चाँद से चाँदनी लो, धब्बे नहीं || आचार्य प्रशांत, बातचीत (2023)

Acharya Prashant

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चाँद से चाँदनी लो, धब्बे नहीं || आचार्य प्रशांत, बातचीत (2023)

प्रश्नकर्ता नमस्ते सर, आज की बातचीत थोड़ी कॉन्ट्रोवर्शियल (विवादित) होने वाली है

आचार्य प्रशांत: कोई बात नहीं होती रहती है कॉन्ट्रोवर्शी।

प्र: मैं आपसे गुरुओं के ऊपर बात करना चाहता हूँ और इस पूरी बात की शुरुआत आज से दस या बारह साल पहले से होती है।

आचार्य: क्या हुआ था तब?

प्र: तब मैं और मेरे कुछ साथी आपके पास नये-नये आये थे। उस वक़्त आप हमें दुनियाभर से जो आध्यात्मिक साहित्य है और गुरुओं की सीख है वो हमें दिया करते थे पढ़ने के लिए। और तब हम यह देखा करते थे कि उन सभी के प्रति आपके मन में बहुत आदर है, सम्मान है और उसी के साथ आप हमें सिखाते भी थे, पढ़ाते भी थे। तो हमारे भीतर भी उनके प्रति एक सम्मान जागने लगा। पर एक दिन आपने हमारी ज़िंदगी में धमाका कर दिया।

आचार्य: क्या?

प्र: आपने हमें एक किताब दी जिसमें उन्हीं सब गुरुओं के बारे में, ऋषियों के बारे में कुछ ऐसी बातें लिखी थीं जिन्हें मैं अगर अभी कहूँ तो सीधे गंदी बातें थीं, स्कैंडलस बातें थीं और उनको पढ़ कर मन ख़राब हो गया, दिल टूट सा गया था।

उस वक़्त फिर मैं आपके पास आया, मैंने आपसे पूछा कि आप एक तरफ़ तो हमें उनकी सीख पढ़ने को देते हैं और दूसरी तरफ़ आपने हमें एक ऐसी किताब दी जिसमें उन्हीं के बारे में घटिया बातें लिखी हुई हैं। और उस वक़्त जो आपने मुझे ज़वाब दिया था वो ना मुझे तब समझ में आया था और ना आज समझ में आता है। और मैं चाहता हूँ आज के दर्शकों के लिए आप एक बार फिर बताएँ।

आचार्य देखो, बात बहुत सीधी सी थी। तुम कह रहे हो कि मैं जिन गुरुओं की किताबें, साहित्य वग़ैरा तम्हें पढ़ने को देता था उन्हीं के बारे में किसी ने कोई किताब लिख दी थी, जिसमें उनके निजी जीवन को लेकर आपत्तिजनक और विवादास्पद बातें थीं। वो किताब मैंने ख़ुद ही लाकर के तुमलोगों को दे दी थी, कि लो पढ़ो इसको। तो कोई वज़ह होगी न। तुम कह रहे हो कि मुझमें आदर था, प्रेम था उन गुरुओं के लिए। तुम कह रहे हो कि वैसा ही आदर, प्रेम तुम्हारे भीतर भी विकसित होने लगा था।

तो जाँचना ज़रूरी होता है न कि वो आदर, प्रेम क्या चीज़ है, कहाँ से आ रहा है और कितना मज़बूत है। ये कौनसे किस्म का प्रेम होता है जो एक ज़रा सी नयी सूचना से हिल जाता है, इन्फॉर्मेशन मात्र से हिल जाता है। वो फिर प्रेम नहीं होगा, वो कोई और चीज़ होगी न। और आपको किसी के बारे में सब अच्छा-अच्छा ही बताया जा रहा है, बस उसकी एक साफ़-सुथरी, धुली-धुलाई छवि आपके सामने रखी जा रही है। फिर आप उसका सम्मान शुरू कर दो, यह तो बड़ी आसान बात होती है।

हम देखना यह चाहते हैं कि आप उस व्यक्ति को कैसे लोगे जब उसके बारे में आपको कुछ दूसरी तरह की बातें भी पता चलेंगी। आमतौर पर लोगों का, जनता का जो प्यार होता है वह बड़ा ब्रिटल (क्षणभंगुर) होता है, कमज़ोर। उस पर थोड़ा सा किसी अप्रिय सूचना का आघात कर दो, वो टूट जाता है, बिलकुल छितरा जाता है, बेकार हो जाता है। तो यह देखना पड़ेगा न कि तुम्हारा जो प्रेम है वो किस कोटि का है।

देखो, दो बातें होती हैं। जो चीज़ या जो व्यक्ति सम्मान के और प्रेम के लायक़ नहीं है उससे प्रति सम्मान, प्रेम होना नहीं चाहिए और जो वाक़ई तुम्हारे आदर और प्रेम के लायक़ है उसके प्रति आदर और प्रेम कम होना नहीं चाहिए। दोनों बातें एक साथ चलती हैं न। और दोनों बातों को परखना, जाँचना ज़रूरी होता है।

दिक्क़त क्या हो जाती है कि हम अपने गुरुओं को या अपने आदर्शों को या अपने अवतारों को एकदम पूर्ण, परफेक्ट देखना चाहते हैं, है न! और अगर उनकी पूर्णता में हमें कहीं कोई कमी दिखायी देती है तो हम बहुत परेशान हो जाते हैं, और परेशान होकर के हम झूठ बोलना शुरू कर देते हैं कई बार। हम कह देते हैं कि उनमें वो कमियाँ थीं ही नहीं। हम इतिहास को ही बदल डालते हैं। हम उनके चरित्र को ही एक आडंबर और पाखंड के तरीक़े से लिख देते हैं। जो कुछ उन्होंने करा या कहा होता है उसको हम छुपा देते हैं और जैसा हम उनको देखना चाहते हैं वैसा हम उनको बना देते हैं, अपनी छवि में, अपनी रचना में। तो ये तो झूठ हो गया, ये तो बेकार की बात है, है न?

वो सब तुम्हारे साथ न हो इसलिए मैंने तुमको वो किताब दी थी ताकि तुम्हें पता रहे कि जिन लोगों से तुम सीख रहे हो और जो आदर के, प्रेम के पात्र हैं वो भी इंसान ही थे और उनमें इतने तरीक़े की संभावित त्रुटियाँ हो सकती थीं। अब वो त्रुटियाँ थीं कि नहीं थीं मुझे भी नहीं पता। किसी ने कोई किताब लिख दी थी, उस किताब में जो कुछ लिखा हुआ है उसमें कितनी सच्चाई है, कौन जाने? लेकिन उस किताब से यह तो पता चल ही रहा है न कि लोग मुँह चलाते हैं और लोगों के मन में इतिहास पुरुषों को लेकर, संतों को लेकर, गुरुओं को लेकर भी बहुत तरह की आपत्तियाँ आती हैं। तो वो चीज़ मैंने तुम्हारे सामने इसलिए रख दी थी। ठीक है?

और वो चीज़ अगर तुम्हारे सामने नहीं रखी जाएगी तो तुम्हारा जो आदर या प्रेम है वो बड़ा खोखला रह जाएगा। एक बात को समझना, तुम परेशान तब भी इसलिए थे और परेशान तुम आज भी इसलिए हो क्योंकि तुम कहते हो कि वो महान कैसे हो गये अगर उनमें इतनी खोट है।

और आज तक जितने भी महापुरुष हुए हैं, किसी भी क्षेत्र में अच्छे, ऊँचे लोग, महापुरुष उन्हें नहीं भी बोलो तो भी। अध्यात्म के क्षेत्र में हो चाहे किसी भी और क्षेत्र में हो, उनमें सब में कहीं-न-कहीं, कोई-न-कोई कमी, त्रुटी, खोट किसी किस्म की रही ही है।

तो जो तुम्हारे भीतर तर्क है न, दस-बारह साल पहले की वो बात है कि तुम आये थे और घंटों तक तुमने मुझसे इस बारे में चर्चा करी थी। तुम भी थे और लोग भी थे, वो किताब तो मैंने सभी को दे दी थी कि लो पढ़ो, खुले होकर पढ़ो बिलकुल। तो बहुत लोगों का यही तर्क था कि आप इन्हें महान बोल कैसे सकते हैं अगर इनमें इतनी खोट हैं।

प्र: हाँ तो दिल सा टूटता है न कि मैं जिनसे सीख रहा हूँ, समझ रहा हूँ, उनकी निजी ज़िंदगी ऐसी थी!

आचार्य: हाँ, तुम एक डिजोनेंस (मतभेद) देख रहे हो न। तुम कह रहे हो कि मैं उनको महान तो समझ रहा हूँ और उनकी निजी ज़िंदगी के बारे में कुछ उल्टा-पुल्टा मुझे पता चल रहा है। तो ऐसा कैसे हो सकता है कि खोट भी हो और महानता भी है।

प्र: जी।

आचार्य मैं तुम्हें जो समझाना चाहता था उस वक़्त, तुम नये-नये आये थे मेरे पास, वो यही था कि उनकी महानता और बढ़ नहीं जाती क्या अगर उन्होंने इन फ्लाॅज के, इन त्रुटियों के बावजूद वो कर दिखाया जो उन्होंने करा। और जो उन्होंने करा वो तो एक तथ्य है न, वो तो कोई ढोंग नहीं है न। वो तो एक तथ्य है, वो तो ढोंग नहीं है। तो उन्होंने कुछ करके दिखाया और उनके भीतर मानवीय त्रुटियाँ थीं। तो क्या इस बात से उनकी महानता और बढ़ नहीं जाती, ये एक बात। और दूसरी बात, क्या वो तुम्हारे लिए अब और ज़्यादा रिलेटेबल (समझने योग्य) नहीं हो जाते? रेस्पेक्टेबल (आदर योग्य) हों न हों, रिलेटेबल नहीं हो जाते क्या?

क्योंकि इतना तो जानते हो कि तुममें खोट है और तुम अपने सारे आदर्श पुरुषों को बना देते हो खोट मुक्त। कहते हो कि मैं फ्लॉड (त्रुटिपूर्ण) हूँ और मेरे जितने भी रोल मॉडल्स हैं या गुरु हैं वो सब फ्लॉलेस (त्रुटि मुक्त) होने चाहिए। अब तुम हो फ्लॉड और वो हैं फ्लॉलेस , तुममें और उनमें रिश्ता कैसे बनेगा? तुम बार-बार यही तो कहोगे न कि उन्होंने जो करा वो तो मैं कर ही नहीं सकता, क्योंकि वो तो पूर्ण, परफेक्ट, फ्लॉलेस हैं और मैं तो साधारण सा आम आदमी हूँ, तो मैं तो ग़़लतियाँ करूँगा। इस तरह से मेरी ग़लतियाँ सब जो हैं उनकी माफ़ी हो गयी। मैं अगर ग़लती करता भी हूँ तो क्या बुराई हो गयी, मैं तो इंसान हूँ। और वो भगवान थे तो उन्होंने कुछ कर दिये होंगे उँचे, महान काम। मैं तो साधारण इंसान हूँ, मैं तो ग़लतियाँ करता हूँ, करता रहूँगा आगे।

मैं कह रहा हूँ, तुम समझो कि जैसे तुम हो वैसे ही वो हैं। जैसे तुममें हज़ार तरीक़े की प्राकृतिक ग़लतियाँ हैं, गुण-दोष हैं, वो प्रकृति से आते हैं और शरीर से आते हैं। हम पैदा ही होते हैं न तमाम तरीक़े के गुण-दोष लेकर के या कम-से-कम दूषित होने की हम वृत्ति लेकर पैदा होते हैं, टेंडेंसी (प्रवृत्ति) कि कुछ गड़बड़ करेंगे।

तो जैसे तुम हो वैसे ही वो हैं। अब बात तुम्हारे लिए लाभ की हो जाएगी, क्योंकि अब तुम्हें दिखायी देगा कि मैं जैसा हूँ ऐसे ही वो हैं। मुझे तमाम तरीक़े की जो तथाकथित बुराइयाँ होती हैं, वो सताती हैं, कुछ भी हो सकती है — काम, क्रोध, भय, लोभ, मद, मात्सर्य, कुछ भी, सब होती हैं। ये सब चीज़ें मुझे परेशान करती हैं, ईर्ष्या मुझे लगती है। वैसे ही वो उनको भी लगा करती थी और उन्होंने इन सब दोषों के बावजूद बहुत ऊँचे काम करके दिखा दिये। तो अब तुम कह सकते हो न कि अगर वो कर सकते हैं तो मैं भी कर सकता हूँ।

प्र: पर जो भीतरी तर्क चलता है, शायद बहुत बाल बुद्धि का तर्क हो सकता है, पर मैं कहना चाहूँगा।

कभी-कभार ऐसा लगता है कि जैसे जब मैं छोटा था तब मुझसे कुछ गणित के सवाल हल नहीं होते थे तो उसमें कोई ऐसा व्यक्ति मेरी मदद करता था जिसको वह आता था। पर मैं जब देखता हूँ कि उनलोगों की निजी ज़िंदगी में भी वही कमियाँ हैं जो मुझमें हैं, तो फिर कहीं-न-कहीं लगता है कि अगर उनकी सीख काम करती तो उन पर ही काम कर जाती। तो मुझ पर काम कैसे करेगी फिर?

आचार्य तुम्हें यह नहीं देखना है कि उनकी सीख उनके ज़िंदगी पर कितना काम करी। दो वज़ह हैं। पहली यह कि तुम उनकी ज़िंदगी को जानते नहीं और दूसरी यह कि तुम्हें उनकी ज़िंदगी जीनी नहीं।

उनकी सीख उनके कितने काम आ रही थी, ये तुम्हारे लिए बहुत महत्व की बात नहीं हो सकती। मैं ये नहीं कह रहा कि यह बात बिलकुल महत्व की नहीं है, शून्य महत्व की है, मैं यह नहीं कह रहा। मैं कह रहा हूँ, यह बात तुम्हारे लिए बहुत महत्व की नहीं है, क्योंकि एक तो तुम्हें पता नहीं है कि सचमुच उनकी ज़िंदगी में चल क्या रहा था। हम तो गौसिप वाले लोग हैं, हम किसी की ज़िंदगी में जा करके पल-दो-पल को झाँक आते हैं और वहाँ जो दिख गया, उसी का ढिंढोरा पीट देते हैं।

तुम्हें कैसे पता किसी की ज़िंदगी में लगातार क्या चला है? हम अपनी ज़िंदगी को तो जानते ही नहीं हैं, किसी दूसरे की ज़िंदगी को क्या जानेंगे! और दूसरी बात, तुम्हें उनकी ज़िंदगी थोड़ी जीनी है, तुम ये देखो कि उन्होंने तुम्हें जो दिया उससे तुम्हारी ज़िंदगी में तुम्हें क्या फ़ायदा हुआ है। समझ में आ रही है बात?

