छोटे बच्चे की बलि: कितनी जानें लेगा अंधविश्वास?

Acharya Prashant

24 min
139 reads
छोटे बच्चे की बलि: कितनी जानें लेगा अंधविश्वास?
पता किसी को नहीं है, खर्च सबको करना है। ये सुपरस्टिशन है। बात सिर्फ़ भूत-प्रेत, डायन, चुड़ैल की नहीं है, दूल्हा-दुल्हन की भी है। या तो उनको ही बोल लो। पर जो कुछ भी तुम्हारी जिंदगी में चल रहा है और तुम्हें कुछ पता नहीं है कि मामला क्या है, वो सब अंधविश्वासी ही है, और बहुत दूर तक जाता है। सोचो सात साल का बच्चा रहा होगा और किसी अनपढ़ ने नहीं मारा, प्रिंसिपल (प्राचार्य) ने मारा है। यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

प्रश्नकर्ता : नमस्ते आचार्य जी।आचार्य जी, हाल में हाथरस में एक दिल दहला देने वाली घटना हुई है। एक स्कूल के मालिक ने दूसरी कक्षा के छात्र की बलि दे दी। पुलिस का कहना है कि वो किसी तांत्रिक विधि का उपयोग करके स्कूल की आर्थिक स्थिति सुधारना चाह रही थी।इससे पहले भी उन्होंने नौ साल के बच्चे की बलि देनी चाही थी लेकिन तब वो असफल रहे थे।

आचार्य जी, इक्कीसवीं सदी के भारत में ऐसी खबरे हमें क्यों सुनने को मिल रही हैं? हमारे समाज से कहाँ चूक हो रही है?

आचार्य प्रशांत: देखो, इक्कीसवीं सदी हो या पचासवीं सदी हो, समय के साथ कोई ज़रूरी थोड़े ही है कि भीतर जो अहम् है, इगो है, वो अपनेआप बेहतर होता जाए, आगे बढ़ता जाए। जब आप समय की बात करते हैं तो समय के साथ इवोल्यूशन होता है। किसका? फ़िजिकल ऑब्जेक्ट्स (भौतिक वस्तुओं) का हो जाता है। समय के साथ जो कुछ भी फ़िजिकल है (भौतिक), वो बदल जाता है।

और जहाँ तक हमारी प्रजाति की बात है, तो समय के साथ हम इवॉल्व (विकसित) हुए हैं और जो आसपास की स्थितियाँ हैं, उनको झेलने के लिए शारीरिक रूप से हम बेहतर हो गए हैं। तो ये सोचना लेकिन कि शताब्दियाँ बीत रही हैं तो हम भीतर से भी बेहतर होते जा रहे हैं, ऐसा थोड़े ही है। समय बीतता जा रहा है, आप इक्कीसवीं शताब्दी में आ गए हो, आप बाहर से बेहतर हो गए हो, भीतर से तो आप आज भी वही हो। जो आदमी आदिमानव गुफा में रहता था और गुफा से भी पहले जंगल में रहता था। जो उसकी वृत्तियाँ थीं, वही आपकी भी हैं। तो इसीलिए ये कोई ऑटोमेटिक (स्वचालित) बात नहीं है कि समय बीतता जा रहा है इक्कीसवीं शताब्दी है, आधुनिकता आ गई है, तो अब तो अंधविश्वास चला ही गया होगा। बिलकुल भी नहीं। इक्कीसवीं शताब्दी में नहीं गया हैऔर इकतालीसवीं शताब्दी में भी नहीं जाएगा अपनेआप।

हमारे भीतर कुछ ऐसा है जो अंधविश्वास को बचाए रखता है। इसको मैं कोशिश कर रहा हूँ समझाने की एक-दो तरीकों से — देखो, अंधविश्वास से क्या मतलब होता है? कि कुछ पता नहीं है पर किसी बात पर यकीन कर लिया है। उस बात की सत्यता परखी नहीं है पर यकीन कर लिया है। ये जो चीज़ है,ये जंगल में उपयोगी होती थी क्योंकि आपके सामने सौ तरह के खतरे होते थे। आप ये नहीं कह सकते थे कि मैं अभी जानता नहीं इसलिए मैं कोई निर्णय नहीं लूँगा। आप संभावनाओं पर खेलते थे। उदाहरण के लिए, रात में अगर आपको कुछ अजीब सी आवाज़ आ रही है, तो आप ये नहीं कह सकते कि अभी मुझे ठीक-ठीक पता नहीं है मैंने तथ्य का अन्वेषण नहीं किया, प्रयोग-परीक्षण नहीं किया, तो जब तक मैं साफ़-साफ़ जान नहीं लूँ कि ये रात में आवाज़ किस चीज़ की आ रही है तब तक मैं कोई कदम नहीं उठाऊँगा। ये आप करते, तो आप मारे जाते।

