बुद्ध क्या हैं? ज्ञान का क्या लाभ?

Acharya Prashant

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बुद्ध क्या हैं? ज्ञान का क्या लाभ?

आचार्य प्रशांत: बुद्ध जो हैं वो तो बुद्ध होकर के ही जाना जा सकता है। बुद्ध जो हैं उसको जानने का और कोई तरीक़ा नहीं है, उसके लिए बुद्ध ही होना पड़ेगा। लेकिन बुद्ध जो कह रहे हैं, बुद्ध ने जो भी कहा है, हमारी शुरुआत तो उसको ही समझने से होती है। उसमें जाने के लिए बुद्ध होना आवश्यक नहीं है। सच तो यह है कि एक बुद्ध उसमें जाने की कोई ज़रूरत समझेगा ही नहीं। दो ये अलग-अलग बातें हैं, इनमें आपस में सम्बन्ध है लेकिन बातें हैं अलग-अलग।

पहला है बुद्ध होना, बुद्ध क्या हैं। वही असली चीज़ है, वही सत्व है, वो कुछ पढ़कर नहीं जाना जा सकता। हम सब यहाँ पर 'धम्मपद' लेकर बैठे हुए हैं। बुद्ध क्या हैं, ये धम्मपद पढ़कर नहीं जाना जा सकता। बुद्ध क्या हैं, ये तो बुद्ध होकर ही पता चलेगा। अभी हम जो कर रहे हैं वो कुछ और कर रहे हैं, अभी हम एक प्रक्रिया से गुज़र रहे हैं, अभी हम एक प्रक्रिया से गुज़र रहे हैं।

बुद्ध ने क्या कहा है, बुद्ध क्या हैं नहीं, बुद्ध ने क्या कहा है, हम वो समझने की कोशिश करने वाले हैं। है न? बुद्ध ने — ध्यान दीजिएगा — क्या कहा है, बुद्ध क्या हैं नहीं। वो एक सम्बन्धित बात है, पर थोड़ी अलग बात है। अभी हम सिर्फ़ ये देखने जा रहे हैं कि बुद्ध ने क्या कहा है। किसी भी इंसान ने जो कुछ भी कहा होता है, एक परिप्रेक्ष्य में कहा होता है, उसका एक संदर्भ होता है, एक बैकग्राउंड (पृष्ठभूमि)। जो कहा जा रहा है, उसको उसके संदर्भ से हटाकर के नहीं समझा जा सकता। समझने की कोशिश करेंगे तो उल्टा-पुल्टा हो जाएगा। कहा कुछ होगा और हम अर्थ कुछ और निकाल लेंगे, क्योंकि अभी हम जिस प्रक्रिया से गुज़रने जा रहे हैं वो ध्यान की नहीं है, वो एक मानसिक प्रक्रिया है, वो मनन की प्रक्रिया है, ध्यान नहीं है, मनन है।

ध्यान प्रक्रिया होती है बुद्ध हो जाने की। मनन प्रक्रिया होती है बुद्ध ने जो कहा है उसको समझने की। अभी हम मनन करने जा रहे हैं। जब आप मनन करते हो तो वो जो शब्द आपके सामने आने जा रहे हैं, उन शब्दों का संदर्भ, आपको ठीक-ठीक पता होना चाहिए। उसके बिना मनन ठीक-ठीक हो नहीं पाएगा, क्योंकि मन तो जीता ही है समय में न। मन का तो अर्थ ही है अतीत, भविष्य। तो समझना पड़ेगा कि वो समय कौनसा था जिसमें बुद्ध ने ये सारे शब्द कहे, उसके बिना इनको ठीक-ठीक जाना नहीं जा सकता।

फिर से ध्यान दीजिएगा, हम इसमें नहीं प्रवेश कर रहे कि बुद्ध क्या हैं, हम अभी इसमें प्रवेश कर रहे हैं कि बुद्ध ने क्या कहा। ठीक है न? फिर से कहूँगा, ये दोनों बिलकुल जुदा बातें नहीं हैं, अंतर्सम्बन्धित हैं, लेकिन फिर भी अलग-अलग हैं।

तो बुद्ध किस समय में हुए थे?

