता ही है और जो मुझे दिख नहीं रहा वो गड्ढा है ही नहीं तो अपराध है। अब झटका लगेगा। अब गिरोगे, टूटोगे।
ये सदा याद रखो न कि वो भी है जो मुझे नहीं दिख रहा। बिना ये जाने कि क्या है जो मुझे नहीं दिख रहा, ये याद रखो कि कुछ है जो मुझे नहीं दिख रहा है। सदा तुमको ये नहीं पता चलेगा कि कौनसा गड्ढा है जो मुझे नहीं दिख रहा। तुम्हें ये पता ही चल जाए कि कौनसा गड्ढा है जो तुम्हें नहीं दिख रहा तो फिर तो वो गड्ढा तुम्हें दिख ही गया।
पर ज़रा विनम्रता के साथ आदमी को सदा अपनेआप को ये चेताते रहना होता है कि ज़रूर कई गड्ढे हैं जो हैं तो, पर मुझे नहीं दिख रहे। मेरी दृष्टि सीमित है, मुझे नहीं दिख रहे। और वो गड्ढे कहीं भी हो सकते हैं। तो मैं अपनी गति ज़रा धीमी रखूँ और मैं किसी भी आकस्मिक...., फिर आप तैयार रहते हो। फिर आपको अचानक से सदमा नहीं लग जाता।
ये जो अति विश्वास है अपने ऊपर, ये अश्रद्धा है परमात्मा के ऊपर। किसी अश्रद्धालु को अगर मुझे चिह्नित करना हो तो मेरे लिये बहुत आसान है। मैं उसको देख लेता हूँ, जिसे अपने ऊपर, अपने निर्णयों के ऊपर, अपने निष्कर्षों के ऊपर बड़ा यकीन होता है। जो बड़े विश्वास से कह दे कि मुझे तो पता है कि क्या चल रहा है। उसका पूरा विश्वास अहंता में है। फिर उसकी आत्मा पर कोई श्रद्धा नहीं हो सकती।
जो सच के प्रति श्रद्धालु है वो आदमी अपने प्रति सदा थोड़ा अनिश्चय से भरा होगा। अपने प्रति उसमें सदा थोड़ा संदेह होगा। वो सदा प्रस्तुत रहेगा ये कहने के लिए कि अच्छा ऐसा भी है। उसमें अपने ही प्रति एक कौतुक, एक विस्मय का भाव रहेगा, एक अज्ञान का भाव रहेगा।
बात समझ रहे हो न?
उसको बस एक चीज़ पक्की होगी, वो है और वो ही है। वो है और वो ही है। बस इस एक चीज़ पर वो अटल है। इस बात में कोई संदेह नहीं बाकी हर चीज़ को वो कहेगा कि हो सकता है कुछ गड़बड़ हो। दायाँ भी हो सकता है, बायाँ भी हो सकता है। भाई, क्या पता! हम पूर्ण विश्वास के साथ कुछ नहीं बोल पाऍंगे। वो पूर्ण विश्वास के साथ कुछ भी नहीं बोलता। कम-से-कम अपने बारे में तो पूर्ण विश्वास के साथ कुछ भी नहीं बोलता, सिवाय एक बात के। उस एक बात के अलावा, तुम उसमें बहुत विश्वास पाओगे नहीं।
वो जो तुमने विश्वास का अर्थ पूछा था, अब समझ रहे हो न? उसका विश्वास कहाँ है? उसका विश्वास वहाँ है। जब उसमें विश्वास रखो (ऊपर की ओर इशारा करते हुए) तो ये कहलाती है — श्रद्धा। जब इसमें विश्वास रखो (अपनी ओर इशारा करते हुए) तो ये कहलाता है — अन्धविश्वास।