तो तब बेहतर यही था कि जो भी कल्पना आ रही हो मन में, उस पर विश्वास कर लो और भाग लो। या कि अगर किसी ने बता दिया कि फ़लाने इलाके में खतरा है या फिर खाने-पीने के अवसर हैं, तो उस पर विश्वास कर लो। एक तरह से अंधविश्वास उपयोगी था। इसी तरीके से जितने बायसेज होते हैं, पूर्वाग्रह, इनके भी इवोल्यूशनरी बेनिफिट्स (विकासवादी फ़ायदे) थे क्योंकि आप सब कुछ नहीं जान सकते।

जब आप सब कुछ नहीं जान सकते तो इनफॉर्मेशन (सूचना) के अभाव में आपको फ़ैसले करने होते हैं। इनफॉर्मेशन के अभाव में फ़ैसले करने में बायस (पक्षपात), बिलीफ़ (आस्था) ये सब काम आते हैं। जब इनफॉर्मेशन पूरी नहीं होती लेकिन फ़ैसला करना ज़रूरी होता है तो बायस और बिलीफ़ दोनों काम आ जाते हैं।

तो वैसा हमारा मन रहा है जो जल्दी से विश्वास कर लेना चाहता है, जो जल्दी से कोई धारणा बना लेना चाहता है। और वो मन आज भी वैसा ही है। बस बात इतनी सी है कि आज वो धारणा बनाने की ज़रूरत बहुत कम है, क्योंकि जाना जा सकता है।

अतीत में विश्वास, धारणा, मान्यता, एजम्शन (मानना) और सपोज़ीशन (अनुमान) की ज़रूरत शायद ज़्यादा वैधथी, जायज़थी, जस्टिफाइड (न्यायोचित) थी क्योंकि जानना था ही मुश्किल, बहुत मुश्किल था जानना। तो आपने किसी तरीके का कुछ भीतर काल्पनिक मॉडल बनाया और आपने उसमें विश्वास कर लिया। और हो सकता है उस विश्वास से आपको थोड़े बहुत फायदे भी हो गए हों।

हमने कहा तो बायसेस के इवोल्यूशनरी बेनिफिट्स (विकासमूलक लाभ) रहे हैं, लेकिन आप आज भी अगर जंगल के ही पुराने आदमी बने हुए हो, तो फिर इसकी क्या माफ़ीहै और इसमें आपको लाभ क्या हो रहा है? कोई लाभ नहीं हो रहा है। और आप बने रहोगे जब तक कि सामाजिक, शैक्षणिक, पारिवारिक व्यवस्था ऐसी नहीं होगी जिसमें आपको शिक्षा दी जाए अपने ही मन को देखने की।

जब तक अपने मन को नहीं देखोगे, तो मन में जो कुछ भी चल रहा है, वो आपको सच ही लगेगा। आपको पता ही नहीं होगा कि आपके मन में कोई चीज़ कहाँ से आई और आप उस चीज़ को इतना बाँधकर क्यों रख रहे हो मन में, नहीं पता चलेगा।

ये बात हमें बहुत पीछे छोड़ देनी चाहिए कि आप एजुकेटेड (शिक्षित) होते जाते हो या मॉडर्न (आधुनिक) होते जाते हो, तो सुपरस्टिशन (अंधविश्वास) कम होता जाएगा। ये बिलकुल हो सकता है जिस स्कूल में ये दूसरी क्लास के बच्चे की बलि दी गई, वो बिलकुल एक, एक मॉडर्न स्कूल हो इंग्लिश मीडियम स्कूल हो, बिलकुल हो सकता है, एकदम संभव है।

मैं जानता नहीं कि कैसा स्कूल था, पर बिलकुल ऐसा हो सकता है। आप अगर इंग्लिश मीडियम (अंग्रेज़ी माध्यम) से हो, तो आपके इंग्लिश सुपरस्टिशंस हो जाएँगे। पढ़े-लिखे लोगों के ज़बरदस्त अंधविश्वास होते हैं।उनके अलग वाले होते हैं ठीक वैसे जैसे गरीबों के कपड़े होते हैं, अमीरों के कपड़े होते हैं, अमीरों के अलग होते हैं। पर कपड़े तो दोनों के पास होते हैं। ठीक वैसे जैसे अमीर को अमीरों की घृणा होती है, गरीबों की घृणा होती है, अमीरों की कामना होती है, गरीबों की कामना होती है, अलग होती हैपर ये थोड़ी है कि अमीरी आ गई है तो कामना नहीं है। या अमीरी आ गई तो घृणा नहीं है।

और कुछ मामलों में तो ये जो मॉडर्न सुपरस्टिशंस हैं उनको हटाना ज़्यादा मुश्किल हैक्योंकि वो मॉडर्निटी की भाषा पकड़ चुके हैं। उनमें से कई अंधविश्वासों ने तो साइंस (विज्ञान) की भाषा पकड़ ली है। वो आपको फिर सीधे-सीधे ये नहीं कहेंगे कि ऐसा कर लो तो वो जो पहाड़ पर देवता रहता है वो खुश हो जाएगा और तुम्हें बहुत सारा पैसा देगा।