अगर मैं एक बार को मान भी लूँ कि उन्होंने जो तुम्हें शिक्षा दी और उनकी जैसी अपनी ज़िंदगी थी, उसमें एक भेद, एक गैप था, एक डिजोनेंस था, तो भी तुम ये देखो कि तुम्हें क्या मिला। तुम्हें उनसे क्या मिला, ठीक है! और डिजोनेंस था, ये भी हम कोई आश्वस्ति के साथ नहीं कह सकते। हमें कुछ निश्चित नहीं है क्योंकि उनकी ज़िंदगी को हम जानते नहीं हैं।

तुम गणित के शिक्षक का उदाहरण दे रहे हो, मैं तुमको एक हार्ट स्पेशलिस्ट (हृदय विशेषज्ञ) डॉक्टर का उदाहरण देता हूँ। तुम जाते हो डॉक्टर के पास, तुम्हारी छाती में दर्द हो रहा है। तुम उसके पास जाते हो और वो इतना मोटा है, एक सौ बीस किलो का और तुमसे बोलता है कि तुम्हें अगर अपना हार्ट ठीक रखना है तो तुम्हें रोज़ दौड़ लगानी चाहिए और तुम्हें अपना वज़न कम रखना चाहिए, तुम्हें फिट होना चाहिए और तुम्हें खान-पान का अपना संयम रखना चाहिए। और तुम उसको देखते हो तो तुम्हें दिखायी देता है इतना मोटा है, निश्चित है कि न तो ये दौड़ लगाता है न खाने-पीने में कोई संयम रखता है। तो क्या तुम उस डॉक्टर के सामने से उठकर चले आते हो?

प्र: नहीं।

आचार्य: जो सीख वो तुमको दे रहा है, उसने अपनी तो ज़िंदगी में उतारी नहीं, नहीं तो इतना मोटा होता नहीं। यह भी हो सकता है कि उसने तुमको ये सब एडवाइज दे दी और दो दिन बाद ख़ुद ही हार्ट अटैक से मर जाए। बिलकुल होता है, कार्डिएक स्पेशलिस्ट (हृदय विशेषज्ञ) भी मरते हैं कार्डिएक अरेस्ट (हृदयाघात) से। ठीक है?

क्या उसकी तुम बात सुनोगे नहीं? तुम तो ये कहोगे न कि मुझे ये देखना है कि इनसे मुझे क्या मिला। और हो सकता है कि उसकी सलाह से या वो तुम्हारे ऊपर कोई ऑपरेशन करे और उस ऑपरेशन से तुम्हारी ज़िंदगी बच जाए। और अगर तुम्हारी ज़िंदगी बच जाएगी तो तुममें अनुग्रह रहेगा, कृतज्ञता रहेगी, ग्रेटिट्यूड रहेगा। तुम ये थोड़ी कहोगे कि ये ख़ुद तो इतने मोटे हैं और आये हैं मुझे बताने की जॉगिंग किया करो, मैं क्यों जॉगिंग करूँ, ये ख़ुद तो इतने मोटे हैं। भई, वो व्यक्ति हो सकता है अपनी ज़िंदगी में उस बात को नहीं उतार पाया, पर आपको तो उसने बहुत कुछ दे दिया न, कि नहीं दे दिया?

मैं एक और उदाहरण से समझाता हूँ, (सामने के एक लाइट बल्ब को दिखाते हुए समझाते हैं) इसके भीतर एक बल्ब है, सामने ये है जिससे हमें अभी रोशनी मिल रही है, इसके भीतर एक बल्ब है। यह जो बल्ब है यह इम्परफेक्ट है, इसमें दोष हैं कई, खोट है इस बल्ब में और इसमें सबसे बड़ी खोट यह है कि इसमें जो इलेक्ट्रॉन बहते हैं न, जो करंट (विद्युत) बहता है, ये ख़ुद ही उनको रेजिस्टेंस देता है। तो ये इम्परफेक्ट बल्ब है जो गर्म हो जाता है। ये अगर परफेक्ट होता तो गर्म नहीं होता, पूरी एफिशेंसी (दक्षता) से काम करता तो। ये इम्परफेक्ट बल्ब है जो गर्म हो जाता है। वो होता होगा गर्म, मेरी ज़िंदगी को तो रोशनी दे रहा है।

मैं ये देखूँ कि वो गर्म हो रहा है या मैं ये देखूँ कि यहाँ जो भी रोशनी है उसी से आ रही है। और मेरे लिए यह बड़ी एहसान-फ़रामोशी की बात होगी कि मैं यह न देखूँ कि उसने मेरी ज़िंदगी को क्या रोशनी दी है, मैं यह देखूँ कि वो बल्ब गर्म हो रहा है। बिलकुल हो सकता है बल्ब गर्म हो रहा हो। ये भी हो सकता है थोड़ी देर में वो बल्ब फ्यूज हो जाए, ख़राब हो जाए, कुछ हो जाए। तो भी ये तथ्य तो क़ायम रहेगा न कि उसने मेरी ज़िंदगी को तो रौशन करा ही। वो इम्परफेक्ट होगा, पर मुझको तो वो कुछ लाभ, बेनिफिट दे ही गया न।

प्र: लेकिन अगर जो आपने अभी बात कही, उसको मैं लेकर चलूँ तो इसका मतलब तो यह हुआ कि जब ये सवाल आता है न कि किसको सच्चा गुरु माने और किसको नहीं माने। तो जो व्यक्ति सच्चा नहीं है, कोई उसकी बीस से तीस प्रतिशत बातें तो सच्ची निकल ही जाएँगी तो फिर क्या उनका भी सम्मान करना चाहिए?

आचार्य जिस हद तक किसी की बात तुम्हें लाभ दे रही है उस हद तक वो तुम्हारे सम्मान का अधिकारी है। क्योंकि तुम गुरु के पास गुरु को पूजने थोड़ी जाते हो, गुरु से क्या लेना-देना है? गुरु के पास या किसी के पास भी इसलिए थोड़ी जाते हो कि तुम्हें उसकी पूजा करनी है या उसको सिंहासन पर चढ़ाना है। तुम इसलिए जाते हो ताकि तुम्हें शांति मिले।

मंदिर भी इसलिए नहीं जाया जाता कि भगवान को तुम्हारी श्रद्धा की ज़रूरत है। मंदिर तुम इसलिए जाते हो क्योंकि तुमको शांति की ज़रूरत है। तो तुम अपना हाल देखो न। तुम्हें जिससे जो मिल रहा हो, उसी आधार पर, उसी अनुपात में, उस व्यक्ति को सम्मान दो। ये तो एकदम सीधा मामला है।

प्र: लेकिन कहीं-न-कहीं मैंने देखा है कि जब मैं उस किताब को पढ़ रहा था और फिर इस किताब को पढ़ने के बाद उनके बारे में जितनी बायोग्राफी (जीवनी) और आर्टिकल वग़ैरा है वो भी देख रहा था।

आचार्य किताब का नाम बता दो, सबको शायद पता नहीं हो।

प्र: किताब का नाम है 'स्ट्रिपिंग द गुरुज'। और जॉकफरी डीह अमेरिकन राइटर (लेखक) हैं इन्होंने लिखा है। और मैं इनकी किताब भी पढ़ रहा था, तो उसमें भारत के भी जितने प्रसिद्ध गुरु हैं उन सभी के बारे में उन्होनें बहुत कुछ लिखा है। मैं कुछ आपको बताऊँ अभी इसमें से?

आचार्य: बताइए।

प्र: मैं जब पढ़ रहा था तो सबसे पहले यहाँ पर ओशो का नाम आया था और उनके बारे में सबसे प्रचलित बात जो रहती है हमेशा, वो सीधे कह दिया जाता है कि ओशो इज सेक्स गुरु। तो वो बात उन्होंने यहाँ पर ख़ुद भी लिखी। और मैं देख रहा था कि बीच में उन्होंने ये भी लिखा था कि ओशो ने जैसे कई बार ये कहा है कि वो एनलाइटेन्ड (प्रबुद्ध) हैं। तो ये एक बिहाइंड द डोर, एक सीक्रेट (रहस्य) सा कुछ बताने की कोशिश कर रहे थे, तो बोलते हैं कि वो डेंटिस्ट के पास बैठे थे और वो वहाँ पर नाइट्रस ऑक्साइड जो गैस होती है उसको लेकर हाई एक्सपीरियंस लेने की कोशिश करते थे। तो उस हाई में एक बार वो बोलते हैं कि मुझे बहुत अच्छा लगता है जब मुझे एनलाइटेंड होने का एक्ट नहीं करना पड़ता। तो यह पढ़कर मुझे बहुत अजीब लगा कि कहीं-न-कहीं ऐसा लगता है कि दो पॉसिबिलिटीज (संभावना) हो सकती हैं। कोई व्यक्ति यदि कह रहा कि मैं एनलाइटेंनन्ड हूँ तो ऐसा हो सकता है उन्हें सच में ऐसा लगता है कि वो हैं और दूसरा यह हो सकता है उन्हें पता है कि वो नहीं हैं पर वो जान-बूझकर बोल रहे हैं।

आचार्य मैं फिर उसी बात पर वापस आऊँगा, जब मैं तुमको दुनियाभर के आर्टिकल्स पढ़ने को देता था, लेक्चर्स सुनने को देता था, उसमें ओशो के भी होते थे, तुमने उनको जितना भी पढ़ा या सुना, उससे तुम्हें कुछ फ़ायदा हुआ कि नहीं हुआ?

प्र: बिलकुल फ़ायदा हुआ।

आचार्य: अगर फ़ायदा हुआ तो तुम ओशो की सुनोगे या ओशो के बारे में किसी और की सुनोगे?

प्र: ओशो को।

आचार्य: ओशो जो बोल रहे हैं उससे तुम्हें फ़ायदा हुआ, माने वो जो बोल रहे थे वो तुम्हारे फ़ायदे के लिए बोल रहे थे। तो ये बात अगर तुम्हारे फ़ायदे की होती कि वो तुम्हें अपने नाइट्रस ऑक्साइड या बाक़ी चीज़ों के बारे में बताना ज़रूरी समझते तो उन्होंने बता दिया होता न।

बात समझो! अगर वो तुम्हारे फ़ायदे के लिए बोल रहे हैं और तुम्हारा फ़ायदा इसी में होता कि तुम्हें पता चले कि वो सेक्स गुरु थे कि नहीं थे, वो ख़ुद नाइट्रस ऑक्साइड का नशा करते थे कि नहीं करते थे, तो उन्होंने ख़ुद ही तुमको बता दिया होता कि मैं बता देता हूँ इससे तुम्हें फ़ायदा हो जाएगा।

अब एक ओर तुम कह रहे हो कि तुम उनकी बातों को सुन रहे हो और उनके लिखे को पढ़ रहे हो, उनकी किताबों को, उससे तुम्हें फ़ायदा हो रहा है। दूसरी ओर कोई व्यक्ति है जो आ करके उनके बारे में गौसिप कर रहा है। तुम्हें उस पर कितना ध्यान देना है, और क्यों विश्वास करना है? वजह क्या है?

क्योंकि तुम्हे अपनी ज़िंदगी जीनी है, तुम्हें ख़ुद बेहतर होना है। और तुम्हारे सामने उनकी किताबों में जो लिखा जा रहा है, जो बात वो तुमसे कह रहे हैं, ये नहीं कह रहे कि इस बात को आँख मूँद कर मान लो। वो तुम्हारे सामने जीवन के बारे में, मन के बारे में कुछ बातें रख रहे हैं जिस पर कह रहे हैं विचार करो। तो तुम उन बातों पर विचार करो न, क्योंकि उन बातों से तुम्हारी ज़िंदगी बेहतर होगी। उन बातों में तुम्हें कोई ग़लती लगती है तो उन बातों को अस्वीकार कर दो।

लेकिन जिसने वो बात कही है उसकी ज़िंदगी में घुसना और वहाँ से कुछ ऐसे तथ्य या अफ़वाहें ‌उठाना जिनका कोई प्रामाणिक आधार नहीं है, इससे तुम्हें क्या लाभ हो रहा है? सवाल यह है।

प्र: सर, लेकिन होता क्या है न कि जैसे अभी तो मैंने किताब का उदाहरण लिया। पर सिर्फ़ किताब नहीं होती, वीडियो बन जाते हैं, डॉक्यूमेंटरी (किसी विषय से सम्बन्धित एक फ़िल्म) बन जाती है। उसमें बढ़िया नैरेशन आ जाता है।

आचार्य: हाँ, बिलकुल पूरी डॉक्यूमेंट्री थी।

प्र: अब वो सब देखकर ऐसा लगता है कि शायद उन बातों में कुछ तथ्य भी होगा तभी लोगों ने इतनी मेहनत करी होगी बनाने में।

आचार्य नहीं, तो तुम्हारे पास उस डॉक्यूमेंट्री के अलावा, उनके (जिनके ऊपर डॉक्यूमेंट्री बनी है) सैकड़ों-हज़ारों वीडियोज होंगे जिसमें उन्होंने बात करी है। वो सब भी तो है न। तुम्हारा मन डॉक्यूमेंट्री की ओर क्यों भाग रहा है? पहला सवाल ये है कि तुम्हें उनकी बात से कुछ फ़ायदा हुआ है या नहीं हुआ है।

प्र: फ़ायदा तो बिलकुल हुआ है।

आचार्य: दूसरी बात, क्या तुम उनके समकालीन हो? क्या तुम उनके साथ रहते थे? क्या तुम उनकी निजी ज़िंदगी को समझते हो?

प्र: यह तो नहीं कह सकता, लेकिन ऐसा भी हुआ कि उनके साथ के जो रहनेवाले लोग थे वो भी कुछ कहते हैं।

आचार्य क्या तुम जानते हो कि उनके साथ रहने वाले लोग किस श्रेणी के थे, किस कोटि के थे और उन्हें ओशो ने अपने साथ रखा ही क्यों था? जब तुम्हें कुछ नहीं पता तो कोई निष्कर्ष क्यों निकाल रहे हो?

हो भी सकता है कि वो नाइट्रस ऑक्साइड का नशा करते हों, हो सकता है, ठीक है। वो किस कारण से करते थे, तुम्हें कैसे पता? और अगर उनके पास इतनी चेतना थी, इतना बोध था कि वो तुमको ऐसी चीज़ें दे गये हैं जो तुम्हारे काम आ रही हैं तो उतनी चेतना उन्होंने अपनी ज़िंदगी में भी तो लगायी होगी न।

और भूलो नहीं, हमारा काम किसी भी गुरु को डिफेंड (बचाव) करना नहीं है, हमारा काम अपना हित देखना है। गुरु से तुम्हारा जो रिश्ता होता है वो ये तो होता नहीं है कि तुम जा करके उसके चरणों में पड़ जाओ। अगर ऐसा रिश्ता है तो यह बहुत ग़लत रिश्ता है। तुम्हें ये थोड़ी करना है कि उसकी अंधपूजा, अंधभक्ति शुरू कर दो। तुम्हारा काम होता है लगातार अपने हित पर नज़र रखना। मुझे क्या मिल रहा है? मेरा मन साफ़ हो रहा है? मेरे विचारों में स्पष्टता आ रही है? मैं ध्यान में शांति से बैठ पा रहा हूँ? जो उल्टी-पुल्टी चीज़ें मन में चलती रहती थीं, वो थोड़ा अब ठंडी पड़ रही हैं? तुम्हें अपनेआप को देखना होता है न।

इससे ये भी तुम्हें समझ में आएगा कि हम अपनेआप को देखने की जगह, उसको (गुरु को) ज़्यादा देखना क्यों शुरू कर देते हैं। क्योंकि वो बोल ही यही रहा है कि अपनेआप को देखो और अपनेआप को न देखने का यह कारगर तरीक़ा बन जाता है कि हम अपनेआप को नहीं देखेंगे, हम तुम्हें देखेंगे। उसकी सीख सारी यह है कि बेटा अपनेआप को देखो और आप अपनेआप को देखने की जगह उसको देखना शुरू कर देते हो। और जब अभी आपकी नज़र इतनी साफ़ नहीं है कि आप अपनेआप को ही देख पाओ सफ़ाई से, तो आपकी नज़र इतनी साफ़ कैसे हो गयी कि आप गुरु को देख पाओगे सफ़ाई से?