भारत में वेदों की, वेदांत की जो परंपरा है, वो आदमी की पहली जिज्ञासा थी यह जानने की कि सत्य क्या है, ठीक है न? इंसान आँखें खोलता है, देखता है, समझता है और उसके मन में, अगर वो बिलकुल ही मूढ़ नहीं है, तो उसके मन में यह भाव उदय होता है कि यह सब है क्या। यह दिन-रात क्या हैं, यह नदी-पहाड़ क्या हैं, यह पूरा संसार क्या है? और इन सबके बीच में, 'मैं क्या हूँ?' शुद्ध बिलकुल। शुरुआत उसकी वेदों से होती है, प्रकृति की उपासना के रूप में। वो जानना चाहता है, ये हवाएँ क्या हैं, ये पानी क्या है, ये आग क्या है। और उनसे एक सम्बन्ध स्थापित करता है, वही सम्बन्ध प्रकृति-पूजा के रूप में सामने आता है।

निश्चित ही जब भी सम्बन्ध स्थापित होगा तो जो सम्बन्ध स्थापित कर रहा है, वो उस तक भी आएगा, अगर जिज्ञासा गहरी है। बात सिर्फ़ इतनी ही नहीं रह जाएगी कि बाहर आग क्या है या बाहर हवा क्या है या बाहर पानी क्या है या ये भूमि क्या है या आकाश क्या है। जिज्ञासा आगे बढ़ेगी और जिज्ञासा यह भी पूछेगी कि इन सबको देखने वाला मैं कौन हूँ, क्योंकि यदि मैं नहीं हूँ, तो ये सब नहीं हैं। जिज्ञासा आगे बढ़ेगी और पूछेगी मैं क्या हूँ। तो इस तरह से आदमी आता है वेद से वेदान्त तक, आदमी आता है वेद से वेदान्त तक।

ये वो समय है जब चित्त अभी अपेक्षाकृत सरल है। अभी बहुत कुछ नहीं है जिसने मन को विकृत कर दिया हो। कम-से-कम एक विकृति तो अभी मन में नहीं ही आयी है, ज्ञान की विकृति, और सारी विकृतियाँ आ सकती हैं।

प्रश्नकर्ता: विकृति माने?

आचार्य प्रशांत: एक्सटार्शन, करप्शन (लूट, भ्रष्टाचार)। आदमी का चित्त हज़ार वृत्तियों को समेटे हुए होता है, ठीक। डर के साथ हम पैदा होते हैं, अनिश्चय के साथ होते हैं, अज्ञान के साथ होते हैं पर ज्ञान के साथ हम कभी नहीं पैदा होते। ज्ञान की विकृति समय बीतने के साथ ही आती है।

ज्ञान समाज देता है, ज्ञान बाहर से आता है। ठीक है न? तो अभी मनुष्य बहुत प्रारंभिक अवस्था में है। और सब विकृतियाँ हो सकती हैं, कामुकता हो सकती है, लालच हो सकता है, हज़ार तरह की और बातें हो सकती हैं लेकिन ज्ञान की विकृति अभी नहीं आयी है। पर समय बीतता जा रहा है और ज्ञान का संचय होता जा रहा है। तो वेद लिखे जा रहे हैं, ब्राह्मण लिखे जा रहे हैं, उपनिषद् लिखे जा रहे हैं। शास्त्र पर शास्त्र लिखे जा रहे हैं और भंडार बढ़ता जा रहा है। और ये सब क्या है? ज्ञान, ये सब ज्ञान है। तो एक नयी विकृति है जो आदमी के चित्त में प्रवेश करती है जिसका नाम है ज्ञान। ये विकृति अब आदमी से बहुत कुछ ऐसा कराएगी जो वो पहले नहीं कर सकता था।

बुद्ध का जिस समय जन्म हुआ, उस समय बाक़ी विकृतियाँ, बाक़ी सारी जो बीमारियाँ हैं, आदमी के विकार हैं, वो तो जैसे थे वैसे थे ही, आदमी में पांडित्य भी खूब भर गया था, खूब भर गया था।

प्रश्नकर्ता: पांडित्य माने?