फिर वो कहेंगे, ‘ऐसा कर लो तो तुम्हारे एनर्जी फील्ड्स (ऊर्जा क्षेत्र) हार्मनाइज (अनुरूप) हो जाएँगे। और इससे तुम हमेशा मेडिटेटिव (ध्यानस्थ) रहोगे और तुम्हारे घर में पॉजिटिव वाइब्स (सकारात्मक स्पंदन) रहेंगी।ʼ ये आधुनिक अंधविश्वास की भाषा है। पुराना अंधविश्वास कहता कि जाकर के फ़लाने पेड़ का आम तोड़कर के फ़लाने पोखर में डाल दो आधी रात को, तो पोखर में जो टुक्कू देवता रहता है, वो खुश हो जाएगा और तुम्हारी गाय ज़्यादा दूध देगी। ये पुराने अंधविश्वास की भाषा होती। जो नया अंधविश्वास है,वो फील्ड्स (क्षेत्र), वाइब्स (स्पंदन), कांसीक्रेटेड स्पेसेज (पवित्र स्थान), औरा (आभा), हैलो (प्रभामंडल) इनकी भाषा में बात करता है।

बात समझ रहे हो?

जो आदमी एक केंद्रीय बात को पकड़कर नहीं चलेगा उसे अंधविश्वासी होना पड़ेगा। और वो केंद्रीय बात ये है कि मुझमें ताकत है और मेरी ज़िम्मेदारी है सवाल उठाने की। वो मेरा पहला कर्तव्य है — जानना। मुझे पूछना है, मुझे प्रयोग करना है, मुझे जानना है।

प्रश्नों से प्यार होना चाहिए और जब तक इस बात के संस्कार नहीं मिलेंगे, समाज, घर, स्कूल ऐसे नहीं हो जाएँगे कि जहाँ सवाल आ रहे हों और भले ही वो सवाल परेशान करते हों, चिढ़ाते हों, उनके कोई उत्तर समझ में ना आते हों, फिर भी प्रश्नों का स्वागत हो, तब तक बात बनेगी नहीं।

अगर प्रश्नों का स्वागत नहीं है, तो विश्वासों में जीना पड़ेगा ना? अगर प्रश्न नहीं हैं तो माने क्या ले लिया है? सस्ता विश्वास ले लिया है। बिना जाने किसी चीज़ पर यकीन कर लिया है और जिस आदमी ने विश्वास को जीने का केंद्र बना लिया, वो फिर बस एक-दो चीज़ों में विश्वास में नहीं जीता, वो हर चीज़ में विश्वास में जीता है।

ये जो नींबू-मिर्ची वाला आदमी होगा ये ज़िंदगी में कहीं भी प्रश्न नहीं उठा सकता गहराई सेक्योंकि भीतर से तो कर्ता, डुअर एक ही है न। जब उसने नींबू-मिर्ची टाँगते वक्त विश्वास कर लिया था, सवाल नहीं उठाया था, तो वो ज़िंदगी के बाकी कर्मों में और बाकी फ़ैसलों में भी कैसे सवाल उठा पाएगा? वो विश्वास करेगा-ही-करेगा।

और ये जितने विश्वास हैं जो बस खड़े हैं मान्यता की ज़मीन पर, ये सब अंधविश्वास हैं। कुछ गलत नहीं होगा अगर आप कह दें कि कोई भी अनएक्ज़ामिंड (अपरीक्षित) विश्वास, अंधविश्वास ही होता है। सुपरस्टिशन क्या है? अनएक्ज़ामिंड बिलीफ़ (अपरीक्षित विश्वास)। कोई प्रयोग नहीं करा, कोई परीक्षण नहीं करा, कोई प्रश्न नहीं पूछा, मान लिया। यही तो अंधविश्वास है। ये जीने का एक केंद्र है, ये जीने का एक तरीका है। ये कोई अकेला, आईसोलेटेड (अलग) कर्म कृत्य नहीं होता। ये व्यक्ति का सेंटर होता है।

समझ रहे हो बात को?