तो संतों ने कई बार विश्वास को बड़ा महत्व दिया है। और कई बार विश्वास पर बड़ा प्रहार किया है। जब वो विश्वास पर प्रहार करें तो समझ जाना कि वो आत्मविश्वास पर प्रहार कर रहे हैं। आत्मविश्वास, अहंकार एक बात है।
जब संत विश्वास पर प्रहार करे तो समझ जाना कि वो प्रहार है तुम्हारे आत्मविश्वास पर, तुम्हारे अहंकार पर। और जब संत विश्वास की पैरवी करे तो समझ लेना कि वो विश्वास का अर्थ है — श्रद्धा।
दुनिया का सबसे अद्भुत दृश्य है, किसी आत्मविश्वासी को देखना। ‘हमे तो पता है। *नो, नो, लेट मी टेल यू*।’ और भीतर कुछ है जो इतना सुकून पाता है, ये कहने में कि *लेट मी टेल यू*। वास्तविक ज्ञानी बड़ा अज्ञानी हो जाता है। और जो झूठा ज्ञानी है, उसके ज्ञान के तो क्या कहने।
और उसके ज्ञान पर तुम ज़रा सा शक कर दो, जरा सी चोट कर दो तो उसको बुरा और लग जाता है, तमतमाएगा। जो वास्तविक ज्ञानी है, वो, ‘क्या पता?’ “बुल्ला की जाना मैं कौन।” कोई और देखा है कभी, जिसको अपनी हस्ती पर ही सवाल हो? परेश कभी बोलेगा कि जाना मैं कौन। तो बता देगा तुरंत, ‘मैं परेश मिश्रा।‘
बुल्ले बाबा चाहिए, ये बोलने के लिए कि यही नहीं पता कि मैं हूँ कौन। इतना भी विश्वास नहीं, कुछ पता नहीं। पर जो बात बुल्लेशाह को पता है, वो किसी और को पता नहीं। बस।
प्रश्नकर्ता: यदि हर कर्म को करते वक्त खुद पर संशय होगा तो क्या वो कर्म पूरी तरह हो भी पाएगा?
आचार्य प्रशांत: कीचड़ में चल रहे हो, कैसे रखना चाहते हो पैर? ठसक के साथ या संदेह के साथ! कीचड़ में चल रहे हो और पता भी नहीं है कि कितनी गहरी है। तो कैसे रखना चाहते हो? पूरे विश्वास के साथ जैसे रखते हो या ज़रा सकुचाते हुए, ज़रा संदेह के साथ? बोलो! कैसे रखना चाहते हो? ज़रा संदेह के साथ, बेटा। क्योंकि कीचड़ में ही चल रहे हो निरंतर। हर कदम ज़रा संदेह के साथ ही रखो। तुम्हारे लिए तो सूत्र ही यही है। सदा संदेह करो अपने ऊपर और भरोसा बस एक बात का रखो, अगर मैंने किया है तो गलत ही किया होगा।
भरोसा अगर रखना भी है तो बस एक रखो, ‘मैं कर रहा हूँ तो गलत ही कर रहा हूँ। अब पता बस ये करना है कि क्या गलत किया। क्योंकि गलत तो किया, ये पक्का है। किसने किया? मैंने किया। तो गलत तो किया ही।‘
सवाल ये नहीं है कि गलती हुई कि नहीं। सवाल ये है कि गलती कहाँ हुई। क्योंकि हुई तो है ही। जब मैं ही गलत हूँ तो मेरे काम में गलती कैसे नहीं होगी।
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, चोट हमें निरंतर लगती ही रहती है और ये विचार भी आता है कि अपने ऊपर ज़्यादा विश्वास न रहे। फिर बाद में ये विचार कहाँ चला जाता है?