आचार्य प्रशांत: जानना। अब जानने के नाम पर, धर्म के नाम पर हज़ार तरह की प्रथाएँ शुरू हो गयी थीं। तो जाति प्रथा ने बड़ा गहरा, बड़ा सड़ा हुआ रूप ले लिया था, उसमें बलियाँ दी जाती थीं। हज़ार तरीक़े के हवन आयोजित किये जा रहे हैं, उसमें रुपये-पैसे का खेल चल रहा है, जातिप्रथा गहरी हो गयी थी। और कुल मिला-जुलाकर जो साफ़-सुथरा, सीधा, ईमानदार वैदिक धर्म था वो अपने मूल से बहुत दूर आ चुका था।

श्रोता: करप्ट (भ्रष्ट) हो चुका था।

आचार्य प्रशांत: निश्चित रूप से। और उस करप्शन में जो केन्द्रीय तत्व था उसका नाम था ज्ञान, कि हम जानते हैं।

ऐसे समय पर बुद्ध पैदा होते हैं। ब्राह्मणों की सत्ता बिलकुल अपने चरम पर बैठी है और उनकी सत्ता का ज़ोर किसमें है, कि हम जानते हैं, हमारे पास ज्ञान है। ऐसे समय में ये शरीर पैदा होता है, बुद्ध का। ठीक है? बुद्ध ने जो कुछ भी कहा है उसको इस पृष्ठभूमि के साथ ही समझना होगा, अन्यथा समझ में आएगा नहीं। ठीक है न?

बुद्ध ने जो बातें कही हैं, उसमें जो बिलकुल केंद्रीय बातें हैं, उनको हम समझ लेते हैं। वेदान्त मूल रूप से आत्मज्ञान है, आत्मबोध है। आत्मज्ञान, आत्मज्ञान का अर्थ है 'मैं क्या हूँ।' आत्मज्ञान का अर्थ, 'मैं क्या हूँ, कौन हूँ, कहाँ से आया हूँ।' वेदान्त बिलकुल इसी धुरी पर खड़ा है, आत्मज्ञान। तो बुद्ध ने जो पहली बात कही वो थी 'अनत्ता', अनात्म।

बुद्ध ने वेदान्त के इस प्रश्न को ही उल्टा कर दिया। बुद्ध ने कहा, 'तुम हो ही नहीं, अनत्ता।' तो पूरा वेदान्त कहता है, 'आत्मन्, आत्मन्, आत्मन्' और बुद्ध ने पहली ही चीज़ कही, 'अनात्मन्।' अब याद रखना, यहाँ पर बुद्ध वेदान्त के विरोध में नहीं खड़े हैं। ये सबकुछ हो रहा है उस समय के कारण, उस पृष्ठभूमि के कारण।

बुद्ध के लिए बड़ा ज़रूरी है इस बात पर प्रहार करना कि तुम जानते हो। तुम नहीं जानते, तुम क्या 'आत्मन्-आत्मन्' कर रहे हो? कुछ है ही नहीं आत्मन्। मन को तुम आत्म का नाम देते हो और मन कुछ है नहीं। जो असली आत्म है उसको तुम मन से जान नहीं सकते। जो असली आत्म है उसको तुम मन से जान नहीं सकते तो आत्म कुछ है ही नहीं; अनत्ता, अनात्म।

समझ रहे हो?

श्रोतागण: दूसरा कोई समय होता तो बुद्ध बिलकुल ऐसा कहते ही नहीं।

आचार्य प्रशांत: बिलकुल नहीं कहेंगे। पर उस वक़्त कहना ज़रूरी था। ये तरीक़ा है बुद्ध का। सिर्फ़ एक तरीक़ा है कि जिसको तुम सेल्फ़ (आत्म) कहते हो, असल में वो है कहाँ? वो तो नो सेल्फ़ (अनात्म) है, वो तो है ही नहीं।

इसी से जुड़ा बुद्ध का अगला शब्द है 'शून्यता' कि कुछ कहो ही मत, वो है नहीं। उसे तुम जो कुछ भी समझोगे वो है नहीं। पद्धति यह वेदान्तिक ही है। वेदान्त इसको नेति-नेति के रूप में आगे बढ़ाता है, 'नहीं है।' बुद्ध ने उसको शून्य कह दिया कि 'नहीं है।' बात एक ही है, बात बिलकुल एक ही है।

अनात्म क्या है, इसको समझ पा रहे हो? बुद्ध ने किसको अनात्म कहा है? मन को। मन वो नहीं है, मन आत्म नहीं है, मन सेल्फ़ नहीं है। अनत्ता का अर्थ है मन सेल्फ़ नहीं है, तुम मन नहीं हो। पर बुद्ध ने इसका कोई स्पष्ट जवाब दिया भी नहीं है कि तुम हो क्या। बस इतना ही कहा कि तुम जो कुछ भी सोचोगे वो तुम नहीं हो, बस वो नहीं हो सकते। उसके आगे कुछ बोलूँगा तो फिर वो ज्ञान बन जाएगा और बुद्ध की सारी लड़ाई ज्ञान के ख़िलाफ़ ही है। उसके आगे अगर कुछ और बोलूँगा तो वो ज्ञान बन जाएगा और वो फिर गड़बड़ हो जाएगी।