जो आदमी बस विश्वास करता है, वो ज़िंदगी के बाकी क्षेत्रों में भी बहुत डरा हुआ होगा। सवाल पूछने से घबराता होगा। अगर आपको किसी को अंधविश्वास में ढकेलना है, तो किसी डरपोक आदमी को पकड़ लीजिए। उसको ज़्यादा आसानी से ढकेल लेंगे। क्योंकि उसका जो केंद्र है वो अंधविश्वास के लिए अनुकूल है। वो डरा हुआ है ना और डर और अंधविश्वास एक साथ चलते हैं।

फ्रायड जब अनकॉन्शियस (अचेत) की तलाश कर रहे थे, वो कहते थे कि व्यक्ति को कांशियसनेस (चेतना) से थोड़ा हटाना पड़ेगा, तभी तो पता चलेगा कि वो उसके अनकॉन्शियस में क्या भरा हुआ है। तो दो ही तरीके थे कि या तो उसके ड्रीम्स (सपनों) में घुसो या उसको हिप्नोटाइज (सम्मोहित) कर दो। तो उसका जो कांशियस माइंड है, वो थोड़ा चुप हो जाए तो फिर अनकॉन्शियस में जो कुछ भरा है, वो फिर बकने लगता है।

जब हिप्नोटाइज करते थे,तो पाते थे कि जो लोग डरपोक नहीं, वो हिप्नोटाइज ही नहीं होते थे आसानी से। जो डरपोक नहीं हैं, वो किसी के अधीन आसानी से आएगा ही नहीं, वो हिप्नोटाइज भी नहीं होता। और जो जितना डरपोक होता था, दब्बू, वो उतनी आसानी से हिप्नोटाइज हो जाता था।

तो हिप्नोसिस (सम्मोहन) के लिए पकड़े ही ऐसे लोग जाते थे जो वीक पर्सनैलिटीज (कमजोर व्यक्तित्व) होते थे। और फिर इसीलिए फ्रायड ने हिप्नोसिस का जो मेथड ही था, उसको भी हटा दिया। बोले, ’ये तो ऐसे ही कमज़ोर आदमी है, इसको हिप्नोटाइज कर दो तो ये और भी कमज़ोर हो जाता है। एकदम पाँव-वाँव पकड़ लेगा और कहेगा, ‘आका- आका, मालिक-मालिक। तो उन्होंने कहा, ‘इससे अच्छा है ड्रीम्स पर स्टडी करूँगा।ʼ तो फिर उन्होंने अपनेआप को ड्रीम्स में केंद्रित किया।

समझ में आ रही बात ये?

ये कोई अकेली चीज़ नहीं है कि एक आदमी अंधविश्वासी है। जो अंधविश्वासी है, वो मैंने कहा, डरपोक होगा, वो लालची भी होगा, हर तरह की बीमारियाँ उसको लगी हुई होंगी। अगर किसी को पाओ कि वो पाँच-दस अंगूठियाँ धारणकर के चल रहा है, उससे बचकरके रहना। वो बहुत हिंसक आदमी होगा। क्योंकि जहाँ डर होता है, वहाँ हिंसा होती है, वहाँ प्रेम नहीं हो सकता।

अंधविश्वास कोई बस एक बिलीफ़ (विश्वास) नहीं होती है कि ही बिलीव्स इन सच एंड सच थिंग्स। यू नो ही बीलिव्स इन सुपरनेचुरल एंड घोस्ट्स एंड इन सच एंड सच ए सच थिन्गस, यू नो ही बिलीफ्स इन द घोस्ट्स एंड हॉन्टेड हाऊसेस। (वह ऐसी-ऐसी चीज़ों में विश्वास रखता है, वो अलौकिक ने भूतों में और प्रेतबाधित घरों में विश्वास करता है)।

नहीं-नहीं-नहीं अगर वो ऐसा बंदा है, तो उससे बचकरके रहो, वो धोखेबाज़ भी होगा क्योंकि अगर उसे सच्चाई से प्यार होता, तो सबसे पहले उसने अपने बिलीफ़्स की सच्चाई परखनी चाही होती ना। जब उसे सच्चाई से प्यार नहीं है, तो यानी आदमी फिर झूठा है। आदमी झूठा है, तो तुमसे भी झूठ बोलेगा, धोखा देगा।

दस तरीके की मालाएँ लगा रखी हैं, कहीं पर कुछ टैटू करा रखा है, बोल रहा है, ‘दिस ऑस्पीशियस टैटू (ये एक पवित्र गोदना है)।ʼ कुछ कर रहा है, कुछ कर रहा है, और पूछो कि क्यों कर रहे हो, तो कोई जवाब नहीं है। इधर-उधर का मिस्टिकल मम्बो-जम्बो (रहस्यमय श्रद्धा की वस्तु) बता रहा है। ऐसे आदमी से बचो। ये आदमी स्वयं अपने लिए घातक है, तुम्हारे लिए अच्छा कैसे हो सकता है?

