कैरियर का चुनाव कैसे करूँ?

Acharya Prashant

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कैरियर का चुनाव कैसे करूँ?
बहुत बदहाल और गई-गुज़री होती है वो ज़िंदगी जिसमें आप पैसा कमाने के लिए वो काम कर रहे होते हो जिसमें प्यार नहीं है। मैं बार-बार कहता हूँ — दो काम बिना प्यार के नहीं करने चाहिए; एक, किसी का साथ और दूसरा, नौकरी। और दुनिया के जितने लोग हैं न और खासकर भारत में, इन सबने पहली बात तो बिना प्यार के साथी चुना और दूसरे बिना बना प्यार की नौकरियाँ कर रहे हैं। यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

प्रश्नकर्ता: नमस्ते आचार्य जी, मैं शुरू से पढ़ाई में अच्छा प्रदर्शन को लेकर तत्पर रही हूँ। दसवीं में मैंने टॉप भी किया था। बैडमिंटन में मेरा राष्ट्रीय स्तर का प्रदर्शन था। मुझे मेडिकल की पढ़ाई और बैडमिंटन खेल के प्रति रुझान था। पर दोनों में से कोई भी, मैं आगे जारी नहीं कर सकी।

मुझे बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी में प्रवेश मिला और मैंने यूपीएससी की तैयारी का फैसला लिया। लेकिन मुझे डर लगता था कि चयन नहीं हो पाएगा। मैं देश के शीर्ष पाँच केंद्रीय विश्वविद्यालयों में टॉप किया है और अभी मैं दिल्ली यूनिवर्सिटी में क्लिनिकल साइकोलॉजी में मास्टर्स की पढ़ाई कर रही हूँ। पर मुझे लगता है कि मैंने लक्ष्य को लेकर बड़ी भूल कर दी। कृपया बताएँ कि मैं कैसे निर्णय लूँ।

आचार्य प्रशांत: देखिए, आपका जो पूरा सवाल है न वो दस जगह पर बिखरा हुआ है, वो दसवीं से लेकर अभी तक यहाँ बिखरा, यहाँ बिखरा, यहाँ बिखरा। बात बहुत सीधी है, किसी भी लक्ष्य के लिए मेहनत तो तब होती है न जब अपना और उस लक्ष्य का रिश्ता पता हो। दसवीं के नंबरों पर मत जाइएगा, वो बहुत आसानी से आ जाते हैं। दसवीं के नंबर किसी भी तरीके से जीवन में स्पष्टता का द्योतक नहीं होते हैं। बहुत लोगों के दशवी में एकदम बिना कुछ करे ऐसे ही नंबर आ जाते हैं। बहुत एकदम साधारण किस्म के, बल्कि मेरे जैसे मूर्ख के भी आ गए थे तो वह उसमें कुछ नहीं है।

लेकिन जब आप बात करती हैं प्रतियोगी परीक्षाओं के, जीवन में क्या करना है, और उसमें किस तरीके के अपने एफ़र्ट (कोशिश) और टाइम का इंवेस्टमेंट (निवेश) करना है, तो इसके लिए अपने लक्ष्य से अपना बड़ा प्रेम का रिश्ता होना चाहिए तभी मेहनत हो पाती है और वो जो प्रेम है वो आपको कोई साइकोलॉजिस्ट (मनोविज्ञानी) नहीं बता देगा। आप यूँही किसी चीज़ की तैयारी करेंगी, चाहे मेडिकल एंट्रेंस एग्जाम की चाहे सिविल सर्विसेस की, तो उसमें कुछ हो नहीं पाना है।

जब प्रेम रहता है न तो ये भी स्पष्ट होता है कि कितना करना है, आदमी डूबकर करता है और प्रेम ही ये भी बता देता है कि अब और करने की ज़रूरत नहीं है। प्रेम की अगली सीढ़ी चढ़ने का वक्त आ गया है, अब इसी सीढ़ी पर और बैठे रहने की ज़रूरत नहीं है। वहाँ सब स्पष्टता आ जाती है। नहीं तो आप जो सवाल कह रही हैं वो तो हज़ारों-लाखों लोगों का है कि क्या करें, क्या न करें, इसकी बात सुनी तो कंफ्यूज (भ्रमित) हो गए, उस चीज़ में लगे तो डर गए, उस चीज़ में कुछ दिन तक मेहनत करी उसके बाद डिस्ट्रैक्ट (विचलित) हो गए। है न?