तुम यह जान लो कि तुम क्या नहीं हो और यह जानना ही तुम हो। और इस बात पर बुद्ध ख़ामोश रह गये हैं, कहा नहीं है। कहनी चाहिए भी नहीं, बस इतना कहना काफ़ी है। जो कुछ भी कहा जाएगा, गड़बड़ ही हो जाएगी वहाँ पर।

दूसरी बात जो बुद्ध ने कही है वो है 'अनिक्का', अनित्यता। अनित्यता, जो उनके समय की भाषा में 'अनिक्का' कहलाती है।

श्रोता: इंग्लिश में क्या हुआ इसका?

आचार्य प्रशांत: *इम्पर्मानेंस*। अब ये भी बड़ी मजे़दार सी चीज़ है, बुद्ध ने सब उल्टा करके टांग दिया है। ब्रह्म के लिए वेदान्त बार-बार, बार-बार कहता है कि वो शाश्वत है, कि वो नित्य है, लगातार है, चिरंतन है। बुद्ध कहते हैं, 'जो कुछ भी तुम जान सकते हो वो अनित्य ही है, वो अनित्य ही है। उसमें कोई चिरंतन वाला तत्व नहीं है।'

जब तुम कहते हो कि कुछ भी शाश्वत है तो तुम मूलतः भविष्य की कल्पना में चले जाते हो, तुम्हारे लिए इटर्निटी (नित्यता) का अर्थ है, अनएंडिंग फ्यूचर (अन्तहीन भविष्य) और ये बात सच है ही नहीं, ब्रह्म वो है ही नहीं। ब्रह्म वो है ही नहीं। वो समय में नहीं है तो उसे नित्य इस रूप में न बोलो कि वो सदा रहेगा। जिस रूप में तुम उसे जानते हो तो वो तो अनित्य ही है। जो कुछ भी तुम जानते हो, वो अनित्य ही है।

श्रोता: क्योंकि जानता तो मन ही है।

आचार्य प्रशांत: और मन की दुनिया में सब अनित्य है, मन की दुनिया में सब अनित्य है, क्योंकि मन लगातार प्रवाहमान है, बह रहा है। लगातार बह रहा है तो नित्य कैसे हो सकता है कुछ भी? कुछ भी नित्य हो नहीं सकता उसमें। अभी एक है, थोड़ी देर में दूसरा हो जाता है, अगले ही क्षण दूसरा हो जाता है तो कहाँ कुछ नित्य है?

बुद्ध काट रहे हैं ज्ञान को। बुद्ध कह रहे हैं, 'कहाँ तुम फॅंस गये, नित्य कह रहे हो, शाश्वत कह रहे हो, अमर कह रहे हो।' ये सारे शब्द किसी अनएंडिंग रियलिटी (अंतहीन वास्तविकता) की तरफ़ इशारा करते हैं। बुद्ध कह रहे हैं, 'वो वैसा है ही नहीं।' जिस भी चीज़ को तुम अमर कहोगे, अक्षय कहोगे, वो तुम्हारे दिमाग की उपज होगी और दिमाग की हर उपज कल्पना मात्र है।

आ रही है बात समझ में?

बुद्ध ने अगली जो बात कही है वो है 'प्रतीत्य समुत्पाद', *डिपेंडेंट ओरिजिनेशन*। प्रतीत्य समुत्पाद, *डिपेंडेंट ओरिजिनेशन*। शास्त्र लगातार अद्वैत की बात करते रहे थे। द्वैत क्या होता है? द्वैत का अर्थ होता है एक ऐसी मानसिक कृति जो मानस के अतिरिक्त हो ही नहीं सकती। तुम एक सब्जेक्ट (विषयी) का निर्माण करते हो ऐसे कि वह एक ऑब्जेक्ट (विषय) को देखता है, इसी को द्वैत कहते हैं और यही है प्रतीत्य समुत्पाद। 'सम उत्पाद' मतलब दो ऐसी कृतियाँ जो एक साथ उत्पादित होती हैं। और 'प्रतीत्य' माने असली नहीं हैं, बस प्रतीति है उनकी। हैं नहीं, लगती हैं कि हैं। सम उत्पाद अर्थात् एक साथ आती हैं, *डिपेंडेंट ओरिजिनेशन*।