आपकी नज़र में अगर सफ़ाई होती तो उसी साफ़ नज़र का इस्तेमाल करके सबसे पहले आपने अपनेआप को न देख लिया होता? पर हमें अपना तो कुछ पता नहीं, हम ख़ुद को कभी माप नहीं पाये कि हम कितने पानी में हैं। लेकिन हम अपनी इसी धुंधली नज़र का इस्तेमाल करके वो जो सामने गुरु बैठा है उसको नापने की पूरी कोशिश कर लेते हैं।

मैं यह बिलकुल नहीं कहना चाह रहा कि जितने गुरु हुए हैं या जितने लोग अपनेआप को गुरु बोलते हैं वो सब-के-सब आसमानों के स्तर के हैं। मैं बिलकुल नहीं कह रहा कि ये सारे गुरु महान होते हैं, भगवान होते हैं, एकदम नहीं हैं। ऐसा न मैंने कभी कहा है, न कहूँगा, न मैं ऐसा मानता हूँ। बल्कि बहुत हद तक तो मेरा काम रहा है गुरुओं को आसमान से खींच कर ज़रा नीचे उतारना। लेकिन मैं तुमसे ये पूछ रहा हूँ, अभी मैं गुरुदेव से तो बात कर नहीं रहा, जो भी लोग गुरुदेव रहे होंगे, अभी मैं तुमसे बात कर रहा हूँ।

मैं कह रहा हूँ कि जब तुम अपने ही कर्मों का स्रोत नहीं पकड़ पाते हो, या पकड़ पाते हो? तुम कुछ करते हो, तुम्हें साफ़-साफ़ पता होता है कि तुमने क्यों किया? नहीं पता होता न। तो तुम्हें कैसे पता कि वो जो व्यक्ति है उसने जो किया, उसने क्यों किया? तुम्हें कैसे पता? ये वाजिब सवाल है कि नही है?

प्र: बिलकुल है।

आचार्य: मुझे यह तो पता नहीं है कि मैं किसी की ओर आकर्षित क्यों हो रहा हूँ। मुझे यह पता नहीं है मैं किसी पर क्रोधित क्यों हो रहा हूँ। मेरे सारे कर्म कहाँ से आ रहे हैं, मुझे कुछ पता नहीं है। लेकिन मैं सामने वाले का कोई कर्म देखूँगा, उस कर्म की भी कहीं से बस एक झलक मिल जाएगी या अफ़वाह मिल जाएगी या किसी ने कुछ काना-फूसी कर दी, वो मुझे पता चल जाएगा। तो मैंने उसका एक कर्म देख लिया। मुझे कैसे पता वो कर्म कहाँ से आ रहा है, किस बिंदु से आ रहा है? वो कर्म क्यों कर रहा है, मुझे कैसे पता?

लेकिन मैं ऐसा अभिनय करूँगा, मैं ऐसा दिखाऊँगा जैसे मुझे उसके बारे में सब पता है। ऐसा क्यों दिखाऊँगा, ताकि मुझे अपनी ओर देखने के झंझट से राहत मिल जाए। यह समझ में आ रही है बात?

प्र: जी। ठीक है, मैं इस विषय में समझ रहा हूँ थोड़ा-बहुत।

अब यहाँ पर मैं अगर और आपको बताऊँ थोड़ा तो कृष्णमूर्ति साहब के बारे में भी बहुत कुछ लिखा हुआ था। और जब मुझे लगा कि नहीं ऐसे किसी ने अफ़वाह उड़ा दी है, तो मैंने उन स्रोतों के पास जाकर देखा जो कि अपनेआप में बायोग्राफीज (जीवनी) थीं जो किसी और ने उनके बारे में लिखी है।

तो वहाँ उन्होंने ज़िक्र किया है कि कृष्णमूर्ति साहब का एक उनकी मित्र थी जिनसे उनका लगभग बीस-पचीस साल के आसपास एक सम्बन्ध रहा होगा। और उसकी वज़ह उन्होंने ये बतायी कि कृष्णमूर्ति साहब को ऐसा लगता था कि वो उनकी मदर का रीइनकारनेशन है, उनका पुनर्जन्म है, इसलिए उनके साथ थे। और फिर जब मुझे लगा कि ये बात ऐसे ही फ़ालतू लिखी हुई है तो जाकर मैंने देखा कि इसका स्रोत क्या है। तो पता चलता है कि जिस महिला की बात हो रही है उन्हीं की जो बेटी थी उसने एक किताब लिखी थी उनके देहांत के बाद।

आचार्य: किसके देहांत के बाद?

प्र: कृष्णमूर्ति साहब के। और उसमें उसने ये सब बातें बतायी हैं, कि किस तरह कृष्णमूर्ति साहब का और उसके मदर का एक सम्बन्ध रहा।

आचार्य सेक्सुअल रिलेशन (लैंगिक सम्बन्ध) रहा था?

प्र: हाँ।

आचार्य: और कहा यह जाता है कि उसी सम्बन्ध से बेटी पैदा हुई थी।

प्र: हाँ, जो उन्होंने (लेखक ने) वहाँ पर दावा किया था।

आचार्य: लोगों का यह दावा रहता है, शायद उन्होंने (लेखक ने) ख़ुद भी यही दावा कर दिया। तो इसमें समस्या क्या हो गयी?

प्र: नहीं, मैं यह देख रहा था कि कृष्णमूर्ति साहब को जब भी मैं सुनता था, उनकी किताबें वग़ैरा पढ़ता था तो वहाँ पर मन में कभी ऐसी छवि बनती नहीं थी कि उनकी निजी ज़िंदगी कुछ ऐसी होगी।

आचार्य तो उन्होंने ठेका थोड़ी ले रखा है कि तुमने जैसे उनकी छवि बना रखी है वो उस अनुसार जिंदगी जियें। कृष्णमूर्ति हैं, पुरुष हैं, हो सकता है कि किसी महिला से उनका सम्बन्ध रहा हो। और समस्या लोगों को ये भी आती है कि वो महिला विवाहित थी पहले से। समस्या लोगों को ये भी आती है कि वो जो महिला थी वो कृष्णमूर्ति के ही एक मित्र की पत्नी थी। लोगों को समस्या यह आती है कि अरे एक विवाहित महिला से कैसे उन्होंने सम्बन्ध बनाया।

अब चूँकि कृष्णमूर्ति अध्यात्म की बातें करते हैं तो उनको शारीरिक रूप से ब्रह्मचारी होना चाहिए। क्योंकि लोगों को एक ही ब्रह्मचर्य पता है, कि सेक्स न करो, इसको ब्रह्मचर्य बोलते हैं। तो लोगों के मन में छवि आती है कि अरे उन्होंने कैसे शारीरिक सम्बन्ध बना लिया, फिर बेटी भी पैदा हो गयी। अब इस बात का कोई प्रमाण वग़ैरा नहीं है, बिलकुल हो सकता है बात पूरी तरह झूठ भी हो। पर अगर ये बात सच भी है तो तुम इतने परेशान क्यों हो रहे हो?

प्र: मतलब कुछ होता है कि कहीं-न-कहीं आप जब किसी व्यक्ति को सुनते हैं और लगातार सुनते रहते हैं तो वो जो बोल रहे हैं वो तो एक तरफ़ होता ही है, पर साथ में मन अपना एक ख़ाका खींचने लग जाता है कि वो इस तरह के होंगे।

आचार्य तो वो तुम्हारी समस्या है न कि तुम्हारा मन वैसा ख़ाका खींच रहा है। कृष्णमूर्ति ने कब कहा कि सेक्स बड़ी गन्दी चीज़ है, नहीं करना चाहिए?

प्र: ये तो कभी कहा ही नहीं उन्होंने।

आचार्य: कृष्णमूर्ति ने कब कहा कि तुम्हारे सेक्सुअल सम्बन्ध से बेटी नहीं पैदा होनी चाहिए या बेटा नहीं पैदा होना चाहिए, उन्होंने कब कहा?

प्र: पर कहीं-न-कहीं मन में वो छवि बैठी रहती है न अध्यात्म की, तो उसमें ये सब जो नैतिकता की बातें होती हैं वो भी कहीं-न-कहीं घुसी होती हैं कि ऐसा-ऐसा है।

आचार्य तुम्हें कैसे पता कृष्णमूर्ति जो कर रहे हैं वो अनैतिक है?

प्र: क्योंकि जो पैमाना एक तरह से मिला है।

आचार्य: तुम्हारी कंडीशनिंग (संस्कार) है तुम्हारा पैमाना। और वो यही कंडीशनिंग तो तोड़ने की शिक्षा दे रहे हैं। तुम अपनी कंडीशनिंग तोड़ने की जगह अपनी कंडीशनिंग उनके ऊपर भी लगा रहे हो।

प्र: अब शायद एक ऐसा चश्मा ही है कि उसके साथ ही मैं शायद उनको भी देख रहा हूँ। उस वक़्त फिर समझ नहीं आता कि वो जो सिखा रहे थे उसमें खोट तो नहीं था कहीं।

आचार्य समस्या यह नहीं है। मैं थोड़ा बता दूँ समस्या क्या है? समस्या यह है कि वो जो सिखा रहे हैं न, हमें उससे बचना होता है। कैसे बचें? अगर यह मान लोगे कि जो कुछ सिखाया जा रहा है बिलकुल ठीक है तो अहंकार टूटता है। अहंकार टूटना नहीं चाहता, तो अहंकार अब खोट निकालना चाहता है। खोट टीचिंग (सीख) में तो पता ही नहीं चल रही क्योंकि जो बात वो कह रहे हैं वो इतनी सही है, इतनी साफ़ है और इतनी सरल है कि आप उसके ख़िलाफ़ कोई तर्क कर ही नहीं सकते। लेकिन आपको बचना तो है ही।

एक इंसान है उसने आपको कुछ बातें बतायी और वो बातें बड़ी ज़बरदस्त हैं और सीधी हैं, सरल हैं, सटीक हैं, साफ हैं। आप उन बातों से बच ही नहीं सकते, आप कोई तर्क नहीं दे सकते कि ये बात ग़लत है। लेकिन आपको उन बातों से बचना है, तो आप क्या साज़िश करोगे भीतर-भीतर? आप कहोगे अच्छा बातें ठीक होंगी, इंसान तो ख़राब है न, चलो उस इंसान में खोट निकालते हैं।

जब आप किसी व्यक्ति के दर्शन में खोट नहीं निकाल पाते, जब आप किसी व्यक्ति की शिक्षा में खोट नहीं निकाल पाते, तो फिर आप एक षड्यंत्र करते हो। आप कहते हो चलो उस व्यक्ति के जीवन में खोट निकालते हैं। ये उसके जीवन में तुम खोट नहीं निकाल रहे, तुम अपनी खोट को बचाने की साज़िश कर रहे हो।

कृष्णमूर्ति को जो अच्छे तरीक़े से समझ ले, क्या उसका जीवन परिवर्तित नहीं हो जाएगा? लेकिन कितने लोगों का जीवन परिवर्तित हो गया कृष्णमूर्ति को सुनकर? नहीं हुआ। तो कोई हमारे भीतर बैठा है न जो उनको रेजिस्ट (विरोध) करता है। और चाहे कृष्ण मूर्ति हों, बुद्ध हों, कृष्ण हों, अष्टावक्र हों, कबीर हों, कोई हों; अगर कोई उनको सुन ले ठीक से तो उसकी ज़िंदगी एकदम बदल जाएगी न। लेकिन उनकी बातें कब से मौजूद हैं और लोगों का अंधेरा और अज्ञान भी बना आ रहा है, चला आ रहा है। ऐसा कैसे हो पाता है? इसका मतलब यही है कि हम उनकी बातों का, उनकी शिक्षाओं का भीतर से बहुत विरोध करते हैं।

कैसे करते हैं विरोध? क्या बोलोगे? ये तो बोल ही नहीं पाओगे कि वो जो शिक्षा है वो गड़बड़ है, कि कृष्ण की गीता में कोई खोट है, यह तो बोल ही नही पाओगे। तो फिर तुम क्या साज़िश करोगे? तुम कहोगे, अरे! कृष्ण की बात क्यों सुननी है ये तो ख़ुद इतनी सारी गोपियों को लेकर घूमते थे, मैं नही सुनता इन्हें। ऐसा तर्क बहुत लोग देते हैं कृष्ण के ख़िलाफ़।

प्र: मैंने ख़ुद पढ़ा है कॉमेंट्स में।

आचार्य: तो कहते हैं कि कृष्ण की क्या बात सुननी है, इनका तो जब मन होता था उस हिसाब से अपनी पॉलिसी (नीति) बदल लेते थे। अर्जुन को बोल रहे हैं लड़ो और ख़ुद रण छोड़कर भाग गये थे, तो मैं कृष्ण की गीता को सम्मान नहीं देता।

बात बस इतनी है कि गीता से डरते हो आप और यही वज़ह है कि ज़्यादातर लोग गीता की अपेक्षा कृष्ण के रास को और गोपियों को और इन चीज़ों को ज़्यादा महत्व देते रहते हैं, उन्हीं की बात करते रहते हैं। उनसे जब भी पूछो, वो बार-बार कहेंगे गोपी, वृंदावन, गोपी-गोपी, यही करते रहेंगे वो। और गीता बोलो तो गीता से उनको कोई मतलब नहीं, क्योंकि गीता से डर लगता है, गीता आपको तोड़ देगी। हमें बचना है टूटने से।

ये जो अहंकार है न भीतर, ये बड़ी जिद्दी चीज़ होता है और बड़ा असुरक्षित होता है, बड़ी डरी हुई चीज़ होता है। तो ये लगातार कोशिश करता रहता है अपनेआप को बचाने की। जब सामने कोई आ जाता है जिससे बचना असंभव हो जाता है तो ये उस व्यक्ति पर फिर व्यक्तिगत आक्षेप करता है, पर्सनल अटैक करता है।

यही सब चीज़ें हैं जो उस किताब में लिखी हुई हैं और इसीलिए मैंने वो किताब तुम सब लोगों को दी थी ताकि तुमको पता रहे कि माया कैसी-कैसी चालें चलती है।

प्र: अब मैं इस बात को थोड़ा समझना चाहता हूँ, अभी मेरी अपनी ज़िंदगी से एक निकल कर आ रहा है कि मैंने विवेकानंद जी का बहुत साहित्य पढ़ा है, उनकी जो 'कम्पलीट वर्क्स' है वो ख़ूब पढ़ता था और 'कम्प्लीट वर्क्स' को पढ़ते-पढ़ते उसकी पाँचवी वॉलयूम (संस्करण) तक पहुँचा और वहाँ पर उनके लेटर्स थे, जो वो पत्र लिखा करते थे अमेरिका से अपने यहाँ पर शिष्यों को। तो वहाँ पर एक जगह पर बोलते हैं कि अमेरिका में जो महँगाई है वो बहुत ज़्यादा बढ़ गयी है और मेरे पास जो पैसे हैं उनकी कुछ कमी हो गयी है। और वो सबसे पहले उदाहरण देते हैं कि यहाँ पर सिगार भी इतनी महँगी आती है। तो मैं पढ़कर एकदम हैरानी में रह गया कि वो सिगार की बात क्यों कर रहे हैं।

तो फिर मैं ऐसे और थोड़ा आगे पढ़ रहा था, उनकी एक किताब थी 'टॉक्स विद स्वामी विवेकानंद' करके, जहाँ पर उनकी ही जो बातचीत है उनके शिष्यों से, वो लिखी हुई है। वहाँ पर फिर उसका ज़िक्र आता है एक बार कि स्वामी जी जो हैं वो सिगरेट पी रहे थे। अब ऐसा है नहीं कि मैं सिगरेट पिया नहीं या नहीं पीता। पर मैं देख रहा था भीतर-भीतर मुझे वो पढ़ कर बहुत बुरा लगा। मैं उनकी तीन वॉल्यूम बड़े चाव से पढ़ रहा था, मुझे बड़ा मजा आ रहा था कि क्या बात कही, वाह! क्या बात कही। और जब मैंने ये पढ़ा कि स्वामी जी ख़ुद सिगार पीते थे, सिगरेट पीते थे तो अंदर कुछ था जो एकदम हिल गया। तो ऐसा क्यों होता है?