डिस्ट्रैक्शन, लैक ऑफ़ कंसंट्रेशन (एकाग्रता का अभाव), लैक ऑफ़ क्लेरिटी (स्पष्टता का अभाव), इन सबका एक ही जवाब होता है लव। प्रेम होता है तो कंसंट्रेशन अपने आप बन जाता है। और क्लेरिटी के बिना लव हो नहीं सकता। क्यों जाना है भाई मेडिसिन में? क्या वजह है? आपका मेडिसिन के फील्ड (क्षेत्र) से क्या रिश्ता है, क्यों जाना है, अब क्यों साइकोलॉजिस्ट बनना है, क्यों? और जो आपने पाँच-सात विकल्प और भी गिना दिए हैं वो क्यों करने हैं?

बहुत समय पहले की बात है, उसकी पड़ी होगी रिकॉर्डिंग आप सुनिएगा, ”योर टारगेट्स आर नॉट योर टारगेट्स” (आपके लक्ष्य आपके लक्ष्य नहीं हैं)। मेरे ख्याल से आईआईटी दिल्ली के स्टूडेंट्स थे, दो-हज़ार-ग्यारह की बात होगी, 'योर गोल्स आर नॉट योर गोल्स,' कुछ इस तरीके से करके था।

तुम्हारे लक्ष्य तुम्हारे लक्ष्य है ही नहीं तो तुम उनके पीछे कितने समय तक चल लोगे? हाँ, जो छोटे-मोटे होते हैं वो चल लेते हैं, उदाहरण के लिए आप बैठी हो मम्मी ने कहा, ‘बेटा एक गिलास पानी ले आ दे।’ वो पानी आपको नहीं पीना है लेकिन फिर भी पानी कुछ नहीं, रसोई में रखा है आप जाओगे ले आकर के माँ को दे दोगे। ठीक है, उतना चल जाता है पर अब आप कहो कि इसी तरीके से आपको यूपीएससी की तैयारी करनी है तो नहीं चलेगा न। क्योंकि वहाँ बात रसोई से पानी ले आकर देने की नहीं है, वहाँ आपको कम-से-कम दो साल लगाना पड़ेगा। पूरी जो प्रक्रिया ही है वो एक साल से ज़्यादा चलती है और कुछ महीने आप कम-से-कम तैयारी के भी मानो तो कुल मिलाकर के शुरू से अंत तक दो साल लग जाता है। दो साल किसी ऐसी चीज़ में कैसे दे लोगे जिससे प्यार ही नहीं है?

हैरत की बात ये है कि लोग दो नहीं, दस साल भी दे लेते हैं और दस साल देकर भी उन्हें कुछ नहीं मिलता। और वो जो दस साल देने वाले हैं, मात्र संयोग से उनमें से किसी का, लाख में से किसी का चयन हो भी जाता है। जब किसी का हो जाता है चयन तो बहुतों को ये गलतफ़हमी हो जाती है कि बिना प्रेम के भी अगर सफलता मिल सकती है तो हमें भी मिल सकती है। तो उस एक की देखा-देखी उसके पीछे-पीछे न जाने कितने चल देते हैं बिना प्यार के।

बिना प्यार के जिस दिशा में जा रहे हो उस दिशा में कुछ हासिल नहीं होना है। आप सारे वही विकल्प बता रहे हो जो मेनस्ट्रीम (मुख्यधारा) हैं। जो बहुसंख्यक छात्र चुनते हैं आप भी उन्हीं की बात कर रहे हो। आपको क्यों चुनना है? आपने कहा आप बैडमिंटन में नेशनल खेलकर आई थीं, मैंने बैडमिंटन का उसके बाद आपसे नाम ही नहीं सुना, कहाँ चला गया बैडमिंटन?

