बुरी संगत कैसे पहचानें? कैसे बचें? || आचार्य प्रशांत (2017)

Acharya Prashant

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बुरी संगत कैसे पहचानें? कैसे बचें? || आचार्य प्रशांत (2017)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, मित्रों से परेशान हूँ, वो मुझसे वो करवाना चाहते हैं जो मेरा करने का मन नहीं है। ‘बाबर जी!’ (प्रश्नकर्ता को सम्बोधित करते हुए, श्रोतागण हँसते हैं) मेरे अन्दर किसी तरह का बदलाव उन्हें स्वीकार नहीं है तो क्या मैं उन्हें त्याग दूँ या उनके साथ हो लूँ? मार्गदर्शन दें।

आचार्य प्रशांत: उतने सीधे आप हो नहीं जितने लगते हो। दोस्त चिकन खिलाए तो तुम खा लेते हो और फिर कहते हो कि ये दोस्त गुमराह करते हैं — ‘दोस्तों के प्रभाव तले चिकन खा लिया!’ और कोई दोस्त तुम्हें नीम का काढ़ा पिलाए तो तुम पीते हो? जवाब दो, बोलिए।

तो ऐसा कैसे है कि तुम दूसरों के प्रभाव में चिकन खाने को तो तैयार हो जाते हो पर दूसरा ही जब तुम्हें प्रभावित करके कहे कि नीम का काढ़ा पी लो तो तुम तैयार नहीं होते, अब बात दूसरे की है कि तुम्हारी है। बोलिए, बात दूसरे की है कि तुम्हारी है?

दो बातें हैं — तुम वैसे ही दोस्त आकर्षित करते हो जैसे तुम हो या जैसे तुम हो जाना चाहते हो। दूसरी बात कोई भी तुमसे बस वही करा सकता है जो करने के लिए तुम आन्तरिक रूप से तैयार बैठे ही हो।

तुम मुक्ति के लिए तैयार नहीं हो कोई गुरु तुम्हें मुक्ति नहीं दे सकता। और तुम माँस के लिए तैयार नहीं हो तो कोई दोस्त तुमको माँस नहीं खिला सकता। होगा अंततः वही जिसके लिए तुम तैयार हो। गुरु बहाना है और कुसंगति भी बहाना है। गुरु भी कैटलिस्ट (उत्प्रेरक) भर ही तो बनता है, तुम तैयार होते हो वो आकर तुमसे कहता है — “आशीर्वाद है, आगे बढ़ो, अब रुको मत, डरो मत।"

तैयारी तुम्हारी पूरी होती है, तुम्हारी तैयारी पूरी न हो तो तुम गुरु को भगा दोगे, ‘भाग यहाँ से, आ जाता है टाइम खोटा करने।’ और तुम्हारी तैयारी पूरी होती है तभी तुम ऐसे उत्सव में जाते हो जहाँ वैसे दोस्त होते हैं और फिर चिकन खाते हो। मैंने बात चिकन तक ही सीमित रखी है मर्यादा का ख़याल रखते हुए और भी तरह के माँस होते हैं जो दोस्तों के प्रभाव में आदमी भोग लेता है तो उनकी बात नहीं कर रहा।

आप पूछ रहे हैं — ‘मेरे मित्रों को मेरा किसी तरह का बदलाव स्वीकार नहीं है; क्या मैं उन्हें त्याग दूँ या उनके साथ हो लूँ?’