आचार्य ज़िम्मेदारी आ जाती है न अपने ऊपर, ज़िम्मेदारी आ जाती है। तुम्हें दिख जाता है कि तुम उस शारीरिक या प्राकृतिक स्थिति से बहुत दूर के नहीं हो जिसके विवेकानंद थे। और फिर ज़िम्मेदारी आ जाती है कि अगर वैसी ही शारीरिक, प्राकृतिक स्थिति उनकी भी थी जैसी मेरी है तो मैं क्यों नहीं आज तक कम्प्लीट वर्क्स ऑफ उदित लिख पाया, मेरे क्यों नहीं छपे आज तक। मैं वो सारे बड़े, ऊँचे काम क्यों नहीं कर पाया जो विवेकानंद ने करे।

भई, आप बस यही तुलना करोगे क्या, जैसे लोग कहते हैं कि विवेकानंद भी सिगरेट पीते थे और मैं भी सिगरेट पीता हूँ तो अगर विवेकानंद महान है तो मैं भी महान हो गया। भाई, वो सिर्फ़ सिगरेट ही नहीं पीते थे, वो और भी बहुत कुछ करते थे। उनकी महानता इसलिए नहीं कही जाती कि वो सिगरेट पीते थे या माँस खा लेते थे। उनकी महानता इसलिए कही जाती है क्योंकि उन्होंने विश्वभर में वेदांत का प्रचार करा और वो प्रचार सचमुच करा।

वो प्रचार उन्होंने सचमुच करा, उन्होंने अमेरिका तक सनातन धर्म को पहुँचाया। और विवेकानंद ने अमेरिका न पहुँचाया होता सनातन धर्म को तो विवेकानंद के बाद ये जितनी सब संस्थाएँ जा करके अमेरिका में बैठी हुई हैं ये कभी नहीं पहुँच पातीं वहाँ पर, और इस बात का श्रेय ये लोग विवेकानंद को नहीं देते कभी। अभी तो पिछले सौ सालों में सब गुरु लोग और सारी संस्थाएँ अमेरिका ही जाकर बैठती हैं, वहाँ डॉलर बढ़िया है। लेकिन भारत के लिए अमेरिका के द्वार स्वामी विवेकानंद ने खोले थे, ये उनकी महानता है।

विश्व भर में उन्होंने वेदांत का, विशेषकर अद्वैत वेदांत का प्रचार किया। लोगों को बताया, समझाया। भारत के युवाओं में उन्होंने साहस, संकल्प का संचार किया। आपके ग्रंथों के बारे में बहुत सारी बातें आपको बिलकुल नहीं पता हैं, उन्होंने बहुत अच्छे साहित्य की रचना करी। उनकी किताबें हैं जो उन किताबों को पढ़ता है उसका दिमाग थोड़ा खुलता है। विवेकानंद इसलिए महान हैं।

विवेकानंद सिगरेट, सिगार पीने के कारण तो नहीं महान हो गये। विवेकानंद माँस-मच्छी के कारण भी नहीं महान हो गये। आप ऐसे कहोगे कि सिगरेट के बावजूद महान हैं वो, सिगरेट के बावजूद महान हैं वो। तो माने अपनी कमियों के बावजूद महान हुआ जा सकता है? हाँ, हुआ जा सकता है। तो तुम क्यों नहीं महान हो रहे? अब आ गयी न ज़िम्मेदारी अपने ऊपर, क्योंकि कमियाँ तुम्हारे भीतर भी हैं। और तुम कहते हो 'मैं महान कैसे हो जाऊँ, मैं कोई ऊँचा काम कैसे करूँ, मैं ज़िंदगी में कुछ बड़ा करके कैसे दिखाऊँ, मेरे भीतर तो कमियाँ हैं।' तो कमियाँ तो उनके भीतर भी थीं, पर उन्होंने इतना बड़ा काम पूरी दुनिया में करके दिखा दिया। तो तुम क्यों नहीं करके दिखा रहे? अब ये ज़िम्मेदारी तुरंत अपने ऊपर आ जाती है इसलिए फिर अपना दिल टूटता है, नहीं तो और क्यों दिल टूटेगा।

देखो, दिल टूटना माने अहंकार पर चोट लगना। अहंकार को तो जब भी चोट लगती है, स्वार्थवश ही लगती है। तो स्वामी जी के बारे में तुम कुछ बात पढ़ रहे हो और इससे तुम्हारा दिल टूट रहा है तो ज़रूर कहीं तुम्हारे ही स्वार्थ पर चोट आ रही होगी, ये नियम है। हमारा और किसी बात से कभी दिल नहीं टूटता। जिसका भी कभी ज़िंदगी में दिल टूटा है, जिसका भी आज तक कभी दिल टूटा है उसका दिल इसलिए टूटा है क्योंकि कहीं-न-कहीं उसके अपने स्वार्थ पर चोट पड़ी है।

तो हमारे स्वार्थ पर चोट पड़ती है। अहंकार चाहता है कोई ज़िम्मेदारी न मिले। आराम से चलते रहो और आराम के बहानें साबूत रहें, आराम के बहानें बचे रहें। और आराम का बहाना क्या होता है? मैं क्या करूँ, मैं तो अभी कमज़ोर हूँ। मैं क्या करूँ, मुझमें तो अभी त्रुटियाँ हैं। और जब महापुरुषों की कमज़ोरियाँ और त्रुटियाँ सामने आ जाती हैं तो अहंकार से उसका बहाना छिन जाता है। तुम्हें दिखायी देता है कि उनमें भी तो कमज़ोरियाँ और त्रुटियाँ थीं उसके बाद भी उन्होंने देखो क्या गज़ब करके दिखा दिया, तो मैं क्यों नहीं कर रहा फिर। ये अपमान की बात होती है न, जैसे तमाचा पड़ा हो मुँह पर।

उनकी त्रुटियों का उद्घाटन वास्तव में हमारे मुँह पर तमाचा है, कि वो आदमी था जिसने अपनी इन तथाकथित त्रुटियों के बावजूद इतना कुछ करके दिखा दिया, तो हम क्यों नहीं करके दिखा रहे। यह बात तो हमारे मुँह पर तमाचा है। और पूर्ण, परफेक्ट कोई होता नहीं, कोई नहीं होता।

देखो, इसी परफेक्शन की बात से याद आया, जो एक वैज्ञानिक और तार्किक मन होता है न, वो ये भी जानता है कि इंसान आया कहाँ से है। और जो अंधविश्वासी मन होता है वो बस कहानियों में विश्वास करता है जो बताती हैं कि इंसान आया कहाँ से है। जो तार्किक मन होता है, इस बात को समझना बहुत महत्वपूर्ण है, जो तार्किक मन होता है, जो जिज्ञासु मन होता है, जो सचमुच सच्चाई जानना चाहता है उसको अच्छे से पता है इंसान जंगल से आया है। इंसान जंगल से आया है और जंगल से आया है तो जंगल की सारी खोटें उसमें मौजूद हैं।

जानवरों को देखो, जानवरों में तुम क्या पाते हो? हर तरह के बंधन। जानवर अपने स्वार्थ पर चलता है, जानवर में अज्ञान होता है, जानवर में मोह होता है, जानवर हिंसा कर देता है, जानवर में करुणा वग़ैरा बहुत नहीं पायी जाती, जानवर को मुक्ति की कोई छटपटाहट नहीं होती। जानवर को अगर रोटी बढ़िया मिलती रहे तो कई बार वो बंधनों में भी संतुष्ट हो जाता है।

हम जंगल से आये हैं और जंगल की जितनी कमज़ोरियाँ हैं वो हममें मौजूद हैं। जब आप यहाँ से शुरुआत करते हो तो आप कहते हो कि कमज़ोरियाँ तो रहेंगी ही, वो तो प्राकृतिक सी बात है। हम जंगल से आ रहे हैं, कमज़ोरियाँ तो रहेंगी ही, इसमें कौनसा बड़ा गज़ब हो गया अगर पता चल गया कि किसी में ये प्रकृतिगत गुण-दोष हैं। वो तो रहेंगे ही, क्योंकि अभी बस दो पल पहले हम बंदर-भालू थे। जितना पूरा इतिहास है जीवन का कई ट्रिलियन बरसों का, उसकी तुलना में मनुष्य का अस्तित्व एक पल का भी नहीं है, मनुष्य का अस्तित्व एक पल का भी नहीं है। तो हम अभी एक पल पहले ही तो जंगल से निकल कर आये हैं। तो जंगल की सारी कमज़ोरियाँ हमारे भीतर मौजूद हैं। तो किसी में अगर कमज़ोरियाँ दिख रही हैं तो इसमें इतना अचरज क्यों दर्शा रहे हो, कौनसी बड़ी बात हो गयी?

लेकिन जो अंधविश्वासी मन होता है वो बोलता है, हम जंगल से नहीं आये हैं, हम ईश्वर से आये हैं, हम गाॅड से आये हैं, क्योंकि हमारी किताबों में ऐसा लिखा है न कि गॉड ने आदमी को बनाया। और ये तक लिखा हुआ है कि गाॅड मेड मैन इन हिज ओन इमेज (परमेश्वर ने मनुष्यों को अपनी छवि में बनाया)। तो चूँकि हम ईश्वर से आये हैं और ईश्वर परफेक्ट है तो हमें भी परफेक्ट होना चाहिए। जब तुम मान के चलते हो कि तुम्हें परफेक्ट होना चाहिए, जब ऐसा तुम्हारा असंपशन, ऐसी तुम्हारी धारणा होती है कि तुम्हें परफेक्ट होना चाहिए तो फिर जैसे ही अपनी खोट दिख जाती हैं कोई तो दिल टूटता है, 'अरे, अरे! मैं परफेक्ट क्यों नहीं हूँ।' तुम परफेक्ट हो कहाँ से जाओगे! तुम ईश्वर से नहीं आये हो, तुम बंदर से आये हो। और बंदर से आये हो तो तुममें बंदरों वाली सारी खोटें मौजूद हैं। अब जिस आदमी में वो कम है खोटें, उसको क्रेडिट दो, उसको श्रेय दो।

जब तुम मानोगे कि तुम जंगल से आये हो, तो जिसमें तुमको तुलनात्मक रूप से, रिलेटिवली कम खोट दिखायी देगी, तुम कहोगे, 'ये बंदा महान है, ये बंदा महान है।' और अगर तुम इसी अंधविश्वास में रहोगे कि हम तो बैठे हुए थे, फिर मिट्टी लेकर हमारी रचना कर दी है किसी गॉड ने, तो फिर तुम्हें किसी इंसान में अगर एक भी खोट दिखायी दे जाएगी तो तुम कह दोगे यह शैतान है। क्योंकि ये तो आ रहा है वहाँ से, सीधे स्वर्ग से उतरा है और स्वर्ग से उतरने के बाद इसमें खोट कहाँ से आ गयी, तो ये शैतान है।

विनम्रता का क्या मतलब होता है? विनम्रता का मतलब होता है अपनी हक़ीक़त का पता होना। यह पता होना कि ये जो शरीर है यह तो है ही विकारों का — विकार माने दोष, ग़लती, कमी — तो यह जो शरीर है यह तो विकारों का पुतला है ही। अब हर आदमी में सौ विकार होते हैं, किसी ने अपने विकार साफ़ किये, किये, किये — और यही शिक्षा का मतलब होता है। मनुष्य जन्म पूरा इसीलिए होता है कि अपने विकारों को हटाते चलो, और जन्म का उद्देश्य क्या है? यही है न कि तुम्हारे भीतर जो कमियाँ, कमज़ोरियाँ हैं उनको साफ़ करते चलो।

आम आदमी बहुत साफ़ नहीं करता। तो आम आदमी अगर सौ विकार लेकर पैदा होता है और वो सब शरीर में ही हैं उसकी वृत्तियाँ, टेंडेंसीज। ये बच्चे में जन्म के समय ही पैदा होती हैं। आम आदमी में अगर सौ विकार होते हैं तो उसकी मौत के वक़्त भी चालीस बचे होते हैं। और ऐसा और हो जाता है कि सौ विकार लेकर पैदा हुआ था और मौत के वक़्त तीन सौ विकार थे। अब ऐसे में तुम्हें कोई अगर मिल गया है जिसमें तुम्हें कुल मिलाकर तीन विकार दिख रहे हैं तो तुम्हें उसे गाली देनी है या उसकी पूजा करनी है?

हम सौ विकार लेकर पैदा होते हैं, ठीक है? और जो लोग अपनेआप को बेहतर बनाना चाहते हैं, जो लोग एक सार्थक ज़िंदगी जीना चाहते हैं वो भी मरते-मरते भी पाते हैं कि अभी चालीस विकार उनमें शेष हैं। और जो लोग एकदम साधारण ज़िंदगी जीते हैं वो अगर सौ दोष लेकर पैदा होते हैं तो तीन सौ दोष लेकर मरते हैं, ये साधारण ज़िंदगी होती है। अब ऐसे में तुम्हें कोई मिल गया जिसमें तीन दोष हैं और वो तीन दोष तुम्हारे सामने आ गये, मान लो प्रमाण के साथ सामने आ गये कि हाँ साहब इसमें भी तीन दोष हैं। जिसमें ये तीन दोष हैं, बताओ उसको जूता मारना है या उसकी पूजा करनी है

प्र: पूजा करनी है।

आचार्य: तो क्यों जूता मार रहे हो?

प्र: इसमें अभी तक जो पूरी बातचीत हुई है, वो हमने बहुत छोटी-मोटी बातों पर करी है। हमने सिगरेट की बात कर ली या माँस की बात कर ली, इस चीज़ की बात कर ली। कई बार ऐसा भी देखा गया है कि जो लोग अपनेआप को गुरु कहते हैं, बड़े-बड़े आश्रम चलाते हैं, उनके ऊपर रेप तक के अपराधों के आरोप लगते हैं और वो सिद्ध भी हो जाते हैं कोर्ट में। तो उनको नज़र-अंदाज़ कर सकते हैं?