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, वो इसलिए क्योंकि मैं एक बहुत छोटे शहर से थी तो जब ट्रेनिंग की बात हुई तो इस शहर में कोई कोच नहीं था और पेरेंट्स ने सुझाव दिया कि आप पढ़ाई पर फोकस करें।

आचार्य प्रशांत: प्रेम में ये थोड़े ही देखा जाता है। अभी-अभी हम सत्र में क्या बोल रहे थे,

“अब चाहे माँ रूठे या बाबा यारा तेरी बाह पकड़ ली।”

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी वो नहीं, मतलब जो मेरे कोच यहाँ पर भी जो मुझे सिखाती थी। एक असेसमेंट (मूल्यांकन) के बाद उन्हें लगा कि जो स्कूल नेशनल गेम होते हैं, एसजीएफ़आई नेशनल वहाँ तक आपने करा। वहाँ तक करने में भी बहुत ही ज़्यादा..।

आचार्य प्रशांत: आप न मेरा असेसमेंट करके बता दो कि गीता आपने जहाँ तक पढ़ा ली वहाँ तक कर सकते हो, उससे आगे नहीं कर सकते। आप बोल के दिखा दो मुझे। आप मेरा असेसमेंट करके मुझे बता दो कि आचार्य जी, आपने जितनी किताबें करवा दीं, करवा दीं, उसके आगे मत करवाओ, आपका लेवल नहीं है। आप बोलकर रोक लो मुझे। ये कौन-सा प्यार है जो दूसरों के असेसमेंट पर आश्रित है? और जो इस पर आश्रित है कि मैं छोटे शहर से हूँ कि बड़े शहर से हूँ? मैं आपको बैडमिंटन प्लेयर बनने के लिए अब नहीं बोल रहा हूँ, अब तो आप, आपकी क्या उम्र हो रही होगी अब?

प्रश्नकर्ता: चौबीस।

आचार्य प्रशांत: अब तो, बना तो अभी भी जा सकता है।

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, खेलना तो मैंने फिर से शुरू कर दिया है।

आचार्य प्रशांत: वाह! यही बात होती है।

प्रश्नकर्ता: जब आप खेलते हो तो आपकी पढ़ाई भी अच्छी होती है इसीलिए मैं खेलती तो हूँ और मैंने मुझे स्ट्रेन ट्रेनिंग (तनाव प्रशिक्षण) करने का बहुत समय से मन था तो मैंने जिम भी जॉइन किया है।

आचार्य प्रशांत: अपन ने भी गोल बनाया है कि अगर टाँगे चलती रही तो टेनिस में टूर्नामेंट खेलने जाएँगे और कम्युनिटी पर उसका लाइव करेंगे। कौन आकर हमें बताएगा, कौन-सा डॉक्टर आकर कहेगा कि नहीं, मत करो? कौन-सा कोच आकर कहेगा कि नहीं, तुम्हारी प्रतिभा नहीं है? करना है तो करना है। आप जितनी बातें बोल रहे हो न वो सारी बिल्कुल एकदम सधी-सधी हैं, मेनस्ट्रीम हैं, ‘सब ऐसे करते हैं, मैं भी करूँगी।’ ऐसी बातों में प्यार कहीं नहीं होता, बेटा। और ज़िंदगी न ऐसे गणित पर नहीं चलती है उसके लिए प्यार चाहिए होता है।

और मुझे बहुत ज़्यादा कोफ़्त होती है जब मैं किसी जवान व्यक्ति को देखता हूँ जिसके पास प्यार से ज़्यादा डर होता है। पूछता हूँ बार-बार, बेधड़क जीने में समस्या क्या है? चल लो न किसी भी दिशा, क्या है मतलब, कैरियर माने क्या होता है? कितने पैसे चाहिए ज़िंदगी में? अभी आपका कितना खर्चा है महीने का?