ये जो प्रिंसिपल है, जिसने इतनी क्रूर दो साल, कक्षा दो का बच्चा है, तो दो और पाँच सात साल का रहा होगा, सात साल के बच्चे की बलि दे दी। इसके टैल टेल साइंस (स्पष्ट संकेत देने वाले विज्ञान के लक्षण) रहे होंगे, बहुत प्रकट लक्षण रहे होंगे।

आप इसके कमरे में घुसेंगेउदाहरण के लिए, जो प्रिंसिपल रूम है, तो वहाँ विशेष प्रकार की कुछ एरोमा (गंध) होंगे, एरोमेटिक स्टिक्स (सुगंधित लकड़ी)। बोल रहे हैं, ‘ये जो है ये ऑस्पीशियस एरोमा है, ये जो फ़लानी अगरबत्ती है, शुभता लाती है।ʼ बस इतनी सी बात है कि हमने कभी भी इन लक्षणों को पकड़ा नहीं। उसने कुछ विशेष म्यूजिक (संगीत) लगा रखा होगा। बोल रहे हैं, कैसा म्यूजिक है?बोल रहे हैं, ‘ये वो वाला म्यूजिक है जो आपको बिल्कुल पार ले जाता है।ʼ ये लगा रहता है। उससे पूछो, ‘इस म्यूजिक में जो बोला जा रहा है, उसका कुछ मतलब बता दो, तो प्रेंग, टौन, टांग?ʼ उसे कुछ नहीं पता होगा। पर वो सुन रहा है और हमें लगता है, कोई बड़ी बात नहीं। बाजार में सीडी मिली है, ये खरीद लाया प्रैंक, कांग, टांग, ये सुन रहा है। क्या हो गया? तब दिखाई नहीं देता कि ये आदमी हत्यारा निकलेगा। बस कभी हत्या प्रकट हो जाती है, खून बहता दिख जाता है। अखबारों में सुर्खियों में बात आ जाती है। कभी वो खून बहता दिखता नहीं है। सारी हत्याएँ ज़रूरी थोड़े ही हैं कि बंदूक चलाकर या चाकू मारकरके की जाएँ।

हत्याओं के बहुत तरीके होते हैं। किसी को ज़िंदा रखे- रखे उसकी हत्या भी की जा सकती है। कितने ही घर होते हैं जहाँ जाकर देखो तो दिखाई सब ज़िंदा देंगे लेकिन सब मुर्दे हैं। उनकी हत्या किसने करी? अंधविश्वास ने ही तो करी है। अंधविश्वास जीवन जीने का एक गलत केंद्र है और उस केंद्र से जो कुछ भी करोगे, सब गलत होता है।

बात आ रही है समझ में?

‘मैं मानता हूँ, मैं मानता हूँ, साहब हम तो मानते हैं। ऐसा हमारा विश्वास है, ऐसी हमारी मान्यता है।ʼजो व्यक्ति ऐसी बातें कर रहा हो, उससे जितना कम लेना-देना रखो तुम्हारे लिए उतना अच्छा।क्योंकि जब वो बिना किसी आधार के कुछ भी मान सकता है, तो वो एक दिन बिना किसी आधार के तुमको अपराधी भी मान सकता है। मानने में क्या है, कुछ भी माना जा सकता है। उसने जो कुछ भी माना, उसने माना फ़लाने पहाड़ के ऊपर एक डायन रहती है और टोना-टोटका करके उसको चुप कराया जा सकता है।

उसने ये क्या जाँच-परख के माना? उसने कैसे माना? ऐसे ही चार लोगों ने बोल दिया, उसने माना। लहर चली, उसने मान लिया। वैसे ही तुम उससे रिश्ता बनाओगे, एक दिन तुम्हारे बारे में भी वो कुछ भी मान लेगा। उसे कहाँ जाँचना परखना है? प्रश्न तो उसने पूछना ही नहीं है ना। तुम्हारे बारे में भी कुछ भी मान लेगा, और कुछ भी मान के, कुछ भी करेगा भी। प्रिंसिपल है वो मान रहा है कि वो जो बच्चा है छोटा, वो बलि का जीव है। सोचो, ये व्यक्ति कितने सालों तक प्रिंसिपल रहा होगा? तो इसने कैसे-कैसे फ़ैसले किए होंगे। पर हम उन फ़ैसलों में देख नहीं पाए कि एक बड़े अपराध की आगत छाया है। हमें नहीं दिखाई दिया क्योंकि वो सब हमें दिखाई देता है कि ये समाज में बहुत लोग कर रहे हैं। ये जितने लोग कर रहे हैं, ये सब अपराधी हैं। अंधविश्वास और अपराध बिल्कुल साथ-साथ चलते हैं।

द इगो इज़ द फर्स्ट सुपरस्टीशन (अहम् पहला अंधविश्वास है)। सुपरस्टीशन माने क्या? किसी चीज़ को मान लेना कि है, पर वो है नहीं। तो अहंकार ही अंधविश्वास बनकर प्रकट होता है। हम इस समस्या को बहुत हल्के में ले लेते हैं। हमको लगता है कि ज़्यादा बड़ी समस्याएँ तो दूसरी हैं। हम कहते हैं, ‘ज़्यादा बड़ी समस्या ये है कि साहब, मालन्यूट्रिशन (कुपोषण) हैं, इकोनॉमिक ग्रोथ स्टैगनेट (आर्थिक विकास रूक) कर गई है। ये ज़्यादा बड़ी समस्याएँ हैं।ʼ