आचार्य नहीं, उसको नज़र-अंदाज़ नहीं कर सकते हैं, क्योंकि यहाँ पर बात अब कोर टीचिंग (केंद्रीय शिक्षा) की आ जाती है। अध्यात्म में करुणा, अहिंसा बहुत केंद्रीय बात होती है। कहीं तुम्हें नहीं पता चलेगा कि अध्यात्म की केंद्रीय बातों में यह भी शामिल है कि अमेरिका जाओ तो सिगार न पियो, ये तुम्हें कहीं नहीं मिलेगा। लेकिन ये तुमको जगह-जगह मिल जाएगा कि ये बहुत केंद्रीय बात है कि दूसरे पर हिंसा नहीं करो, दूसरे के प्रति करुणा रखो, बलात्कार नहीं करो — बलात्कार की बात नहीं लिखी होगी, यह लिखा होगा 'इन्द्रिय संयम' — ये तो तुम्हें मिल जाएगा न। तो अगर इन केंद्रीय बातों का ही उल्लंघन होता है तो उसको सज़ा मिलनी भी चाहिए, उसमें क्या है, बिलकुल ठीक बात है वो।

देखो, इस पूरी चर्चा का ये उद्देश्य कहीं से नहीं है कि ये सब जो सब लोग गुरु वग़ैरा घूमते रहते हैं हमें उन्हें डिफेंड करना है और उनकी सब जो उल्टी-पुल्टी बातें हैं, हमें उनको जायज़ ठहराना है। हम ये बातचीत इसलिए नहीं कर रहे हैं। मैंने तुमको सड़क चलते गुरुओं की शिक्षाएँ पढ़ने को नहीं दी थी, जब तुम मेरे पास आये थे। मैंने तुम्हें पूरे विश्व का और पूरे इतिहास का जो सर्वोच्च आध्यात्मिक साहित्य है, वो पढ़ने को दिया था, ठीक है? तो पहली बात, हम बहुत ख़ास लोगों की बात कर रहे हैं यहाँ पर। गुरु तो अपनेआप को लाखों लोग बोलते होंगे, उनकी पैरवी करने में हमारी कोई रुचि नहीं है। मैंने तुमको उन ख़ास लोगों का साहित्य पढ़ने को दिया था और फिर मैंने तुमको वो किताब भी दी थी 'स्ट्रिपिंग द गुरुज' ताकि तुम्हें पता रहे कि जो ऊँचे-से-ऊँचा है, उसमें भी कहीं-न-कहीं कोई मानवीय त्रुटि होती ज़रूर है, नहीं तो वो मानव ही नहीं है।

जो त्रुटियों से पूरी तरह मुक्त हो गया, वो फिर मानव नहीं है। अगर ज़िंदा हो अभी, अगर देह बाक़ी है अभी, तो माया बाक़ी है अभी। इसलिए ये जो एनलाइटेनमेंट शब्द है, मैं बार-बार कहता हूँ कि ये मिथ्या शब्द है। जिस दिन तक देह है, जिस दिन तक बॉडी है उस दिन तक बॉडिली टेंडेंसीज (शारीरिक वृत्तियाँ) हैं। ये तो हो सकता है कि आपने बहुत अपने ऊपर विजय पा ली हो, पर यह नहीं हो सकता कि हार का ख़तरा पूरी तरह टल गया है।

और जो आपकी दुश्मन है, जो आप ही के भीतर आपके शरीर में बैठी हुई है, वो लगातार आक्रमण करती रहती है, लगातार, प्रतिपल। तो जब वो दस हज़ार बार दिन में हमला करेगी तो एक-दो बार तो जीतेगी भी न। जो भीतर बैठी हुई है, वो लगातार हमला करती है। और जब वो दस हज़ार बार हमला करेगी तो एक-दो बार तो जीतेगी भी न। तो आपको यही बताने के लिए दिया था कि इस कॉन्सेप्ट से पूरी तरह से मुक्त हो जाओ कि देयर इज समथिंग कॉल्ड परफेक्ट एनलाइटेनमेंट ऑर परफेक्शन व्हाइल इन द ह्यूमन बॉडी (मानव शरीर में रहते हुए पूर्ण आत्मज्ञान या पूर्णता नाम की कोई चीज़ होती है)।

प्र: इसलिए प्रतिपल साधना में रहना होता है।

आचार्य: और इसीलिए मैं लगातार तुम लोगों को सिखाता गया कि प्रतिपल सजग रहो, माया का हमला कभी भी हो सकता है। वो किसी को नहीं छोड़ती। "माया महा ठगनी हम जानी"। कौन उससे बचा है? बड़े-बड़े नहीं बचे। और बड़े-बड़े नहीं बचे, इसलिए मैंने तुमको ये किताब दे दी कि देख लो। कुछ पता नहीं कि उस किताब में सच लिखा है या झूठ लिखा है, हम नहीं जानते। पर हो सकता है जो लिखा हो उसमें कुछ एक प्रतिशत, दस प्रतिशत सच भी हो, तथ्यात्मक भी हो। देख लो माया सबको ठगती है, तो लापरवाह मत हो जाना। सदा सजग रहना, कांस्टेंट रिमेम्बरेंस एंड कांस्टेंट अटेंशन, कांस्टेंट विजिलेंस (सतत स्मरण, सतत ध्यान और सतत जागरण), इसलिए वह किताब तुमको दिया था।

प्र: लेकिन सर, जिस गुरु पर रेप का आरोप लगा है कुछ लोग यह कह सकते हैं कि उस गुरु से उनको लाभ हुआ है। तो वो बात किस हद तक सही है?

आचार्य: जिस हद तक तुम्हें किसी ऐसे से लाभ हुआ है, उसको क्रेडिट (श्रेय) दो कि लाभ हुआ है। लाभ हुआ है तो लाभ का क्रेडिट दो। और अगर उसने रेप करा है तो कानून अपना काम करेगा। जो उसने अच्छा करा है इसका उसको क्रेडिट मिलना चाहिए और जो उसने बुरा करा है उसकी उसको सज़ा मिलनी चाहिए, दोनों काम हो जाएँगे।

अब देखो कितने वैज्ञानिक हुए हैं जो अपनी निजी ज़िंदगी में कोई बहुत अच्छे इंसान नहीं थे। लेकिन उन्होंने जो हमको आविष्कार दिये, हम उनका इस्तेमाल करते हैं। या हम ये कह देते हैं कि गंदे लोग थे तो इसीलिए हमें जो चीज़ दिये वो चीज़ भी गन्दी हो गयी? नहीं, हम उस चीज़ का इस्तेमाल करते हैं, हम उस चीज़ की सराहना करते हैं। मैं सेवन्थ में था, आईसीएसई बोर्ड में, तो हमें लगती थी 'सिक्सटीन टेल्स फ्रॉम शेक्सपियर' जो चार्ल्स एंड मेरी लैम की थी। तो अभी मैं किसी को सलाह दे रहा था शेक्सपियर पढ़ने की तो उसमें मुझे यह किताब याद आ गयी। तो मैंने ऐसे ही मैरी लैम के बारे में, चार्ल्स के बारे में थोड़ा सर्च करा तो मुझे पता चला कि मैरी लैम मानसिक रूप से विक्षिप्त हो गयी थीं और उन्होंने अपनी माँ की हत्या कर दी थी। अपनी ही माँ की हत्या कर दी थी। लेकिन उससे उन्होंने जो मुझे दिया वो तो कम नहीं हो जाता न। उन्होंने मुझे एक किताब दी जिससे मेरा शेक्सपियर से परिचय हुआ, जिससे मेरी अंग्रेजी भाषा पर पकड़ मज़बूत हुई। तो जो उन्होंने अच्छा करा, उसको अच्छा मानो और जो उन्होंने बुरा करा, उसकी उनको फिर सज़ा भी मिलेगी। दोनों बातें अपनी जगह हैं, बिलकुल साफ़ रहे हिसाब।

यह नहीं होना चाहिए कि वो मेरा गुरु है तो कुछ ग़लत कर ही नहीं सकता और अगर गुरु को कानून पकड़ कर ले जाएगा तो हम दुनिया में आग लगा देंगे। भारत में हमने ऐसा देखा है, वो मेरा गुरु है इसलिए वो परमात्मा स्वरूप है और अगर कानून या पुलिस मेरे गुरु की तरफ़ आएँगे तो हम पूरी दुनिया में आग लगा देंगे। ये कौनसी बात है! और दूसरी तरफ़ ये होता है कि उससे आपको बहुत-बहुत लाभ हुआ था, पर पता चला कि उसने कोई अपराध कर रखा है तो आपने कहा नहीं-नहीं इससे मुझे कोई लाभ नहीं हुआ था। ये भी कहाँ का इंसाफ़ है! जिस हद तक लाभ हुआ है, लाभ मानो और अगर उसकी कहीं ग़लती है तो कह दो ग़लती है। ग़लती है तो सज़ा मिल तो रही है।

प्र: सर, जैसे शुरुआत से आप एक बात को कह रहे हैं बार-बार कि कोई भी व्यक्ति है तो उसमें कमियाँ होंगे ही। जैसा आपने कहा कि हर व्यक्ति सौ कमियों के साथ पैदा होता है। तो अगर किसी व्यक्ति के अन्दर तीन ही कमियाँ हैं तो इस बात पर उसकी थोड़ी सराहना की जानी चाहिए। पर क्या हम यह कहना चाह रहे हैं कि वो तीन ग़लतियाँ माफ़ हैं, वो ठीक हैं?

आचार्य नहीं, माफ़ नहीं है। हम फिर ये देखेंगे कि वो उन तीन ग़लतियों को भी या जो भी प्राकृतिक और सामाजिक गुण-दोष हैं, उनको भी वो हटाने की कोशिश कर रहा है या नहीं कर रहा है। उनको भी पकड़ कर नहीं बैठना होता है, उनसे भी जूझना होता है।

उदाहरण के लिए, हम स्वामी विवेकानंद की जब बात करते हैं और उनको लेकर बड़े विवाद चलते रहते हैं कि उन्होंने ये कर दिया, माँस खा लिया, सिगरेट पी ली, ये सब चलता रहता है। उन्होंने ख़ुद स्वीकार करना शुरू कर दिया था कि माँस खाना ठीक नहीं है। और जहाँ तक संभव है वो अपने अंत समय तक आते-आते माँस खाना छोड़ भी रहे थे। और बहुत कम उनकी अवस्था थी, चालीस के भी नहीं थे जब चले गये। अगर वो और जीते तो निश्चित रूप से वो माँसाहार का पूर्ण त्याग कर ही देते।

हम अभी भी नहीं जानते है कि वो सचमुच माँस कितना लेते थे, क्योंकि व्यक्ति की पूरी एक ज़िंदगी की यात्रा होती है न। वह बीस की उम्र में क्या कर रहा है, तीस की उम्र में क्या कर रहा और चालीस की उम्र में क्या कर रहा है, इसमें बहुत अंतर हो सकता है। लेकिन यह निश्चित है कि अगर वो और जीते तो अपने भीतर की इस वृत्ति से लड़ते भी। और जो व्यक्ति बंगाल में पैदा हुआ है, उससे तुम यह उम्मीद करो कि वो अपने बचपन से ही एनलाइटेंड होकर कहेगा कि मैं माँस-मछली का स्पर्श नहीं करूँगा तो ये तुम कुछ ज़्यादा ही अपेक्षा कर रहे हो। वो छूटते-छूटते छूटता है। जैसे हर व्यक्ति अपनी एक यात्रा पर है वो भी अपनी यात्रा पर है।

तो हम ये नहीं कह रहे हैं कि किसी में अगर ग़लतियाँ हैं तो उसको नज़र-अंदाज़ कर दो। नहीं, अपनी हर ग़लती से अपनी आख़िरी साँस तक जूझना होता है, क्योंकि वो सिर्फ़ ग़लती नहीं है वही तो बंधन है न तुम्हारा, उसी में तो तुम फड़फड़ा रहे हो, उसी के कारण तो दम घुटता है। तो इन सबसे लड़ाई करनी होती है, इनसे जूझते रहना पड़ता है। हम उनको स्वीकार करने की बात नहीं कर रहे हैं। किसी को ऐसा न लगे कि ग़लती है भी तो क्या हो गया। नहीं-नहीं, ये भी देखो कि वो अपनी उन ग़लतियों से संघर्ष कर रहा है या नहीं कर रहा है।

प्र: जब मैं इस किताब को पढ़ रहा था, इसके अलावा और भी आर्टिकल वग़ैरा देख रहा था। तो ये सवाल थे जो गुरु की तरफ़ से पूछना चाह रहा था, अब मेरे पास कुछ सवाल ऐसे भी हैं जो मैं शिष्य की तरफ़ से समझना चाहता हूँ।

मैं ये देख रहा था कि यह बड़ी एक फाइन लाइन सी होती है कि किसी व्यक्ति से सीखना और किसी व्यक्ति को अपनी पूरी फ्री विल (मुक्त इच्छा) ही सौंप देना। तो इसमें कैसे अंतर कर पायें, कैसे समझें?

आचार्य ये आइदर ऑर की बाइनरी (यह या यह का द्विपक्ष) नहीं है। कभी भी ऐसा नहीं होता कि आपने अपनी पूरी ही फ्री विल किसी को सरेंडर (समर्पण) कर दी और ऐसा भी नहीं होता कि आप किसी को पूरी ही तरह हंड्रेड पर्सेंट रेजिस्ट ही कर रहे हो।

साधारण स्थितियों में भी आप अपनी फ्री विल को थोड़ा तो लिमिट (सीमित) करते ही हो न, अगर आपको कुछ सीखना है तो। आप जिम जाते हो, आपका अभी वज़न उठाने का मन नहीं कर रहा है, पर ट्रेनर बोलता है उठाओ। आपकी फ्री विल क्या बोल रही है? नहीं उठाना। पर आप कहते हो ट्रेनर ने कहा है तो उठाएँगे। तो कुछ हद तक आप अपनी फ्री विल को रोकते हो, लिमिट करते हो ताकि आप कुछ सीख सको, आप बेहतर हो सको।

तो गुरु के सामने भी अपनी फ्री विल को थोड़ा रोका जाता है। फ्री विल को थोड़ा रोकने का मतलब ये नहीं होता कि आप उसके सामने अनकंडिशनल सरेंडर (बेशर्त समर्पण) कर दो। फ्री विल को थोड़ा रोकना एक बात है और एब्सोल्यूट सरेंडर (पूर्ण समर्पण) कर देना दूसरी बात है। अब बात आती है कि कितना रोकें फ्री विल को। जिस हद तक तुम्हें उस व्यक्ति से लाभ होता जाए, उस हद तक तुम उसके सामने अपनी फ्री विल को रेस्ट्रिक्ट करते जाओ। जिससे तुम्हें फ़ायदा होता जा रहा है उसके सामने झुकते चलो। बस लेकिन उतना ही झुकना जितना फ़ायदा हुआ है, फ़ायदा नहीं हुआ तो ज़बरदस्ती झुकने की ज़रूरत नहीं है। सुन लो उसकी बात।

देखो, थोड़ा-बहुत तो तुम जब बाल बनवाने जाते हो तो बारबर (बाल बनाने वाला) के सामने भी झुक जाते हो, कि नहीं झुकते हो? और तुम्हें पता तो होता नहीं है कि वो उस्तरा लेकर क्या कर देगा। और तुम झुकते ही नहीं हो, तुम आँख बंद करके बैठ जाते हो और वो उस्तरा लेकर चला रहा है, अब गर्दन पर ही चला दे तो! पर तुम्हें पता है कि तुमने इसके पास से पहले भी पाँच-छः बार बाल कटवाये हैं और बंदा अच्छा है, कुछ नहीं करेगा गड़बड़। जब तुम जाते हो सर्जन के पास, वो तुम्हारा ब्रेन खोल देता है, तुम्हारा हार्ट खोल देता है। यह तुमने अपनी फ्री विल को लिमिट किया कि नहीं किया? ये एक तरह का सरेंडर है या नहीं है?