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, बहुत ही कम, तीन महीने में दस हज़ार।

आचार्य प्रशांत: मान लो महीने का दस हज़ार का भी है, तीन महीने का नहीं। तो इतना क्या कमा नहीं लोगे? कैरियर माने क्या होता है? कैरियर माने प्यार होना चाहिए न। प्यार है तो ये दस हज़ार, बीस हज़ार, मैं कहता हूँ चालीस हज़ार भी बहुत आसानी से आ जाते हैं। कौन-सी बड़ी बात है इतना पैसा? और एक आदमी जो अभी-अभी अपनी यात्रा पर निकल रहा है अपनी, अभी वो बीस की वय में है या तीस तक पहुँच रहा है उसको इससे ज़्यादा पैसे चाहिए भी क्यों? तुम्हें और किसी तरीके से बड़े खर्चे करने, कुछ करने हैं, उसके लिए पूरी ज़िंदगी पड़ी है। तो कैरियर का मतलब तो होना चाहिए प्यार, अंवेषण, घूमना-फिरना, जानना, अनुभव एकत्रित करना। है न? उसकी जगह हम कैरियर का पैमाना बना लेते हैं कि सब लोग कहें कि बहुत बड़ा एग्जाम क्रैक कर दिया, बहुत बड़ी नौकरी लग गई, बहुत सारे पैसे मिल गए, बहुत बड़ी नौकरी का भी हमारा यही पैमाना है कि उसमें पैसे खूब मिलते हैं।

कैरियर को लेकर चिंता है ही क्यों बताओ तो? पैसे तो तुमको मिल ही जाएँगे। तो आप तो अभी बोल रहे हो कि महीने का तीन हज़ार खर्च करते हो, मैं कह रहा हूँ, तीन की जगह अगर आप बीस-तीस भी करते हो तो उतना भी आपको मिल जाएगा। ये आज के समय में कोई बड़ी बात नहीं है। तो ध्यान पैसे की ओर तो होना ही नहीं चाहिए न, ध्यान तो किसी और दिशा में होना चाहिए। जिस दिशा में होना चाहिए उधर दिल ही नहीं है।

अपने आप से पूछो, मैं कैसी हूँ, बैठो और जैसे अब तुम्हारे सामने तुम्हारी कोई हमशक्ल बैठ गई हो, उससे बात करो। फिर उससे पूछो कि तू दिल से बता तुझे क्या चाहिए, दिल से बता और फिर ये मत देखो कि मामला प्रैक्टिकल (व्यावहारिक) कितना है। ये शब्द है न प्रैक्टिकल ये बहुत बड़ी मूर्खता है, जब प्यार होता है तो सब प्रैक्टिकल हो जाता है।

समझ में आ रही है बात?

कहते हैं, प्यार होता है न तो जो लंगड़ा होता है वो चलना शुरू कर देता है, वो भी प्रैक्टिकल हो जाता है। प्यार होता है तो अंधे को दिखाई देना शुरू हो जाता है। सब प्रैक्टिकल हो जाता है, बीमार आदमी उछलना शुरू कर देता है। सब प्रैक्टिकल हो जाता है। वो चीज़ होनी चाहिए और वो कोई बाहर से लाने वाली चीज़ नहीं है, वो सबमें होता है। पर प्यार डर के नीचे छुपा रहता है। जो आदमी इतना डरपोक होगा वो प्यार के लिए उतना कम काबिल होगा। प्रेम की सारी पात्रता ही डर के नीचे समाप्त हो जाती है तो वो सबमें होता है। एक बार को ऐसे पूछो अपने आप से, ‘अगर मैं डरी न होती तो मैं क्या फैसला लेती?’