बोथ आर डिपेंडेंट ऑन ईच अदर फॉर दियर ओरिजिनेशन (अपनी उत्पत्ति के लिए दोनों एक दूसरे पर आश्रित हैं)। जैसे कि सुख और दुख।

श्रोता: द्वैत।

आचार्य प्रशांत: हाँ, द्वैत। पर बुद्ध ने द्वैत शब्द का इस्तेमाल नहीं किया क्योंकि द्वैत शब्द पर किसने कब्ज़ा कर लिया था? ब्राह्मणों ने, ज्ञानियों ने। बुद्ध ने कहा, 'न, तुम जो कुछ जानते हो वो झूठा है, वो तुम्हारे मन का ही उपकरण बन चुका है।' तो बुद्ध ने उसको दूसरे शब्दों में कहा, दूसरी दिशा से कहा। यह ज्ञान पर हमला है बुद्ध का। ठीक है? प्रतीत्य समुत्पाद।

बुद्ध कह रहे हैं कि जो कुछ एक साथ भाषित होता है, एक-दूसरे के बिना रह नहीं सकते, वह दुख ही है और उसको असली मत मान लेना। उसको तुम असली मत मान लेना। समझ रहे हैं न? उसमें भी फिर आगे जाकर के उन्होंने बारह चीज़ें बतायी हैं, कारण बताये हैं, निदान बताये हैं कि किस-किस तरीक़े से ये द्वैत हम पर हमला करता है।

अगली बात जो है बुद्ध की, बड़ी केंद्रीय, वो है 'दुख'। 'दुख' शब्द बुद्ध की भाषा में लगातार आता है। सच तो यह है कि बुद्ध की पूरी खोज दुख से ही शुरू होती है। दुख कहाँ है? बुद्ध के जो चार आर्य सत्य हैं, उनमें पहला है कि संसार दुख है। बुद्ध नहीं कह रहे हैं कि मैं भी दुखी हूँ। पर स्पष्ट है कि चारों तरफ़ दुख-ही-दुख व्याप्त है, दुख-ही-दुख व्याप्त है।

संसार दुख है। बुद्ध को स्पष्ट दिख रहा है कि संसार जैसा मुझे दिखायी पड़ता है वो दुख ही है। तो एक तरह से बुद्ध की जो पूरी तलाश है वो दुख से मुक्ति की तलाश है। बुद्ध की पूरी तलाश जो है वो दुख से मुक्ति की तलाश है। और बुद्ध यहाँ पर रुक नहीं जाते हैं कि संसार दुख है, वो उसका निदान ढूँढते हैं, समाधान भी ढूँढते हैं। डायग्नोसिस भी देते हैं, प्रोग्नोसिस भी देते हैं।

बुद्ध कहते हैं कि दुख का कारण हैं कामनाएँ, वासनाएँ, *डिज़ायर*। और कहते हैं कि डिज़ायर से मुक्ति ही दुख से मुक्ति है। और यहाँ पर भी रुक नहीं जाते हैं वो, कि सिद्धान्त रूप में बता दिया कि कामना से मुक्ति दुख से मुक्ति है। आगे जाते हैं बुद्ध और तरीक़ा भी देते हैं। कहते हैं, 'ये रहा मेरा अष्टांग मार्ग इस पर चलो और दुख से मुक्ति हो जाएगी।'

यह कोई संयोग नहीं है कि बुद्ध लगातार अपनेआप को एक चिकित्सक कहते थे, ''आई एम अ फिजिशियन' (मैं एक चिकित्सक हूँ)। बुद्ध अपनेआप को दार्शनिक नहीं कहते थे, धर्मवेत्ता भी नहीं कहते थे, शिक्षक भी नहीं कहते थे। कहते थे 'मैं चिकित्सक हूँ, मैं तुम्हारा इलाज करूँगा। मैं सिर्फ़ बता ही नहीं दूँगा कि क्या बीमारी है, मैं दवा भी दूँगा।' और यही कारण है कि बुद्ध इतनी बड़ी जनसंख्या को कुछ दे पाये, वरना नहीं दे पाते।