तो जब तुम जिम ट्रेनर के सामने और बारबर के सामने और सर्जन के सामने कुछ हद तक अपनी फ्री विल को रोक सकते हो, तो इसी तरीक़े से अगर कोई टीचर है, उसके सामने भी अपनी फ्री विल को लिमिट करना सीखो। लेकिन उतना ही लिमिट करो जितना तुम्हारा डिस्क्रीशन, तुम्हारा विवेक, तुम्हारी बुद्धि गवाही दे रहे हों कि इससे मुझे फ़ायदा हुआ है। तो डिवोशन विदाउट डिस्क्रीशन (बिना विवेक के समर्पण) बड़ी ख़तरनाक बात है।

डिवोशन इतना ही दिखाओ न जितना तुम्हारा विवेक, माने डिस्क्रीशन गवाही दे रहा है कि फ़ायदा हो रहा है। तो डिवोशन बढ़ाते चलो। डिस्क्रीशन पहले, डिवोशन बाद में।

प्र: मतलब भक्ति और अंधभक्ति में अंतर है?

आचार्य: बहुत अंतर है। अब एबसोल्यूट सरेंडर (पूर्ण समर्पण) कब कर देना है? जब किसी से एब्सोल्यूट बेनेफिट (पूर्ण लाभ) हो गया हो। एब्सलूट बेनिफिट तो तुम्हें होने का नहीं। एब्सोल्यूट बेनिफिट हो गया तो तुम इंसान ही नहीं, क्योंकि हमने कहा न मानव में अगर त्रुटियाँ नहीं तो मानव नहीं। तो एबसोलूट बेनिफिट होने का नहीं। जब एब्सोल्यूट बेनिफिट होने का नहीं तो एब्सोल्यूट सरेंडर भी करने की कोई ज़रूरत नहीं है।

जो लोग कहते हैं कि साहब हमने तो बिलकुल अपना एब्सोल्यूट सरेंडर कर दिया, मैं उनसे बहुत सहमत नहीं हूँ। मैं कहूँगा, आप ख़तरे की ओर जा रहे हो। डिस्क्रिशन ज़िंदा रहे। और आपका गुरु अगर वाक़ई सच्चा है और आपका हितैषी है तो वो भी आपको यही कहेगा कि अपने डिस्क्रीशन, अपने विवेक, अपनी जिज्ञासा को मरने मत देना, उसको और पैना करो, और धारदार करो।

जितना तुम्हें किसी से फ़ायदा होता जाए, उतना ज़्यादा उसकी बात मानते चलो। ठीक है? अभी तुम्हें फ़ायदा हुआ नहीं, बस तुमने उसकी रेपुटेशन (प्रसिद्धि) देखी है कि बड़ा प्रसिद्ध है, तो तुम उसके सामने झुक गये। ये बात जायज़ नहीं है, ये ग़लत बात है। उसी के सामने झुको जिसके सामने झुकने की सलाह तुम्हें तुम्हारा विवेक, डिस्क्रिशन देता हो। तुमने देखा, तुमने समझा और समझने के बाद तुमने कहा कि यह बात इसकी ठीक लग रही है तो फिर तुम थोड़ा झुके।

झुकने का क्या मतलब होता है? रेजिस्टेंस कम करना, झुकने का मतलब होता है रेजिस्टेंस कम करना। कोई आम आदमी आएगा, तुम्हारी छाती की और छुरा लेकर तो तुम ज़बरदस्त रेजिस्टेंस दोगे न। पर सर्जन भी आ रहा है तुम्हारी छाती की ओर छुरा लेकर, तुम कोई रेजिस्टेंस नहीं देते। यही है। कि अब ये जो गुरु है, मेरी ओर छुरा लेकर भी आ रहा है तो मैं रेजिस्ट नहीं करूँगा, क्योंकि मुझे इस पर भरोसा हो गया है, इसने पहले जो मेरे साथ किया था उससे मुझे फ़ायदा हुआ। तो अब ये अगर मेरी और छुरा भी लेकर आ रहा है तो मुझे लग रहा है कि कुछ ठीक ही करेगा मेरे लिए। और मैंने समझा है कि मेरे भीतर कुछ ऐसा है भी जिसको अभी छुरे की ज़रूरत है, क्योंकि आप सर्जन को अनुमति नहीं दोगे आप पर छुरा चलाने की अगर आपको नहीं पता होगा कि आपके भीतर ट्यूमर (एक तरह की बीमारी) है। तो आपको पता है कि आपके भीतर कुछ ऐसा है जिस पर छुरा चलना चाहिए, तभी आप सर्जन को कहते हो कि आकर छुरा चला दे, ले खोल दे मेरा पेट या मेरा ब्रेन, जो भी है, खोल।

उसी तरह से जब थोड़ा सा आत्मज्ञान बढ़ता है, आपको पता चलता है कि आपके भीतर काफ़ी कुछ है जिसे बाहर निकालने की ज़रूरत है, तो फिर आप जो गुरु होता है उसको अनुमति दे देते हो कि आओ, छुरा चलाओ। दोनों बातें होनी चाहिए: मुझे पता होना चाहिए मुझे ट्यूमर है और मुझे पता होना चाहिए वो सर्जन क़ाबिल है। दोनों बातें मुझे साफ़ पता होनी चाहिए। तो सरेंडर ऐसे आता है, सरेंडर कोई मिस्टिकल (रहस्यमय) चीज़ नहीं होती।

और जो फर्ज़ी गुरु लोग होते हैं वो सरेंडर पर बहुत ज़ोर देते हैं, बार-बार बोलते रहते हैं, जस्ट सरेंडर, जस्ट सरेंडर। वो तो ये तक कहते हैं कि सरेंडर नहीं करोगे तो कुछ समझोगे नहीं। नहीं-नहीं, सरेंडर बाद में आता है, समझ पहले आती है। और समझने से पहले अगर सरेंडर कर दिया तो वो 'सिर अंदर' वाली बात है। कि सिर कहाँ कर दिया? शरीर के अन्दर चला गया, अब कुछ समझ में नहीं आ रहा है।

इतनी आसानी से सरेंडर मत कर दिया करो, क्योंकि इतनी आसानी से सरेंडर होगा भी नहीं। किसको समर्पित किया जाता है, सरेंडर किसका किया जाता है? इगो का, अहंकार का। और झूठे सरेंडर का मतलब होता है कि अहंकार बिलकुल बचा ही रह गया, बस उसने कोई और नाम, कोई और शक्ल ले ली है। कोई सरेंडर नहीं हुआ। असली सरेंडर समझ के पीछे-पीछे आता है।

प्र: पर मैं देख रहा हूँ कि कई गुरुओं ने सरेंडर की एक बड़ी कन्विनियेंट (सुविधाजनक) छवि दे रखी होती है, वो कहते हैं कि जो भी कुछ आपकी सम्पत्ति है वो हमें दे दो, जो भी आपके बीलॉगिंगस (संपत्ति) हैं वो हमें दे दो और हमारे यहाँ पास आकर रहना शुरू कर दो और ये हो गया सरेंडर। सरेंडर का अर्थ इतना उथला होता है या कोई अंतरिक बात होती है?

आचार्य ये बात सुनकर ही मुझे बड़ी घिनौनी सी लग रही है। कोई आपके पास मदद के लिए आ रहा है और आप उससे कहें कि मैं तुम्हारी मदद तभी करूँगा जब तुम मुझे अपनी पूरी संपत्ति दोगे और तभी करूँगा जब तुम यहाँ पर आकर रहने लगोगे मेरे पास। ये बात कहीं से भी जायज़ नहीं है। हाँ, कुछ विशेष लोगों के साथ विशेष स्थितियाँ हो सकती हैं जहाँ उनकी बीमारी ही यही हो कि वो दौलत से चिपके हुए थे। उस स्थिति में हो सकता है कि गुरु की ये सलाह जायज़ हो कि तू अपनी पूरी संपत्ति त्याग। जब तक तू त्यागेगा नहीं, तब तक तू ठीक नहीं हो पाएगा, क्योंकि तेरी संपत्ति ही तेरी बीमारी है। लेकिन यह एक स्पेशल केस (ख़ास मामला) है।

प्र: और यहाँ पर संपत्ति त्यागने की बात हो रही है, मुझे देने की बात नहीं हो रही है।

आचार्य: हाँ, बिलकुल ठीक। तो ये हज़ार में से किसी एक के साथ तो वैलिड (मान्य) हो सकता है, पर आप सब पर ही ये नियम लगा रहे हो तो यह बात सुनने में ही बड़ी गड़बड़ है।

प्र: अब इसके आगे मैंने एक चीज़ और देखी है। इसी किताब में वो बड़ी सही ऑब्जर्वेशन देते हैं, क्योंकि इस तरह के जो आश्रम होते हैं या कल्ट्स होते हैं वो सिर्फ़ इंडिया में ही नहीं, नॉर्थ अमेरिका और हर जगह पर होते हैं। तो उनकी ऑब्जर्वेशन यह थी कि ऐसी जगहों पर इस बात पर बहुत ज़ोर दिया जाता है कि जो गुरु हैं या फिर जो कल्ट के हेड हैं उनके अंदर कोई एक तरीक़े की फील्ड है जो कि वो जहाँ रहते हैं, जहाँ पर वो होते हैं वो फील्ड उनके आसपास रहती है और उस फील्ड में रहने का एक बहुत विशेष लाभ होता है। तो इस तरह से वो कहते हैं कि ये तर्क दे-देकर सारे आश्रम हमेशा भरे रहते हैं।

गुरु कहता है कि मेरी एक फील्ड है। मैं जहाँ बैठा हूँ उसके आस-पास रहोगे तो उससे तुम्हें कुछ लाभ होगा। बस मेरे आस-पास रहने मात्र से लाभ होगा। तो ऐसा कुछ होता है?

आचार्य देखो ये जो कांशियसनेस होती है, चेतना, वो लाभ पाती है एंगेजमेंट (जुड़ाव) स। तुम्हारे कमरे में तुम्हारा बिस्तर रखा होगा, उसको क्या लाभ मिल जाएगा? हम दोनों बात कर रहे हैं, इससे हो सकता है कि हमें कुछ लाभ हो जाए, पर हम दोनों की बातचीत से इन माइक को क्या लाभ हो जाएगा? ये दो-दो माइक हैं और तुम मेरे जितने पास हो उससे ज़्यादा पास तो ये माइक हैं, तो मेरे फील्ड से ज़्यादा लाभ तो इस माइक को होना चाहिए, तुम्हें कम लाभ होगा।

नहीं, एंगेजमेंट (जुड़ाव) से लाभ होता है और उस एंगेजमेंट के लिए शारीरिक निकटता, फिजिकल प्रोक्सिमिटी कोई ज़रूरी नहीं है। और अगर वो ज़रूरी होती तो आज गीता से हमें क्यों लाभ हो रहा होता? शरीर रूप में तो कृष्ण हैं नहीं, तो फिर गीता की तो आज कोई उपयोगिता ही नहीं होनी चाहिए थी।

तो कोई आपको मिल जाए जो आपके प्रश्नों का जवाब दे दे क्योंकि वो जीवित है, ये बड़ी अच्छी बात होती है। पर ये गुरु लोग जिनको अपने इर्द-गिर्द इकट्ठा कर लेते हैं फील्ड वग़ैरा की बातें करके, क्या ये उनसे इंगेज करते हैं सचमुच? और एन्गेजमेंट का वो मतलब होता है जो ये अभी चल रहा है (आचार्य जी और प्रश्नकर्ता के बीच बातचीत को कह रहे हैं)। घंटों-घंटों किसी को देने पड़ते हैं, बात करनी पड़ती है, उसके मन में घुसना पड़ता है, उसके बहाने झेलने पड़ते हैं, उनके नखरे भी उठाने पड़ते हैं, कभी उसे डाँटना पड़ता है, कभी दुलराना पड़ता है, ये होता है एंगेजमेंट। मानवीय एंगेजमेंट, ह्यूमन रिलेशनशिप।

इस तरीक़े से जिसको तुम सहारा देना चाहते हो, तुम्हें उसके साथ एक सम्बन्ध बनाना पड़ता है और उसमें बड़ी उर्जा, बड़ा समय लगता है। तुम ये एन्गेजमेंट कितने लोगों के साथ कर सकते हो?

तुम ये एन्गेजमेंट पाँच के साथ कर लोगे, पंद्रह के साथ कर लोगे, तुम बड़े महामानव हो तो पचीस-पचास के साथ कर लोगे; बाक़ी किसके साथ कर लोगे? तुम कहो कि मैं अपना दस हज़ार लोगों का आश्रम बनाऊँगा, वहाँ जो रहते हैं। तुम्हें उन दस हज़ार लोगों के नाम भी पता हैं, उनकी शक्ल भी कभी देखी है? तो तुम क्या बोल रहे हो कि ये मेरे फील्ड में रहते हैं तो उनको फ़ायदा हो रहा है? इससे कोई फ़ायदा नहीं होता।

प्र: पर कहा तो यही जाता है न कि एक फ़लानी जगह है और उसमें एक विशेष तरह की एनर्जी मैंने डाल दी है।

आचार्य ऐसी कोई एनर्जी नहीं होती। ये बात मैं बहुत बार कर चुका हूँ। कोई एनर्जाइज्ड स्पेस (ऊर्जायुक्त स्थान) नहीं होता, कोई विशेषतया पवित्र, कौनसीक्रेटेड जगह नहीं होती। ये सबकुछ नहीं होता, ये बेवकूफ़ बनाने का तरीक़ा है।

प्र: जो लोग जाते हैं वो तो बताते हैं कि उन्हें अच्छा लगा जाकर?

आचार्य अच्छा लगा क्योंकि उन्हें पहले ही पता था कि वो एक विशेष जगह पर जा रहे हैं। वो जगह उन्हें कहीं भी बता दी जाती कि ये विशेष जगह है, उन्हें वहाँ भी अच्छा लग जाता, उस जगह में थोड़ी कुछ ख़ास है। और उस जगह पर अच्छा भी उन्हीं को लगेगा जो इस बात को मानते हैं कि वो जगह विशेष है। जो नहीं मानते उनको कुछ नहीं लगेगा।

प्र: मतलब कुछ उदाहरण देकर समझा सकते हैं?

आचार्य ये पकड़ो (प्रश्नकर्ता को पानी का ग्लास पकड़ाते हुए)। कैसा लग रहा है?

प्र: भारी लग रहा है।

आचार्य: भारी लग रहा है। यह पृथ्वीराज चौहान का ग्लास है! अब कैसा लग रहा है?