ये पूछा करो, ‘किसी भी मुकाम पर ये सवाल है कि अगर मैं डरी न हूँ तो मैं क्या फैसला लूँगी?’ एकदम डर न हो, मुझे डराने वाला कोई नहीं मेरे ऊपर, कोई डर नहीं है मेरे ऊपर। अब डर नहीं तो लालच भी नहीं होगा, लालच होता है तो डर होता है। तो ‘मेरे ऊपर कोई डर नहीं है तो बताओ अभी मेरा फैसला क्या होगा?’ लिख लो। ऐसे ही कह दो, ‘बस लिख तो रहे हैं, कोई इस फैसले पर चलना थोड़े ही है।’ और फिर उस फैसले पर चल जाओ। अगर पहले ही बता दोगे न अपने आप को कि जो फैसला लिखेंगे उस पर चलना पड़ेगा तो भीतर जो बैठा हुआ है न वो लिखने ही नहीं देगा सही बात। पहले कहो, अच्छा अगर हाइपोथेटिकली, जस्ट एज़्यूममिंग फ़र्ज कीजिए, कल्पना कीजिए, ‘अगर मैं डरी नहीं हूँ तो मैं इस जगह पर क्या करूँगी?’ और लिख डालो और फिर कर डालो। कैरियर ऐसे बनता है। अच्छा जिससे सवाल पूछ रही हो उसको कुछ समझती होगी तभी उससे सवाल पूछ रही हो। मेरा क्या कैरियर है? नहीं आपने तो आईआईटी, आईआईएम। अच्छा, एक बात बताओ, आईआईटी, आईआईएम करके ये करना ज़्यादा आसान है, ज़्यादा मुश्किल है? ईमानदारी से बोलना।

प्रश्नकर्ता: मुश्किल है।

आचार्य प्रशांत: मुश्किल है न? क्योंकि कितने रास्ते खुल जाते हैं और बहुत सारी लालच की चीज़ें खड़ी हो जाती हैं। मैं कुछ न हूँ, बिल्कुल बेरोज़गार हूँ, सड़क का आदमी हूँ, कुछ आता-जाता नहीं, ज़िंदगी एकदम बर्बाद मेरी, तो बाबा बनना आसान है या वो सब छोड़कर बाबा बनना आसान है?

प्रश्नकर्ता: तब ज़्यादा आसान है।

आचार्य प्रशांत: ज़्यादातर जो तुम बाबे देखते हो इनके पास कुछ था भी छोड़ने के लिए? ये अपने आप को त्यागी बोलते हैं, इन्होंने काहे का त्याग किया है, तुम्हारे पास था क्या? न तुम्हारे पास शिक्षा थी, न तुम्हारे पास नौकरी थी, न तुम्हारे पास व्यापार था, न तुम्हारे पास कोई ज्ञान था, तुमने क्या त्यागा है? तुम काहे के बाबा हो?

ठीक?

अब मैं आपके सामने बैठा हूँ बहुत सारी चीज़ें थी जो बुला रही थी, सब तरीके के लालच बाहें फैलाए खड़े थे, ‘आओ, आओ।’ स्वागत कर रहे थे और ये जो कर रहा हूँ ये कैरियर है। प्यार सबसे बड़ी बात है। और जब आप ये करते हो फिर बताना, अब तो आप मिड ट्वेंटीज़ में हो इतना समझते हो, बिजनेस प्लान तो जानते हो। जो मैं कर रहा हूँ, क्या ये काम किसी भी तरीके के बिजनेस प्लान से हो सकता है या किसी भी तरह के प्लान से हो सकता है? बस हो जाता है। जब प्यार होता है न तो आगे का रास्ता अपने आप बन जाता है। आपको पता भी नहीं होता कैसे बनेगा। बिना योजना के बनता है।