उनको त्यागना स्वतः हो जाएगा जब आप परिवर्तित हो जाएँगे। मेरे कमरे में चींटियाँ लगी हुईं थी, मैंने पाया कोने में बिस्कुट का एक छोटा सा टुकड़ा पड़ा था। मैं एक-एक चींटी को हटाऊँ या बिस्कुट के टुकड़े को? सारी चींटियाँ आप तक तभी तक आ रही हैं जब तक आप बिस्कुट के टुकड़े हैं। ये सारे दोस्त आप तक तभी तक आ रहे हैं जब तक आप में कुछ ऐसा है जो उनके जैसा है।

एक-एक चींटी का क्या नाम लेना, क्या विरोध करना? अरे! तुम बिस्कुट हटा दो चींटियाँ अपनेआप हट गईं। आप बदल गये तो ये चीटियों की जितनी कतार आपके साथ लगी हुई है ये सब हट जाएगी, ख़ुद हट जाएगी। आप के ऊपर इल्ज़ाम भी नहीं आयेगा वही आपके पास आना बंद कर देंगे। आप उन्हें बुलाते फिरोगे तब भी नहीं आयेँगे, आप पीछा करना देखना वो तब भी नहीं आयेँगे।

अभी तो आपकी समस्या ये है कि दोस्त आपको बिगाड़ रहे हैं फिर आपकी समस्या ये होगी कि दोस्त कहीं मिलते ही नहीं, बुलाता हूँ तो भी नहीं आते। आप बदलो तो सही। आप जब तक वही हो जो आप हो — साधारण सी बात है, सहज, प्रत्यक्ष बात है — आपको वैसा समाज, वैसे दोस्त मिलते ही रहेंगे जैसे आपको मिल रहे हैं। और दोस्तों का स्वार्थ है कि आप वैसे ही बने रहे जैसे आप हो, इसीलिए वो आपका कोई बदलाव स्वीकार नहीं करते। ये तो होगा ही। आप उनसे हो वो आप से हैं तो वो चाहेंगे ही नहीं कि आप बदलो।

कबीर को इसीलिए बोलना पड़ा था न कि जब साधु की संगत में चलते हो तो ये जितने दोस्त-यार और बंधु होते हैं ये बड़ी अड़चन लगाते हैं।

क्यों अड़चन लगाते हैं? क्योंकि तुम बदल गये तो उनका जैसे कोई अंश मिट जाएगा। वो आपका मज़ाक उड़ाएँगे, वो आपसे कहेंगे — ‘अरे! क्या पढ़ रहे हो? ये क्या उठा लिया? उपनिषद् उठा लिए! क्या ये पुराने ज़माने की बात है!’

सीधी-सी कहावत है न कि कोई आदमी कैसा है ये जानना हो तो ये देख लो कि उसके इर्द-गिर्द कौन से लोग हैं? उसकी संगत कैसी है?

“ए मैन इज़ नोन बाई द कंपनी ही कीप्स।"

तुम बदलो, और बदलने की राह में जब ये दोस्त यार बाधा बने तो जान लो कि दोस्त है ही नहीं ये, दुश्मन हैं। बाधा जब तक न बन रहे हों तब तक तो फिर भी ठीक है, जहाँ बाधा बनने आये तहाँ कहो कि अब दिखाई नहीं देना दुबारा। और सर्वप्रथम ज़िम्मेदारी अपने ऊपर लीजिए।

नये लोग आपकी ज़िन्दगी में न जाने कहाँ से आ जाएँगे आपको नहीं पता चलेगा, आप डरते क्यों हैं कि ये पुराना समाज त्याग दिया तो अकेलेपन से मर जाऊँगा? ये हमारी बड़ी समस्या रहती है, हम कहते हैं, ‘यही तो लोग हैं इन्हीं के साथ तो जीना है। आपका सत्संग तो दो घंटे में ख़त्म! और दो घंटे के बाद, यही तो मेरा कुनबा है, इन्हीं से तो दाना-पानी, हुक्का-पानी; नहीं ऐसा नहीं है, तुम उन सबके साथ पैदा तो नहीं हुए थे न, जिनको आज अपना दोस्त-यार बोलते हो या पैदा हुए थे?’ सब इकट्ठे, बंडल निकला था, वो भी तुम्हें जीवन में किन्हीं-किन्हीं जगहों पर, पड़ावों पर मिलते चले गये और जैसे तुम थे उस कारण सम्बन्ध बनता चला गया।

