आचार्य प्रशांत: ग्यारहवीं-बारहवीं में था तो देखूँ, ’लड़के-लड़कियाँ साथ घूम रहे हैं, ये सब हो रहा है। तो एक था जानने वाला, वो एक लड़की के साथ खूब घुमा करे। हँसी-ठिठोली, उठना-बैठना, मोटरसाइकिल लिये था, उसपर लड़की को बिठाकर घुमाये, शाम को जाओ कहीं तो अपने दोनों खड़े होकर आइसक्रीम खा रहे हैं, ये सब और एक ही स्कूल। फिर एक दिन मैंने देखा कि ये अलग, वो अलग कोई बातचीत नहीं।‘ तो मैंने पूछा, मैंने कहा कि क्या हुआ? वो उधर है, तुम यहाँ क्या कर रहे हो?
तो बोला, ‘हमारा ब्रेकअप हो गया।‘
मैंने कहा, ‘ये क्या होता है?’
बोला, ‘हमने तय किया है कि अब हम अलग-अलग हो जाएँगे।‘
मुझे समझ में ही नहीं आयी बात, मुझे आज तक समझ नहीं आयी। ये ब्रेकअप होता क्या है? तुम्हें अगर प्रेम है तो क्या तुम तय करके किसी से दूर हो सकते हो? कर कैसे लोगे? ये तो बात तो आत्मा की होती है, ह्रदय की होती है, तुम तय थोड़े करोगे कि कल से इससे बात नहीं करनी है? क्योंकि हमारा ब्रेकअप हो गया है। ये क्या होता है? ब्रेकअप के बाद तुम अपनेआप को रोक कैसे लेते हो? अगर रोक लेते हो तो इसका मतलब कभी कुछ था नहीं।
कल शाम को दोनों ही एक ही आइसक्रीम चूस रहे थे, ऑरेंज। पहले वो, फिर (हाथ से इशारे में बता हुए) सुबह बोलते हो ब्रेकअप हो गया। कैसे?
साँस लेना छोड़ सकते हो तय करके? तो दोस्तियाँ कैसे तोड़ लेते हो तय करके? जो तय करके टूटी है दोस्ती, वो फिर तय करके हुई भी होगी। और तय करके जो होता है, वो तो स्वार्थवश ही होता है! कि चलो इससे ज़रा दोस्ती कर लेते हैं। पूरा गणित कर लिया, हिसाब-किताब लगा लिया, सब समीकरणों के अन्त में अब कुछ मुनाफा दिखायी दे रहा है, तो चलो अब क्या करते हैं? मित्रता। और फिर कुछ दिनों बाद पाया कि अब समीकरण नुक़सान दिखा रहा है तो कहा कि अब मित्रता तोड़ देते हैं।
‘दूधवाले भैया, कल से दूध मत लाना।‘ ‘कामवाली बाई, कल से तुम्हारा काम नहीं चाहिए।‘
ऐसे रिश्ते होते हैं हमारे, नफ़ा-नुक़सान। तभी तो तय करके तोड़ते हो और ये भी देखते हो कि इसने एडवान्स (अग्रिम) कितना ले रखा है? महीने भर का ले रखा हो तो तीस तारीख को ही बताएँगे, ‘कल से मत आना।‘ महीने की पगार तो पहले ही ले चुकी है, तो महीने भर का काम भी तो इससे निकलवाएँगे। फिर तीस को जब काम कर चुकी होगी तब बताएँगे, ‘कल से मत आना।‘ ब्रेकअप।
सब ऐसे ही रिश्ते हैं? ‘दूधवाले भैया और कामवाली बाई।‘ कह रही है, ‘मेरे मित्र अध्यात्म की बातें नहीं सुनते, मैं उनसे रिश्ता रखूँ कि नहीं रखूँ?’ श्वेता, आप सुनती हैं? आध्यात्मिक होती अगर आप वास्तव में, तो पहली बात आप ग़लत मित्र बनाती नहीं और दूसरी बात अगर मित्र असली बनाये होते तो उनसे रिश्ता तोड़ने का सवाल ही उठाती नहीं।
ग़लत मित्र बना लिये हैं, ये इसी से पता चल रहा है कि उनके सामने अध्यात्म की बातें करती है तो? वो इधर-उधर की बात करते हैं। आज भी वो आपकी ज़िन्दगी में मौजूद है। मुझे बताइए, ‘आप आध्यात्मिक हैं क्या?’ आप तो आध्यात्मिक हैं तो फिर ये मित्र किस तरह के बना रही हैं आप? आध्यात्मिक व्यक्ति का तो मित्र भी आध्यात्मिक ही होगा। आप कह रही हैं कि मेरे मित्र आध्यात्मिक नहीं हैं। थोड़ा आत्म-अवलोकन करिए, आपका अध्यात्म कितना गहरा पहुँचा है अभी।
आध्यात्मिक व्यक्ति के रिश्तों की दो बातें बताए देता हूँ, ठीक है? अच्छे से समझ लेना। आँख खुलने के बाद वो कोई व्यर्थ का रिश्ता बनाता नहीं और आँख खुलने से पहले के उनके जो रिश्ते होते हैं, उनको वो कचरा समझकर फेंक देता नहीं। क्योंकि आँख खुलने से पहले का सबसे आदिम रिश्ता तो ये शरीर ही है न!