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, जैसे आपने कहा कि आप कुछ अनुभव इकट्ठे करते हो, आप दुनिया देखते हो तो आपको फिर पता चलता है कि मैं क्या चाहती हूँ और मुझे क्या करना है। तो जैसे मैंने कहा कि मेरे कुछ अनुभव रहे जैसे कि मेडिसिन क्यों करना है। तो मुझे अक्सर मेडिकल जाना होता रहा क्योंकि मैं अलग-अलग तरीके से बीमार रहती थी। तो वहाँ जब बेड पर लेटी हूँ या कुछ भी है। और जो इंटर्न हैं और जो स्टूडेंट्स हैं उनको देखती थी तो ये चीज़ मन में आती थी कि वो जो काम कर रहे हैं वो मैं भी करना चाहती हूँ। ये आता है कि वो जो काम कर रहे हैं...।

आचार्य प्रशांत: वो जो काम कर रहे हैं अभी, उनसे बात करी? ये कैरियर चुनने में महत्त्वपूर्ण बात है इसको समझना, जब कोई चीज़ आकर्षित कर रही हो तो उसको तुरंत कैरियर नहीं बना लेते। जब कोई आकर्षित कर रहा होता है न उसके पास जाकर समझते हैं। नहीं तो कई बार तो बड़ा इंप्रेसिव (प्रभावशाली) लगता है आप जब दसवीं-बारहवीं में होते हो तो आपने देखा कोई हैंडसम-सा इंटर्न है। वो सफ़ेद कोट पहनकर आया हुआ है, इंप्रेसिव भी लग रहा है नॉलेजेबल (जानकार) भी लग रहा है, आपसे उम्र में भी बड़ा है और हैंडसम, सेक्सी भी लग रहा है तो एकदम से लगता है, ‘हाय, हाय! मुझे भी मेडिको बनना है।’ अब ठीक है, लगने में कोई दिक्कत नहीं, लग गया तो लग गया। उसकी ज़िंदगी में झाँककर देखो भी, उससे थोड़ा बात भी करो, ‘तुम्हारी ज़िंदगी क्या है, तुम क्या करते हो सुबह से शाम तक क्या है, तुम्हारा मोटिवेशन क्या है, तुम क्या चाह रहे हो, लालच क्या है तुम्हारा, कामना क्या है, उद्देश्य क्या है?’ ये सब बातें उससे पूछो।

कोई चीज़ आकर्षित करे, आकर्षण में बुराई नहीं है पर जो चीज़ आकर्षित करे उसके बारे में अज्ञानी रह जाओ, इसमें तो बुराई है। जो चीज़ आकर्षित करे उसके फिर करीब जाकर उसको समझो न। आकर्षण अगर टिका रहने लायक होगा तो टिका रहेगा नहीं तो जब तुम जाकर के जाँच-पड़ताल करोगे तो आकर्षण गिर जाएगा। ठीक है?

कैरियर ऐसे बनता है, ज़िंदगी को जानकर-समझकर अपने आप स्पष्ट होता जाता है, ‘ये नहीं, ये।’ और जब इस तरीके से कैरियर का निर्धारण होता है न तो जो रास्ते आपने सोचे भी नहीं थे, आप उन रास्तों पर चलना शुरू कर देते हो। यहाँ बैठे-बैठे सोचोगे 'व्हाट काइंड ऑफ़ कैरियर शुड आई हैव?' (मुझे किस तरह का कैरियर अपनाना चाहिए?) बैठे-बैठे सोच रहे हो उससे नहीं होगा। येऑर्गेनिक (जैविक) प्रक्रिया होती है।

आप ज़िंदगी के साथ एक इंगेजमेंट (काम) करते हो। जब वो करते हो तो ज़िंदगी फिर अपने आप कुछ ऐसे रास्ते खोलती है, एकदम अनूठे रास्ते, हो सकता है उन पर पहले कभी कोई चला भी न हो। पर आपको पता चलता है वही रास्ते आपके हैं, वही रास्ते प्यार के हैं।