प्र: अब लग रहा है गिर न जाए।

आचार्य: बस यही बात है। उसमें अगर सचमुच कुछ ख़ास होता है तो पहले ही तुमको वो ख़ास लगता न। तुमको जब बता दिया गया यह ख़ास है, तब तुमको लगने लगा कि ये ख़ास है।

प्र: तो मतलब जगह का महिमा-मंडन पहले आता है।

आचार्य हाँ। जगह को ग्लोरिफाई (महिमामंडित) कर दो, जगह के बारे में ख़ूब बातें फैला दो, तो वहाँ जो आम आदमी आता है उसको लगता है इस जगह में कुछ ख़ास है।

एक कहावत चलती है पूर्व में कि एक मामा-भांजा जा रहे थे, तो मामा की फेंकने की आदत थी। मामा महान फेंकू थे, तो वो बोलते हैं कि हमें लग रहा है गंगा में बाढ़ आयी हुई है। और गंगा से बहुत दूर हैं दोनों। पर मामा को दिखाना है कि वो त्रिकालदर्शी हैं, उन्हें सब पता रहता है। तो बोलते हैं हमें लग रहा है गंगा में बाढ़ आयी हुई है। तो भांजा बोलता है हाँ, हाँ, हाँ, मुझे तो अभी छींटे भी आकर पड़े। तो एक बार किसी जगह के बारे में कुछ प्रचारित कर दो, एक बार कुछ बोल दो कि ऐसा हो रहा है, वहाँ पर लोगों को ज़बरदस्त अनुभव होने शुरू हो जाते हैं, क्योंकि लोग बेवकूफ़ बनने को तैयार बैठे हुए हैं। उन्हें बस तुम कुछ बता दो, वो कहेंगे हाँ, हाँ मुझे भी हुआ था, मुझे भी हुआ था। बाढ़ ही नहीं आयी है गंगा में, मुझे तो छींटे भी पड़े।

प्र: पर जैसे आपने अभी एंगेजमेंट की बात करी कि एंगेजमेंट से कैसे लाभ होता है। अब ये बातचीत जो बहुत सारे लोग सुनेंगे तो सुनना भी एंगेजमेंट है?

आचार्य हाँ, एंगेजमेंट है। पर रहना एंगेजमेंट नहीं है। ये बगल के घर में जो रह रहे हैं, रह तो रहे हैं न। तो जो बगल के घर में रह रहे हैं, उन्हें भी लाभ हो रहा होता, उन्हें नहीं लाभ होगा। लेकिन दस हज़ार किलोमीटर दूर यहाँ से बैठ करके जो इस रिकॉर्डिंग को सुन रहा है शायद उसे लाभ हो जाएगा क्योंकि एंगेजमेंट है, सम्बन्ध है, रिश्ता है।

जो यहाँ रह रहा है उसे ज़रूरी नहीं है कोई लाभ हो। ज़रूरी छोड़ दो, नहीं ही होना है। यहाँ इतने लोग आसपास रहते होंगे, इस चर्चा से उनको क्या लाभ हो जाएगा? कुछ भी नहीं, रहने से क्या होता है!

प्र: तो फिजिकल लोकेशन (शारीरिक स्थिति) की बात नहीं है?

आचार्य: एकदम बात नहीं है। फिजिकैलिटी (शारीरिकता) तो जड़ता होती है न, जड़ता। जड़, जिसको बोलते हैं फिजिकल। इसको (कुर्सी की ओर इशारा करते हुए) बोलते हैं फिजिकल। यह कुर्सी फिजिकल है, जड़ है। और लाभ किसको चाहिए?

प्र: मन को।

आचार्य: चेतना को चाहिए, कांशियसनेस को लाभ चाहिए। तो उसमें फिजिकैलिटी की क्या बहुत महत्ता हो गयी? और कांशियसनेस, फिजिकल सेपरेशन (शारीरिक दूरी) के बावजूद इंगेज कर सकती है, किताब के द्वारा कर सकती है, स्मरण के द्वारा कर सकती है।

जो खो गये हैं शताब्दियों पहले, कांशियसनेस उनसे भी रिश्ता बना सकती है। मैं किसी तिलिस्म की बात नहीं कर रहा, मैं सीधे-सीधे कह रहा हूँ, उनका साहित्य पढ़ कर, उनके श्लोक पढ़ कर, उनके दोहे पढ़ कर।

प्र: आपने अभी तिलिस्म की बात करी तो मुझे इसी किताब से एक और नाम याद आ रहा है, महर्षि अरविंद हैं। उनके बारे में काफ़ी कहानियाँ दे रखी थी कि वो थे उनके साथ में जो सह-संस्थापक थी जिनको दामोदर कहा जाता था कि वो एस्टल ट्रेवल करते थे। और उनको यह पता चला था कि जो वर्ल्ड वार जब हो रही थी तो हिटलर किसी असुर के पजेशन (वश) में था। तो एक बार उन्होंने बीच में इंटरफेयर (बाधित) करके हिटलर के कान में ये फूँक दिया कि तुम जाकर रशिया पर अटैक करो। और फिर हिटलर ने जब रशिया पर अटैक किया तो उससे उसका विनाश हो गया।

आचार्य मैं पुराना उत्तर दोहराऊँगा, पहली बात, ऐसा क्या अरविंद ने स्वयं कहा है?

प्र: यह बात तो नहीं कही है।

आचार्य: उन्होंने नहीं कही न। तो तुम्हें कैसे पता कि ऐसी कोई बात है भी? ये पहली बात। दूसरी बात, अगर ऐसा कुछ है भी तो ध्यान तुम्हें उनकी रचनाओं पर, उनकी सावित्री पर देना है या इन बातों पर ध्यान देना है। मान लो ये सच भी हैं तो। "सार-सार को गही रहे, थोथा देय उड़ाय।"

साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय। सार-सार को गहि रहे, थोथा देई उड़ाय।। ~ कबीर साहब

हम बार-बार कह रहे हैं न अगर किसी तथाकथित महापुरुष में भी त्रुटियाँ दिखें तो इसमें चौंकने वाली कोई बात नहीं है। ये मत देखो कि उसमें अभी त्रुटियाँ शेष हैं, ये देखो कि उसने अपनी कितनी त्रुटियों को जीत लिया। क्योंकि फिर से याद करो हम सब शुरुआत कितने विकारों के साथ करते हैं? सौ।

तो अगर अभी उसमें तीन शेष हैं तो ध्यान इस बात पर दो कि उसने संतानबे जीत लिए हैं, तीन ही शेष हैं। यह मत कहो तीन अभी खोट बची हुई हैं। कहो तीन ही खोट बची हुई हैं, संतानबे नहीं बची हैं। तो कुछ खोट अगर बची रह जाती हैं तो यह बात प्राकृतिक है। और बची हुई हैं खोट तो उनको खोट जानो। कहो कि ठीक है, जो बात मेरा विवेक गवाही देगा कि इनकी मानने लायक़ है वो बात मानूँगा और बाक़ी बातों की उपेक्षा करूँगा, आगे बढ़ जाऊँगा, मुझे क्या लेना-देना है।

भई, मेरा उनसे रिश्ता इसलिए नहीं है कि मैं उनको जज करूँ, मेरा उनसे रिश्ता इसलिए है ताकि मैं उनसे कुछ सीख सकूँ, उनसे मैं कुछ बेनिफिट (लाभ) पा सकूँ। मेरा उनसे रिश्ता इसलिए नहीं है कि मैं उनकी निजी ज़िंदगी में घुसूँ और उनको जज करूँ। मैं कर सकता हूँ ऐसा, लेकिन उससे मुझे मिलेगा क्या? भाई मेरी अपनी ज़िंदगी बहुत ख़राब चल रही है, हर आदमी की ज़िंदगी ख़राब चल रही है। तुम्हारी अपनी इतनी ख़राब चल रही है, तो फिर तुम्हारा उद्देश्य क्या होना चाहिए, अपनी ज़िंदगी को बेहतर बनाना या दूसरे की ज़िंदगी में ताक-झाँक करना? हमें अपनी ज़िंदगी को बेहतर बनाना उद्देश्य होना चाहिए कि दूसरे की ज़िंदगी में ताक-झाँक करना?

प्र: अपनी ज़िंदगी को बेहतर बनाना।

आचार्य: तो दूसरे की ज़िंदगी की जिन बातों से तुम्हारी ज़िंदगी बेहतर होती हो, उससे वो सब बातें ले लो और बाद की बातों की उपेक्षा कर दो। और ग्रेटिट्यूड (आभार) रखो कि तुम्हें उससे कुछ मिला। बहुत अनुग्रह होना चाहिए कि तुम्हें उससे कुछ मिला। और हमने ये भी कहा है कि अक्सर दूसरे से जब हमें कोई सही चीज़ मिल रही होती है तो उस सही चीज़ को ही रेजिस्ट करने के लिए हम उस व्यक्ति के निजी जीवन पर आक्षेप करते हैं, कीचड़ उछालते हैं ताकि वो जो उससे हम तक सही चीज़ आ रही है वो हमारे पास आने न पाये।

प्र: मैं बल्कि अभी आपसे पूछने वाला था कि ये तो मैंने बहुत देखा कि लोगों को बड़ा मज़ा आता है पहले तो दूसरे की ज़िंदगी में झाँकने में और फिर उसमें से कुछ कमी निकालने में।

पिछली दो शताब्दियों में भारत में दो बहुत बड़े नाम रहे हैं अध्यात्मिक क्षेत्र में। भक्ति में रहे हैं श्री रामकृष्ण परमहंस और ज्ञान में रहे हैं रमन महर्षि।

और मैं देखता हूँ कि लोग इनके ऊपर भी बहुत भद्दे व्यक्तिगत आरोप लगाते हैं और मुझे बहुत बुरा लगता है ये देखकर। तो इसमें क्या किया जा सकता है?

आचार्य तुम्हें क्यों कुछ करना है? तुम्हें अपनी ज़िंदगी जीनी है या लोगों की ज़िंदगी जीनी है‌? ये तो फिर भी संत थे, ऋषि थे, महर्षि थे; लोगों ने राम, कृष्ण को नहीं छोड़ा हुआ है, वो जो अवतार हैं। तो लोगों को सच्चाई से बचना है और इसलिए उन्हें जो ऊँचे-से-ऊँचा भी हुआ है, उस पर कीचड़ उछालना है। तुम्हें ये जो कीचड़ की होली है इससे लेना-देना क्या है?

रमण महर्षि की ऊँची-से-ऊँची किताबें हैं, उनको पढ़ो। 'गोस्पेल ऑफ रामकृष्ण' है, उसको पढ़ो और आनंद आ जाता है, छोटी-छोटी कहानियाँँ और परमहंस सबको बिलकुल मुग्ध कर देते थे, प्रकाशित कर देते थे। तुम उनसे सीखो। तुम्हें क्या लेना-देना है कि उनकी निजी ज़िंदगी के बारे में कौन क्या बातें कर रहा है?

और एक बात का अच्छे से ख़याल रखना, मन जब बार-बार उनकी निजी ज़िंदगी की ओर जाने लगे तो अपनेआप से पूछना, कहीं ऐसा तो नहीं कि मैं उनकी सच्चाई से डर रहा हूँ? चूँकि मैं उनकी सच्चाई से डर रहा हूँ, इसलिए अब मैं उनकी कहीं-न-कहीं खोट तलाशना चाहता हूँ। भाई, किसी को बोलोगे गीता ख़राब है, मैं उस बात पर वापस आ रहा हूँ, तो बड़ा मुश्किल हो जाएगा, तो कृष्ण को खराब कर दो। किसी को बोलोगे मर्यादा ख़राब है, तो वो कहेगा कैसी बातें कर रहे हो। तो राम के चरित्र पर आरोप लगा दो।

प्र: मैं देखता हूँ कि लोगों ने ऐसी कहानियाँँ भी उड़ा रखी है कि एक बार स्वामी विवेकानंद के पास कोई व्यक्ति आया और उसने बोला कि हमें तुलसी के पौधे को पानी देना चाहिए कि नहीं देना चाहिए। तो उन्होंने बोला कि तुम तुलसी के पौधे को पानी देकर क्या करोगे, तुम उससे बेहतर बैंगन के पौधे को पानी दे दो।

या यह एक कहानी और आती है कि कभी उनके पास एक बच्चा आया जो थोड़ा दुबला-पतला सा था और उसने उनसे कहा कि आप मुझे गीता का सार बताइए। तो वो कहते हैं कि तुम जाकर पहले फुटबॉल खेल कर आओ, जब थोड़े हष्ट-पुष्ट हो जाओगे तब आना।

आचार्य: एकदम तुम्हें स्पष्ट नहीं है क्या, इतने सालों से साथ हो हमारे, कि यह बात किस संदर्भ में कही गयी होगी, इसका बैकग्राउंड क्या होगा? मिल गया होगा उन्हें कोई कर्मकांडी, मिल गया होगा उन्हें कोई कर्मकांडी जो लगा रहता होगा बस तुलसी को पानी देने में और उस कर्मकांड से उसे कोई लाभ तो हो नहीं रहा होगा। तो वो यही बोल रहे हैं कि तुम्हें इससे लाभ क्या हो रहा है? इससे ज़्यादा लाभ तो तुम्हें कोई बैंगन, गोभी, मूली ऐसे किसी चीज़ से मिल जाएगा। ये है उनके बताने का उद्देश्य, ये थोड़ी कह रहे हैं कि तुलसी बुरी चीज़ होती है। वो बता रहे हैं कि अंधा कर्मकांड बुरा होता है पूरी बात देखनी पड़ती है।

वो तुलसी और बैंगन की बात नहीं है, वो अंधविश्वास और बोध की बात है। अब जैसे कबीर साहब कहते हैं "देवतन से कुत्ता भला" अब ये बात बड़ी चौंकाने वाली लगती है कि देवताओं से कुत्ता कैसे भला! कह रहे हैं कि उसको रोटी देते हो तो कम-से-कम तुम्हारा द्वार तो तकता है, कम-से-कम कुछ तो काम आता है। या कि वो कहते हैं चक्की भली है कि जिससे पीस खाये संसार, उससे भी तुम्हें कुछ लाभ होता है। तुम अपना लाभ देखो। वहाँ भी यही बताया जा रहा है कि तुम जो कुछ करे जा रहे हो ज़िंदगी में उससे तुम्हें मिल क्या रहा है। ये तुम्हें समझाना चाह रहे हैं।

और हर चीज़ का एक संदर्भ होता है, उसके बिना नहीं होता। ये जो गीता वाली बात है इसमें मुझे याद दिलाना अभी मुझे गुरजीएफ का नाम याद आ रहा है।

अब कोई बच्चा था जो उनके पास आया था। बच्चा रहा होगा दुबला-पतला, विवेकानंद के पास आया बच्चा और बोल रहा है गीता बताइए, गीता बताइए। अब बच्चा रहा होगा किसी परंपरागत धार्मिक परिवार से तो उसमें गीता की प्रतिष्ठा रही होगी। तो बच्चा भी आ गया कि मुझे गीता बता दीजिए। अब बच्चा दुबला-पतला है। वो उसको कह रहे हैं कि तुझे गीता से क्या फ़ायदा होगा, अभी तो तेरे पास वो मन ही नहीं है और वो शरीर नहीं है और वो माँसपेशियाँ नहीं है और वो संकल्प, वो बल नहीं है जो गीता को समझने के लिए चाहिए।

मैं बार-बार बोला करता हूँ न जब हमारे गीता सत्र होते हैं, अगर तुम अर्जुन नहीं तो गीता तुम्हारे काम की नहीं, क्योंकि गीता किसको कही गयी थी? अर्जुन को कही गयी थी। तो जिस हद तक तुम अर्जुन हो, उसी हद तक गीता तुम्हारे काम आएगी। अब अर्जुन कैसे थे? योद्धा थे और फौलाद सा शरीर था और संयम है, आत्म-विश्वास है, अनुशासन है, सबकुछ है, तब जाकर वो अर्जुन बने हैं।