हमें वक्त लगेगा शायद ये समझने में कि सबसे बड़ी समस्या अंधविश्वास होती है। जहाँ अंधविश्वास नहीं है, सोचो, तो वहाँ क्या होगा? अगर अंधविश्वास नहीं है, तो क्या होंगे? फैक्ट्स (तथ्य) होंगे। और जब फैक्ट्स होते हैं, तब तरक्की हो सकती है। जब अंधविश्वास होता है तो फैक्ट्स की ज़रूरत ही नहीं पड़ती है, बिलीफ़ काफ़ी होती है ना। मैं बिलीव करता हूँ कि मैं सबसे अच्छा हूँ, अब मैं तरक्की क्यों करूँ? मैं तो पहले ही सबसे अच्छा हूँ। यही तो अंधविश्वास का मतलब है। मैं बस मानता हूँ।

‘साहब, हम तो मानते हैं, हमारी तरफ़ की मान्यता है।ʼ अरे, क्यों है मान्यता? क्यों मानते हो? ‘नहीं, हम तो मानते हैं। हमारे उधर एक, एक, एक कमरा है पुरानी हवेली में और उसमें फ़लानी रात को पुराने राजा और पुरानी रानी आकर के नाचते हैं। और अगर किसी ने जाकर के राजा-रानी को नाचते देख लिया तो रानी की दासी एक बाहर घूम रही होती है, वो उसको ले जाती है और कुएँ में डाल देती है उम्र भर के अच्छा! ऐसा?माने कैसे? नहीं, हम तो मानते हैं कि राजा-रानी नाचते हैं, हम तो मानते हैं।

ये आदमी खतरनाक है क्योंकि इसके पास इतनी ज़बरदस्त बिलीफ़ है कि इसके पास फैक्ट्स नहीं होंगे। जो आदमी एक क्षेत्र में ऐसी धुरंधर मान्यता रख सकता है, वो जीवन के दूसरे क्षेत्रों में क्या बहुत विचारक हो जाएगा, तार्किक हो जाएगा, दार्शनिक हो जाएगा? वो जीवन के हर क्षेत्र में ऐसा ही रहेगा। ऐसे वक्तव्य जहाँ भी सुनना कि कुछ बातें जानने के लिए पहले मानना पड़ता है,भगवान को जाना नहीं जाता माना जाता है, और मान लो तो जान जाओगे, इस तरह की बातें जहाँ भी सुनो, ‘तो अभी अच्छा है आते हैं, उधर कुछकाम निपटाकर आते हैं।ʼऔर काम कभी निपटाना मत। लौटकर आना मत।

ऐसे व्यक्ति से भी बचना जिससे सवाल करो तो चिढ़ता हो। जिससे सवाल करो, तो कहे, ‘अधर्मी हो क्या? पापी! मर्यादा का उल्लंघन करता है। व्यभिचारी, बदतमीज़।ʼऐसे आदमी से बहुत बचना जो सवालों के सामने असहज हो जाता हो, वो व्यक्ति अच्छा नहीं हो सकता, वो कोई भी अपराध करेगा।

बहुत बीमारियाँ होती हैं मन की। सब बीमारियों के मूल में है अंधविश्वास। और अंधविश्वास सिर्फ़ जादू, छूमंतर, भूत-प्रेत, टोना-टोटका की बात नहीं होती है। जो कुछ भी चल रहा है जीवन में, उस पर प्रयोग, परीक्षण, प्रश्न कुछ नहीं है, बस मान्यता है, विश्वास है, एक कोई निष्कर्ष है-हवाई निष्कर्ष, जिसका कोई आधार नहीं, जिसको कभी जाँचा-परखा नहीं, बस निष्कर्ष है हमारे पास। मामला गड़बड़ है।

समझ रहे हो?

वो कोई भी क्षेत्र हो सकता है, ज़रूरी नहीं है धर्म का ही क्षेत्र हो। कोई भी क्षेत्र हो सकता है। जादू-टोने की ही बात नहीं है, कोई भी क्षेत्र। ‘ज़िंदगी ऐसे, ऐसे जी जानी चाहिए।ʼ अच्छा, तुझे कैसे पता? ‘नहीं, वो,पर पता क्या करना है? ऐसा तो होता है ना मतलब।ʼ नहीं,तुम्हें कैसे पता कि ऐसे जी जानी चाहिए? ‘नहीं, पर ऐसा ही तो करना होता है ना।ʼ