आचार्य प्रशांत: मैंने पिक्चर देखी, उड़ता पंजाब। कौनसी? उड़ता पंजाब। पंजाब की कहानी थी। हरियाणा पर भी लागू होती है तो गुड़गाँव पर भी। तुम्हारे ही जैसे थे सब उसमें। बहुत मार खाते थे। नशा छोड़ रहे थे क्या? लत! कुछ तो उसमें से जेल में थे क्योंकि नशे की खातिर माँ का कतल कर आये थे। झूठे मोक्ष का मज़ा असली मोक्ष से ज़्यादा है। ‘*टेक मी हाई इन द स्काई*।’
प्रश्नकर्ता: पर मज़ा तो मज़ा है न आचार्य जी।
आचार्य प्रशांत: अरे! सच्चाई क्या करोगे? सच्चाई तो दुर्गन्धयुक्त डकार जैसी है, जो मज़ेदार खाना खाने के बाद आती है। मज़ा किसमें था? खाने में। और सच्चाई क्या है? बदबूदार डकार। किसको पसंद आती है।
झटका चाहिए, तगड़ा झटका चाहिए। उसमें एक किरदार है। वो नशे की सुई लगाकर रैपिंग करता है। और इतना बढ़िया उसका रैप निकलता है कि बस मज़ा ही आ जाता है उसको। बड़े-से-बड़े अभागी होते हैं जिनको नशे के कारण सफलताएँ भी मिल गयी होती हैं। जिनके नशे को समाज ने स्वीकृति भी दे दी होती है। जिनका नशा हैप और कूल कहलाया जाता है।
अब वो कैसे छोड़े अपना नशा? कैसे छोड़े? पहले तो नशा और फिर उस नशे की हालत में तुम जो थे, दुनिया ने तुमको बता दिया कि तुम तो बड़े कूल हो। इज्ज़त मिल गयी।
छूटता है उसका नशा? बड़ी दुर्घटना देखता है तब छूटता है। पिटता है। समाज के सामने अपनेआप को फुद्दू घोषित करता है। अपने किये का अंज़ाम देखता है। पचास जगह की ठोकर खाता है। तब उसका नशा छूटता है। बहुत पिटना पड़ेगा। और एक बिहारन भी चाहिए। है न? फिर उसका वो कॉकी सोंग बदल जाता है।
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, कितना पिटना पड़ेगा और कब तक पिटना पड़ेगा?
आचार्य प्रशांत: जब अगली सुई लगाना तब पूछना ये सवाल। उनकी सुई तो छुड़ा दे कोई, रिहैबिलिटेशन में। जो मानसिक सुइयाँ लेता हो, उसकी कैसे छुड़ाई जाए? बताओ! और जिसका नशा भौतिक हो, उसका तो छुड़ा दो। आपूर्ति रोक दो कि मिलेगी ही नहीं सुई, तो लगाएगा कैसे।
पर जो बैठे-बैठे कल्पना करके सुइयाँ लगा लेता हो अपनेआप को, उसका नशा कैसे छुड़वाओगे? तसव्वुर ही नशा है। कैसे छुड़वाओगे? बहुत झटका चाहिए। और एक कुड़ी जीदा नाम मोहब्बत! फिर क्या करें? गुम है।
तुम्हें सबसे पहले ये सीखना होगा कि वो सबकुछ जो तुम्हें अपने बारे में प्रशंसनीय लगता है, वो वास्तव में गर्हित है, निकृष्ट है। जो कुछ तुम अपने में खास समझते हो, वो खास तो है पर वो खास रोग है।
अपने को देखने का पूरा रवैया बदलना होगा। जो कुछ करके तुम आत्मविभोर हो जाते हो कि ये तो मैंने बड़ा अच्छा किया है, तुम्हें समझना होगा कि वही सबकुछ तुम्हारा दुश्मन है। मूल्यों का ही एक सबवर्ज़न चाहिए, शीर्षासन होने चाहिए मूल्यों के।
जो कुछ भी निकृष्ट है तुम्हारे बारे में, वो तुम्हारे साथ चिपटा ही इसलिए हुआ है क्योंकि तुम उसे निकृष्ट मानते ही नहीं, तुम्हारी दृष्टि में तो वो उत्कृष्ट है। तो दृष्टि बिलकुल पलट देनी होगी।
नियम की तरह पलट दो न। कुछ अच्छा लग रहा हो, उसी वक्त कह दो, ‘बुरा होगा तभी तो अच्छा लग रहा है।’ मशीन की तरह, बिलकुल मशीन की तरह। कह दो कि अगर कुछ मुझे अच्छा लग रहा है तो ज़रूर कुछ खोट होगी इसमें, नहीं तो मुझे अच्छा कैसे लगता। और कुछ बुरा लग रहा हो अगर तो तुरंत कह दो अपनेआप से, ‘इसमें मेरी भलाई होगी तभी तो मुझे बुरा लग रहा है।‘ अपनी सीमा के विरुद्ध खड़े हो जाएँ। जहाँ खड़े हो गये हैं वहाँ भी कोई विशेष प्रयोजन नहीं है वहाँ से भी हटना होगा। पर अभी तो ज़रूरी है कि अगर चित्त आपका आपको दायें खींचता हो तो आप जान-बूझकर बायें जाए। बायें में कुछ खास नहीं है पर ये ज़रूरी है कि दायें का विरोध करो। अपने खिलाफ़ जंग लड़नी होगी और कोई चारा नहीं।