अगर वो मिल सकते हैं तुमको तो और भी तो मिल सकते हैं, तब तुम पैदा हुए थे तो तुम्हें पता था कि इन अमुक लोगों से तुम्हारी दोस्ती हो जाएगी? बोलो। आज जो तुम्हें बड़े प्राणप्यारे लग रहे हैं, बड़ा याराना है जिनसे, जब पैदा हुए थे तो उनका नाम जानते थे? तो वो भी तो आगे चलकर मिल गये न! जब पैदा हुए थे तो अज्ञात थे वो तो अज्ञात पर ज़रा श्रद्धा रखो, अभी आगे बढ़ो और भी मिलेंगे, लेकिन मिलेंगे वही जो तुम्हारी श्रेणी के होंगे।

तुम्हारी पात्रता के अनुसार ही मिलेंगे लोग तुमको। पात्रता नहीं है तुम्हारी तो उसी शहर में रहे आओगे जिस शहर में कोई बुद्ध होगा, शहर तो बहुत बड़ा होता है, उसी मोहल्ले में रहे आओगे जिस मोहल्ले में कोई बुद्ध होगा, मोहल्ला तो बहुत बड़ा होता है, उसी घर में रहे आओगे जिस घर में कोई बुद्ध है और बेख़बर मरोगे। उसी घर में रहोगे जिस घर में कोई बुद्ध है और तुम्हें पता भी नहीं चलेगा कि किसके साथ रह रहे हो, अगर पात्रता नहीं होगी तुम्हारी और पात्रता होगी तुम्हारी तो तुम रहते होगे हिंदुस्तान में और बुद्ध होगा कनाडा में, तुम वहाँ से उसको ढूँढ निकालोगे।

कुछ ऐसा संयोग बैठेगा दैवीय कि मिलन हो जाएगा। साफ़ कह रहा हूँ पात्रता नहीं होगी तो तुम्हारे सामने से बुद्ध गुज़र जाएगा, सामने से तो अकस्मात कभी कभार ही गुज़रता है, जिन्दगी भर तुम्हारे साथ रहेगा तो भी तुम्हें हवा नहीं लगेगी कि ये किसके साथ मैंने बीसों-चालीसों साल बिता दिए; तुम अपने ही नशे में रहोगे।

अपनी पात्रता पर ध्यान दो, पात्रता हो गई तुम्हारी परमात्मा उड़कर आयेगा तुम्हारे पास, बुद्धों की कतार लग जाएगी, तुम्हारे दरवाज़े खड़े होंगे, तुम अपनी पात्रता बढ़ाओ।

कई बार तो मैं कहा करता हूँ कि प्रार्थना भी नहीं, पात्रता। बार-बार प्रार्थना मत करो कि परमात्मा तू आ जा, परमात्मा तू आ जा; पात्रता अपनी ऐसी कर लो कि उसको झक मारकर आना पड़े। "पाछे-पाछे हरि फिरे कहत कबीर कबीर", तुम ऐसे हो गये हो कि हरि को पीछे फिरना पड़ रहा है। पात्रता अपनी ऐसी कर लो, प्रार्थना से क्या होगा? प्रार्थना करे जा रहे हो, औकात तुम्हारी है नहीं तुम्हें कैसे कुछ मिलेगा?

ये ऐसी-सी बात है कि तुम अपना दाल का कटोरा लेकर खड़े हो गये हो और बादलों से कह रहे हो, ‘समुंदर दे दो, समुंदर दे दो, बड़ी तुम्हारी गहरि प्रार्थना है, रोए जा रहे हो। प्रार्थी-भाव बहुत पूरा है और हाथ में क्या है? दाल का कटोरा। तो प्रार्थना से क्या होगा? कटोरा कर लो न अपना बड़ा! बड़ा, बड़ा, बड़ा और बड़ा अब प्रार्थना की ज़रूरत क्या है? आसमान को समाना पड़ेगा तुम्हारे पात्र में।

ऋषि-मुनियों की जो पौराणिक कथाएँ हैं उनका संकेत समझो। वो एक टाँग पर पाँच हज़ार साल तक नदी किनारे खड़े होकर तपस्या कर रहे हैं। अब यथार्थ में नहीं करी है पाँच हज़ार साल तक, न यथार्थ में एक टाँग पर खड़े थे, न एक टाँग पर खड़ा होना किसी अध्यात्म का सूचक है। लेकिन जब बात बतायी जा रही है तो क्यों बतायी जा रही, क्यों कहा जा रहा है कि फ़लाने ऋषि ने या साधक ने एक टाँग पर नदी किनारे खड़े रहकर पाँच हज़ार साल तक तप किया?