इस व्यक्ति ने कभी कोई सवाल पूछे नहीं है। इसने बस मान लिया है। इसे बताया गया कि ज़िंदगी ऐसे जिओ, इसने मान लिया। ये अंधविश्वास है। भाई, तीस की उम्र में अपनी कार होनी चाहिए, पैंतीस की उम्र में अपना घर होना चाहिए, पैंतालीस में रिटायर हो जाना चाहिए। अच्छा, ये ठीक है। ये तुम्हें कैसे पता ये सब करना होता है? तुम्हें किसी ने नहीं ये सब बोला होता, तो क्या तुम ये सोचते? तुम क्या सोचते ये सब? भाई, ऐसी-ऐसी एजुकेशन ले लेनी चाहिए, ऐसे करना चाहिए, फिर एमबीए कर लेना चाहिए, फिर ऐसे फ़लानी जॉब कर लेनी चाहिए, इतनी तो सैलरी होनी ही चाहिए, इतने पैसे होने चाहिए। उसके बाद बीवी करना माँगता, लाइफ सेट करना माँगता, दो बच्चा तो होना ही चाहिए।

ये जितनी तुम कहानी बता रहे हो, हमें इस कहानी से कोई समस्या नहीं है। बस ये बता दो तुम इस कहानी तक पहुँचे कैसे? ये तुम्हारा क्या अपना मौलिक चिंतन है? किसी ने ये सब बातें नहीं बताई होती तो भी क्या तुम यही सब सोच रहे होते? और तुम तक ये बातें कोई लेकर आया तो तुमने कुछ सवाल करे कभी? या तुमने कहा, ‘सब कर रहे हैं तो ठीक ही होगा, हम भी कर लेते हैं।ʼ आलसी आदमी। कोई तुमने मेहनत नहीं करी इन बातों को जाँचने-परखने में। ये सब भी तो सुपरस्टीशन (अंधविश्वास) है ना कि नहीं है?

जहाँ कहीं भी कुछ कर रहे हो और पूछ नहीं रहे कि क्यों कर रहा हूँ, नहीं करना। अगर जवाब नहीं मिलेगा तो नहीं करना, वो सब सुपरस्टीशन है। सुपरस्टीशन, देन इज़ ए वे ऑफ लाइफ़ (अंधविश्वास तब एक जीवन शैली हो जाती है)। और ये ऐसा वे ऑफ लाइफ़ है जो आपको कहीं का नहीं छोड़ता, डिस्ट्रक्टिव वे ऑफ लाइफ़ (विनाशकारी जीवन शैली)।

समझ में आ रही है बात?

पुरुषों को ऐसे-ऐसे काम तो करने ही चाहिए, महिलाओं को ऐसे-ऐसे काम करने चाहिए, बड़ों को ऐसे काम करने चाहिए, छोटों को ऐसे काम करने चाहिए। ज़िंदगी में ये-ये सब चीज़ें हैं जो इम्पोर्टेंट (महत्तवपूर्ण) होती हैं। अब दुनिया में मिलो तुम सौ लोगों से, उनसे कहो कि आप अपनी ज़िंदगी की जो दस सबसे महत्वपूर्ण चीज़ें हैं, उनकी सूची दे दीजिए। और सौ लोगों के साथ ये करो और पाओगे कि दस में से सात चीज़ें इन सब लोगों में कॉमन हैं, साझी हैं। ऐसा कैसे हो गया? निश्चित रूप से ये कोई इनकी अपनी मौलिक सोच नहीं है। इन सब ने कहीं से सुना है और जो सुना है उसको बिना जाँचे-परखे स्वीकार कर लिया है। ये अंधविश्वास है। अच्छा एक बात बताओ, जब भी कुछ अच्छा हो जाता है, तो क्या करते हो?

कुछ बहुत अच्छा हुआ आज दिन में, तो शाम को क्या करोगे? पार्टी। पार्टी क्यों? जैसे ही किसी को कुछ बताओगे कुछ बहुत अच्छा हुआ, तुरंत बोलेगा, पार्टी। अच्छा ठीक है, चलो पार्टी। अब पार्टी माने क्या होता है? खाना।माने जो कुछ भी अच्छा होता है, उसके साथ खाना। खाने का अच्छे से क्या सम्बन्ध है? पर ये कभी पूछोगे नहीं। ये बात बहुत ऐसा लगता है कि ये तो ऑबवियस (जाहिर) है ना, कॉमन सेंस (व्यावहारिक बुद्धि) है ना पर भी कभी सवाल नहीं उठाया और उसे कॉमनसेंस मान कर स्वीकार कर लिया, वो सुपरस्टिशन हीतोहै। सुपरस्टीशन ही तो है।

कोई बोल रहा है, ‘आज मैंने मैथ्स (गणित) की एक बहुत ज़बरदस्त प्रॉब्लम सॉल्व (सवाल हल) कर ली।ʼ उसका दोस्त बोल रहा है, ‘हाँ! ऐसा है!चल पिज्जा खिला।ʼ रिश्ता क्या है? रिश्ता क्या है इन दोनों बातों में? पर ये बात कितनी, कितनी ऑबवियस लगती है। हाँ, ये तो सही बात है, पार्टी। कुछ भी हो गया, पार्टी।और पार्टी भी क्या है, उसका भी एक प्रोफॉर्मा (प्रपत्र) पहले से ही तैयार है।पार्टी माने क्या? पाँच-सात मिलो और कोई तमीज़ की बात नहीं, एकदम अपनी सारी ब्रेन सेल्स (दिमाग की कोशिकाओं) को घर पर छोड़कर आओ। पाँच-सात साथ मिलो, लगो हुडदंग करने, लफंगई करने, ये पार्टी है। तुम्हें कैसे पता इसको ही पार्टी बोलते है? तुम्हें कैसे पता? येसुपरस्टीशन नहीं है, क्या? कैसे पता यही पार्टी है?