जब तुम्हारी आँख नहीं भी खुली थी तो भी तुम किससे सम्बन्धित थे? शरीर से। अब तुम्हारी आँख खुल गयी है तो शरीर को भी फेंक दो न, शरीर को फेंक रहे हो क्या? शरीर को तो लिये-लिये घूम रहे हो, भले ही कहते हो कि अब हमें परमात्मा दिखने लगा, सत्य मिल गया। तो भी शरीर को लिये-लिये घूम रहे हो न! शरीर भी तो बहुत पुराना रिश्ता है, इसको फेंक क्यों नहीं देते? जब तुम शरीर को नहीं फेंकते तो इसी तरह आँख खुलने से पहले के जो अपने रिश्ते हैं, उन्हें फेंक मत दो। हाँ, उनको मन्दिर की दिशा में अग्रसर कर दो।
जब आँख खुल गयी तो तुम शरीर का क्या करते हो? वही शरीर जो पहले तुम्हें संगत-सोहबत देता था मयखाने जाने में, अब तुम उसी शरीर से कहते हो, ‘तू मेरे साथ-साथ चल मन्दिर की ओर।‘ यही काम जाग्रत, आध्यात्मिक व्यक्ति अपने अतीत के रिश्तों के साथ करता है।
वो कहता है, ‘पहले हम और तुम एक साथ जाते थे, मदिरालय। अब हम जग गये हैं, रिश्ता तुमसे नहीं तोड़ेंगे क्योंकि जब बेहोशी थी और अन्धेरा था तब एक दूसरे का हाथ थामे रहे, अब जाग्रति में तुम्हारा हाथ छोड़ दें, ये बात कुछ अमानवीय है। हाथ तुम्हारा नहीं छोड़ेंगे लेकिन एक बात पक्की है, पहले साथ-साथ जाते थे हम? मदिरालय। अब तेरा हाथ पकड़कर तुझे ले जाऊँगा? देवालय।‘ ये बात हुई, उन रिश्तों की जो जाग्रति से पहले के हैं।
और जाग्रति के बाद वो कोई बेहोशी का रिश्ता बनाता नहीं। जाग्रति से पहले के जितने रिश्ते होंगे, ज़ाहिर सी बात है, किसके होंगे? बेहोशी के होंगे। उन रिश्तों को वो क्या करता है? मन्दिर की ओर ले चलता है। बोलता है, ‘चलो, तुम्हारा हाथ तो नहीं छोड़ सकते, अधर्म हो जाएगा; कर्म किया है तो कर्मफल भुगतेंगे। लेकिन अब तेरा ये हाथ पकड़कर तुझे ले जाऊँगा मंदिर की ओर, चल मेरे साथ। मैं भी जाऊँगा, तू भी चल और अब जब आँख खुल गयी है तो नया रिश्ता जो भी बनाऊँगा, वो ख़रा बनाऊँगा, वो सच्चा होगा। वो किसी ऐसे के साथ ही बनाऊँगा, जो सुपात्र हो।‘
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