जानने वाले बहुत हैं पर समाधान भी दे सकें, ठीक भी कर दें, ऐसे कम होते हैं, ऐसे कम ही होते हैं। अब जब हमने ठीक करने की बात कर ही दी है तो एक और शब्द है जो बुद्ध के साथ ही अस्तित्व में आता है, पहले नहीं था, वो है 'उपाय'। बुद्ध एक कहानी सुनाते थे एक जलते हुए घर की। कहते थे कि एक घर जल रहा है — कहानी के कई रूप हैं, मैं एक रूप ले रहा हूँ उसमें से — कहते थे कि एक घर जल रहा है, उसमें कुछ बच्चे फॅंसे हुए हैं, बच्चों को नहीं पता चल पा रहा कि घर जल रहा है। और अगर उनको बताया जाएगा या कोशिश की जाएगी समझाने की तब तक आग इतनी भीषण हो जाएगी कि वो बाहर नहीं निकल पाएँगे।

तो बुद्ध बोलते थे कि मैं तो ये करूँगा कि बच्चों से कहूँगा कि बाहर मैंने तुम्हारे लिए बहुत सारे खिलौने रख दिये हैं। बच्चों से कहूँगा कि बाहर मैंने तुम्हारे लिए बहुत सारे खिलौने रख दिये हैं, चिल्लाकर कहूँगा। मैं बच्चों को नहीं समझा पाऊँगा कि आग क्या है और जलना क्या है। पर बच्चों को जैसे ही यह कहूँगा कि खिलौने हैं तो मेरा काम हो जाएगा, बच्चे अपनेआप ही बाहर आ जाएँगे। ये 'उपाय' है।

तो बुद्ध से पूछा पूछने वालों ने कि ये तो झूठ हुआ। बुद्ध ने कहा, 'झूठ नहीं है।' है झूठ ही।

वेदान्त एक बड़े सरल चित्त से निकला है, उस समय उपाय की कोई विशेष ज़रूरत थी नहीं। हम दर्शन उपनिषद् कर रहे थे उसमें भी जो दिया गया था वो थे मेथड्स ही, उपाय ही थे पर बड़े सीधे-सीधे उपाय थे। बुद्ध का समय आते-आते आदमी का मन कलुषित हो चुका था। वो सीधी-सीधी विधियाँ जो कभी काम कर जाती थीं, अब नहीं कर रही थीं। तो बुद्ध को नये उपाय खोजने पड़े और ऐसे उपाय जिनमें कुछ हद तक झूठ भी शामिल था।

और बुद्ध ने कहा, 'एक ऐसा मन जो गहराई से झूठ में घुस गया है, उसके साथ ऐसी विधियों का प्रयोग करना ही पड़ेगा जिनमें चतुराई शामिल हो।' इसीलिए बुद्ध ने सिर्फ़ उपाय नहीं कहा, बुद्ध ने कहा, 'उपाय कौशल्य'। 'उपाय कौशल्य', कौशल्य मतलब चतुराई। उन्होंने कहा, 'असली चिकित्सक वही है जो उपाय जानता हो और इतने चतुर उपाय बनाये कि वो काम भी कर जाए, इतने चतुर उपाय बनाये कि वो काम भी कर जाए।'

सिर्फ़ ज्ञान बघारना काफ़ी नहीं है, आपको टेक्नोलॉजी आनी चाहिए, कि अगर हज़ार लोग ख़तरे में हैं और वो नहीं ख़तरा समझ रहे तो आप कैसे उनको बाहर निकाल लो। अभी समय नहीं है उन्हें ज्ञान देने का क्योंकि ज्ञान की प्रक्रिया लंबी भी हो सकती है, सालों-साल लग सकते हैं और तुम्हारे मन में करुणा है, क्या तुम उन्हें जल जाने दोगे? क्या तुम उन्हें जल जाने दोगे?

तो बुद्ध के साथ एक नये युग का सूत्रपात होता है जिसमें उपाय की बड़ी महत्ता है। बुद्ध सच्चे अर्थों में पहले तांत्रिक हैं। तंत्र की जो पूरी परंपरा है, देखो, दो परंपराएँ होती हैं, जानने के दो ही तरीक़े हो सकते हैं या ये कहो कि दो ही अप्रोचेज़ हो सकती हैं। एक तो ये है, जैसे कृष्णमूर्ति कहते हैं, कि बस ध्यान दो और तुम जान जाओगे और जैसे ही जानोगे वैसे ही सब बदल जाएगा। यह सीधे-सीधे ज्ञान मार्ग है, यह ज्ञान मार्ग है। कि ध्यान में रहो और तुम?