कोई ऐसा है, सिकड़ा, जिसके पास कुछ भी नहीं है, न संयम है, न अनुशासन है, न बल है वो अर्जुन तो हुआ नहीं, तो गीता उसके काम नहीं आएगी। तो स्वामी जी ने बोला जाओ तुम पहले फुटबॉल खेलो। आप जब फुटबॉल खेलते हो तो क्या-क्या चीज़ें आपको विकसित करनी पड़ती है? आपको संयम चाहिए, अनुशासन चाहिए, शारीरिक बल चाहिए, मानसिक क्षमता चाहिए। तो ये सब तुम करके आओ फिर तुम्हें गीता मिलेगी। तो उस संदर्भ में बोला गया होगा। हर बात का एक संदर्भ होता है।

और मैं यहाँ पर ये जस्टिफाई करने की कोशिश नहीं कर रहा हूँ कि जितनी बातें होती हैं वो सब किसी अच्छे ही सन्दर्भ में बोली जाती हैं। पर ये दो बातें मुझे ऐसा लगा कि इनका तो कोई तार्किक संदर्भ है, कांटेक्स्ट है तो मैंने आपसे कह दिया। हर बात को उसका जो परिपेक्ष्य है उसमें रख करके ही देखना चाहिए।

अब बीती शताब्दी के जो बड़े गुरु रहे हैं, बल्कि मास्टर्स जो करके दिखाते हैं, जो प्रयोग के माध्यम से आपका मानसिक रोग दूर करते हैं, उनमें गुरजीएफ का नाम लिया जाता है। अब गुरजीएफ का यह था कि आप गुरजीएफ के पास आओ और आप अपनी जो भी आदत बताओगे या ढर्रा या वृत्ति, गुरजीएफ का काम होता था उसको तोड़ना। गुरजीएफ का कहना था कि आदमी मशीन (यंत्र) होता है, आदमी पूरी तरीक़े से एक कंडीशन्ड मशीन है और उस मशीन को जब तक तोड़ोगे नहीं तब तक तुम्हारी जो आत्मा है, तुम्हारी जो सच्चाई है वो प्रकट ही नहीं होगी। वो जो तुम्हारा मेकेनिकल, यंत्रवत ढर्रा है, उसको तोड़ना जरूरी है।

तो तुम आओ और कहोगे कि तुम्हें कभी गुस्सा आता नहीं तो गुरजीएफ वो सारे काम करते जिससे तुम्हें गुस्सा आता, तुम्हें थप्पड़ मारते, तुमसे कहते इतने बजे आ जाना और जब तुम आते तो तुम्हें मिलते नहीं। फिर कहते कहीं और जाओ वहाँ मिलूँगा, तुम वहाँ जाते तो वहाँ भी नहीं। तो तब तक करते जब तुम्हें गुस्सा न आ जाए। तुम्हें खाना नहीं दे रहे, हो सकता है कोई आकर तुम पर थूक जाए तुम्हें गुस्सा दिलाने को।

कोई आये और बोले कि मैं बड़ा सात्विक आदमी रहा हूँ, मैंने आज तक शराब नहीं पी। तो गुरजीएफ कहते आओ तुम्हारा ढर्रा तोड़ने का यही तरीक़ा है तुम शराब पियोगे और शराब उसने इसलिए नहीं पी थी क्योंकि वो डरा हुआ था। क्योंकि ऐसे परिवार से वो आता था जहाँ कोरी धार्मिकता के चलते यह माना जाता था कि अच्छा आदमी वो है बस जो सिगरेट-शराब नहीं करता। अब इस आदमी को धर्म का कुछ नहीं पता, बस इसमें ये संस्कार डाल दिया गया था कि ये गंदे काम होते हैं, तुम्हें ये नहीं करने हैं। उन संस्कारों को वह क्या समझ बैठा था? धर्म।

और इसी कारण वो सच्चे धर्म से वंचित रह जा रहा था। तो उस तक सच्चे धर्म को लाने के लिए उसके इन संस्कारों का खोखलापन उसको दिखाना बहुत ज़रूरी है। तो इसलिए वो उसको फिर बोलते कि तू शराब ले, तू शराब पी। और ये हुआ है, सचमुच करते थे। अब अगर उस समय कोई और भी हो वहीं पर मौजूद, वो देख ले कि गुरजीएफ उसको शराब पिला रहे हैं और जाकर बाहर बताये कि अन्दर देखो ये कहते हैं कि ये धार्मिक गुरु हैं, ये तो शराब पिला रहे हैं। यह क्या कर रहे हैं। तो तुम समझ ही नहीं पाओगे कि अंदर चल क्या रहा है, क्योंकि तुम्हें नहीं पता पूरी बात कि क्या चल रहा है।

लेकिन हम सब न ज्ञान मार्गी हैं न भक्ति मार्गी हैं, हम गौसिप मार्गी हैं। हमे कुछ इतना सा पता हो तो उसका पूरा फुग्गा फुलाते हैं और अपनी मानसिक कल्पना करके ख़ूब बड़ी कहानी बनाते हैं। जबकि पता तुम्हें कुछ भी नहीं है, क्या हो रहा है। तो कम फुलाओ न फुग्गा। किसी ने तुम्हारे सामने वो किताब लाकर भी रख दी तो उसको ऐसे ही देखो कि हाँ किसी ने कुछ देख लिया, किसी ने कुछ कह दिया, किसी ने कुछ सोच लिया, किसी ने कुछ कल्पना कर ली। कुछ बातें उसमें से हो सकता है तथ्यात्मक भी हों, कुछ बातें ऐसी भी होंगी, मैंने सब देख लिया। अब मुझे ये देखना है कि मेरी ज़िंदगी कैसी है, और मेरी ज़िंदगी किसके माध्यम से बेहतर बनेगी। मुझे यह देखना है।

प्र: सर, एक आख़िरी चीज़ मैं आपसे और पूछना चाहूँगा। क्या आप कुछ ऐसी एक लिस्ट सी दे सकते हैं तीन-चार चीज़ों की, कि यदि इन मुद्दों पर बात आ जाए तो हम समझ जाएँ कि सामने वाला बंदा फ्रॉड है, कुछ ग़लत है?

आचार्य अपने स्वार्थ के लिए अगर वो तुम्हारा नुक़सान करने को तैयार है तो वो पक्का फ्रॉड है। ले-देकर बात फिर तुम्हारे ऊपर आती है। तुम्हें क्या मिल रहा है? अगर तुम्हें वो कुछ देने की जगह तुम्हें और गिरा रहा है, तुम्हें उठाने की जगह तुम्हें गिरा रहा है या तुम्हारे कंधों पर चढ़कर वो ख़ुद बड़ा बनना चाहता है। वो कह रहा है, आओ तुम मेरे चरणों के नीचे बैठो और मेरी जय-जयकार करो, बोलो जय गुरुदेव; तो बंदा फ्रॉड है। जिसमें अपनेआप को गुरु कहलाने की बड़ी इच्छा हो, वो फ्रॉड है। जिसको बार-बार ये लगे कि घोषित किया जाए कि इनसे बड़ा महापुरुष तो आज तक कोई हुआ ही नहीं, वो फ्रॉड है।

जिसके साथ रहकर तुम पाओ कि तुम्हारा तो कुछ नहीं हो रहा, उसका सम्मान बढ़ता जा रहा है, उसकी दौलत बढ़ती जा रही है,‌ उसका रुतबा बढ़ता जा रहा है, उसका स्वार्थ बढ़ता जा रहा है, उसका अहंकार बढ़ता जा रहा है, वो फ्रॉड है।

प्र: क्या यह भी कहा जा सकता है कि जो अपने बारे में, किस्से-कहानियाँ उछालने में बहुत रुचि रखता है?

आचार्य: बिलकुल। जो काल्पनिक किस्से-कहानियों के माध्यम से अपना महिमा-मंडन करे, अपनेआप को ग्लोरिफाई करे, जो अपना झूठा अतीत दुनिया के सामने प्रस्तुत करे, वो फ्रॉड है। लेकिन इन सारी बातों से ज़्यादा महत्वपूर्ण वह एक बात है— जिसके साथ तुम्हें लाभ नहीं हो रहा, वह तुम्हारे लिए ठीक नहीं है, बस और कुछ भी नहीं।

प्र: लाभ का क्या पैमाना होगा?

आचार्य तुम कितने ज़्यादा सुलझे भीतर से। लाभ का पैमाना होता है तुम्हारी बीमारी। तुम्हें किसी डॉक्टर के पास लाभ हुआ कि नहीं यह कैसे पता चलेगा, क्या पैमाना है? बीमारी कम हुई कि नहीं।

तो सबसे पहले अपनी बीमारी पता होनी चाहिए। अगर अपनी बीमारी ही नहीं पता है तो वो जो डॉक्टर है, गुरु, वो ठग लेगा तुमको। तुम्हें पता होना चाहिए कि तुम उसके पास गये हो क्योंकि तुम लालची बहुत हो या डरपोक बहुत हो या ईर्ष्यालु बहुत हो या संदेही बहुत हो या चिंतित बहुत हो, इसलिए गये हो तुम उसके पास। तो फिर तुम्हें पता चलेगा कि उसकी संगति में या उसकी शिक्षा से तुम्हें कुछ लाभ हुआ है या नहीं हुआ है।

लाभ हुआ है तो ठीक है और लाभ नहीं हुआ तो ठीक नहीं है। और अगर तुम्हें तो लाभ हुआ नहीं और उसकी तिजोरी भर गयी और उसका ओहदा भर गया और उसको बहुत तरह के तमगे मिल गये, पदक मिल गये और वो पूरे देश पर, दुनिया पर चढ़ गया तो वो बहुत गड़बड़ आदमी है।

प्र: लेकिन मैंने न इसके बहुत विकृत से रूप देखे हैं, जैसे मेरे दोस्त के साथ ही हुआ था कि उसका एग्जाम क्लियर नहीं हुआ तो उसकी माताश्री पंडित जी के पास पहुँच गयी। उन्होंने कहा कि इसे इस तरह की अँगूठी पहनाइए और सब ठीक हो जाएगा। अब उसका एग्जाम क्लियर क्यों नहीं हुआ वो एक बात थी, उसको अँगूठी पहना दी और उसके बाद सब लोग सोच रहे हैं कि अगले प्रयास में क्लियर हो जाएगा। तो मैंने देखा कि आम आदमी के जीवन में ऐसी चीज़ें बहुत ज़्यादा होती हैं।

आचार्य छोड़ो, ये सब तो बहुत निचले स्तर का अंधविश्वास है, इसका वास्तविक गुरुओं से क्या लेना-देना! और अगर कोई इस तरह की चीज़ें कर रहा है कि तुम्हे अँगूठी पहना रहा है और तुम्हें गले में कुछ डाल रहा है, ये करो, वो करो तो तुम्हें ऐसे ही समझ जाना चाहिए कि आदमी नकली है। गुरु का ये सब काम थोड़ी है? गुरु का काम होता है जो तुमने धारण भी कर रखा है वो तुमसे उतार दे। उसकी जगह अगर वो तुम्हारी चेतना से ज़्यादा तुम्हारे शरीर से सम्बन्ध रख रहा है कि शरीर पर ये धारण करो, फ़लाना ऐसा, वैसा तो वो तो फिर बहुत शरीरी चीज़ है न गुरु ख़ुद अभी शरीर के तल पर ही बैठा हुआ है। वो तुम्हें सब शरीर की चीज़ें देगा, कहेगा ये अँगूठी पहन लो, फ़लानी चीज़ खाया करो और जो तुम्हें चीज़ें खानी हैं वो भी तुम मेरी दुकान से खरीद लो, तो ये कौनसा गुरु है?

प्र: मतलब अगर दिक्क़त चेतना के स्तर पर है तो उसका जो समाधान होगा वो भी चेतना के स्तर पर ही होगा।

आचार्य चेतना के स्तर पर ही होगा। अब गुरुजी अगर हींग, लहसुन, हल्दी, तेल और डोसा, इडली ये सब बेच रहे हैं, तो इससे तुम्हारी कोई चेतना ऊपर जा रही है?

प्र: तो कहीं-न-कहीं जो बड़े-से-बड़ा गुरु होगा, उसके भीतर भी एक शिष्य बैठा होगा, जो बेहतर बनने की कोशिश कर रहा होगा?

आचार्य बहुत बढ़िया बात बोल दी है तुमने! बहुत अच्छी बात है ये। देखो, अंत में आते-आते तुम गुरु हो गये। शिष्य के भीतर गुरु बैठा था तो गुरु के भीतर भी शिष्य होगा। गुरु के भीतर अगर शिष्य नहीं है तो बड़ा फर्ज़ी गुरु है वह। तुम लोगों से जब बात करता हूँ तो कहता नहीं हूँ कि जैसे तुमसे बात कर रहा हूँ, तुम मेरी बात सुन रहे हो, वैसे ही मैं भी अपनी बात सुन रहा हूँ।

कई बार जब मैं किसी मुद्दे को लेकर के संशय में आ जाता हूँ या परेशान हो जाता हूँ तो मैं अपना ही कोई लेख पढ़ लेता हूँ, अपनी ही किताब खोल करके या अपना ही कोई पुराना वीडियो देख लेता हूँ उस मुद्दे पर तो उससे मुझे क्लैरिटी (स्पष्टता) मिल जाती है। कई बार तुम ही लोगों से मैं सलाह लेता हूँ कि अच्छा बताओ अभी ऐसा चल रहा है, मुझे क्या करना चाहिए। तो अगर मैं शिष्य नहीं बन सकता तो गुरु होने का तो मुझे कोई हक़ ही नहीं है। और मुझे ज़्यादा पसंद भी यही है कि मैं शिष्य ही बना रहूँ। कोई गुरु वग़ैरा मुझे बोलता है तो मुझे थोड़ा अटपटा लगता है मुझे गुरु होना भी नहीं है किसी का।

सीखने को तैयार रहो। जीवन एक यात्रा है, उस पर लगातार आगे बढ़ते रहो, अपने बंधनों से जूझते रहो। साहस रहे, श्रद्धा रहे, यही है बस और कुछ नहीं। बाक़ी सब बस डिस्ट्रेक्शन है, गौसिप है, बकवास है, माया है।

प्र: आपने तो गुरु वाली बात का पूरा चैप्टर क्लोज कर दिया है।

आचार्य कोई चैप्टर क्लोज नहीं हुआ है। दस साल पहले भी तुम्हें शंका थी, आज भी है और अगर हम बने रहें तो हो सकता है दस साल बाद भी हमें इस मुद्दे पर एक बार और बात करने की ज़रूरत पड़ जाए। माया है भाई, वो कहीं नहीं चली जाती। "मोटी माया सब तजे, झीनी तजी न जाय।"

मोटी माया सब तजें, झीनी तजी न जाय। पीर, पैगंबर, औलिया, झीनी सबको खाय।। ~ कबीर साहब

तो वो झीनी माया है, वो भीतर किसी-न-किसी तरीक़े से मौजूद रहती है, आप सतर्क रहें, ध्यान में रहे, बस।

प्र: धन्यवाद!

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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