अच्छा, एक बात बताओ।अगर मूवी देखने नहीं जाते हो,तो कितनी बार पॉपकॉर्न खाते हो? तो माने पॉपकॉर्न ऐसा तो नहीं है कि कोई डायट्री रिक्वायरमेंट (आहारगत आवश्यकता) है आपकी, सप्लीमेंट (पूरक) जैसा तो नहीं है कि खाना-ही-खाना है, नहीं तो रोज़ खा रहे होते। हफ़्ते में एक बार तो खा रहे होते, पंद्रह दिन में एक बार तो खा रहे होते। पिक्चर अगर छः महीने न देखो तो छः महीने पॉपकॉर्न नहीं खाओगे। ठीक। अब रिचुअल (संस्कार) समझ में आ रही है? ऑल रिचुअलस आर सुपरस्टीशंस (सभी धार्मिक संस्कर अंधविश्वास हैं)।

जिस आदमी ने तय कर रखा है, उसे पता ही नहीं चलता। वो पिक्चर देखने गया, उसको पता ही नहीं चलता उसके कदम उठ गए और वो वहाँ जाके कह रहा है वन लार्ज (एक बड़ा) पॉप कॉर्न। ये रिचुअलिस्टिक (धार्मिक संस्कारी) है, ये कर्म काण्डी है। इसे कुछ नहीं पता होगा जिंदगी में ये क्या कर रहा है। इसे पॉप कॉर्न चाहिए ही नहीं। इसके मन ने एक पैटर्न (नमूना) स्वीकार कर लिया है। पिक्चर माने पॉपकॉर्न। तो ये जाता है, पॉपकॉर्न खाता है।

इसको अंधविश्वास में धकेलना एकदम आसान होगा। आप इससे जाकर बोलो, ‘तू फ़लानी अँगूठी पहन ले इससे तेरे फ़लाने ग्रह जो है ऐसा हो जाएगा और जो सोलर सिस्टम (सौर व्यवस्था) का बारहवाँ और पंद्रहवाँ प्लैनेट (ग्रह) है उन्होंने तेरे ऊपर जो गड़बड़ियाँ डाल रखी हैं, वो सब हट जाएँगी । ये अंगूठी पहन ले तू।ʼ और सीमेंट की एक गोली उसको थमा दो और बोलो, ‘दो लाख रूपयाʼ, अभी दे देगा। नही, पॉपकॉर्न का मूवी से रिश्ता क्या है, बताओ ना? बताओ? पर चाहिए,ज़रूर चाहिए। और जो मल्टीप्लेक्स होते हैं, वो जितना पैसा टिकट से नहीं कमाते उससे ज़्यादा पैसा पॉपकॉर्न से कमाते हैं। ये सुपरस्टिशन है ना जिसका फ़ायदा वो उठाते हैं।

अभी मैं देख रहा था आँकड़े कि पंद्रह दिनों का एक पीरियड (समय) आने वाला है अभी नवम्बर में या दिसम्बर में, इसमें कितने हज़ार करोड़ रुपए खर्च होने वाले हैं शादियों पर। अच्छा, शादी पर क्यों दो करोड़ खर्च करना है? क्यों? ‘नहीं, पर करना होता है न मतलब खुशी की बात होती है।ʼनही, वो मै समझा, पर शादी पर दो करोड़ एक करोड़, जो भी है पचास लाख, क्यों खर्च करना है?

पता किसी को नहीं है, खर्च सबको करना है। ये सुपरस्टिशन है। बात सिर्फ़ भूत-प्रेत, डायन, चुड़ैल की नहीं है, दूल्हा-दुल्हन की भी है। या तो उनको ही बोल लो। पर जो कुछ भी तुम्हारी जिंदगी में चल रहा है और तुम्हें कुछ पता नहीं है कि मामला क्या है, वो सब अंधविश्वासी ही है, और बहुत दूर तक जाता है। सोचो सात साल का बच्चा रहा होगा और किसी अनपढ़ ने नहीं मारा, प्रिंसिपल (प्राचार्य) ने मारा है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
Comments
LIVE Sessions
Experience Transformation Everyday from the Convenience of your Home
Live Bhagavad Gita Sessions with Acharya Prashant
Categories