श्रोता: जान जाओगे।

आचार्य प्रशांत: और जानना ही क्रांति है। तुम जाने नहीं कि क्रांति हो गयी। बस ध्यान दो और जान जाओगे। यह कृष्णमूर्ति का मार्ग है, यही वेदान्त का भी मार्ग है। कि बस जान जाओ और करना क्या है, जान जाओ। वेदान्त घोषणाओं पर घोषणाएँ करता रहता है, "तत्वमसि", "अहम् ब्रह्मास्मि", "अहमेविदं सर्वम्", ये सब डेक्लेरेशन्स (घोषणाएँ) हैं कि जान जाओ, मैंने जाना तुम भी जान जाओ। कैसे जान जाओ, यह नहीं बताता। वो इस बात पर निर्भर है कि तुम ख़ुद ही इतने शांत हो, इतने ध्यानस्थ हो, इतने सरल हो कि कोई इशारा भर करेगा और तुम?

श्रोता: समझ जाओ।

आचार्य प्रशांत: पर क्या आज का चित्त ऐसा है कि कोई इशारा भर करे और तुम समझ जाओ?

श्रोता: नहीं।

आचार्य प्रशांत: तो वेदान्त दूसरे आदमी द्वारा लिखा गया था और दूसरे आदमी के लिए लिखा गया था। वो आदमी आज कहीं दिखायी पड़ता नहीं है, वो आदमी आज है नहीं, कि जिसको तुम इशारा भर करो और वो सब समझ जाए। "नाहम् कालस्य" और वो समझ जाए कि समय का क्या सत्य है। वो आदमी आज कहीं है नहीं। "प्रज्ञानम् ब्रह्म" और हाॅं हो गया, आ गयी बात समझ में। नहीं समझ में आएगा।

वो आदमी बुद्ध के समय तक भी क़रीब-क़रीब लुप्त ही हो चुका था, इसी कारण बुद्ध को इतनी विधियाँ और इतने उपाय विकसित करने पड़े। बुद्ध ने स्वयं नहीं विकसित किये, पर बुद्ध हैं उसी परंपरा से। तो एक परंपरा तो हमने कहा ज्ञान की है, जो बड़े सरल चित्त के लिए है, बड़े सीधे आदमी के लिए है, उसको तुम बता दोगे और वो जान जाएगा। दूसरी परंपरा चलती है जो श्रमण परंपरा कहलाती है, यह अवधूतों की परंपरा है, ये इस बात को स्वीकार करती है कि चित्त सरल है ही नहीं। वो बड़ी ह्यूमिलिटी के साथ, बड़े विनय के साथ मानती है कि हम सरल नहीं हैं और वो कहती है कुछ करना पड़ेगा।

पहली परंपरा क्या कहती है कि बस जानना होगा, और दूसरी परंपरा कहती है कि कुछ करना होगा। यह अवधूतों की परंपरा है, ये सिद्धों की परंपरा है। फिर दत्तात्रेय हों, कि बुद्ध हों, कि महावीर हों, वो सब इसी से निकलते हैं। वो इसी से निकलते हैं। तंत्र का अर्थ ही है उपाय। तंत्र माने *टेक्नीक*।

तो बुद्ध इस अर्थ में, मैं कहूँगा, पहले तांत्रिक थे कि बुद्ध ने उपाय पर बड़ा ज़ोर दिया, उपाय होने ही चाहिए। और ख़ासतौर पर जो बोधिसत्व है, जो इस बात के प्रति बड़ा उत्सुक है कि दूसरों को भी वो उस पार ले जा सके, उसमें तो अगर उपाय कौशल्य नहीं है तो वो बोधिसत्व है ही नहीं। जो शिक्षक है, जो हम हैं, हममें उपाय कौशल्य होना ही चाहिए, थोथा ज्ञान किसी काम का नहीं है, थोथा ज्ञान किसी काम का नहीं।

ये है बुद्ध का समय। बुद्ध किन परिस्थितियों में आते हैं, यह बात समझ में आ रही है? स्पष्ट है? बुद्ध कहाँ पर खड़े हैं और जो कुछ कह रहे वो क्यों कह रहे हैं, यह बात स्पष्ट हो पा रही है?

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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