फिर से बोल रहा हूँ, बहुत बदहाल और गई-गुज़री होती है वो ज़िंदगी जिसमें आप पैसा कमाने के लिए वो काम कर रहे होते हो जिसमें प्यार नहीं है। और पूरी दुनिया वही काम कर रही है इसीलिए इस दुनिया से मेरी इतनी लड़ाई है क्योंकि ये सब फँसे हुए लोग हैं। मैं बार-बार कहता हूँ — दो काम बिना प्यार के नहीं करने चाहिए; एक, किसी का साथ और दूसरा, नौकरी। और दुनिया के जितने लोग हैं न और खासकर भारत में, इन सबने पहली बात तो बिना प्यार के साथी चुना और दूसरे बिना बना प्यार की नौकरियाँ कर रहे हैं, अब बताओ ये मेरे साथ कैसे आएँगे, इन्हें तो घृणा है मुझसे। क्योंकि मैं इनको दिखा रहा हूँ कि इनकी ज़िंदगियाँ कितनी घृणास्पद हैं। वो काम अपने साथ मत होने देना।

दो ही जगह होती है न जहाँ अपना समय बिताओगे, ऑफ़िस और घर। न ऑफ़िस में प्यार है, न घर में प्यार है, तो जिओगे कैसे? ऑफ़िस में बस ऐसे ही मगज मारे कुछ कर रहे हो कि पैसा मिल जाएगा, सैलरी मिल जाएगी तो क्या कर रहे हो? घुट रहे हो, जान दे रहे हो, बर्बाद हो रहे हो, और क्या कर रहे हो। फिर घर आते हो वहाँ बच्चे चिल्ल-पों कर रहे हैं. बच्चे कहाँ से आ गएँ? बस ऐसे ही आ गए, ठरक! प्रेम का तो कोई रिश्ता कभी था ही नहीं। कैसे जिओगे?

प्रश्नकर्ता: कुछ मेडिकल प्रोफ़ेशनल से बात करने की कोशिश की। उन्होंने मुझे यही कह दिया कि अब तो तुम चौबीस की हो अब क्या करोगी। मेडिसिन बहुत लंबी..।

आचार्य प्रशांत: वो बात करने लायक ही नहीं थे, जो ऐसी फालतू जवाब दें तो उनसे क्या बात कर रहे हो। इतने सारे मेडिकल प्रोफ़ेशनल हैं, किसी ढंग के आदमी से बात करो।

प्रश्नकर्ता: और आचार्य जी सिमिलर एक्सपीरियंस और सिमिलर फैसिनेशन (समान आकर्षण) ही यदि मुझे क्लिनिकल साइकोलॉजी और यूपीएससी के लिए हुआ है तो उसमें भी यही उचित है कि मैं पहले उन लोगों से...

आचार्य प्रशांत: बिल्कुल जाकर सबसे बात करो। देखो गहराई से। जो साइकोलॉजिस्ट रहें, उनकी किताबें पढ़ो। अप्स, डाउन, हाईज़, लो सब अच्छे से समझो और उसके बाद फैसला लेना नहीं पड़ता, फैसला हो जाता है। तुम्हारा काम है सच्चाई जानना, उसके बाद तुम्हारे लिए सच्चाई खुद फैसला कर देगी।

ठीक है?

और डरो नहीं, सच्चाई जो फैसले लें तुम्हारे लिए वो हो सकता है कि तुम्हारी पसंद-नापसंद से मेल न खाएँ पर एक बार तुमने सच्चाई को ऑथराइज़ (अधिकृत) कर दिया कि सर यू डिसाइड ऑन माय बिहाफ़ (आप मेरी ओर से निर्णय लें), उसके बाद वो जो भी फैसला ले उसके आगे सिर झुकाओ। वो फैसला अक्सर ऐसा होगा जो तुमको अटपटा लगेगा। अटपटा लगे तो लगे। भाई, मैंने जिसको दे दिया था अथॉरिटी उसने तय किया है मेरे लिए। द सुपर बॉस हैज़ डिसाइडेड फ़ॉर मी। आई कांट बैक ऑफ़ (सुपरबॉस ने मेरे लिए फैसला किया है न , मैं पीछे नहीं हट सकती)।

ठीक है?