एक तरीक़े से तुमसे ये कहा जा रहा है कि उसने ईश्वर को मजबूर कर दिया। ध्रुव के सामने ईश्वर को मजबूर होकर आना पड़ा — ‘क्या बात है! क्या साधना कर रहा है! हम इनकार इनको कर ही नहीं सकते, जाना पड़ेगा। ऐसी हैसियत है इसकी, ऐसी बात है इसकी कि हम न जाएँ तो अब हमारी तौहीन है। हम न जाएँ तो फिर हम ईश्वर न कहलाएँ, हमें अपना अगर देवत्व क़ायम रखना है तो अब हमें ज़मीन पर जाना पड़ेगा। इसके सामने हमें झुकना पड़ेगा।’ ऐसे हो जाओ तुम कि परमात्मा आये तुम्हारे पास।

डरो मत, अपनी पात्रता बढ़ाओ। अब राज़ की बात सुनो— पात्रता और परमात्मा एक ही चीज़ है। पात्रता बढ़ती गयी, बढ़ती गई तो परमात्मा आयेगा नहीं, आता गया, आता गया।

यहाँ कहानियों जैसा नहीं होता, कहानियों में तो ये होता है कि पाँच हज़ार साल बाद शिव ने यकायक दर्शन दिए। ‘बोलो वत्स, क्या माँगते हो?’ यहाँ दूसरा है मामला, जैसे-जैसे तुम्हारा पात्र बढ़ता जाता है वैसे-वैसे भरता जाता है, जैसे बारिश लगातार हो ही रही हो।

बारिश हो ही रही हो तुम्हारा पात्र बढ़ता जा रहा है और भरता जा रहा है। पाँच हज़ार साल का इंतज़ार नहीं करना है, पात्रता ही परमात्मा है और बिना परमात्मा के आशीर्वाद के पात्रता तुम्हारी बढ़ेगी भी नहीं तो वही प्रार्थना है।

पात्रता ही प्रार्थना है और पात्रता ही परमात्मा है। अपनी क़ाबिलियत पर ध्यान दो।

‘मुझे मिल भी गया तो सँभालूँगा कैसे? काबिल हूँ?’ ये पूछा करो। शिविर में आये थे आप, इतना कुछ तो दिया; कितना बचा है अभी तक? पात्रता इसलिए ज़रूरी है। छेद-ही-छेद हैं पात्र में, इतना कुछ तो दिया, अब बह गया, बचा कितना? पात्र नहीं है पाइप है सालों से गुरु जी उसमें डाले जा रहे हैं एक तरफ़, वो विशुद्ध जितना डाला है उतने ही परिमाण में उधर से निकल रहा है।

‘हम ऐसे पात्र हैं कि एक बूँद की हेर-फेर नहीं करते जितना मिलता है पूरा निकाल देते हैं। कोई हम पर ग़बन का इल्ज़ाम न लगाए। हमने कुछ अपने लिए नहीं रखा। गुरु जी से हमें जितना मिला, पूरा हमने निकाल दिया। संचय करने की तो हमारी वृत्ति ही नहीं, महा अपरिग्रही हैं हम। शास्त्रों ने कहा है न, ‘परिग्रह नर्क का द्वार और जो चोर हो वही संचय करे’ तो हम कुछ बचाकर नहीं रखते। जो मिलता है सब उलीच देते हैं।’

ये तो हालात हैं और इन हालातों में तुम कहो कि ये चाहिए और वो चाहिए।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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