प्रश्नकर्ता: जैसे यूपीएससी करने का थॉट (विचार) कई बार मन में आता है फिर तुरंत ही ये थॉट आ जाता है, ‘मैं कभी नहीं कर पाऊँगी।’

आचार्य प्रशांत: यूपीएससी क्यों करनी है? पिक्चर देखी है इसलिए?

प्रश्नकर्ता: नहीं आचार्य जी।

आचार्य प्रशांत: तो क्यों करनी? कितने सिविल सर्वेंट से आकर बात करी है? कितने ब्यूरोक्रेट की ज़िंदगी जानते हो? कितना ये जानते हो कि सिविल सर्विसेस एग्ज़ाम में जो अलग-अलग सर्विसेज़ होती हैं उनमें क्या कैरियर पाथ होते हैं? ये सब पता करा है? आप प्रमोट (पदोन्नत) होते हो, मान लो आप रेवेन्यू (राजस्व) में हो, आप प्रमोट हो गए; क्या आपका कैरियर पाथ होगा, ये सब आपने अच्छे से पता करा है? या आप फ़ॉरेन सर्विस (विदेश सेवा) में जाते हो तो उसमें आप तुरंत तो एंबेसडर (राजदूत) नहीं बन जाओगे, उसमें पूरा कैरियर पाथ क्या होता है, ये सब जानते हो?

प्रश्नकर्ता: मैंने दो-तीन ब्यूरोक्रेट्स की बायोग्राफी (जीवनी) को पढ़ा और एक से ही बस मुलाकात हुई।

आचार्य प्रशांत: ऐसे नहीं होता, बेटा। ऐसे नहीं होता। मैं आपसे बात इसलिए कर पा रहा हूँ क्योंकि मैं आपसे जिस मुद्दे पर बात कर रहा हूँ इस मुद्दे पर मैं हज़ारों नहीं तो सैकड़ों किताबें पढ़ चुका हूँ। आपसे नहीं कह रहा सैकड़ों किताबें पढ़ो लेकिन कम-से-कम उतनी तो जानकारी इकट्ठा करो कि निर्णय स्वतः स्फूर्त होने लग जाए। एक ऑटोमेटिक क्लेरिटी (स्वतः स्पष्टता) आती है जिससे ऑटोमेटिक डिसीजन मेकिंग (स्वतः निर्णय) हो जाती है।

डोंट बी इन अ हरी टू डिसाइड एनीथिंग (किसी भी बात पर निर्णय लेने में जल्दबाज़ी मत करो)। कुछ नहीं हो रहा चौबीस के हुए हो, मरे नहीं जा रहे हो। बैठ लो थोड़ी देर बेरोज़गार, कुछ नहीं हो गया, तुम्हारे खर्चे ही कितने हैं, खाली भी बैठोगे तो क्या हो जाएगा? कोई पहाड़ नहीं टूट पड़ा। लेकिन गलत दिशा में मत बहक जाना, फ़ालतू के किसी प्रोफ़ेशन (पेशा) में प्रवेश मत ले लेना।

ठीक है?

ज़िंदगी को फैसला करने का वक्त दो, ज़िंदगी करती है। ज़िंदगी फैसला करेगी माने ये नहीं कि आप ऐसे हाथ पर हाथ रखकर बैठ गए, इसका मतलब है कि आप सक्रिय रूप से ज़िंदगी से इंगेज़्ड (काम पर लगे) हो, आप जानने-समझने की कोशिश कर रहे हो, लगातार कर रहे हो, कर रहे हो। और उस कोशिश से फिर अपने आप एक रास्ता निकलता है। अनपेक्षित होता है वो रास्ता, कोई बात नहीं, अच्छी बात है।

ठीक है?

प्रश्नकर्ता: जी, थैंक यू सो मच आचार्य जी।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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